युवा कवि-संपादक-आलोचक गिरिराज किराडू ने मनोहर श्याम जोशी की 80 वीं जयंती के अवसर पर उनके उपन्यास पर गहरी सूझ भरा यह लेख लिखा है. हमारे आग्रह पर गिरिराज जोशी जी के उपन्यासों पर कुछ और लेख भी लिखेंगे. लेखक के आग्रह पर तस्वीर के साथ जीन सिम्मंस की तस्वीर ही दी जा रही है. साथ ही, कुछ अन्य विद्वानों के विचार हम जोशी की रचनाओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत करेंगे- जानकी पुल.
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हिंदी गद्य को, ख़ासकर उपन्यास को कायांतरित कर देने वाले हरफनमौला लेखक मनोहर श्याम जोशी आज होते तो उनका अस्सीवाँ बरस चल रहा होता. जोशी साहित्य के मर्मज्ञ और उनकी विरासत को सहेजने की लगातार कोशिश करने रहते वाले हिंदी के बेचैन और ज़मीनी कथाकार, मित्र प्रभात रंजन के आदेश पर जोशी जी के उपन्यासों पर यह सीरीज़ उनके मकबूल ब्लॉग जानकीपुल पर शाया हो रही है यह मेरे लिए खुशी की बात है. उम्मीद हैं जल्द ही ‘कुरु कुरु स्वाहा’, ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ और ‘हमज़ाद’ पर भी लिख पाउँगा. ‘हमज़ाद’ पर अंग्रेजी में लिखा भी था साहित्य अकादेमी के एक सेमीनार के लिए. उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं – लेखक.
‘कसप’ कहानी है आई.ए.एस. श्यामसुन्दर मिश्र की ब्याहता, पूर्व संसद सदस्या, ‘सत्तारूढ़ दल की करीबी लेकिन विचारों से वामपंथी’ मानी जाने वाली विदुषी मैत्रेयी की. उनके निंदक उन्हें उनके पति को ‘आततायी राज्य और पूंजीवाद के पैसे’ से ‘आधुनिकता और वामपंथ का नाटक खेलने वाले’ समझते हैं जबकि प्रशंसक ‘इस जोड़ी को उत्तर भारत में कलाओं के लिए वरदान स्वरुप समझते हैं’. इण्डिया टुडे में अपने आलोचकों का उत्तर देते हुए मैत्रेयी कहती है:
जी हाँ, मैं शास्त्रियों की बेटी हूँ. यह मेरे लिए कोई विशेष गर्व का विषय नहीं है किन्तु आलोचकों को प्रसन्न करने के लिए मैं इसे अपने लिए शर्म की बात मानने को तैयार नहीं. सुनते हैं इंसान बन्दर की औलाद है. क्या मेरे आलोचक यह चाहेंगे कि सारी इंसानियत इसलिए मारे शर्म के खुदकुशी कर ले? मुझमें इतना विवेक है कि उत्तराधिकार में पूर्वजों का विद्या प्रेम ही लूं, जातिगत अहंकार नहीं. मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि मेरे आलोचक परंपरागत कलाओं के प्रोत्साहन और संरक्षण के मेरे काम को ही नहीं, स्वयं इन कलाओं को भी कैसे सामंती ठहराते हैं. उदहारण के लिए मैंने शास्त्रीय संगीत और लोक-संगीत दोनों के संवर्धन में थोड़ा-बहुत योगदान किया है. क्या ये ‘सामंती’ हैं? या कि संगीतविहीन होना उनके लिए ‘प्रगतिशीलता’ की सबसे बड़ी कसौटी है? ‘लोग भूखे मर रहे हैं और ये देवीजी मल्हार अलाप रही हैं’ -नुमा फब्तियां कसनेवालों की बुद्धि पर मुझे तरस आता है और उनसे बहस करना मैं गैर-ज़रूरी समझती हूँ. ऐसी निरानंद ‘प्योरिटन’ प्रवृत्ति का मेरी दृष्टि में जनवाद या प्रगतिशीलता से कोई लेना देना नहीं हैं. इसका सम्बन्ध हो सकता है तो उस आक्रामक बर्बरता से जो अत्याचारी तानाशाही को जन्म देती है. जी हाँ, मैंने कहा है कि गरीबी से मेरे सौंदर्य बोध को ठेस पहुँचती है इसका अर्थ यह नहीं कि मैंने कहा है कि गरीबों को मार दो. मैंने निर्धन और दलित वर्गों के लिए जो काम किया है, ख़ासकर कुमाऊँ के गंगोलीहाट क्षेत्र में, क्या उसे मेरे आलोचक गरीबों को मारने का पर्याय मानते हैं? मैं उन में से नहीं जो गरीबी और गंवरपन को ही नियामत मानते हों. मुझे आश्चर्य होता है ऐसा मानने वाले भावुक, रोमानी, पैटि-बूर्ज्वा अपने को आधुनिक और क्रांतिकारी किस मुंह से कहते हैं! मैं अपने आलोचकों के स्तर पर नहीं उतरना चाहती किन्तु यह तथ्य है कि इन आत्मकेंद्रित, निम्न मध्यवर्गीय जीवों को आज आप किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय की फेलोशिप और अमेरिका का इकतरफा टिकट दिला दें ये रेवोल्यूशन की पोटली बांधकर खुशी से वहाँ चले जायेंगे. भ्रष्टाचार के जो आरोप इन्होने लगाये हैं वे पुराने हैं. जांच में बेबुनियाद सिद्ध हो चुके हैं. मुझे लगता है भारत का भद्र समाज घटियापन की बात इतनी ज्यादा इसलिए कर रहा है कि वह सुविधाजीवी है और भद्रता का बोझ उठाना नहीं चाहता.
लेकिन यह सब ‘कसप’ की मूल कथा नहीं है.
यह कथा के बाद की कहानी हैं, शब्दशः ‘उत्तर-कथा’ है.
उपन्यास की मूल कथा ‘मैत्रेयी’ की नहीं ‘बेबी’ की है, बेबी के मैत्रेयी में कायांतरण की है. कथा है तब की जब मैत्रेयी मैत्रेयी नहीं होती थी, किशोर अल्हड बेबी हुआ करती थी और ज्ञान से जिसकी आस्तित्विक असंगति थी.
यह कथा बेबी के पहले प्रेम की कथा है. उसकी असफल परिणति की कथा है.
असफल प्रेम बेबी को मैत्रेयी में कायांतरित कर देता है.
यह बचपने के वयस्कता में, रूमान के व्यावहारिकता में, प्रेम के विवाहसंस्था में, आदर्श के सांसारिक में, विद्रोह के सत्ता में, प्रेम (के सहज विवेक) के (किताबी) ज्ञान में, भदेस के भद्र में बदलने की कथा है.
यह बेबी के मरण और मैत्रयी के जन्म की कथा है.
यह मासूमियत के दमन की, अस्तित्व की ‘बेबी संभावना’ के दमन की, उसके ‘मैत्रेयी वास्तविकता’ में परिवर्तित होने की कथा है.
२
‘कसप’ कहानी है भारतीय मूल के फ्रांसीसी-अमेरिकी फिल्मनिर्देशक देवीदत्त की, जिसे फ्रांसीसी समीक्षक ‘द्विज देवीदत्त’ मानते हैं, ब्रिटिश समीक्षक ‘फिल्म में अपनी बिसात भर मन्त्र जाप करता और उबासी भरता एक प्राच्य मानस’ पर कुल मिलाकर पाश्चात्य समीक्षक जिसे ‘वामपंथी’ मानते हैं क्यूंकि ‘निर्धन और पिछड़े लोगों के विषय में बनाये गए उसके वृत्तचित्रनुमा कथाचित्रों में और कथाचित्रनुमा वृत्तचित्रों में अपार करुणा है’, जिसकी ‘कैलीफोर्निया के फलोद्यानों में काम करने वाले मजदूरों पर बनाई गयी छात्र फिल्म क्लैसिक’ मानी जाती है लेकिन जिसने ‘अस्सी के दशक में कलात्मक प्रयोगधर्मिता और विराट व्यावसायिकता का अपूर्व संगम’ हुआ तो तीन बड़ी मुनाफा कमाने वाली फिल्में बनायीं जिससे दिग्दर्शक के रूप में उसकी कहानी ‘साईट एंड साउंड’ या फिल्म क्वार्टरली से निकल कर ‘टाइम-न्यूजवीक’ तक पहुँची. देवीदत्त और उसकी फिल्मों को भारतीय फिल्म समारोहों में बुलाया जाता रहा है पर ‘न वे आये न उनकी फिल्में’ और जिन भारतीय समीक्षकों को उसकी फिल्में देखने का अवसर मिला है वे मानते हैं ‘इनमें ऐसा कुछ नहीं जो इतनी प्रशंसा की जाए’. और जो अंततः जार्ज लुकाच द्वारा खुद देवीदत्त की पटकथा पर ‘मनुष्यता’ और ‘शून्यता’ के साक्षात् पर वैज्ञानिक कथा फिल्म बनवाने के प्रस्ताव को टालकर ‘हिमालय की गोद में बसे किसी गाँव में रहने वाले एक अनाथ बच्चे की’ बहुत हद तक आत्मकथात्मक फिल्म हिंदी में बनाने की ठाने भारत आ जाता है लेकिन ‘भारतीय गरीबों के बारे में’, ‘सरकारी खर्चे से यानी भारतीय गरीबों की गाढ़ी कमाई से’. १९८१ में दिल्ली में एक ‘संवाददाता सम्मलेन’ में पत्रकार बिरादरी उसे ‘मिस्टर डट्टा’ कहकर बुला रही है, ‘भिगो भिगो कर मार रही है’ और देवीदत्त ‘क्रुद्ध-कम-उदास’ अधिक हुआ जा रहा है ख़ासकर एक लंबे दुबले ‘निर्धन घर’ का और ‘हिंदी वाला’ मालूम दे रहे, ‘जमा जमा कर नक्काशीदार अंग्रेजी बोल रहे’ एक लड़के के सवालों से जो देवीदत्त को अपना ‘युवा प्रतिरूप’ नज़र आ रहा है. लड़के और देवीदत्त के बीच हुआ संवाद:
“मिस्टर डट्टा मे आई वेंचर टू आस्क व्हाट प्रिटेंशन्स इफ अनी हैव यू गाट टू डेयर मेक ए फिल्म ऑन इंडिया एंड दैट टू इन हिंदी? ए मास्टर ऑफ एस्थेटिक एंड सोशोपोलिटिकल दैट यू आर, हैव यूं परचेंस कंफ्यूज्ड इंडियंस विद रेड इंडियंस?”
“मैं भारत और भारतियों पर फिल्म बनाने का अधिकारी कुछ तो इसलिए हो जाता हूँ कि अपने तो देवीदत्त ही कहता हूँ डेवीडट्टा नहीं. हिंदी में इसलिए बना रहा हूँ कि वह भारत की भाषा है और मैं हिंदी बोल-लिख लेता हूँ.”
“आप कैसी हिंदी बोल-लिख लेते हैं वह हम जानते हैं साहब. भारत में कुछ साक्षर भी बसते हैं. आपका लिखा हमनें पढ़ा है, आपकी बनाई कुछ फिल्में भी देखी हैं इसलिए हम पूछते हैं कि आप भारत आकर भारतीयों पर फिल्म बनाने की जुर्रत कैसे कर रहे हैं? आप भगौड़े हैं तिवाड़ीजी महाराज, आपकी समझ किताबी है, आपका सौंदर्यबोध अनुष्ठानी और कर्मकांड प्रिय है. आपका यहीं का ब्राह्मण होना पर्याप्त चिन्ताप्रद था, अब तो आप फ्रांसीसी अमेरिकी ब्राह्मण भी हैं भगवन! भारत पर आपसे फिल्म बनवाने से अच्छा है किसी लुई माल से बनवा ली जाये. उसकी फिल्म केवल भदेस होगी, आपकी भदेस ही नहीं भावुक और कमीनी भी. कमीनों की कला भी कमीनी होती है, यह तो आपसे छुपा नहीं?”
“आपसे निश्चय ही कुछ भी छुपा नहीं है. न मेरे बारे में, न मेरी प्रस्तावित फिल्म के. आप तो भविष्यवक्ता भी होंगे.”
“जी हां. इतना तो बता ही सकता हूँ कि जाग्रत भारतवासी आपके साहित्य और सिनेमा को शौच के बाद इस्तेमाल करने लायक भी नहीं समझेगा.”
“और आप उस भारतवासी को जगाने के लिए विदेश बसेंगे. मैं सर्वज्ञ नहीं लेकिन कमीने के लिए कमीनों को पहचान पाना मुश्किल नहीं होता.”
लेकिन यह सब ‘कसप’ की मूल कथा नहीं है.
यह कथा के बाद की कहानी हैं, शब्दशः ‘उत्तर-कथा’ है.
उपन्यास की मूल कथा ‘देवीदत्त’ की नहीं ‘डी. डी.’ की है, देवीदत्त के डी. डी. में कायांतरण की है. कथा है तब की जब देवीदत्त देवीदत्त नहीं होता था, गरीब और अनाथ डी. डी. हुआ करता था और समृद्धि से जिसकी आस्तित्विक असंगति थी.
यह कथा डी. डी. के पहले प्रेम की कथा है. उसकी असफल परिणति की कथा है.
असफल प्रेम डी. डी. को देवीदत्त में कायांतरित कर देता है.
यह अनाथ के आधुनिक में, रूमान के व्यावहारिकता में, आदर्श के सांसारिक में, जिज्ञासा के रहस्यवाद में, विद्रोह के करुणा में, प्रतिरोध के प्रयोगधर्मिता में, प्रगतिशीलता के एलीट में, मंडेन के दिव्य में, ‘हगने-मूतने’ के ‘आध्यात्मिक अतिनाटकीयता’ में, भारतीय के अमेरिकी-फ्रांसीसी में, स्थानीय के अंतर्राष्ट्रीय में, किशोर के ‘कमीने’ में, कला के ‘कमीनों की कला’ में बदलने की कथा है.
यह डी. डी. के मरण और देवीदत्त के जन्म की कथा है.
यह रूमानी विद्रोह के दमन की, अस्तित्व की ‘डी. डी. संभावना’ के दमन की, उसके ‘देवीदत्त वास्तविकता’ में परिवर्तित होने की कथा है.
३
‘कसप’ प्रेम की क्रांतिकारी भूमिका की असफलता की कथा है – बेबी और डी. डी. अंततः यथास्थितिवादी ही बनते हैं, अंततः वर्गीय और जातिगत के दायरे में ही अपने आत्म को पुनर्विन्यस्त करते हैं. लेकिन जहाँ बेबी का मैत्रेयी होना एक प्रतिशोध है डी. डी. के प्रति (इण्डिया टुडे के साक्षात्कार वह अवसरवादी पिलपिले प्रगतिशीलों को नहीं डी.डी. को ही लताड़ रही है) और हिंसा है अपने प्रति.
बेबी आत्म-हत्या करके मैत्रेयी बनती है.
डी.डी आत्म-पलायन करके देवीदत्त बनता है.
(मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों में अक्सर पुरुष जितने पिलपिले और पलायनवादी होते हैं वैसा ही है डी.डी. और स्त्रियाँ अक्सर जैसी तेजस्वी होती हैं वैसी ही है बेबी)
डी. डी. और बेबी की निजी असफलताओं में उनके समाज – ब्राह्मण – की अपनी असफलता भी प्रतिबिंबित है वह अपने रूपांतरण की दो रैडिकल संभावनाओं से वंचित है.
मनोहर श्याम जोशी की कॉमिक और धारदार शैली में आत्म-ग्रस्तता के लिए कोई जगह नहीं है. यह उपन्यास ब्राह्मण समाज की यथास्थितिवादिता के नाम, उसके अपने रैडिकल रूपांतरण की संभावनाओं को दमित करने के नाम कॉमिक के छद्म में एक शोकगीत है.
४
मनोहर श्याम जोशी ने मानक राष्ट्रीयतावादी हिन्दी में कभी पूरा उपन्यास नहीं लिखा, रेणु की तरह, और यह एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट को दी गई एक बहुत बड़ी सर्जनात्मक चुनौती थी. मनोहर श्याम जोशी अपना गुरु मानते थे हजारी प्रसाद द्विवेदी को जिनका एक बड़ा कारनामा यह भी था कि संस्कृत की हेजेमनिक पंडिताऊ परंपरा को भीतर से तोड़ते हुए जन साधारण के विवेक की एक दूसरी परंपरा को खोज निकाला. मनोहर श्याम जोशी ने ‘कसप’ में एक तरफ कथावाचक शैली को सब्वर्ट किया है तो दूसरी ओर उपन्यास की सरंचना सिनेमाई है, उनके लगभग सभी उपन्यासों की तरह. टुकड़ों में उनके दूसरे गुरु ऋत्विक घटक के सिनेमा की याद दिलाती हुई.
५
उपन्यास में बेबी और डी.डी. के बीच ‘एरोटिक’ संभावनाओं वाले दो दृश्य हैं:
१) बेबी और डी.डी दोनों साथ-साथ, एक दूसरे के सामने, खड़े-खड़े गणानाथ मंदिर के पास पहाड़ी पर ‘सू-सू’ करते हैं.
२) दोनों की आखिरी मुलाकात जिसमें अमेरिका जाने का निश्चय कर चुका दलिद्दर डी.डी. उसे दिल्ली रखकर घर जमाई बनाने को आतुर ‘नकचढ़े’ अमीर शास्त्रियों की अल्हड जिद्दी लड़की के आह्वान – ‘जो तू मेरा मरद है तो भोग लगा ले आ मेरा – को ‘हिस्टीरिया’ कहते हुए उसकी निर्वसन देह पर ‘चादर डाल कर’ चला जाता है.
“तुझसे प्यार है. मैं तुझे भोगूंगा पर तेरे इस हिस्टीरिया को नही.”
क्या बेबी के मैत्रेयी में डी.डी. के देवीदत्त में कायांतरित होने के [यानी उनके व्यक्तित्वों के उनको नामों की तरह संस्कृताईजेशन (= ब्राह्मणीकरण?) के] मूल में दैहिक एकत्व का, सम्भोग का यह स्थायी स्थगन है? मनोयौनिक पूर्णता का यह अभाव, इरोस का यह दमन, ही क्या उनके आत्म के क्रमश दमन और पलायन के लिए जिम्मेवार है?
क्या यही है जिसके कारण बेबी आत्म-हत्या करके मैत्रेयी बनती है और डी.डी आत्म-पलायन करके देवीदत्त बनता है?
(‘कसप’ के उतर कथन में खुद कथावाचक बहुत-सी मनोवैज्ञानिक व्याख्याएं डी.डी. और बेबी के व्यक्तित्वांतरण की, उसके बाद के उनके जीवन और काम की करता है – वैसे भी मनोविज्ञान मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों का भीतरी अस्तर, एक हद तक उसका निर्णायक सब-नैरेटिव है पर उस पर बाद की किश्तों में कभी)
६
डी. डी. बेबी से लेकर अपने सिनेमा तक में जीन सिम्मंस-नुमा कोई स्त्रीत्व ढूंढ रहा है. ‘इन्टेलेक्चुलता’ से ग्रस्त डी.डी. जब बेबी को जीन सिम्मंस कहता है तो वह उसे ‘घोड़े की जीन’ कहकर उसका मज़ाक उड़ाती है. कसप ‘जीन सिम्मंस-नुमा स्त्रीत्व’ के दमन की भी कथा है. जीन सिम्मंस (१९२९-२०१०)एक हॉलीवुड अभिनेत्री थी.
उसकी तस्वीर ही इस लेख के साथ एकमात्र तस्वीर है. स्त्रीत्व की उस सम्भावना के नाम एक ट्रिब्यूट के तौर पर.
कसप में मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि इस उपन्यास ने गुनाहों का देवता की कैमिस्ट्री को भंग कर दिया और प्रेम के रूमानी रंग को धरातल पर ला दिया. इस लिहाज से आशुतोष जी की टिप्पणी मुझे सटीक लगती है. मगर इसकी लिजलिजे नायक की कमीने कलाकार में बदलने की जो कथा है उसके रंग कुरतल-एन-हैदर के उपन्यास अहले-शब के हमसफर में क्रांतिकारी नायक के भ्रष्टाचारी राजनेता में बदलने के रूप में पहले भी नजर आये हैं…
अभी अभी "कसप" पढी और सोचा कुछ लिखूं उस पर…बेबी पर….मारगांठ पर या जीन सिम्मंस पर…
या जिलेम्बू पर…
कुछ भी अनदेखा नहीं किया जा सकता इस उपन्यास में..
आप के विचारों को पढना बहुत अच्छा लगा गिरिराज जी.
आभार
सादर
अनु
शीर्षक-सूत्र कसप को समझने का जो ढांचा पेश करता है , वह सुगठित ,तार्किक और अर्थपूर्ण है .लेकिन उपन्यास खुद ऐसा नहीं है .
मुझे वह प्रेम की सफलता/असफलता और कामना के स्थगन/दमन ( वह सब है सही उपन्यास में )की कहानी से ज़्यादा
प्रेम के उदात्तीकरण , महिमामंडन और रोमानीकरण को उसकी मिमिक्री,साहित्यिक -लेखापरीक्षा और भदेसीकरण से चूर चूर कर देने वाला उपन्यास जान पड़ता है .
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संजीवजी,
शुक्रिया. कमीने वाले पे आपसे सहमत. लिखते हुए ठिठका था.जो युवा पत्रकार डी. डी. को अपना युवा प्रतिरूप नज़र आता है, वह गुस्से में, एहसास-ए-कमतरी में और शायद अवचेतन में डी.डी.में अपना भविष्य का प्रतिरूप देखने में डी.डी.को कमीना और उसकी कला को को कमीनों की कला कह देता है. जिससे मैं सहमत नहीं. इसिलए कमीने और कमीनों की कला को इनवर्टेड में रख छोड़ा है. अधूरापन कुछ लिखने की इस फॉर्म की वजह से है और कुछ कम मेहनत करने के कारण. पर आपका फिर से शुक्रिया.
गिरिराज
’कसप’ कई बार पढ़ी है। उस नाते यह लेख पढ़ना अच्छा लगा। आगे के लेख का भी इंतजार रहेगा।
बने नहीं तो बन जाओगे, गुरु, अभी उमर ही क्या हुई है!अंग्रेजीदां हिंदीवाला किंवा हिन्दीदां अंग्रेजीवाला तुम सा और कौन है!
'कसप' पर यह कमाल का लेख है. थोडा अधूरा सा ज़रूर लगता है, पर उबाऊ और ठस्स किस्म के पूरेपन के मुकाबले यह कौंध वाला अधूरापन लाखगुना बेहतर है. प्रेम की क्रांतिकारी भूमिका की असफलता और बेबी-डी.डी. संभावना के मैत्रेयी-देवीदत्त वास्तविकता में बदलने का सूत्र बहुत दमदार है. पर २ में डी.डी. के देवीदत्त में रूपांतरण को चिन्हित करने के लिए जो कड़ियाँ गिनाई गयी हैं, उनसे इपंले को कहीं-कहीं दिक्कत है. 'कसप' को किशोर के 'कमीने' में और कला के 'कमीनों की कला' में बदलने की कथा कहना… डी.डी. की अपने बारे में जो राय है, उसे कुछ ज़्यादा ही महत्व देना है. कमीनगी में जो उन्माद होता है, वह अवसाद को पास फटकने नहीं देता, जबकि डी.डी. उस अवसाद का एक प्रारूपिक नमूना है जो अपने मन के साथ ठीक-ठीक संवाद कायम न कर पाने और संवाद के साधन की तलाश में मुसलसल भटकने वाले व्यक्ति की नियति होता है.
खैर! बहुत-बहुत साधुवाद! सभी लेखों का इंतज़ार रहेगा. 'हमजाद' पर अंग्रेजी में जो लिखा है, उसका हिंदी में तर्जुमा न हो पाए तो कम-से-कम अंग्रेजी वाला ही जानकीपुल पर उपलब्ध कराएं.
किराडू खुद समझ सकते हैं कि उन्होंने क्या लिखा है? जलेबी बना कर परोस भी दी।