आज विश्व पुस्तक मेला का अंतिम दिन है. इस बार बड़ी अजीब बात है कि हिंदी का बाजार बढ़ रहा है दूसरी तरफ बड़ी अजीब बात यह लगी कि इस बार किताबों को लेकर प्रयोग कम देखने में मिले. प्रयोग होते रहने चाहिए इससे भाषा का विस्तार होता है. लेकिन इस पुस्तक मेले में जिस किताब ने आइडिया के स्तर पर बहुत प्रभावित किया वह ‘बेदाद-ए-इश्क रुदाद-ए-शादी’, जिसका संपादन नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेय ने. आइडिया यह है कि कुछ ऐसे जोड़े जिन्होंने परिवार, समाज से विद्रोह करके प्रेम विवाह किया वे अपनी इस स्टोरी को, सुखान्त-दुखांत पहलू को यथार्थ कहानी की तरह लिखें, यथार्थवादी कहानी की तरह नहीं.
किताब में कुल 18 अफ़साने हैं. जो सबसे अच्छी बात है वह यह कि इन कहानियों के माध्यम से परिवार, समाज की उन बाधाओं के बार में भी फर्स्ट हैण्ड इन्फोर्मेशन मिलती है परम्पराओं के नाम पर जिनकी जकड में हमारा समाज न जाने कब से पड़ा है. हालाँकि, इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि नव उदारवाद के दौर के विस्थापन के बाद के दौर में प्रेम विवाह अब बहुत आम हो गए हैं, बिहार, हरियाणा के पारंपरिक समझे जाने वाले समाजों में भी लड़के-लड़कियां बाहर पढने जाते हैं, काम करने के लिए जाते हैं, उनका प्यार होता है, विवाह होता है- यह अब पहले की तरह सनसनीखेज नहीं रह गया है. लेकिन फिर भी हर प्रेम अद्वितीय होता है, हर विवाह ख़ास होता है.
पुस्तक में मुझे सबसे प्रेरक कहानी लगी प्रीति मोंगा की. दृष्टिहीन होने के बावजूद अपने सपनों के प्यार को पाने के लिए जिस तरह से संघर्ष किया वह दाद के काबिल है. इस पुस्तक की सारी कहानियों में वह सबसे अलग तरह की है. किताब में सुमन केशरी की कहानी पहली है. वह और पुरुषोत्तम अग्रवाल हिंदी एक सबसे सेलेब्रेटेड कपल हैं. पुरुषोत्तम जी और सुमन जी को आप कहीं भी देखें दोनों को देखकर ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं. सुमन जी की कहानी को पढ़कर लगता है कि पुरुषोत्तम जी का प्यार ही है जिसने उनको समाज, परिवार की तमाम बाधाओं से बेपरवाह कर दिया.
लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मुझे विभावरी की कहानी सबसे यादगार लगी. हर प्रेम कहानी उनके लिए तो यादगार होती ही हैं जो उसे जीते हैं लेकिन कुछ प्रेम कहानियां ऐसी होती हैं जो पढने सुनने वालों के लिए भी यादगार बन जाती है. दो विपरीत पृष्ठभूमियों के प्रेमी, समाज के दो अलग-अलग तबकों के लोग जब प्यार में एक हो जाते हैं तो यह विश्वास प्रबल हो जाता है कि हमारे समाज में जात-पांत के बंधन बहुत दिन तक रहने वाले नहीं हैं.
पुस्तक में हर कहानी में कुछ अलग है, कुछ अलग तरह का संघर्ष है, अलग तरह की परेशानियों की गाथा है लेकिन एक बात सामान्य है कि प्यार अंततः सारी बाधाओं को परस्त कर देता है. देवयानी भारद्वाज, प्रज्ञा, नवीन रमण, विजेंद्र चौहान, रूपा सिंह, सुजाता, अशोक कुमार पाण्डेय की कहानियों को पढ़ते हुए अलग अलग दौर, अलग अलग समाजों, अलग अलग पृष्ठभूमियों की परम्पराओं के बारे में पता चलता रहा. लेकिन यह विश्वास भी प्रबल हुआ कि अंत में जीत प्यार की ही होती है.
हालाँकि अंत में एक सवाल इस पुस्तक के सभी प्रेमियों से कि क्या विवाह प्रेम का ट्रॉफी होता है?
पुस्तक का प्रकाशन दखल प्रकाशन ने किया है. संपर्क- 9818656053
मेरे ख़याल से मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में विवाह, प्रेम की ट्रॉफी नहीं बल्कि बदलाव का एक औज़ार है| चूँकि जाति और धर्मवादी पितृ सत्तात्मक समाज यथास्थिति को बनाए रखने के लिए 'विवाह' को उपकरण के तौर पर उपयोग में लाता है तो इस संस्था की संरचना में बदलाव से शुरुआत करनी होगी! विवाह के बाद भी दुश्वारियां कम नहीं होतीं प्रेम-विवाहों की! कई बार बढ़ जाती हैं…फिर भी एक बेहतर समाज की शुरुआत उसके भीतर बदलाव ला कर भी की जानी चाहिए और प्रेम-विवाह इसका एक माध्यम भर है|
मैं पुरुषोत्तम सर की डिमाण्ड से सहमत हूँ प्रभात जी…हमलोग प्रतीक्षा में हैं…
बहुत शुक्रिया प्रभात जी! 🙂
सर, धन्यवाद. यह टिप्पणी किताब पर थी. इसकी कहानियों और उसके शिल्प को लेकर विस्तार से लिखूंगा.
आइडिया के स्तर पर प्रभावित किया तो तनी विस्तार से लिखा जाए जी।
प्रीतिजी की कहानी सचमुच मार्मिक है। उसे और तफसील से पढ़ने का मन है।
न तो प्रेम करना आसान है और न ही प्रेम विवाह। प्रेम विवाह अपने प्रेम पर सामाजिक स्वीकृति की मुहर लगवाने की कवायद है। आने वाली संतति के सम्मान के लिए यह आवश्यक भी है।
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