वरिष्ठ लेखिका जया जादवानी का उपन्यास ‘देह कुठरिया’ प्रकाशित होने वाला है। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का एक अंश पढ़िए-
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‘ओशो कम्यून’ से वापस आ गया है वह। फ़िर वही रुटीन।
कुछ हफ़्ते ही गुज़रे होंगे कि एक दिन सुबह-सवेरे वह भैंस का दूध दुह रहा था, बाल्टी उसकी दोनों टांगों के बीच फंसी थी और दूध की धार उसमें गिर रही थी कि डैडी आए और उसे सूचना सी दी…
‘निकी का जबरदस्त एक्सीडेंट हो गया है। कहते हैं उसका चेहरा बहुत ख़राब हो गया है। एमएमआई हॉस्पिटल में एडमिट है और सीरियस है।’
बाल्टी उसकी टांगों के बीच से फिसली और पलट गई। पूरा दूध फ़ैल रहा है। काले पत्थरों पर सफ़ेद दूध, और वह धम्म से वहीँ बैठ जाता है। रोने लगता है। डैडी हतप्रभ उसे देख रहे हैं… उन्हें कुछ समझ नहीं आया पर वे आए, उसे उठाया और बाहर ले गए…
‘क्या हुआ?’
‘डैडी प्लीज़,मुझे हॉस्पिटल जाना है। आप संभाल लेना। मैं अभी आता हूँ…’
और बगैर उनकी ओर देखे वह तीर की तरह बाहर भागा। बाहर निकल विनोद को फ़ोन किया…
‘निकी का एक्सीडेंट हुआ है। हॉस्पिटल जाना है। मुझे बाइक चाहिए।’ भर्राई आवाज़ में कहा।
विनोद ने हमेशा की तरह उसकी बात काटी…
‘हाँ मुझे पता है। मैं अमित के साथ हॉस्पिटल में हूँ। तू कल सुबह आना।’
‘भाई, निकी मेरा प्यार है और तू मुझे कह रहा है कि कल आना।’ उसके तन-बदन में आग लग गई और उसने गुस्से में फ़ोन काट दिया फ़िर अपने दोस्त डी। डी। को कॉल किया…
‘डीडी, तू अपने जीजाजी को देखने चलेगा मेरे साथ?’
‘क्या हुआ निकी को?’ डी डी भी घबरा गया।
‘एक्सीडेंट…’
‘अच्छा? अभी आया। तू गली के बाहर आ जा।’
डी डी आया, वह गली के बाहर ही खड़ा था, मोटर सायकल स्लो हुई ही कि वह कूद कर चढ़ गया और वेनिकी को देखने पहुंचे। वह इतना बदहवास था कि कुछ सोच नहीं पा रहा था। निकी को बहुत चोटें आईं थीं, उसका पूरा चेहरा ख़राब हो गया था और डाक्टर्स की टीम का कहना था, सेवेंटी टू आवर्स के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। उसके भीतर कोई ज़ार-ज़ार रो रहा है। वह समझ गया उसी की बद्दुआओं ने अपना काम किया है। ऐसा हमेशा ही होता है। उसने जब-जब किसी को कुछ कहा है, सच हुआ है… मुझसे ये शक्ति छीन ले प्रभु। मैं इस लायक नहीं हूँ। वह बार-बार ईश्वर से क्षमा मांगता रहा।
‘तू जा…’ उसने डीडी से कहा…
‘जब तक निकी को होश नहीं आता, मैं यहीं रहूँगा।’
डीडी ने बहुत समझाने की कोशिश की। नहीं माना तो वह चला गया।
आख़िर सेवेंटी टू आवर्स के पहले निकी को होश आ गया। उसकी दुआ कुबूल हो गई।
दो दिन के बाद वह घर गया। नहाया-धोया, कपड़े बदले और ऐलान किया कि जब तक निकी हॉस्पिटल में है, दुकान नहीं जाएगा। वह उसकी सेवा करना चाहता है।
विनोद को जब यह बात पता लगी तो वह भड़क गया कि दुकान में कौन बैठेगा? अभी तक वह भाई का ग़ुलाम ही था, वह जहाँ कहे, जैसे कहे, जो कहे, करता था। पर अब वह अपने मन की करना चाहता था। प्रायश्चित करना चाहता था अपने पापों का। निकी के पास रहना चाहता था। उसके सिरहाने बैठ उसे देखते रहना चाहता था। वह उसका ‘मैन’ था, उसका आदमी।
विनोद बहुत भला-बुरा कहता रहा। कुछ देर तो वह चुपचाप सुनता रहा फ़िर ‘जब तक निकी डिस्चार्ज नहीं होता, मैं दुकान नहीं जाऊँगा। यह मेरा अंतिम फैसला है।’ उसने गुस्से से कहा और वहां से निकल आया।
उसे अपने कृष्ण के लिए राधा बनना है। कितना तड़फ़ी है वह इस दिन के लिए जब निकी उसके सामने होगा और वह उसे छू सकेगी? ओह, निकी, मैं तुम्हारी देह से हर दर्द दूर कर दूँगी। मेरा ईश्वर इतना क्रूर नहीं है। वह तुम्हें मेरे पास लाया है। तू मुझसे दूर चला गया था न, अब वापस आया है मुझे प्रेम करने। मेरे प्रेम का जवाब देने। दूर होने का दर्द क्या है, इसे तूभी अच्छी तरह जान गया है… मुझे तुझसे कुछ नहीं चाहिए मेरी जान, बस तू ठीक हो जा। मैं तेरे जीवन से खुद चली जाऊँगी।
वह रोज़ सुबह हॉस्पिटल पहुँच जाता। उसके साथ रहता। उसके सारे काम करता। उसके घरवालों को भी बहुत राहत मिली। शुरू-शुरू में वह उसे देखकर मुंह फ़ेर लेता। जब हम किसी को अपना सब-कुछ दे देना चाहते हैं न तो वह उतना ही हमसे दूर हटता है, मानो उसे डर हो कि अपना अस्तित्व न खो दे। कई बार वह हमें छूता तक नहीं और हम उसके सामने खाने की प्लेट से रखे ठंडे होते रहते हैं। पर धीरे-धीरे वह पिघल गया और उसकी बातों का जवाब देने लगा। ‘देवभोग’ रेस्टारेंट में सुबह-सुबह इडली बनती थी। वह रोज़ सुबह नाश्ते में उसके लिए इडली लेकर जाता था, सफ़ेद चटनी-सांभर के साथ और अपने हाथ से उसे खिलाता था। उसकी स्पंजिंग करता। उसे सुसु कराता। बहुत धीरे-धीरे छूता है उसे… जैसे कोई ब्रेल पढ़ता है। एक ही भाषा बोलता है इसका और मेरा जिस्म फ़िर भी हम चूक गए समझने में। अब तुझसे कुछ नहीं मागूंगा… तू है… तू रह… हमेशा… मुझे जितना सुख मिला है तेरी सेवा करके… बहुत है। भीतर अपराध बोध कम हो रहा है। वह उसे छू रहा है। उसे महसूस कर रहा है… उँगलियाँ काँप जाती हैं उसे छूते ही… जी करता है उसी में गिरकर खो जाए पर नहीं, दुनिया दीवानगी से नहीं अभिनय से चलती है। वह होने का अभिनय करो जो तुम नहीं हो।
कभी-कभी निकी इडली खा-खाकर बोर हो जाता तो कहता…
‘आज पित्ज़ा खाने का मन है…’
वह उसके लिए पित्ज़ा ले आता। सब जानते हैं कि वह निकी से प्रेम करता है। एक अघोषित शांति थी मानो सबने उसे स्वीकार कर लिया हो। निकी बाईस दिन हॉस्पिटल में रहा और बाईस दिन वह उसके साथ दिन भर रहा। बस रात में उसे रहने की परमीशन नहीं थी। रात को उसका भाई अमित आ जाता था। सुबह हॉस्पीटल आते वक्त उसके पैर नाचते। उसकी दुआएं कुबूल हो गई हैं पर जब निकी डिस्चार्ज होकर घर चला जाएगा तब क्या होगा? वह खुद को समझाता कि राधा को कृष्ण सिर्फ़ कुछ वक्त के लिए मिला है। जिस दिन उसका डिस्चार्ज होगा, वह उसे मुक्त कर देगा, अपनी ख्वाहिशों से, अपनी चाहतों से, अपने क़र्ज़ से। फ़िर वह कभी उसे पाने की कोशिश नहीं करेगा।
एक दिन सुबह जब वह हॉस्पिटल पहुंचा तो पता चला, निकी डिस्चार्ज हो गया, कहीं चला भी गया। उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वह वहीँ खड़ा का खड़ा रह गया। किसी ने उसे बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी, न अमित भैया ने, न निकी ने?
बाद में पता चला पिछले दो-तीन सालों से निकी स्टेशन के कुछ ग़लत लड़कों की संगत में फंस गया था और जल्दी पैसे कमाने के चक्कर में कुछ सट्टा-वट्टा भी खेलने लगा था। कुछ नंबर दो के काम भी करने लगा था और मार्केट का क़र्ज़ भी उस पर बहुत था। उसने देखा भी था कि हॉस्पिटल में उससे मिलने कुछ मुसदंडे टाइप के लोग भी आते थे, ये सब उसके लेनदार थे।
निकी हॉस्पिटल सेडिस्चार्ज नहीं फ़रार हुआ था और जानबूझकर किसी को नहीं बताया गया।फ़िर वह काफ़ी वक्त फ़रार ही रहा। उसे लगा, अब वह कभी नहीं लौटेगा पर उसके प्रेम का क़र्ज़?
और काफ़ी वक्त बीतने के बाद…
होली की एक रात पहले निकी का कॉल आता है…
’रवि, मैं निकी बोल रहा हूँ…’
‘कौन?’ उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ।
‘निकी बोल रहा हूँ। पुलिस से बचने के लिए फरारी काट रहा हूँ। किसी को पता नहीं है, बस मां को फ़ोन करता हूँ। अमित भैया को मालूम है और आज तुझे बता रहा हूँ। किसी को बताना मत। पकड़े जाने का डर है। मैं यहाँ ‘होटल ग्रैंड’में रुका हुआ हूँ, तू मिल सकता हो तो बताना।’ और फ़ोन काट दिया।
उसने उसे तुरंत मैसेज किया कि मैं आ रहा हूँ। दो साल से गायब लड़का आज लौटा है। क्यों? मेरे लिए। उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे… उसने मुझे कॉल किया। उसे एहसास हुआ होगा कि उसने मेरे प्यार को ठुकरा कर ग़लती की है। वह मेरी तड़फ समझ सकता है, मेरी पीड़ा समझ सकता है, तभी तो बुलाया है और वह दीवानावार तैयार होकर भागा…
उसने रूम का दरवाज़ा खोला और दोनों कई क्षण एक-दूसरे को देखते रहे। वह एक टॉवेल में है, अभी-अभी नहाकर निकला है। उसके चेहरे पर स्वागत वाली मुस्कान आ गई। दोनों ने हाथ मिलाया। उसका चेहरा बहुत बिगड़ गया है। उसकी एक आँख उसे देखती है, दूसरी कहीं और। उसकी एक भौंह भी उड़ चुकी है। उसका चेहरा एक तरफ़ को खिंचा हुआ है। वह बहुत भयानक दिख रहा है पर उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसने उसके चेहरे से प्यार नहीं किया है। वह उसके लिए अब भी उतना ही खूबसूरत है। उसने उसे अपनी आँखों में भर लिया। निकी को देखते ही उसके भीतर कुछ जग गया है। वह एक सोफ़ा चेयर पर बैठ गया।
निकीने फ़ोन करके दो बियर मंगवाई…
‘निकी… तू तो नहीं पीता था…’ उसने आश्चर्य से कहा।
‘आज तेरे साथ पियूँगा।।’ उसने मुस्करा कर कहा। दोनों ने गिलास टकराए और अब बियर पी रहे हैं। कमरे में साइलेंट टी।वी। चल रहा है। वे चुप है। पर भीतर एक वार्तालाप चल रहा है…
‘कहाँ रहा इतने महीने?’
‘मत पूछ, नहीं बता पाऊंगा।’
‘चल नहीं पूछता। अब घर लौट आ। अपनी मां के लिए लौट आ। तुझे सब माफ़ कर देंगे।’
‘छोड़ न, सब माफ़ कर भी दें तो क्या हम खुद को माफ़ कर पाते हैं?’
‘प्यार करता है मुझसे?’
‘तुझे क्या लगता है?’
‘कभी लगता है करता है। कभी लगता है, नहीं करता। बस साथ निभा रहा है। निभा मत। मुझे अपने लिए तरस नहीं चाहिए। ये मेरे जीवन में पहले ही बहुत है। तुझे पता है आज तुझे देखकर मैं कितना खुश हूँ। जी करता है तुझे बांहों में भरकर नाचूं… गाऊं… आह! यह जीवन इतना खूबसूरत कभी नहीं लगा था। क्या तू मेरे लिए आया है? न भी आया हो पर बुलाया तो है, यह क्या छोटी बात है?’
वे कभी-कभी एक-दूसरे को देख लेते और मुस्करा देते। रवि की मुस्कान में राहत है, निकी से मिल लेने की राहत। निकी की मुस्कान आहत है, सब कुछ छूट जाने से आहत।
‘चल बाहर, तुझे नॉनवेज़ खिलाता हूँ…’ बियर ख़तम हुई तो निकी ने कहा।
‘पर तू तो वेजीटेरियन है। तुझसे तो गंध भी बर्दाश्त नहीं होती। मुझसे दूर हटकर बैठ जाता था।’
‘तू खाना। मैं तुझे देखूंगा…’ उसने प्यार से कहा। उसके भीतर कुछ लरज़ रहा है। भीतर के काले पानियों में लहरें उठ रही हैं। हाय! ये लहरें इस तरह पहले कभी नहीं उठीं। मन की नाव पर तन हिचकोले खा रहा है… यह पल और कितना विराट हो सकता है? इस पल की डोरी कसकर पकड़े रहूँ… रोक लूँ यहीं।
दोनों एक ढाबे में गए। वह स्कूटी चला रहा है और निकी पीछे बैठा है। निकी ने उसे नॉनवेज़ खिलाया और खुद बड़े ध्यान से उसे खाते हुए देख रहा है। उसने दाल के साथ एक चपाती खाई बस। उसने गौर किया कि वह दुबला हो गया है… दुबला और काला… न जाने कहाँ-कहाँ धक्के खाए होंगे। पूछना चाहता है पर कहीं उसे आहत न कर दे, इस डर से कुछ पूछता नहीं। खाना ख़त्म हुआ।
वे वापस होटल आए… उसी कमरे में।सोफ़ा चेयर पर बैठकर उसने …
निकी बाथरूम जाकर अपना बॉक्सर पहन कर आ चुका है और बिस्तर पर अधलेटा उसकी तरफ़ देख रहा है…
अब क्या जाने की घड़ी आ गई है… उसका दिल डूबने लगा। फ़िर कब? पता नहीं।
‘निकी, अब मैं जाऊं?’ उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई।
‘बैठ न थोड़ी देर। चले जाना। इधर आ…’ उसने अपना हाथ बढ़ा दिया।
जब प्रेम तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है तब भी तुम घबरा जाते हो कि कैसे सामना करोगे उसका? उसका दिल धड़क रहा था, इतनी तपस्या के बाद उसका आराध्य उसके सामने है… ‘इधर आ…’ ओह, क्या इससे सुंदर भी कोई लफ्ज़ हो सकता है? भीतर इतनी ऊँची लहर उठी कि उसकी देह कांपने लगी… वह कसकर थामना चाहता है पर उसका वश नहीं चल रहा…
‘मैं जानता हूँ, तू मेरे लिए बहुत भटका है… बहुत तड़फा है। कभी लगता था, ये ग़लत है पर अब सही-ग़लत सब गड्ड-मड्ड हो गया है। क्या मैंने जो किया वो सही था? चल सब भुला देते हैं, मैं तेरे लिए ही आया हूँ। जिस प्यार पर तेरा हक़ है, उससे तुझे कैसे दूर करूँ?’
पलंग पर अधलेटे निकी की आवाज़ उसे कहीं दूर से आती लग रही थी। अकेलेपन की खोह से आती अकेली आवाज़… जिसका रिश्ता न माज़ी से है न मुस्तकबिल से। उस क्षण उसने महसूस किया आवाज़ की देह हमारी देह से कितनी अलग होती है… वायवीय… उसका रिश्ता हमारी देह से उतना नहीं होता, जितना आत्मा से होता है। जितना आत्मा से फूटती इच्छाओं की कोंपल से होता है… उसकी आत्मा की उस पुकार ने उसके सारे संशय, सारे दुःख हर लिए।
उसके कामदेव ने उसे पहली बार पुकारा है। सिगरेट बुझा कर वह उठा… दो ही डग में सारी धरती नाप उसके निकट आया और उसकी जांघ पर सिर रखकर लेट गया… आह! यह सुख है। किसी लपट की तरह भीतर से उठता और फ़ैल जाता… उसकी पूरी देह किसी सितार की मानिंद बज रही है… निकी का चेहरा उसके चेहरे पर झुका और दो चेहरे एक हो गए… उनके कानों में कामनाओं की सनसनाहट है… भीतर देह की दैहिकता से दहक उठने की ख्वाहिश… उसके शरीर की वह घनी, मादक और रहस्यमय गंध उसे पागल बना रही है। यही तो है वह, जिसके लिए इतना तरसा है। निकी ने उसे अपने भीतर जगह दे दी और वह उस समंदर में उतर गया जिसकी उत्ताल लहरें उन्हें अपनी जगह खडा भी नहीं रहने देतीं। अब वे उन पागल लहरों के मिज़ाज पर हैं… उठते-गिरते… एक-दूसरे को पकड़ने-संभालने की कोशिश में बार-बार पलटते। लहरों की भी तो एक यात्रा होती है… बहुत दूर से आती हैं… किनारे पर अपना सिर पटकने… ये अपना-आप भी तो एक बोझ है, जिसे हम लिए-लिए घूमते हैं… खुदाया! कोई आए… हमें हमसे ले ले और सुर्खरू कर दे… वे जिस्म की यात्रा पर निकल पड़े हैं… क्या पता किनारा कहाँ होगा, अभी तो वे लहरों की गिरफ़्त में हैं…
यह पुलकन.. यह आल्हाद! काश! इसे कोई शब्द दिया जा सकता है? अनिवर्चनीय आनंदातिरेक का यह क्षण… कुछ है, जो तुमसे बाहर है… कुछ है, जो तुम्हारे भीतर है… और तुम… जानेतुम कहाँ हो… और हो भी कि नहीं?
पहला प्रेम मन की घाटियों में शहनाई की गूंज सा बजता रहता है। ऊपर से कारें चलती हैं, ट्रकें आती-जाती हैं… पुल थरथराता है… भीतर गूंज अनहद बनी रहती है। अनंत से आती शहनाई की गूंज और दिगंत तक फैला आदिम नृत्य…
एक जिस्म ही दूसरे जिस्म की पनाहगाह है। उस क्षण रूह से संबंध इतना कच्चा जान पड़ता है कि एक हल्के से झटके से ही टूट जाता है। कुछ होश ही नहीं कि उन लहरों ने उन्हें कितना मथा… जब उनकी सांस में सांस आई तो उन्होंने पाया वे किनारे पर निढाल पड़े हैं।
क्या सारी आकांक्षाएं आदिम होती हैं?
‘रवि…’ निकी ने उसे पुकारा… वह अपनी देह में नहीं था… वह तो उसी के भीतर था। उसकी सांस के साथ बाहर और भीतर होता…
‘रवि, तुझे घर नहीं जाना?’ निकी से उसे हिलाया।
रवि ने आँखें खोल उसे देखा…
‘आज हमारी सुहागरात है और तू मुझे घर भेजेगा?’
निकी ने उसे फ़िर अपनी बांहों में भर लिया।
‘अभी तक मैं वर्जिन थी। आज सुहागन हुई हूँ…’ उसने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा।
सुनकर निकी की आँखें भर आईं। उसे अपनी मजबूत बाहों में भर उसका सिर अपने सीने में भींच लिया…
‘इतना प्यार मुझे कभी किसी ने नहीं किया रवि। सॉरी, मैंने जो कुछ भी किया तेरे साथ…’
‘नहीं निकी, बल्कि थैंक यू। थैंक यू फॉर गिविंग मी एव्हरीथिंग माय डार्लिंग, बहुत ज़्यादा दे दिया तूने मुझे। आज तूने मुझे हर गिल्ट से मुक्त कर दिया। मैं जानता हूँ, तू मेरे ही लिए लौटा है। अच्छा एक बात कहूँ, मानेगा? तू पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दे यार। कुछ दिन जेल में रह जाना। तेरी सज़ा कम करवाने की पूरी कोशिश की जाएगी। इधर मैं भी पूरा ज़ोर लगा दूंगा। उधर अमित भैया तो हैं ही। तू छूट जाएगा फ़िर एक बढ़िया सी लड़की देखूंगा तेरे लिए, तू शादी कर लेना। तुझे गोरे-चिट्टे बच्चे पैदा होंगे। मुझे चाचा कहेंगे पर ईश्वर जानता है तेरा-मेरा संबंध क्या है? आज तूने मुझे जो दिया है, मैं उसी में खुश हूँ। जानता हूँ, राधा बनना ही मेरी नियति है, रुकमनी तो कोई और होगी। निकी, तू सुन रहा है न मैं क्या कह रहा हूँ?’
‘इस पर बाद में सोचते हैं न, आज हमारी सुहागरात है।’ निकी ने प्यार से उसकी आँखों में देखा।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, वह बात नहीं मानेगा। उसे छोड़ दे उसकी मर्ज़ी पर।
‘निकी, आय लव यू डार्लिंग। इतना प्यार मैं कभी किसी से नहीं कर पाऊंगा।’ वह फिर निकी के सीने में दुबक गया।
‘अब तू जा। हम फ़िर मिलेंगे। तेरे जाने के घंटे भर बाद मैं भी निकल जाऊँगा।’ उसने उसके गाल थपथपाए।
‘फ़िर मिलेगा न?’ उसकी आवाज़ कांप गई। ये लो, जाने की घड़ी आ गई।
वह नहीं लौटना चाहता पर लौटना पड़ेगा। ज्वार आता है तो लगता है समंदर का सच यही है पर वह पल गुज़र जाता है फ़िर भाटा आता है और जो समंदर उफ़ान मारता था, अब किनारे पर सिसकारियां भरता है और दोनों ही सच हैं… अलग-अलग वक्तों का सच। तुम एक को नहीं चुन सकते।
वह निकी के सामने खड़ा है। भाटे का वक्त है…
‘करेगा तू अपने मन की, मैं जानता हूँ पर मेरी जब भी ज़रूरत हो, मुझे फ़ोन करना और ज़रूरत न भी हो तब भी फ़ोन करना। मुझे तेरी फ़ोन की ज़रूरत हमेशा रहेगी।’ कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई।
‘लड़कियों की तरह क्यों रो हो रहा है?’ निकी ने उसे छेड़ा।
‘क्योंकि मैं एक लड़की ही तो हूँ। देखा नहीं अभी तूने?’
निकी ने उसे एक बार फ़िर कसकर अपने गले लगा लिया।
यह बहुत बाद की बात है। वह फरारी ही काट रहा था। कभी जम्मू चला जाता, कभी राजस्थान, कभी पूना। इस फरारी के दौरान वह दो बार और मिला उससे। एक बार उसे कमरा किराए पर नहीं मिल रहा था, उसने रवि से कहा साथ चलने को, वह गया। कमरा मिल गया। फ़िर एक दिन अचानक रवि को पता चला उसने आत्महत्या कर ली फांसी लगाकर। शायद वह समझ गया था कि कभी वापस नहीं लौट पाएगा। उसने आगे की राह पकड़ ली। रवि एक बार फ़िर टूटा… टूट कर गिरा… घिसटता रहा बड़ी दूर तक… एक बार फ़िर उठा… चलने की कोशिश करने लगा।
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