दीवाली से छठ तक बिहार में आज भी एक उत्सव का माहौल बना रहता है. साल भर लोग इन्तजार करते हैं इस त्यौहार का. इसी को याद करते हुए अपने बचपन के दिनों में चली गई हैं युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज– मॉडरेटर
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बीते दिनों का जो एक छूटा सिरा हाथ में रह गया है, अक्सर कंटीला हो हाथों में चुभने लगता है। ख़ासकर जब यह एहसास हो कि आप लाख कोशिशें कर के भी अब उन दिनों को वापस नहीं ला सकते। बीते दिन बस बीत जाते हैं। यह उन दिनों की बात है जब बाहर उजाले थोड़े कम थे। टिमटिमाती रोशनियां अक्सर काली अँधेरी रात से हार जाती थीं लेकिन मन में बहुत उजाला था। उसकी चमक कभी मद्धिम नहीं होती थी।
वो बचपन के दिन जब भी याद आते हैं , मन में एक कसक छोड़ जाते हैं जब हम हर त्योहार पर मामा ( दादी ) बाबा के पास गाँव जाते थे। ख़ासकर दुर्गापूजा , दिवाली और छठ की लंबी छुट्टियों में। दिवाली तब बिहार में कोई बहुत बड़ा उत्सव नहीं होती थी क्योंकि उसके बाद ही महापर्व छठ वहां ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है लेकिन हम बच्चों में दिवाली के लिए बहुत उत्साह रहता था। चार दिन पहले से फुआ की चिरौरी कर घरकुन्ना ( घरौंदा ) बनाने की प्रक्रिया शुरू करवाई जाती थी। ईंटें जोड़कर , मिट्टी से लीप कर , गेरू रंग से रंगा हुआ बड़े से आँगन वाला दोमंजिला घर जिसपर चूने से सुंदर आकृतियाँ काढतीं फूआ। स्लेट के फ्रेम से बनते खिड़की- दरवाज़े। फिर मिट्टी के छोटे – छोटे बर्तन जुटाए जाते – चूल्हा , सिल लोढ़ा , बटलोई , जाता आदि। कपड़ों की गुड़िया को नए वस्त्र और साज सज्जा मिलती और बस जाता एक संसार। बच्चू चच्चा जी की नकचढ़ी भांजी मुन्ना हमारा घरौंदा देख जल जाती। उसके रोने ,पैर पसारने पर चच्चा जी राजमिस्त्री बुला कर विशाल गुम्बदनुमा घर बनवा देते लेकिन फिर भी वो हमारे छोटे से संसार से टक्कर नहीं ले पाता।
मम्मी चावल पीसकर उसके पेस्ट से जिसे चौरठ कहते हैं , गोबर से निपे आँगन में रंगोली बनाती । सूखने पर वह भक्क उजली हो जाती। फिर उस पर हम बच्चे होली में बचाए गए लाल पीले हरे रंग के अबीर डालते। रात में घरौंदा और रंगोली में चुल्हा-चुकिया पूजन ( मिट्टी के छोटे बर्तन )होता। उसमें मूढ़ी-बताशे भरती परिवार की स्त्रियाँ ,बेटियां कहतीं – मेरे भाई का घर भरा रखना , मेरे पति का घर भरा रखना। अब होश संभालने पर मैं एक दिन माँ से पूछ बैठी कि हमें ये क्यों नहीं कहना सिखलाया कि हमारा घर भरा रखना !
तब न बिजली के जगमगाते लट्टू थे , न तरह तरह के कंदील। हमारे उस सुदूर देहात में बिजली के खंभे और तारें जरूर दिखाई देती थी लेकिन अपने होश संभालते तो मुझे कभी याद नहीं कि किसी छुट्टियों में वहाँ मुझे बिजली दिखी हो । बाबा ने जेनरेटर रखा हुआ था, तो टीवी पर महाभारत आने वाले दिन और आगंतुकों के सत्कार के लिए चलाया जाता ।
दिवाली के दिन मामा पुरानी शीशियों में बत्ती डालकर डिबिये बनाती जो देर तक जल पाते थे। उनमें भरा जाता किरासन तेल ( मिट्टी का तेल )। कुम्हारन पूजा के लिए मिटटी के दिए दे जाती और दे जाती मोटे पेट और छोटे मुंह वाले चुक्के ( छोटे लोटेनुमा आकार के ) । उनपर मिट्टी का ही ढक्कन लगा होता जिसके छेद से बाती निकली होती थी। वो चुक्के अब कहीं दिखाई नहीं देते।
सिपाही चाचा ( बाबा के मैनेजर ) डिबियों और चुक्कों को छत पर सजवाने के लिए हर साल अपने रचनात्मक दिमाग से कोई नया आइडिया लेकर आते। ईंटों से छत पर तरह तरह के आकार बना कर उनके बीच की ताखेनुमा जगह पर जलती रोशनी जो उजाले का सौंदर्य रचती थी , वो कलात्मकता आज़ हर ओर बेतरतीबी से सजे चाइनीज़ झालर रच पाने में पूरी तरह असमर्थ हैं। उनकी रंग बिरंगी रौशनी आँखों को चुंधिया देती है , सहमाती है लेकिन सुकून नहीं देती। वो गहरी काली रात में टिमटिमाते दिए और चुक्के सुकून थे , संतोष थे , उम्मीद थे कि अगर हौसला हो तो अंधेरों को दूर होना ही होता है।
हमारा परिवार गांव के संपन्न परिवारों में शामिल था तो हमें तो थोड़े बहुत पटाखे मिल जाया करते थे लेकिन गांव के बच्चों के मनोरंजन के लिए एक बड़ी ही मज़ेदार चीज़ हुआ करती थी – हुक्का पाती।
पतली बेंत नुमा ख़ूब लंबी-लंबी लकड़ियों को आपस में बांधकर घर के हर दरवाज़े पर रखा जाता था ( लकड़ियों को संठी या सनई कहा जाता था ) लक्ष्मी पूजा और दीप प्रज्ज्वलन के बाद हुक्का पाती के एक सिरे पर आग जलाकर बच्चे और बड़े गीत गाते हुए उसे गोल गोल घुमाते। बच्चे ‘ हुक्का पाती लोए लाये ‘ का सामूहिक गान गाते ख़ूब हुड़दंग मचाते। यही उनके देशी पटाखे थे और यही उनका ख़ालिस देशी आनंद जो किसी भी तरह की मिलावट और अप्राकृतिक ताम झाम से मुक्त था।
फूआ ( बुआ) से पूछने पर पता चला कि अभी भी हुक्का पाती बेगूसराय शहर और उसके पास के इलाकों में बहुतायत से मिलती है और लोग उन्हें ख़रीद कर घर भी लाते हैं । यह सुखद बात है कि लोक से जुडी एक परम्परा को सहेज कर रखने का उपक्रम छोटे शहरों में हो रहा है। हुक्का पाती के इस खेल के पीछे धार्मिक और सामाजिक कारण भी हैं जो इसे अब तक लुप्त होने से बचाए हुए हैं। सामजिक कारण ये कि यह परम्परा सामूहिकता को बढ़ावा देती है जब टोले के लोग खुली जगह पर एकत्र होकर आग जला इसे घुमाते थे। यह गहन अन्धेरें को काटने वाले तीव्र प्रकाश पुंज के प्रतीक की तरह तो उभरता ही है । साथ ही इसके साथ जुड़ा मनोरंजन और रोमांच इसे एक मज़ेदार खेल का रूप भी देते हैं। बिलकुल वही रोमांच जो अब नयी पीढ़ी के बच्चों को तेज़ आवाज़ वाले बम पटाखे छोड़ कर मिलता है। इसे हर दरवाजे पर रखकर पूजा के बाद जलाकर पहले हर कमरे , खलिहान , आँगन , दालान में दिखा कर कहा जाता था – लक्ष्मी घुसे , दल्लीद्दर ( दरिद्रता ) भागे। ऐसा कहते हुए इस परम्परा को धार्मिक परिपेक्ष्य से जोड़ा जाता।
रात के खाने में बनायी जाती बेसन की कढ़ी – बड़ी , चावल, साग, बैंगन, आलू , अरकौंच के पत्तों और तोरी के फूल के पकौड़े और चावल की गुड़ वाली सोंधी खीर। दुर्गापूजा से ही घर में मिठाइयाँ बनती ही रहती जो छठ के बाद तक खाते रहते हम। आज़ भी गाय के दूध के बने पेड़े , गुलाब जामुन , खाजा , ठेकुआ , आटे के लड्डू , निमकी का दुर्लभ स्वाद जीभ पर बना हुआ है जिनका मुकाबला कोई भी मिष्ठान नहीं कर सके। शंकर हलवाई को बुला कर मामा घर में ही ताज़ी गरम जलेबियाँ छनवा देतीं और बच्चे तो बच्चे बड़ों की भी चांदी हो जाती। दिवाली के कल होकर गोवर्धन पूजा और भाईदूज के साथ ही गाँव महापर्व छठ की तैयारियों में डूब जाता.
बढ़ते शहरीकरण ने हमें एक सुविधासम्पन्न जीवन तो दिया है लेकिन बाज़ार के हावी हो जाने की वज़ह से त्योहारों की सहजता और आत्मीयता हमसे छिन गयी है। दिवाली की दिनों दिन बढ़ती चमक के बीच एक आम आदमी की आँखें अपनी क्षुद्रता के एहसास से भी भर जाती हैं जब कुछ रौनक घर लाने के बहाने बाज़ार उसे ही पूरा ख़रीद लेता है। कभी एक कविता लिखी थी-
“रोशनी का यह समंदर
शीतलता, ऊर्जा या जीवन नहीं देता
देता है तो एक अंतहीन प्यास
और अपनी लघुता का एहसास”
और ऐसे तमाम समय में जब रोशनी के समन्दर के बीच भी हम प्यासे रह जाते हैं , बाहर उजाला इतना बढ़ जाता है कि मन के अन्धेरें गहरा उठते हैं , बचपन की वह सहज , सुंदर, ईमानदार और अपनी सी लगने वाली दिवाली बहुत याद आती है।
"वो कलात्मकता आज़ हर ओर बेतरतीबी से सजे चाइनीज़ झालर रच पाने में पूरी तरह असमर्थ हैं। उनकी रंग बिरंगी रौशनी आँखों को चुंधिया देती है , सहमाती है लेकिन सुकून नहीं देती। वो गहरी काली रात में टिमटिमाते दिए और चुक्के सुकून थे , संतोष थे , उम्मीद थे कि अगर हौसला हो तो अंधेरों को दूर होना ही होता है। "
आपके विचारों से पूरी सहमत हूँ। बचपन की दिवाली सही में बहुत याद आती है।
बाजारीकरण से त्यौहार की सहजता चली गई ।।
अब तो हर घर में एक जैसी सजावट , एक जैसी मिठाइयाँ , रेडिमेड घरौंदे । हमलोग बचपन में दिवाली के दिन हर सहेली के घरौंदे देखने जाते थे। सबके घर की मिठाइयों का स्वाद अलग अलग । सबकी सजावट अलग । अच्छा लगा यह लेख।
आप ने बचपन को सजीव कर दिया, लगा अपने गाँव की गलियों में घूम रही हूँ दीपावली के दिन | रश्मि जी और प्रभात जी को बहुत बहुत धन्यवाद |
मेरा गाँव , मेरा देश |
त्यौहार में पीछे छूटे को याद करना भी उसकी प्रासंगिकता को बढ़ा देता है आज की दीवाली में पैसे के प्रदर्शन और नकली चमक दमक उस पुराने समय के उल्लास को वापस नहीं ला सकती
बधाई रश्मि को यह सब हम सभी को या दिलाने के लिए
बेहद ख़ूबसूरती के साथ आपने यादों को बुना है..पढ़ती रही ..मन रीझता रहा ..
बेहतरीन लिखा है आपने हमारी लोकरीतियों पर बढ रहे बाजारीकरण के प्रभाव के बरक्स इस मौलिकता की स्मृति अब भी आ जाती है