नॉर्वे प्रवासी डॉक्टर प्रवीण कुमार झा के व्यंग्य कुछ दिन न पढ़ें तो कुछ कुछ होने लगता है. यह ताज़ा है. पढियेगा- मॉडरेटर
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जब हिंदी लिखने की सोची तो कवि कक्का का ख्याल आया। इलाके के इकलौते ‘सर्टिफाइड‘ कवि। बाबा नागार्जुन के साथ उठना-बैठना था। कहते हैं दो नम्मर से साहित्य अकादमी रह गया था।
दलान पर पहुँचा तो कवि कक्का पान लगा रहे थे। पहचानते तो रोम-रोम तक थे, पर हर बार ऐसे मिलते जैसे कभी मिले ही न हों। किताबें धूल फाँकती है। दलान में कभी कविता सुनने को जमघट लगती थी। अब नजर पड़ते ही लोग साइकल की गति बढ़ाकर भाग लेते हैं। पर बुढ़ऊ की अकड़ न गई। स्वयं को कवि-सम्राट समझते हैं।
“बनना क्या चाहते हो? कवि या लेखक?”
“जी, लेखक।”
“फिर ठीक है। कवि बनना सबके बस का नहीं।”
“और भी कुछ करते हो?”
“डॉक्टर हूँ।”
“फिर शायद बच जाओगे।”
“किससे?”
“कंगाली से भी। और राजनीति से भी। हाहाहा!”
खामख्वाह कवि कक्का को वाचाल कहते। ये तो बड़े ‘टू-द-प्वांइट‘ व्यक्ति निकले।
पर पान मुँह में डालते ही रंगत बदल गई।
“हमें तो बाबा का वामपंथ ले डूबा। न खांग्रेसियों ने मेडल दिया, न दक्खिनपंथियों ने। बंगाली-मलयाली कवि होता तो आज ये दिन न देखना पड़ता। महाश्वेता काकी कहती भी थी कि उनके साथ लग लूँ। पर ये आदिवासी-जंगल और मोटे-मोटे मच्छर। कवि कल्पना करे कि मलेरिया से जूझे? वैसे तुम किस पंथ से हो?”
“जी, सोचा नहीं है।”
“साहित्य से जुड़ गए और पंथ से जुड़े ही नहीं? तो फिर लिखोगे क्या? चुन्नू-मुन्नू थे दो भाई। रसगुल्ले पर हुई लड़ाई?”
“कौन सा ठीक रहेगा?”
“पुरस्कार जीतने हैं तो हवा के रूख के साथ चलो। लोकप्रिय होना है तो विपरीत।”
“आपका तात्पर्य?”
“राष्ट्रवाद का समय है। दिनकर बन जाओ। जयशंकर प्रसाद सा तेज लाओ। वीर रस में सराबोर होकर खूनी हस्ताक्षर करो। ज्ञानपीठ, पद्म विभूषन नहीं तो कमसे कम साहित्य अकादमी लपेट कर ले आओगे। और लोकप्रिय बनना है तो ठीक विपरीत। हरियाणा रोडवेज की बस पकड़ लो या खुद को चार थप्पड़ मार लो। आध पाव कसैली फांक जाओ और कड़वापन उड़ेल दो। देश को नंगा कर दो, या हजार तो देवी-देवता है। एकदम मारो फूलगेंदवा ‘बिलो-द-बेल्ट‘!”
“अरे, आपकी भाषा को क्या हो गया?”
“बस! सब यहीं कहें, और तुम हो गए दो मिनट में पोपुलर! क्या समझे?”
“समझ गया कक्का। मुझे तो धन प्रिय है, लोकप्रिय बनना चाहूँगा।”
“वो ऐ…न…होगा।” कक्का का गला पान से बरसाती मेढक की तरह फूल गया था।
पीक थूँकते हुए बोले, “धन प्रिय है तो उसकी विधा अलग है। पाठक जी की ‘प्रेम, परिणय, प्रपंच‘ वाली।”
“जी। ये कौन सा पंथ है?”
“प्रेम, परिणय, प्रपंच मतलब तुम्हारी भाषा में ‘लव, सेक्स और धोखा‘।”
“ये मुझसे नहीं होगा कक्का। साहित्य में भी तो रॉयल्टी मिलती होगी?”
“तुम्हारे बाबूजी तो बैंक में ही हैं। वहीं जमा कराता हूँ कभी सालाना पाँच सौ, कभी आठ सौ के चेक। पुस्तक मेले में खड़ा करवा देते हैं, कहीं मुख्य अतिथि बनवा देते हैं। कहीं फोकट की समीक्षा, कहीं बेतुकी कविता की तारीफ। रॉयल्टी और रियैलिटी में बहुत फर्क है।”
बुढ़ऊ को पता ही नहीं, दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। अमेजन और फेसबुक के सहारे ही हजारों किताबें उठ जाती है। कोई दूबे है तो कोई चौधरी। सब बेस्ट-सेलर हैं। क्रेडिट-कार्ड टिपटिपाओ, किताब उठाओ। एक कविता गढ़ता है, उस से लम्बी कविता कमेंट में आ जाती है। साहित्य कुतुरमुत्ते की तरह फैल रहा है, और कवि कक्का आज भी रेगिस्तान के कैक्टस बने बैठे हैं।
“कक्का! ऑनलाइन है साहित्य अब। जानकीपुल सुना है आपने?”
“आशावादी हूँ। ‘लेफ्ट‘ से ‘राइट‘ होने की भी जुगत में हूँ। वैसे ये जानकीपुल किस पंथ का है?”
“पता नहीं। ये तो साहित्य-ब्लॉग है।”
“पीछे कौन है? कोई नेता वगैरा?”
“हिंदी से जुड़े लोग लिखते-पढ़ते हैं। नेता और पंथ का आइडिया नहीं।”
“ये क्या हो गया है साहित्य को? पंथहीन साहित्य मतलब बिन पेंदी का लोटा। मतलब लोग डरकर आवाज बदल कर बात कर रहे हैं? हैं वामपंथी, लेकिन न्यूट्रल बने बैठे हैं? कविता क्या लिखेंगें, घास? जो लिखो, निर्भय निर्विकार लिखो। बाबा तो सीधा ‘इंदुजी‘ कहकर क्या प्रहार करते थे! प्रोटौकोल और नियम की बिसात पर कविता बनी है कभी?….”
कक्का बड़बड़ाते रहे। बुढ़हु सठिया गए हैं।
भई मैं तो प्रेम-प्रपंच में ऐसी वीर-रस की दही बनाऊँगा कि हवा की रूख ही बदल जाए। बी.एम.डब्ल्यू. में बैठ साहित्य अकादमी जाऊँगा। हिंदी को ‘हॉट‘ बनाऊँगा। कक्का करे ‘लेफ्ट-राइट‘, मैं तो पूँजीवाद की बंसी बजाऊँगा।
बहुत ही बढिया !
चकाचक।
वाह!
डाक्टर साहेब को बधाई
साहित्य की व्यथा और व्यवस्था पर सही ।
अच्छा लगा …
लाजवाब. परसाई जी वाली क्षिप्रता.
अच्छा है।
बधाई
बहुत सुंदर! करारा व्यंग!
ग़जब है भइया।
वाह बहुत मारक ,प्रहारक , संहारक लिखा है ।
हा हा हा….जबरदस्त है…