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कहानी ‘जोशी जी’ की बयाँ प्रचंड का

विद्वान लेखक प्रचण्ड प्रवीर की एक सीरिज़ है ‘कल की बात’। इस सीरिज़ की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं- षड्ज , ऋषभ और गान्धार। लेकिन उनकी यह सीरिज़ आज भी जारी है। आज इस सीरिज़ में प्रचंड जी ने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हमज़ाद’ पर उनकी ही शैली में लिखा है। जिसके बारे में उनका अपना कथन है-आग मेरी न सही, पर धुआँ मेरा है/कहानी ‘जोशी जी’ की है, पर बयाँ मेरा है। आप भी पढ़ सकते हैं-

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कल की बात है। जैसे ही मैंने मह्फ़िल में कदम रखा, वहाँ ख़ामुशी-सी पाई। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि कम्पनी के मुलाजिमों[i] को तरक्कीपसंद और हरदिलअज़ीज़ डी.एल. नारकियानी की दी जा रही इस रुख़्सती पार्टी को अभी शबाब पकड़ना था, वहीं ऐसा मालूम हो रहा था गोया कोई मरदूद[ii] बज़्म[iii] की सारे चिरागाँ बुझा गया हो। पता चला कि डी. एल. नारकियानी कुछ ही लम्हें पहले अपनी कमसिन माशूका के साथ पार्टी छोड़ कर तफ़रीह[iv] को निकले हैं, पर उम्मीद यही है कि देर रात तक भी शायद ही तशरीफ़ लाएँ । दरअस्ल यह खबर उनके सी.सी., सी. एस. आदिल ने दी। दफ्तर में हमें छोड़ कर सबको पता था कि सी.सी. का मतलब है ‘कॉन्सटेन्ट कम्पेनियन’।
डी. एल. नारकियानी कम्पनी के ऊँचे ओहदे पर था और बहुत ही कम समय में बिना एम.बी.ए, डिग्री के कॉरपोरेट में बलन्दियों को छू लिया था, जो कि आज के ज़माने में त’अज्जुब की बात है। सी.एस. आदिल ने माहौल को कुछ खुशनुमा करने की कोशिश में सब से बादा-नोशी[v] की गुजारिश की, जो कि आम बात हो चली है। हम इस फिराक में थे कि कैसे इस लिजलिजे माहौल से जल्द से जल्द निजात पाएँ और वापस अपने आशियाने को लौट जाएँ। सी.एस. आदिल नें हमपियाल:[vi] होने की कोशिश में मुझे एक किनारे ले गए और कहने लगे, “हुजूर, अब आपका ही सहारा है। दरअस्ल आपसे एक इल्तिजा थी। अब जब डी.एल. साहेब मुझ बदनसीब को बेसहारा छोड़ कर दूसरी कम्पनी में जा रहे हैं, इस लिहाजे आपसे दरख्वास्त है कि आप मेरे रोज-मर्रा के काम में नुक्स ना निकाले। मेरी शादी के कुछ ही महीने हुए हैं और मुझे इस बात की पुख्त: जानकारी मिली है कि मेरे खिलाफ रपट दे दी गयी है कि मैं निखट्टू और अव्वल दर्जे का कामचोर आदमी हूँ। आप इस की हक़ीक़ी[vii] दरियाफ़्त[viii] करेंगे तो मालूम होगा कि मुझे जलील करने के लिए यह निहायत घटिया हरकत मेरे अज़ीज़ डी.एल. नारकियानी ने ही की है। आप ये न सोचिएगा कि मैं नशे में कुछ का कुछ बके जा रहा हूँ। मेरे पास इस हक़ीक़त को बयान करने के अलावा कोई रास्ता न बचा है। डी. एल. के बाद आप ही इस कम्पनी में बड़े ओहदे पर हैं। इसलिए आपकी नज़्र-ए-इनायत[ix] चाहता हूँ कि वह किसी ग़लतबयानी और गलतफहमी की वजह से नज़्र-ए-इनाद[x] न बन जाए। मेरे खिलाफ़ यह अफवाह उड़ायी जा रही है कि कम्पनी की हर खूबसूरत लड़की को मैं अपने महब्बत के जाल में गिरफ़्तार कर लेता हूँ और बाद में उन्हीं लड़कियों को मैं डी. एल. के जाल में फँसने के लिए छोड़ देता हूँ। इन बदजाइक: बातों से मैं इस शाम का मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहता, फिर भी आप से थोड़ी हमदर्दी और रहमदिली चाहता हूँ। आजकल ए.आई. का ज़माना आ गया और साथ ही बड़े पैमाने पर कामगारों की छँटनी की जा रही है। मुझे यकीन हो चला है कि इस वास्ते से भी छँटनी पर सबसे पहले मेरी गर्दन उड़ाई जाएगी।“
मुझे सी.एस. आदिल की बातों पर थोड़ा रस आने लगा। मैंने पूछा, “इतना क्यों डरते हो! कोई और नौकरी ढूँढ़ लेना। वैसे तुम डी. एल. के इतने अच्छे दोस्त माने जाते हो। तुम्हारी इन बातों से मुझे जलने की बू आती है।“
सी. एस. आदिल ने कहा, “हुजूर। आप वजा फरमाते हैं कि इससे जलने की बू आती है। पर इसके पीछे के तमाम वजहों से आप नावाक़िफ़ हैं। मैं आपको इस सच्चे अफ्साने को सुनाना चाहता हूँ, जिसे सुन कर आप यकीनन कहेंगे कि मुझे अदद अफ्सान:निगार[xi] होना चाहिए था पर यह आ’मालनाम: [xii] है। किस्मत के जबरदस्त मौजों ने जो मेरी खस्त:हाल कश्ती को बीच मंझदार में डुबोया है कि मैं जो इस मुल्क का जाना-मान अदीब[xiii] बन सकता था, आज एक मामूली नौकर बन कर रह गया हूँ। डी. एल. और मैं पहली बार यूनिवर्सिटी में मिले थे। दाखिले के समय कुछ कागजात जमा कराते समय हमारी मुलाकात हुयी तो उसने मेरे कागज देखते ही टोका कि हम दोनों एक ही दिन पैदा हुए थे। पहली मर्तबा में ही उसने कहा था – ‘तू मेरा हमज़ाद[xiv] है सी.एस.।‘ मैं साफ कर देना चाहता हूँ कि मैं एक हिन्दू हूँ और उर्दू अदब से मेरी गहरी महब्बत के सिल्सिले में मैंने अपना तख़ल्लुस[xv] ‘आदिल’ रखा है। देखने में एकदम खानदानी और शरीफ पर अपनी हरकतों में शैतान को भी मात देने वाला डी.एल. मुझे तब खटकने लगा जब वह हॉस्टल में लड़कों की पॉकेट मारा करता था। उसने कई मर्तबा महंगा मोबाइल फोन और लैपटॉप तक चोरी कर के चोर-बाज़ार में औने-पौने दाम में बेचा। मैंने उसे कई दफ़ा टोका तो बदले में उसने कहा कि जब तक कोई गुनाह साबित न हो, तब तक वह एकदम बेकुसूर है। गरीब घर का होने से मेरी माली हालात ठीक न थी। अपना जुर्म छुपाने की बदनीयती से उसने मुझे भी कुछ रकम उधार बख्शा, जब कि वह जानता था कि उस पैसे की नगद वापस लौटने की कोई सूरत न थी। मैं पढ़ने में बेहद जहीन था और वह निरा मूर्ख। अपने उधार को वसूल करने के लिए मुझे हर इम्तिहान में उसे नकल करानी पड़ती थी। जहाँ मैं दिन-रात किताबों में अपने दीदे फोड़ता, वहीं डी.एल. उस समय शराब में डूबा रहता। बाद में उसके शह्र के कुछ साहिबजादों ने मुझे इस ख़ुफ्य:[xvi] बात की जानकारी हुई कि उसने यूनिवर्सिटी में दाखिला भी फर्जी दस्तावेजों से लिया था। मेरे कराए गए नक्ल की बदौलत डी.एल. किसी तरह तीसरे दर्जे से पास होता रहा। यूनिवर्सिटी के आखिरी साल तक उसे मेरी ज़ुरूरत नहीं रह गयी थी। तब तक वह प्रोफेसरों की नब्ज़ पकड़ चुका था। कइयों के पास जा कर वह खुशामद करता – ‘आप आला दर्जे के मुदर्रिस[xvii] हैं, मगर अफसोस आपकी काबिलियत और जहीनियत को आज तक पहिचाना नही गया है। डिपार्टमेंट के बाकी प्रोफेसर आपसे जलते हैं।‘ मुझे उसने दुन्यादारी का सबक सिखाया कि बगैर खुशामद के कोई खुश नहीं होता। वह कहता – “खुशादम कर टी.एस., क्योंकि इसीमें आमद है।‘ खुशामद के साथ-साथ विलायती दारू की चौदह बोतलों का जबरदस्त असर यह हुआ कि जिस डिग्री निकलने की कोई सूरत नहीं थी, वहाँ के स्टाफ और प्रोफेसरों की मेह्रबानी से वह अव्वल आया। अपने सीनियरों के  खिदमत में कॉलगर्ल पेश कर के उसने कैम्पस सेलेक्शन में बढ़िया और मालदार नौकरी हासिल कर ली। मैं सोचता रहा कि उसकी बेईमानी का अफ्सान: लिखूँ और उसका उन्वान[xviii] ‘मक्कारी की इंतिहा’ रखूँ और किसी रिसाले[xix] में ‘आदिल’[xx] तख्ल्लुस से शाया[xxi] करवाऊँ। मगर वह सच मेरा ‘हमजाद’ था। उसे यकीन हो चला था कि मैं उसके कारनामें को कहीं बयान कर दूँगा इसलिए उसने इसके इंतजामात कर लिए थे। कैम्पस सेलेक्शन में एक कम्पनी के इंटरव्यू के बावस्त:[xxii] मैं होस्टल की सीढ़ियाँ बड़ी तेजी से उतर रहा था कि पीछे से किसी ने मुझ पर ऐसा वार किया कि मैं लुघड़ पड़ा। मुझे सख्त चोट आयी और मेरी पाँव की हड्डी तक टूट गयी। मुफलिसी और बदहाली में डी. एल. अक्सर मुझसे मिलने आता और अपनी शैतानी हँसी से मेरे पाँव के प्लास्टर पर थपकियाँ दे जाता। जब तक मैं ठीक हुआ तब तक कैम्पस सेलेक्शन बन्द हो चुका था।
इसके बाद शुरू हुआ कम्पनियों के धक्के खाना। जहाँ कैम्पस सेलेक्शन से कम्पनियाँ बाइज्जत ले जाती हैं, वहीं बाहर बुरी तरह से खदेड़ती और दुत्कारती हैं। मेरी माली हालात बेहद खराब थी। ऐसे में एक दिन डी.एल. मेरे पास आया और मुझे गले लगा कर उसने भरोसा दिलाया कि बेरोजगारी और मायूसी के दलदल से मुझे ज़ुरूर निकालेगा। मुझे शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने अपनी ही कम्पनी में मुझे कम पैसे वाली बेहद मामूली सी नौकरी पर रख लिया। उसने बताया कि इसके लिए भी उसे एच.आर. वालों को दारू पिलानी पड़ी है और कुछ पैसे भी खर्च करने पड़े हैं। लेकिन जल्दी ही मुझे उसकी खुदगर्जी समझ आ गयी। दरअस्ल यहाँ भी वह किसी काम का नहीं था। उसे अपना काम कराने के लिए किसी जहीन आदमी की लताश थी, जो मुझसे पूरी हो रही थी। मैंने इसे भी किस्मत की मार समझ कर कुबूल कर लिया। ज़िन्दगी कट जाती पर मेरा एक ऐब इसके आड़े आया। मेरे जिस्म की मर्दाना खूबसूरती से लड़कियाँ मुझ पर फिदा हो जाती हैं, यही सबसे बड़ा ऐब है। शाइस्ता[xxiii] महजबीनों की यारी से डी.एल. जल उठता क्योंकि कोई मोटे और जाहिल शख्सियत को पसन्द नहीं करती थी। उसके कमीनेपन की तस्दीक[xxiv] मुझे हसीनाओं की नामेहरबानियों में मिली जिन्हें डी.एल. यह कह कर आता कि मैंने उनके साथ हमबिस्तर होने की शेखी बघारी है। सबूत के तौर पर वह मेरे फोन से  फॉरवर्ड किए उनके चैट पढ़ाता, जो न जाने कब और कैसे उसने धोखे से हासिल कर लिए थे।
डी.एल. यहाँ ही नही रुका। अपनी मक्कारी और दुन्यादारी से वह जल्दी ही कम्पनी के ‘सेल्स डिपार्टमेंट’ में घुसा और वहाँ जबरदस्त कामयाबी पायी। देखते ही देखते वह कम उम्र में डायरेक्टर बन गया। अब वह इस मुकाम पर है जहाँ उसकी फर्ज़ी डिग्री पर कोई सवाल उठाने वाला नहीं।“
सी. एस. आदिल के बयान पर मैंने उसके अफ्सान:निगार होने की ताईद[xxv] की और साथ ही ज़ुरूरी सवाल उठाया, “तुम्हें अब किस बात का खौफ़ है? तुम अगर एक शैतान के साये से निकल जाओगे तो खुदमुख्तार[xxvi] हो जाओगे। उस आजादी को महसूस कर सकोगे जिसे तुमने सालों से खो रखा है। वैसे तुम्हारा यह अफ्सान: दो कौड़ी का भी नहीं है और तुम्हारी तरह झूठा मालूम होता है। आज के जमाने में हर इंसान अपनी तक़दीर खुद लिख सकता है और इस आजाद मुल्क में कोई ताकत उसे आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। मुस्तक़बिल[xxvii] के लिए खुद तजवीज़[xxviii] करो। “
सी. एस. आदिल ने खौफ़जदा हो कर कहा, “आप हमज़ाद का मतलब नहीं समझते। हमजाद बदी के उस जिन्न का नाम है जो हर इंसान अपने साथ लेकर पैदा होता है और जो बेताल की तरह ता-जिन्दगी उस पर सवार रहता है। वह यहाँ भी मेरा जीना हराम कर देगा और तक़दीर मुझे फिर उसी की गली अख्तियार[xxix] करवाएगी।“  अभी मैं उसके कहे पर गौर ही फरमा रहा था कि ‘आदिल’ मेरे कानों में  फुसफुसाया, “मेरे खिलाफ जो रपट है उसे दबाने में और मेरी नौकरी बचाने में हुजूर से जो बन पड़ता है, ख़ाकसार पर रहम खा कर अता[xxx] फरमाइए। बदले में आपकी शामें रंगीन और दिलकश करने का हमें एक मौका दीजिए। आप बेहद जहीन ओर काबिल आदमी हैं, जो जमाने के सताये हुए हैं। अभी तक आपको कम्पनी का प्रेसिडेंट होना चाहिए था मगर अफसोस…”

ये थी कल की बात !

दिनांक : २६/०४/२०२५

(मनोहर श्याम जोशी की ‘हमज़ाद’ के लिए)

[i] मुलाजिम = कर्मचारी

[ii] मरदूद = नीच

[iii] बज़्म = सभा

[iv] तफ़रीह = सैर-सपाटा

[v] बादा-नोशी = मदिरापान

[vi] हमपियाल: = एक ही प्याले में साथ पीने वाला

[vii] हक़ीक़ी = सच्चा

[viii] दरियाफ़्त = छानबीन, जाँच

[ix] नज़्र्र-ए-इनायत = कृपा दृष्टि

[x] नज़्र ए इनाद = दुश्मनी की नज़र

[xi] अफ्सान:निगार = कहानी कहने वाला

[xii] आमालानामा = कर्मों का लेखा-जोखा

[xiii] अदीब = साहित्यकार

[xiv] हमज़ाद = साथ पैदा हुआ

[xv] तख़ल्लुस = उपनाम

[xvi] ख़ुफिया = छिया हुआ

[xvii] मुदर्रिस = अध्यापक

[xviii] उन्वान = शीर्षक

[xix] रिसाला = पत्रिका

[xx] आदिल = न्यायी

[xxi] शाया = प्रकाशित

[xxii] बावस्ता = सम्बन्धित

[xxiii] शाइस्ता = नेक

[xxiv] तस्दीक = पुष्टि

[xxv] ताईद = समर्थन

[xxvi] खुदमुख्तार = आत्मनिर्भर

[xxvii] मुस्तक़बिल= आने वाला वक़्त

[xxviii] तजवीज़ = बंदोबस्त, इंतज़ाम

[xxix] अख्तियार = अधिकार

[xxx] अता = दान

 
      

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