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वीरेन्द्र प्रसाद की कुछ नई कविताएँ

भा.प्र.से. से जुड़े डॉ. वीरेन्द्र प्रसाद अर्थशास्त्र एवं वित्तीय प्रबंधन में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की है। वे पशु चिकित्सा विज्ञान में स्नातकोत्तर भी हैं। रचनात्मक लेखन में उनकी रुचि है। प्रस्तुत है भीड़भाड़ से दूर रहने वाले कवि-लेखक वीरेन्द्र प्रसाद की कुछ कविताएँ और गीत-जानकी पुल
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[1]
 
उस रात नहीं मैं रोया
जब बालक सा व्याकुल
तेरी गोद में छिपकर सोया
उस रात नहीं मैं रोया।
जीवन के दुख सारे भूल
हर्षित मन, बरसाये फूल
विस्मृत करके सारे हार
नोन जैसे जल में खोया
उस रात नहीं मैं रोया।
पथ कंटकित, नहीं याद किया
स्वर्ग भी नहीं, फरियाद किया
गतिमान बन किरणों जैसे
भार दर्द नहीं, मैं ढोया
उस रात नहीं मैं रोया।
स्वर्णिम सी, धीर छाया
छोड़ जगत की मोह माया
प्यासी धरा पर सोम बन
हर्षित, वर्णित मैं जोया
उस रात नहीं मैं रोया।
जीवन बगिया अब महका
ज्वार कोई उर में दहका
नव जीवन सा ले आकार
मधुमय बीज, बता, बोया
उस रात नहीं मैं रोया।
 
—— —— —— —— ——
[2]
 
अवनि अंबर, मन के अन्दर
हर सांस तुम्हारे होने का
क्यों लगता अनंत विस्तार मुझे
क्यों तुमसे न हो प्यार मुझे।
मेघों के रंगो में रंग कर
रूप पाश से वीचि भंग कर
हवा में अंगराग भर कर
मेरे तुम मानस के तट पर
छवि उकेरते हो तुम प्रति पल
क्यों लगता है, तेरा आकार मुझे
क्यों तुमसे न हो प्यार मुझे।
जो कहा रुक रुक पवन ने
जो कहा झुक झुक गगन ने
कुछ कहा नीरव स्वन ने
कुछ कहा उड़ती अगन ने
हर स्वप्न तेरा भाव बंध है
क्यों बींधना है स्वीकार मुझे
क्यों तुमसे न हो प्यार मुझे।
समीर में उर का प्रकंपन
नेह में स्वर लहरी का स्पंदन
राह बन गये जैसे वन चंदन
अश्रु में भी उजला निमंत्रण
बिन मांगे तुमने दे डाला
क्यों स्निग्ध का पारावार मुझे
क्यों तुमसे न हो प्यार मुझे।
रोके न रुके जीवन की आश
बढ़ती जाती अब संचित प्यास
पल भर न मिले कोई अवकाश
रचने को चले हम तुम इतिहास
क्षण में सारे, अभिमान वार
क्यों सान्त , अविराम पुकार मुझे
क्यों तुमसे न हो प्यार मुझे।
 
—— —— —— —— ——
[3]
 
पलकों में पाल लिया है मैंने
एक सपना, पारावार किसी का
संग संग अंगराग बना वह
लुक छिप विद्युत प्यार किसी का।
कुंतल काले ने आकाश चुराया
उर ने एक नव लोक छुपाया
मन में, तन में, अंतहीन गगन में
सीमाहीन उसी की छाया।
ले आया सुरभिमय झंझा
निश्वास का उपहार किसी का
लुक छिप विद्युत प्यार किसी का।
चितवन जैसे सुख पुलिन अनजान
या स्निग्ध करुण कोमल गान
चाप का पाथेय, मिटा तिमिर
दे दिवा में, छांह का वरदान
चिर वसंत बन साकार हुआ
मुक्ता मरकट तुषार किसी का
लुक छिप विद्युत प्यार किसी का।
मुझे नहीं मतलब इति अथ में
गतिमान रहूँ संसृति के पथ में
नभ तारक खंडित सा पुलकित
संसार बना, अभिसार अकथ में
अब टूटा कंचन, हीरक पिघला
बन स्पंदन, घनसार किसी का
लुक छिप विद्युत प्यार किसी का।
 
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12 comments

  1. डॉ कनक लता

    बेहतरीन… तीनों ही कविताएं सुंदर हैं और भावों को गहराई से अभिव्यक्त कर रही हैं…

  2. डॉ. विजय कुमार मिश्र

    प्रेम की स्निग्धता से युक्त गहन भावबोध की कविताएँ। शब्द, प्रतीक सब कुछ बहुत ही सुंदर।

  3. मार्मिक अभिव्यक्ति

  4. Shandaar👌🏽👌🏽

  5. Wonderful

  6. तीनों ही कविताएं सुंदर हैं
    प्रतीक सब कुछ बहुत ही सुंदर।

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