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आप भाग्यशाली हैं कि आप के पास अपना कहने के लिए एक देश है

कथाकार मनोज कुमार पाण्डे बहुत तार्किक ढंग से वैचारिक लेख लिखते हैं. आज़ादी को याद करने के मौसम में उनका यह लेख पढियेगा- मॉडरेटर 
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आज के लगभग सत्तर साल पहले हमें वह आजादी मिली जिसे आज हम पाठ्य पुस्तकों में आजादी के नाम से पढ़ते जानते हैं। तब से इस मसले पर एक बहस रही है कि यह आजादी किसको मिली? यह आजादी हमें किससे मिली यानी कि वह क्या चीज थी जिसकी गुलामी से हम आजाद होना चाहते थे? यह दोनों सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अगर हम आसान वाले जवाब पर टिक न करके थोड़ा भीतर धँसे और इस सवाल की तह में जाएँ तो हमें इन सवालों के वास्तविक जवाब मिल सकते हैं। जाहिर है कि ऐसा करते हुए हम सत्तर साल की उपलब्धियों को नकार नहीं रहे हैं। वे हैं और हमारी वर्तमान सरकार के बार बार नकारने के बावजूद बहुत बड़ी हैं। हमने अनेक दिशाओं में बहुत तरक्की की है। अनेक मामलों में हम आत्मनिर्भर हुए हैं। हम में से एक बड़ी जनसंख्या पहले की तुलना में बेहतर खा पी रही है। हम पहले के तुलना में बढ़िया कपड़े पहन रहे हैं। पर जब हम यह सब कहते हैं तो हमें दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए। एक तो यह कि आज जो देश हम बना रहे हैं उसका सपना किन आँखों में बसता और फलता फूलता है? दूसरा गांधी की वह बात कि इस देश का चमक दमक से दूर पंक्ति में सबसे पीछे खड़े अपने नागरिक के साथ किस तरह का रिश्ता बनता है।
      आज हम जिस इंडिया दैट इज भारतमें रहते हैं उसमें एक साथ बहुत से भारत रहते हैं। एक ही देश में विकसित देश, विकासशील देश, निर्धन देश और भुखमरी से मरता देश सभी शामिल हैं। जब हम हम देश के विकास की बात करते हैं या बड़े गर्व से साइंस और तकनीकि की बात करते हैं या राकेट छोड़ने और चाँद पर या मंगल पर जाने की बात करते हैं तो सवाल यह है कि हम उस समय किस देश की बात कर रहे होते हैं और क्या इसी एक देश के भीतर बसे दूसरे देशों पर भी इन उपलब्धियों का कोई असर पड़ता है? क्या यह देश अपने सभी नागरिकों या रहवासियों के लिए एक ही है या कि यह सबसे अलग अलग बर्ताव करता है? इस पर सोचना इस लिए भी जरूरी है इस छोटी सी बात का ध्यान न रखने की वजह से बहुत सारे लोग हमें देश के दुश्मन लगने लगते हैं और उनके खिलाफ सेना, पुलिस से लेकर तमाम कार्पोरेटी गुंडों तक का बर्ताव हमें सही लगने लगता है। क्या देश के संसाधन, न्याय, अवसर आदि के लिहाज से सभी लोग सचमुच बराबर हैं या संविधान से इतर कोई और व्यवस्था काम कर रही है?
      आप अपनी आँखों को खोलकर देखेंगे तो पाएँगे कि देश की बहुसंख्या की संवैधानिक जिम्मेवारी सिर्फ वोट देने तक सिमट गई है। याकि समेट दी गई है। वह जनता जिससे सचमुच का देश खड़ा होता और जगमगाता वह किसी धीमी गति की टार्चर फिल्म की तरह एक भयावह टार्चर से गुजर रही है और दूसरी तरफ हत्यारे, माफिया, पूँजीपशु और उनके दलाल, धर्म के धंधेबाज, भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे नेता और नौकरशाह और उनके लगुए भगुए अपराधी उस पर राज कर रहे हैं। तमाम ऊपरी अंतर्विरोधों के बावजूद इनका गठजोड़ इतना तगड़ा है कि ये राष्ट्र के पर्याय बन बैठे हैं और इनके खिलाफ कुछ भी बोलना राष्ट्रद्रोही होना है। तो सवाल यह है कि आजादी का जो सपना हमने देखा, जिसे हमने अपनी आँखों में बसाया… उसका क्या हुआ? और यह भी कि कोई सपना क्या आँखों में बसा लेने भर से पूरा हो जाता है या उसके लिए कुछ करना भी पड़ता है? सवाल यह है कि क्या हमने उस सपने को पूरा करने के लिए या वास्तविक बनाने के लिए ईमानदार कोशिशें की या कि यह काम हमने बस कुछ लोगों के लिए छोड़ दिया जो दावा कर रहे थे कि वे हमारे लिए चाँद सितारे तोड़ लाएँगे।
      एक और चीज है बाजारवाद जो आजादी के नारे के साथ यहाँ आ चुका है बल्कि यह ऊपर के गठजोड़ की नियामक शक्ति बन चुका है। यह ग्लोबल दैत्य है। यह दुनिया भर के लोगों को आजाद करने का दम भरता है। इसी के इशारे पर अरब से लैटिन अमेरिका तक, वियतनाम से अफगानिस्तान तक करोड़ों लोग आजाद कर दिए गए। भाषाएँ और संस्कृतियाँ आजाद हो गईं। खानपान आजाद हो गया। यह आजादी की ब्रांडिंग और पैकेजिंग का मदमस्त कारोबार है। इस कारोबार ने हमको नागरिक की बजाय उपभोक्ता बना दिया है। आज जब हम लोगों के वर्ग बाँटते हैं तो इसका एक महत्वपूर्ण शिरा उनकी क्रय शक्ति और एक उपभोक्ता के रूप में बाजार से बनने वाले संबंध से भी जुड़ता है। और वहीं से मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग के लिए आजादी का एक नया मतलब प्रकट होता है। यह मतलब है असीमित उपभोग की आजादी। मनचाहे ब्रांड का सामान घर लाने और उसे कभी भी बदल देने की आजादी। इस आजादी के बरक्स एक साधारण किसान या मजदूर की आजादी का क्या मतलब बनता है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। यह स्थित बहुत पुरानी है कि कुछ व्यक्ति उपभोग करते रहे हैं और कुछ उनके उपभोग का सामान बनते रहे हैं पर यह आज के समय जैसे तीखे औए अश्लील रूप में पहले कभी प्रकट नहीं हुई थी।
      यह अश्लीलता मीडिया के माध्यम से घरों की आंतरिक साज-सज्जा का हिस्सा बन गई है। मीडिया ने कुछ ऐसा जादू किया कि लोगों में सही गलत का भेद खत्म हो गया। देखते देखते सारे अखबार और न्यूज चैनल, मनोरंजन के चैनल, सिनेमा सब पर कार्पोरेट पूँजी के दानव कुंडली मारकर बैठ गए हैं। पिछला चुनाव मीडिया पर पकड़ का ही सबूत है। यही नहीं अब तो छवि निर्माण के लिए मीडिया की तमाम सहायक एजेंसियाँ हैं। चुनाव मैनेजर हैं। एक वोट देने की आजादी थी वह भी पिछले दरवाजे से छीन ली। अब टीवी और अखबार और इंटरनेट सब मिलकर तय करेंगे कि आप किसे वोट देंगे। वे मत निर्माण करेंगे। आप गए ठेंगे से। वे तमाम चीजों को कुछ इस तरह से पेश करेंगे कि आप के लिए काले और सफेद में भेद करना मुश्किल हो जाएगा। तब वे बताएँगे कि देखो यह है काला और यह है सफेद और आप मान लेंगे। यह खेल एक गजब की खेल भावना के साथ शुरू हो चुका है।
      एक पूँजी का महादैत्य अरबों खरबों अपने लिए एक महल बनवाने में उड़ा देता है। आप याद रखिए कि वह कोई मध्यकाल का ऐयाश तानाशाह नहीं है। संविधान के पन्नों पर वह भी उतना ही हक रखता है जितना कि कोई एक साधारण मजदूर…। पर क्या सच? यह स्वाधीन भारत के भीतर का एक अश्लील भारत है। ऊपर का उदाहरण कोई इकलौता उदाहरण नहीं हैं। हमारी चुनी हुई सरकारें तक जितना पैसा किसी योजना में खर्च करती हैं उससे अधिक पैसा दिखावे और विज्ञापनों में उड़ा देती हैं और हमें यह अश्लील नहीं लगता। अब तो वामपंथी सरकारें भी इस भेड़चाल में उसी तरह से शामिल हो रही हैं। कभी लोकतांत्रिक भारत की व्यथा कथा को अपनी कविताओं की विषयवस्तु बनाने वाले हिंदी के अद्भुत कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविता अधिनायकमें सवाल पूछा था कि – राष्ट्रगीत में भला कौन वह / भारत-भाग्य-विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसका / गुन हरचरना गाता है। आगे जो कुछ भी है वह इसी हरचरना की तरफ से आजादी या स्वाधीनता के मतलब की तलाश है। ऐसा नहीं है कि हरचरनों के पास कोई आजादी ही नहीं है। उनके पास भी तरह तरह की आजादियाँ हैं। यहाँ उन्हीं आजादियों पर एक आजाद नजर डाली जा रही है।
  
इस बार गर्मियों में घर जाते हुए जब इलाहाबाद उतरा तो स्टेशन के बाहर निकलते ही कई रिक्शेवालों ने घेर लिया। यह एक आम दृश्य है। पर उसी भीड़ में एक अस्थिपंजर सा बूढ़ा था, कम से कम सत्तर साल का यानी लगभग आजाद भारत की उम्र का। वह पैर छूने लगा कि मैं उसके रिक्शे पर बैठूँ। मैं बैठ गया। मैंने उससे बातचीत करने की कोशिश की पर रिक्शा चलाते हुए उसकी साँस इस तरह फूल रही थी कि बातचीत करना उसके लिए संभव नहीं था। उस पर मुझे एक मध्यवर्गीय दया आ रही थी पर उसके लिए मेरी उस दया का कोई मोल नहीं था। मोल था तो उस पैसे का जो मैं थोड़ी देर बाद चुकाने वाला था। सवाल यह है कि उसने श्रम किया मैंने उस श्रम की कीमत चुकाई पर बीच में वह दयनीयता कहाँ से आई जो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई थी। वह पैर छूते हुए, हाथ जोड़ते हुए कुछ इस तरह से अपने रिक्शे में बैठने के लिए अनुरोध कर रहा था जैसे भीख माँग रहा हो। एक आजाद और लोकतांत्रिक देश का श्रम करता हुआ सत्तर साला नागरिक एक फटेहाल जर्जर भिखारी बूढ़े में कैसे बदल गया। सवाल यह है कि उसके लिए इस स्वतंत्रता या स्वाधीनता का क्या मतलब है?
            यह एक उदाहरण भर है। इस तरह के दूसरे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं। तमाम छोटे बड़े शहरों के लेबर चौराहों का दृश्य इससे बहुत अलग नहीं बनता। यह बेकारी के बरक्स रोजी की एक दयनीय तलाश ही है। इलाहाबाद, बनारस, पटना, दिल्ली या कोटा जैसे शहरों में अपने अपने कमरों में बंद सिविल, इंजीनियरिंग, मेडिकल, कामर्स या तरह तरह की दूसरी परीक्षाओं की तैयारियाँ करते हुए, दुनियावी यथार्थ से कटे पर सब कुछ रट्टा मारकर घोटकर पी जाने को आतुर युवाओं के लिए स्वाधीनता का क्या मतलब है? यह सवाल तब भी उतना ही मानीखेज है जब उनमें से कुछ युवा अपना इच्छित पा जाते हैं? क्या उन्हें अपनी युवावस्था के वे उर्वर साल कभी याद आते होंगे जो उनकी स्वाधीनता को अर्थ दे सकते थे? क्या वे कभी जान पाएँगे कि स्वाधीनता दरअसल अपने लिए एक सही रंग की तलाश है और वही रंग उन्होंने हमेशा के लिए खो दिया है। बहुत पहले धूमिल ने अपनी कविता बीस साल बादमे अपने आप से एक सवाल पूछा था कि बीस साल बाद / मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ / जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है? / और बिना किसी उत्तर के चुपचाप / आगे बढ़ जाता हूँ…। इसी कविता में आगे वह पंक्तियाँ भी थीं कि… बीस साल बाद और इस शरीर में / सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए / अपने-आप से सवाल करता हूँ – क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है / जिन्हें एक पहिया ढोता है / या इसका कोई खास मतलब होता है?’
      मेरे देश के करोड़ों लोग इसी आजादी का अपना अर्थ तलाश रहे हैं और उनकी तलाश है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो मेरे सामने आज सुबह की एक खबर है जिसमें नट जाति के एक शहीद को गाँव के सवर्णों द्वारा गाँव में कहीं भी न दफनाए जाने देने की बात है। और इस सब के बरक्स फेसबुक से लेकर गली मुहल्लों तक का यह हल्ला कि अब जाति कहाँ बची है। बल्कि अब तो यह क्रम पलट गया है और अब तो सवर्ण जातियाँ ही उत्पीड़ित हैं। आरक्षण को लेकर हमलावर सवर्णों की संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है पर उसी अनुपात में जाति व्यवस्था पर हमला करने वाले सवर्ण दूर दूर तक नहीं दिखाई देते। एकदम यही पैटर्न स्त्री और पुरुष को लेकर भी देखा जा सकता है। कुछ उदाहरणों का सहारा लेकर बहुतेरे यह कहते पाए जाते हैं कि अब पुरुष ही उत्पीड़ित हैं। और वे आसानी से उन तमाम तथ्यों को भूल जाते हैं कि अभी भी स्त्री यौन आधारित हिंसा और पूर्वाग्रहों की भयानक शिकार है। इस वजह से भी और समाज में भरे तमाम पूर्वाग्रहों की वजह से भी उसके आगे बढ़ने के अवसर बेहद कम हैं। वह इस सदियों पुराने भेदभाव का सामना पल प्रतिपल करते हुए आगे बढ़ रही है। पर उसके लिए स्वाधीनता का क्या वही मतलब है जो एक पुरुष के लिए है? अभी भी बहुतेरे पुरुष सगर्व यह कहते हुए मिल जाते हैं कि भई हमने तो उन्हें पूरी आजादी दे रखी है? आपको क्या लगता है कि सचमुच उनके घरों में आजादी जैसी कोई चीज रहती होगी? आजादी का इस तरह का कोई लेन देन संभव है क्या?
यहीं पर हम अली सरदार जाफरी की वह मशहूर कविता कौन आजाद हुआभी याद करते चल सकते हैं जिसमें वह कहते हैं कि – कौन आजाद हुआ? / खंजर आजाद है सीने मे उतरने के लिए / वर्दी आजाद है बेगुनाहों पर जुल्मो सितम के लिए / मौत आजाद है लाशों पर गुजरने के लिए…आजाद भारत में जितनी तेजी से आंतरिक उपनिवेश फैले हैं और उनका विरोध करने पर जिस तरह का दमनचक्र चलाया गया है वह उपलब्धि भी आजाद भारत के ही खाते में जानी चाहिए। तमाम देशी विदेशी कंपनियों की बेलगाम लूट का विरोध करना देशद्रोही और नक्सली होना है। वैसे लोगों के लिए आजादी या स्वाधीनता जैसे शब्दों का मतलब क्या वही है जो उन तमाम कंपनियों में रोजी कमा रहे भारतीय नागरिकों के लिए है? स्वाधीन भारत के लगभग सत्तर सालों में सेना, पुलिस या नौकरशाहों के चरित्र में किस तरह के बदलाव आए हैं? और उनका आजादी के उस महान सपने से कोई रिश्ता नाता बनता है क्या जिसको लेकर लाखों लोग उपनिवेशवाद की लूट के खिलाफ अपने आपको कुर्बान कर देने के लिए सड़कों पर उतर आए थे? एक छोटा सा ही सही पर सवाल तो यह भी है कि अगर व्यवस्था में बैठे कुछ लोगों की आँखों में एक सचमुच की आजादी का सपना बसता भी है तो आजाद भारत की समूची व्यवस्था उनके साथ क्या सलूक करती है।
हमारी सरकारों ने हमको विकसित और स्मार्ट बनाने के लिए कमर कस ली है। स्पेशल इकोनामिक जोन, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, बिजनेस हब जैसी योजनाएँ किन लोगों का सपना हैं? गुड़गाँव, नोएडा, गाजियाबाद जैसे शहरों में जिस तरह से अपराध का ग्राफ बढ़ा है उसके पीछे आजादी की कौन सी परियोजना काम कर रही है यह समझना कठिन है क्या? शहरों में जिस अनुपात में तरह तरह के नशेड़ी और भिखमंगे बढ़ रहे हैं उनके लिए आजादी का कोई मतलब कभी बनता था क्या याकि वे अपनी जीन में ही भिखारीपन और नशेड़ीपन लेकर पैदा हुए थे? उन लाखों बच्चों की आँखों में कौन सी आजादी का सपना लहलहाता होगा जो सड़कों पर तरह तरह के शोषण और हिंसा का शिकार बनते हुए भटकते रहते हैं। कभी उनके लिए भी कोई स्मार्ट सिटी या स्मार्ट स्कूल आदि बनेंगे क्या? यहीं पर सवाल यह भी है कि क्या इरोम शर्मिला और सोनी शोरी जैसी स्त्रियों का भारत माता से कोई रिश्ता बनता है या नहीं? अगर बनता है तो उन आँखों के सपने हममें से ज्यादातर की आँखों से क्यों नहीं जुड़ते? उनके ऊपर की गई हिंसा पर हमारी आँखों में कोई कड़वाहट क्यों नहीं भरती?
किसान स्वाधीन हैं कि वह माटी के मोल अपनी फसलें बेचें या उन्हें खेतों में ही जला दें और भूखों मरें। मजदूर स्वाधीन हैं कि वह बहुत ही कम मजदूरी पर अपना श्रम बेचें या कि भीख माँगें। वैसे जो स्वाधीनता उनको हासिल है उसमें श्रम करने और भीख माँगने में कोई बहुत ज्यादा अंतर बचा भी नहीं है। आदिवासी स्वाधीन हैं कि वह तमाम अंबानियों, अडानियों और वेदांता आदि के जमीन और जंगल खाली कर देने के विनम्र अनुरोध को मान लें और शहरों के स्लम में मर खप जाएँ। इतना ही नहीं उन्हें तो आजादी का दूसरा भी विकल्प हासिल है। स्थानीय दलाल गुंडों और पुलिस, पीएसी के लिए अपनी औरतें परोसें अन्यथा नक्सली होने के आरोप में मारे जाएँ। शहर जाने पर स्थानीय प्रशासन और गुंडों को कुछ घूस वूस देकर स्लम में रहने की पूरी आजादी है उन्हें। इस बात की भी आजादी है कि वे शहरों के सभी अपराधों को अपने सर मत्थे लें और जब कभी शहरों पर सौंदर्यीकरण आदि का भूत सवार हो तो दो चार लाठी खाकर नए स्लम तलाशें।
हिंदी के चर्चित कवि संजय चतुर्वेदी की एक कविता है सभी लोग और बाकी लोग’, जिसमें वह लिखते हैं कि – सभी लोग बराबर हैं / सभी लोग स्वतंत्र हैं / सभी लोग हैं न्याय के हकदार / सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं / बाकी लोग अपने घर जाएँ / सभी लोगों को आजादी है / दिन में, रात में आगे बढ़ने की / ऐश में रहने की / तैश में आने की / सभी लोग रहते हैं सभी जगह / सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं / सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ / सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं / बाकी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ / ये देश सभी लोगों के लिए है / ये दुनिया सभी लोगों के लिए है / हम क्या करें अगर बाकी लोग हैं सभी लोगों से ज्यादा / बाकी लोग अपने घर जाएँ।यहाँ मुद्दा यह है कि सभी लोगों की आँखों में तो एक जैसे सपने हैं पर बाकी लोगों के सपने इतने अलग अलग और एक दूसरे से अपरिचित क्यों हैं? बाकी लोग अभी भी जाति, धर्म और तरह तरह के ऊँच नीच और अंधविश्वासों में खोए हैं और सभी लोग इस काम में उनकी अथाह मदद कर रहे हैं।
शिक्षा एक अलग चीज है। आपको पूरी आजादी है कि सरकारी शिक्षा हासिल करें ठीक उसी तरह जैसे कि सरकार बहादुर को यह आजादी है कि वे सरकारी शिक्षण संस्थानों को भ्रष्ट और नाकारा बनाते जाएँ। यह भी सरकार बहादुर की उदारता है कि अगर आप सरकारी संस्थानों में न पढ़ना चाहें तो कहीं पर लाखों-करोड़ों की डकैती डालें और निजी संस्थानों में क्वालिटी एडुकेशनहासिल करें। आपको आजादी है कि अपनी मातृभाषाओं को भूल जाएँ और अँग्रेजी सीखें। यह भी आजादी है कि अगर अँग्रेजी न सीख पाएँ तो सरकार बहादुर का मुँह भकर भकर ताकें और नौकरी चाकरी न मिलने पर शिकायत न करें। पर नहीं, सरकार बहादुर आपके लिए बहुत फिक्रमंद हैं। आपके सामने एक मौका और है। जमीन बेचें या अपने आपको… बड़ी बड़ी नोटों से दो चार अटैचियाँ भरें और सरकार बहादुर के चरणों में समर्पित कर दें और चाकरी पाएँ। यह भी नहीं कर सकते तो आप किसी काम के नहीं हैं। तब किसी तरह की आजादी का सपना आपकी आँखों का कीचड़ है। तब आप भीख माँगें, अपनी दलाली करें या भूखों मरें। सरकार बहादुर कब तक आपकी चिंता में अपना खून जलाएगी? उसे और भी काम हैं।  
आपको आजादी है कि आप अपने देश के अल्पसंख्यकों से घृणा करें और बदले में उनकी भी घृणा पाएँ। ऐसे मामलों में कई बार सभी लोग और बाकी लोग का मामला जानबूझकर बदल दिया जाता है। आपको पूरी आजादी है कि आप इस बदलाव के पीछे की सियासत को न समझें और मरें और मारें। आप को आजादी है कि ऐसे समय में अपना भूखा-नंगा होना भूल जाएँ। आजादी है कि इस बहाने अपनी दीनता और कुंठा बाहर निकाल फेकें बल्कि उसे चाकू बनाकर अपने पड़ोसी के भीतर उतार दें। आप निश्चिंत रहें कि आप का बाल बाँका नहीं होगा और अगर हो भी गया तो वैसे ही कौन से आपके बाल सुरक्षित हैं। अगर आप अल्पसंख्यक हैं तो आपको पूरी आजादी है कि मारे जाएँ और अपने ही और भीतर घुसते चले जाएँ। बाकी इस बात की तो सभी को पूरी आजादी है कि अपने अपने बाबाओं और बाबियों की चरण रज धो-धोके पिएँ। वे कुछ भी करें उन्हें विरोधियों की साजिश मानें। उन्हें सर पर बैठाओ भले ही वे तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र का ही विसर्जन करें। उन्हें प्रसाद मानने की पूरी आजादी है आपको।
आपको पूरी आजादी है कि बरगद में सूती धागा बाँधें। पीपल पर के पहलवान को लँगोट चढ़ाएँ। भूतों से मुक्ति पाने के लिए ओझाओं और मजारों के चक्कर काटें। पूरी आजादी है कि आप मानें कि यह दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी है और जन्नत में हूरें या अप्सराएँ मिलती हैं। आप देखेंगे कि आपकी व्यवस्था कितनी उदार है कि ऐसा करने से आपको एक बार भी नहीं रोकेगी। उसे आपकी आजादी का पूरा पूरा खयाल है। आपको आजादी है हजारों साल पहले के समय में वापस लौटने की। आपको पूरी आजादी है एक दिशाहीन बर्बर पागल जानवर में बदल जाने की, बस सरकार बहादुर की इतनी ही गुजारिश है कि आप उसके काम आते रहें। आपको पूरी आजादी है कि कोई कलबुर्गी, कोई पानसरे अगर आपके एक घिनौने मनुष्य होने पर सवाल उठाए तो सरकार बहादुर की तरफ से उसे फाड़ खाएँ। आपको पूरी आजादी है बल्कि सरकार बहादुर का पूरा समर्थन है इस मसले पर। और आप जानते हैं कि इस आजादी का आप पूरा फायदा उठाते हैं।
आप भाग्यशाली हैं कि आप के पास अपना कहने के लिए एक देश है। आप और भाग्यशाली हैं कि आपको भारत जैसा देश मिला है। इतना खूबसूरत, इतना विविधता से भरा, इतनी भाषाएँ, इतनी संस्कृतियाँ। आपको आजादी है कि आप देश से प्रेम करें और इसकी विविधता से घृणा। आपको आजादी है कि अपने धर्म से प्रेम और संस्कृति से प्रेम करें और पड़ोसी की धर्म और संस्कृति पर लानत भेजें। इस मसले पर भी आपको सरकार बहादुर की तरफ से पूरी आजादी है। आपको आजादी है कि आप सेना में भर्ती होकर देश के भीतर या बाहर के अपने जैसे लोगों से लड़ते हुए जान दे दें। आपको यह भी आजादी है कि सेना में भर्ती के लिए आयोजित होने वाली दौड़ में उत्तीर्ण होने के लिए किसी उत्तेजक दवा का सहारा लेकर दौड़ते डौड़ते अपनी जान दे दें। आपको किसी भी तरह से मरने की पूरी आजादी है। सीमा पर मरें या देश के भीतर मरें। अपने गले में फाँसी का फंदा डालकर मरें या सल्फास खाकर मरें। पड़ोसी के हाथों मरें या किसी हत्यारे के हाथों। कुछ भी न हो तो भूख से ही मर जाएँ। इतनी असीमित आजादी आपको इतिहास में पहले कभी हासिल थी क्या

रविवार डाइजेस्ट के स्वाधीनता अंक से साभार 
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5 comments

  1. बहुत बेहतरीन लेख है | कई पहलुओं पर खुलकर लिखा है | बधाई |

  2. एक और आजादी कि आप किसी के लिये कुछ भी ऐसा वैसा लिख बोलकर बुद्धिवादी कहलाएं और सुर्खियाँ बटोरें . समाज की बुराइयों को कुरेद कुरेद कर कचरा फैलाएं पर सफाई के नाम पर हाथ खडे करदें और आप आजाद हैं कि किसी भी महापुरुष के चरित्र का विश्लेषण करें और उसके योगदान को पीछे धकेलकर उसके चरित्र में गन्दगी तलाशें..आज हर बुद्धिमान इसी आजादी का उपयोग कर रहा है .

  3. अपने बहुत उम्दा लेख लिखा है 70 साल की आज़ादी पर बहुत बारीकी से सोचा.कोई भी बिंदु नहीं छुट पाया है.१५ अगस्त या २६ january का मतलब धीरे-धीरे माल में डिस्काउंट सेल और खरीदारी करना रह गया है

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