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वे सत्यजीत रे का घर देखना चाहते थे

अभी बीते २ मई को महान फिल्मकार सत्यजित रे की जयंती थी. उनको, बांग्ला सिनेमा पर उनके प्रभावों को लेकर उनके सिनेमाकार पुत्र संदीप रे ने कल के इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था. यहां उसका अनुवाद दिया जा रहा है. 
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बाबा को गुजरे बीस साल हो गए, लेकिन ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो. वह हमारे बीच अब भी एक से अधिक कारणों से हैं. उनकी यादें हमारे साथ हैं. इसी तरह उनकी फ़िल्में और उसके अलावा उन्होंने जो कुछ किया, आश्चर्य की बात है कि वे आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं. इतने समय बाद भी उनकी फिल्मों और साहित्यिक कृतियों को लेकर इतना उत्साह बना हुआ है. उनकी फ़िल्में आज भी भारत और विदेशों में देखी जाती हैं और उनके ऊपर आज भी रिसर्च हो रहे हैं. नए सिने-निर्देशक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं, उनकी सिने दृष्टि की अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं और फिल्म निर्माण की उनकी शैली का उपयोग कर रहे हैं. केवल बांग्ला में नहीं बल्कि अन्य भाषाओं में भी, तथा उनको एक नए स्तर पर ले जा रहे हैं. लोग अब भी उनकी किताबें पढते हैं, जो जवानों और बूढों को एकसमान भाव से आकर्षित करते हैं.

मुझे आज तक सत्यजित रे के ऊपर चलने वाले अलग-अलग प्रोजेक्ट्स को लेकर फोन आते रहते हैं. मुझे जो हो सकता है मैं करता हूं. कुछ दिनों पहले कुछ फ्रेंच पर्यटक मेरे पास आये- वे सत्यजीत रे का घर देखना चाहते थे. वे ‘जलसाघर’ के लोकेशन पर भी जाना चाहते थे. मैंने उनको मुर्शिदाबाद के उस घर का पता दे दिया जहां उस फिल्म की शूटिंग हुई थी. लेकिन वहां जाकर उनको बहुत निराशा हुई क्योंकि घर जर्जर हो चुका था. उनको संरक्षित करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया, लेकिन उनकी फिल्मों और उनके साहित्य को संरक्षित रखने के लिए हम बेहतरीन प्रयास कर रहे हैं.

२३ अप्रैल १९९२ को हुई उनकी मृत्यु के बाद उनकी फिल्मों, लेखन, स्केचबुक और रेखांकनों को संरक्षित रखने के लिए रे सोसाइटी का गठन हुआ. हमारी योजना है कि रे फिल्म एंड स्टडी सेंटर का गठन किया जाए जिसमें फिल्म देखने के लिए कमरे भी हों. उनको ऑस्कर मिलने के बाद उनकी फिल्मों के पुनरोद्धार का काम आरम्भ हुआ. द एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंस एक डेमो चाहते थे, तब जाकर हमें इसका अंदाज हुआ कि उनकी फ़िल्में कितनी बुरी हालत में हैं. हमने तत्काल उनकी फिल्मों को बचाने के लिए आवश्यक रासायनिक क्रिया आरम्भ कर दी. अब वे सारी सुरक्षित हैं, हमने उनको डिजिटल बना दिया है.

फिल्मकार के रूप में अपनी यात्रा की शुरुआत में मेरे ऊपर बहुत दबाव था, बड़ी उम्मीदें थीं, क्योंकि मैं सत्यजित रे का बेटा था. धीरे-धीरे मैंने इस बात को समझ लिया कि अगर मैं इसके बारे में सोचता रहा तो मेरे ऊपर बेवजह दबाव बढ़ता रहेगा. मैं जानता था कि मुझे बहुत सावधान रहना होगा. मैंने बाबा की टीम के लोगों के साथ काम किया और उनमें से कई आज भी मेरी टीम के गहरे हिस्से हैं. उनके साथ बातचीत से मुझे भरपूर समर्थन मिला. हालाँकि, निर्देशक के तौर पर मेरे लिए सबसे बड़ी मदद यह थी कि मैंने बाबा को बहुत नजदीक से काम करते हुए देखा था. मैं काम करने के उनके सलीके की नक़ल करने की कोशिश करता हूं, जो बहुत तेज था और बहुत किफायती भी. शोध और होमवर्क पर काफी मेहनत की जाती थी. उस जमाने में बाजार बहुत बड़ा नहीं था. आजकल तो हमारी फ़िल्में अलग-अलग राज्यों में रिलीज होने लगी हैं. बाबा की फ़िल्में कोलकाता में रिलीज होती थीं और विदेशों में. वे बहुत सावधानीपूर्वक उनकी योजना बनाते थे और फिर फिल्म बनाते थे. उनका सिद्धांत यह था कि एक प्रोड्यूसर को उसका वह पैसा वापस मिल जाना चाहिए जो मैं उससे ले रहा हूं, और अगर कुछ कमाई हो जाए तो और बेहतर. यह एक ऐसी बात है जिसका मैं भी पालन करने की कोशिश करता हूं और एक फिल्मकार के बतौर इसने मेरी मदद की है.

बांग्ला में फिल्म बनाना अब मजेदार हो गया है. अनेक तरह विषयों विधाओं में काम हो रहा है. नए दौर के सिनेमाकार शानदार फिल्मों के साथ आ रहे हैं. हम ऐसे ऐसे विषयों के बारे में सुन-देख रहे हैं जिनके बारे में कुछ साल पहले तक सुना भी नहीं जाता था. उम्मीद करता हूं कि यह दौर चलता रहे और हमें कुछ और मजेदार फ़िल्में देखने को मिलें. हालाँकि कुछ साल पहले इंडस्ट्री में बुरा दौर चल रहा था. लोग बांग्ला फ़िल्में देखने के लिए सिनेमा हॉल नहीं जा रहे थे. मल्टीप्लेक्स के आने के बाद ऐसी फिल्मों को लेकर प्रतियोगिता बढ़ गई है जो देखने अच्छी लगें. इसके अलावा कुछ बेहतर फिल्मों ने दर्शकों को हॉल में वापस खींचा है. नए प्रोडक्शन हाउस भी वरदान की तरह साबित हुए हैं क्योंकि वे अच्छी फिल्मों को समर्थन दे रहे हैं.

सवाल यह नहीं है कि नए सिनेमाकार रे की सिनेमा दृष्टि को आगे ले जा रहे हैं. वे गहरा शोध करके अलग-अलग तरह की फ़िल्में बना रहे हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि वे सब रे को अपने-अपने ढंग से सलाम कर रहे हैं. उनकी फिल्मों में रे के सन्दर्भ अनेक तरह से आते हैं- किस्सों के रूप में, संवाद के रूप में या कभी-कभी उनकी फिल्मों का उनमें उल्लेख भर होता है. इनके पीछे बहुत गर्मजोशी और सम्मान छिपा होता है.

दो हालिया उदाहरण हैं सुजॉय घोष की फिल्म ‘कहानी’ और अनिल दत्ता की ‘भूतेर भोबिष्योति’. सुजॉय ने अपने अनेक इंटरव्यू में कहा है कि उन्होंने हाल की अपनी इस धमाकेदार फिल्म के लिए रे का इस्तेमाल किस तरह से किया है. कुछ दिन पहले उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए पूछा, ‘आपको पता चला कि मैंने कहां से कॉपी की है?’ उसमें ‘जय बाबा फेलुनाथ’ और ‘चारुलता’ के सन्दर्भ आते हैं. ‘भूतेर भोबिष्योति’ पागल कर देने वाली फिल्म है, अपने तरह की खास. बंगला सिनेमा का यह महत्वपूर्ण स्तंभ है. दर्शकों को इसमें मजा आ रहा है और इसके सारे कलाकारों ने जबरदस्त काम किया है. यहां भी बाबा की फिल्मों के सन्दर्भ आते हैं, उनके डायलॉग्स पर असर दिखता है. सृजित मुखर्जी भी छाये हुए हैं, उनकी पहली फिल्म ‘ऑटोग्राफ’ ने बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छा किया और आलोचकों ने भी उसे सराहा, वह फिल्म सीधे तौर पर ‘नायक’ फिल्म के प्रति सम्मान अर्पण है.  
 
      

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4 comments

  1. BADHIYAA AALEKH

  2. बहुत शानदार लेख ! भारतीय ही नहीं विश्व सिनेमा को सत्यजित रे के दाय को पूरा सम्मान दिया आपने !
    बधाई प्रभात जी !

  3. Salute Satyajit Ray for his great contribution to cinema as an art form.

  4. एक आत्मीय लेख…भीतर तक की यात्रा कराता हुआ.

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