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तसनीम खान की कहानी

विभाजन त्रासदी को क्या किसी एक दिन या एक साल से जोड़ कर देखा जा सकता है ? विभाजन वर्ष केवल एक है लेकिन उससे जुड़ी भयानक स्मृतियाँ एक निश्चित समय की नहीं हो सकती हैं। विभाजन पर भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ सबके ध्यान में होगा, जो विभाजन के लगभग 35 वर्ष बाद सबके सामने आया। आज आज़ादी के ठीक 75 बरस बाद जब देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब तसनीम ख़ान एक नयी कहानी हमारे सामने ले कर आती है ‘पैरों में फिर पीड़ उठी है’। जिसे पढ़ते हुए अफ़सोस होता है कि इतने बरस बाद भी ऐसी परिस्थिति बना दी गई जिससे कि विभाजन त्रासदी फिर ताज़ा हो जाए। इसे पढ़ते हुए एक-एक कर कितने ही विभाजन-संबंधी क़िस्से सामने घूम गए लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं कि इसमें दुहराव है। विषय में समानता होने के बाद भी तसनीम ने बेहद ही नए सिरे से इस कहानी को बुना है और यह नयापन देश की मौजूदा सरकार की ‘सीएए’ से जुड़ कर आता है, जिस ‘एक्ट’ ने उन ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया जिसे लोग भूलना चाह रहे होंगे लेकिन उनके ‘पैरों में पीड़ फिर उठ गई।’  यह कहानी पहले ‘मधुमति’ (अंक जुलाई 2021) में प्रकाशित हो चुकी है। अब ‘जानकीपुल’ पर भी यह उपलब्ध है। आप भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी

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आम दिनों सी रौनक नहीं थी घर में। सब चुप-चुप सा था। कोई सुनसान सा। एक सदमा सा जैसे चारों ओर फैलता जा रहा था। चौक, कमरे, बरामदा, चौका। सब पर चुप्पी थी। ऐसा नहीं था कि घर में कोई नहीं था। वही बरसों का कुटुम्ब था। चार भाई, उनकी बीवियाँ, बच्चे और उन सभी के अब्बा-अम्मा। अब्बा-अम्मा की चारों बहुएं भी इन दिनों एक-दूसरे की ओर हँसकर नहीं देखतीं। कोई बरतन नहीं टकराता था और न ही कोई आवाज़, न कोई काँधा ही टकराता। न अब्बा किसी को डाँटते और न ही कोई उनकी आवाज़ से सहम जाता। कोई 83 बरस गुजार चुके थे दुनिया में फिर भी कमर झुकी न थी। कोई 6 फीट लम्बे अब्बा पैरों में दर्द के मारे चलते तो छड़ी लेकर थे लेकिन लम्बे—लम्बे पैरों से लम्बी फलांगे यों मारते कि साथ चलते चारों बेटे पीछे ही रह जाते। वो पलट कर मुस्कुराते तो उनका रौब खूब दिखाई देता। उस वक्त वे पैरों का दर्द भी भूल जाते। घर भर में सबसे तेज़ आवाज़ किसी की सुनी जाती तो वो अब्बा की ही थी। सबसे तेज़ हँसी भी। खाना खाने के बाद अल्लाह का शुक्र अदा भी वे तेज़ आवाज़ में करते। लेकिन इन दिनों यह तेज़ आवाज़ आती ही न थी। वो खामोश रहते। अक्सर धीमी आवाज में टीवी देखते। फिर कोई उदासी घेर लेती और वो अपनी रजाई ओढ़ सोने का जतन करते देखे जाते। सर्दी भी इस बार खूब पड़ रही थी। दिसंबर बीतने जा रहा था। हमेशा सर्दी ज्यादा ही होती, पर इस बार सितम और भी था। अम्मा उनके नींद के जतन को खूब समझती। वो भी उनकी रजाई ठीक करने, कंधों तक ओढाने का जतन करती, जैसे उनकी खामोशी को पढ़ रही हो। फिर वो भी अपने पानदान की डब्बियों को बेवजह बाहर निकालती और फिर उसे भर देती। चौक में लगे पलंग पर धूप सेंकती अपनी चारों बहुओं की फुसफुसाहट को ताकती और देखती सब कितना बदल गया इन दिनों। बाहर एक दीवार सी खिंच रही थी तो घर के भीतर नाइत्तेफाकी की दीवारें इन्हीं दिनों में गिर गई थी।

‘जाहिदा…’ अब्बा ने शाम का खाना खाकर, अपने धोए हाथ तौलिए से पौंछते धीमे से अम्मा को आवाज दी थी। ‘जी…’ अम्मा उसी तखत पर बैठी थी, आवाज देने पर पास आ गई। ‘वो दोपहर को चारों भाई क्या बात कर रहे थे?’ अम्मा कुछ सकपका गई। उन्हें लगा था कि वो सो रहे हैं और चारों भाई भी, वो सुन न सकें इसलिए बहुत धीमे ही बात कर रहे थे, फिर भी अब्बा को भनक थी कुछ। ‘अअ, आं, हां, कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।’ ‘मैंने सुना फिरोज जोधपुर वाले घर के बारे में कुछ कह रहा था।’ ‘अजी, नहीं जी। आपने शायद यों ही सुन लिया। आपके दिमाग में वही कुछ चल रहा होता है न।’ उन्होंने अब्बा के हाथ से तौलिया लेकर दरवाजे पर फैलाते हुए कुछ अटकते हुए कहा। अब्बा ने गहरी नज़रों से उनकी ओर देखा, वो फिर सकपका गई। बिना बात ही पान लगाने लगी। ‘फिरोज कह रहा था कि रमेश जी जोधपुर वाले घर की आधी कीमत भी देने को तैयार नहीं। कल तक जो मुंह मांगी कीमत दे रहे थे, वो आज आधी भी नहीं दे रहे। आखिर क्या हो गया है सबको?’ ‘अजी, आप क्यूं परेशान होते हैं, चारों भाई जानें। हमारी तो उम्र हो चुकी। अब उनके नसीब में क्या है, अल्लाह बेहतर जानता है। आप आराम करो।’ ‘नहीं जाहिदा, बात उनके नसीब की नहीं है। बात मेरी मेहनत की है, मेरी मेहनत की कमाई की है। मैंने उस घर की हर ईंट को सींचा। उसके लिए मीलों पैदल चला हूं मैं। इतना कि छाले पड़ गए। लेकिन खुश था कि पहली बार मैं अपनी ही जमीन पर अपने लिए छत डाल रहा हूं। यहां यह घर तो बाउजी का है, लेकिन वो मेरा… मेरा अपना घर। हमने तो यही सोचा था ना कि उस एक घर की कीमत में चारों बेटों को अलग घर मिल जाएंगे। सब अपनी गृहस्थी में मजे में रहेंगे। मगर, मगर… अब लोग ऐसे जताने लगे कि वो मेरा कभी था ही नहीं। क्या वाकई इस जमीन पर मेरा कोई हक नहीं?’ उनके चेहरे का रौब उदासी में तब्दील हो गया था और कड़क आवाज भर्रा रही थी। इस उम्र में भी गठीले बदन वाले अब्बा का शरीर कम्पन कर रहा था। उन्हें दांत भींचता देख अम्मा पान छोड़ उठी और दोनों हाथों का घेरा बना उन्हें सहारा दिया। ‘कुछ नहीं है, हाफिज साहब, कुछ नहीं। सब ठीक होगा।’ अचानक हाथों का घेरा समेटा और कंधों पर रख बोली। आप ये जो दिनभर टीवी देखते हो न, इसका नतीजा है कि आप दिलो—दिमाग को इतनी तकलीफ दे रहे हो। कल ही हटवाती हूं इसे यहां से।’ उनकी बात में एक थपकी सी थी और दिलासा भी। ‘दिलासा मत दो जाहिदा। हालत इतने भी आसान नहीं रहे।

देखो शाहीन बाग को 10 दिन ही हुए और माहौल कितना खराब हो गया। अब मेरे पास तो न मेरे मां—बाप के कागज हैं और ही मेरे या तेरे यहां पैदा होने के। हमारे साथ, हमारे बच्चों को भी बुरे दिन न देखने पड़ जाएं। कहां से लाउं वो कागज जो बता सकें कि यह जमीन, यह मिट्टी मेरी ही है।’ ‘फिर वही बात, आप सोचो मत, सो जाओ तो मन हल्का रहेगा।’ ‘हंसते—खेलते रिश्ते दिन ब दिन बिगड़ते चले जा रहे हैं, तो मैं चैन से कैसे सो सकता हूं जाहिदा? जो रमेश जी, दिन—रात भाईजी भाईजी कहते नहीं थकते, वो आज सब भूल गए। अपना सबकुछ हम पर न्यौछावर करने वाले रमेश जी आज मौके का फायदा उठा रहे।’ ‘फायदा क्या उठा रहे, धमकी ही दे रहे हैं कि अब यहां वैसे भी कौन रहने देगा। कह रहे थे कि हो सकता है अपनी जमीनों से बेदखल कर दिए जाओ, तो बेहतर है जो दे रहे हैं, चुपचाप ले लो।’ अफरोज ने उनके सामने रखी कुर्सी पर बैठते कहा। अम्मा ने उस पर आंख निकाली, चुप रहने का इशारा किया, लेकिन उसे अनदेखा कर दिया गया। ‘अब्बा, अभी आधी दे रहा है, वही ले लेते हैं, आगे यह भी नहीं मिलने वाला।’ ‘कैसे नहीं मिलने वाला। और बात कीमत की भी नहीं, बात रिश्तों की है, माहौल की है। क्या इन दस दिनों में इंसान ही बदल गए अफरोज। ये वही तो लोग हैं, जिनके मोहल्ले में अकेला हमारा मुसलमानों का परिवार था, लेकिन कभी किसी ने महसूस ही नहीं होने दिया और आज वही आंख फेर रहे हैं। घर की कीमत आधी हो गई और हमारे रिश्तों की कीमत खत्म?’

‘अब्बा आप क्यूं मलाल कर रहे हैं। उस घर से हमें कुछ ना मिले तो भी क्या। यह घर तो है ना। हम चारों के लिए यह एक छत बहुत है।’ सबसे बड़े बेटे फिरोज ने उन्हें लेटाते हुए कहा। उसकी झूठी मुस्कुराहट उन्हें समझ आ रही थी। ‘जोधपुर के उस मोहल्ले की छोड़ो, हमारा यह डीडवाना का कस्बा कितना अच्छा है। अच्छा, अब्बा देखो, अगला साल 2020 खत्म होने से पहले ही उपर एक कमरा और चुनवा दूंगा। जमील की शिकायत दूर हो जाएगी कि वो छोटा है तो सबसे छोटा कमरा उसके हिस्से आया।’ फिरोज ने लेटे हुए अब्बा के पैर सहलाते कहा। वो बचपन से ही अब्बा के पैर सहलाता रहा। वो जरा बड़ा हुआ तभी से अब्बा जब भी लेटते उसे आवाज लगा देते। वो कई देर तक अब्बा के पैर सहलाता रहता और अब्बा सुकून से सो जाते। कभी—कभार बुदबुदाते भी। ‘अब पीड़ ठंडी पड़ी है।’ तब वो नहीं समझता कि कौनसी पीड़ ठंडी पड़ी है। उसने कभी पूछा ही नहीं। अब बखूबी समझता है कि अब्बा की कोई भी पीड़ ठंडी ऐसे ही पड़ती है। उसे उनका मीलों चलने का दर्द खुद में महसूस होता और वो कभी—कभार रातभर उनके पैर ही सहलाता रहता।

‘पर मेरी जमीन का क्या फिरोज? ये सब जमीन मेरी नहीं है क्या?’ फिर उनकी आवाज भर्रा रही थी। अम्मा ने झट से उनके सिर पर हाथ रख तसल्ली दी। ‘देखो, सब हमारा ही है। चार बेटे, बहुएं, बच्चे, ये घर, जमीन, आसमान सब।’ ‘क्यूं दिलासे देती हो जाहिदा। तुम जानती हो, मेरे लिए जमीन का मतलब क्या है। यह कहते हुए उन्होंने करवट ले ली।’ उनके करवट लेने का मतलब सभी समझते। फिरोज, छोटे भाई अफरोज पर आंखें तरेरते बाहर निकल गया। पीछे अफरोज भी। अम्मा कुछ देर उनके सिर पर हाथ फिराती रही, उनके चेहरे को गौर से देखा। वहां झुर्रियों में बरसों के उतार—चढ़ाव देख वो खामोश थी। कुछ न कहा। और दिन वो उनके खामोशी से घबरा जाती कि कहीं फिर दिल का दौरा न पड़ जाए। उनकी उम्र अम्मा को अब डराती। लेकिन इस वक्त अब्बा को अकेला खामोशी से लेटने देना ही उन्हें ठीक लगा।

कुछ दर्द खामोशी की दवा से ही ठीक होते हैं। वैसे भी उनके जख्म उनकी यादों में भरते हैं और खुलते भी हैं, कभी जलते भी हैं। जुलाई आखिर का कोई दिन रहा होगा, जब भारत—पाकिस्तान के अलग—अलग आजाद होने की सुन अफरा—तफरी का माहौल सा था। बाड़मेर सीमा के बाद का बड़ा शहर होने के चलते दोनों तरफ के लोगों का जमघट सा लगा था जोधपुर में। जाने वालों के लिए भी और आने वालों के लिए भी यह कोई आखिर बार मिला देने वाला शहर था। यहीं आखिरी बार उस घर में झगड़े की आवाजें सुनाई दी थी। जो खाप्टे वाली मस्जिद के बिलकुल सामने था। ‘हम वहां नहीं जाएंगे। हमारा सबकुछ यहीं है, हम कहीं नहीं जा रहे हैं।’ यह कहते मीर बक्श जी ने रफीका के हाथ से उसके सामान का बक्सा दालान में फेंक दिया था। वो पांचों भाई और उनकी दो साल की बहन सहमे हुए सब देख रहे थे। यों भी बड़े भाई 20 साल के आमिर और इन पांच भाइयों को दालान में हर दिन दोनों के झगड़े सुनने की आदत सी थी। वो सहमकर दोनों के मारपीट तक पहुंच चुके झगड़े के खत्म होने का इंतजार करते रहते। छोटी आशिया अभी यह सब समझती न थी। ‘तुम्हें अपनी जान की न पड़ी हो। मुझे तो मेरी और मेरे बच्चों की जान प्यारी है। हम जाएंगे। और हमारे सभी रिश्तेदार भी तो वहां जा रहे हैं। फिर हम यहां रहकर क्या करेंगे।’ उसने आखिरी बार समझाने का दांव खेला हो जैसे। ‘कुछ भी करेंगे, लेकिन मेरी मिट्टी छोड़ नहीं जाउंगा।’ ‘तो मरो इस मिट्टी में, मैं अपने भाइयों के साथ जाउंगी।’ रफीका ने बड़ा कठोर फैसला सुनाया था, इस दालान में। ‘तुम ऐसा नहीं कर सकती। और आमिर ने भरोसा दिलाया है न, कुछ न होगा। वो नायब तहसीलदार का इंस्पेक्टर है। उसके चलते कोई हमारे घर की तरफ देखेगा भी नहीं।’ ‘मुझे नहीं चाहिए आमिर और तुम, दोनों रहो यहां। वो अपनी इंस्पेक्टरी नहीं छोड़ेगा और तुम यह देश। और मैं तुम सबको छोड़ दूंगी। मेरे इन बच्चों का मुस्तकबिल यहां दिखाई नहीं देता मुझे। यहां पता नहीं कब मारे जाएं।’ उसने अपनी दो साल की बेटी आशिया को सीने से लगा लिया। अपने सात बच्चों में से 20 साल के आमिर को लेकर उसे कोई खास लगाव न था। वो हमेशा उसे अपने खिलाफ और मीर बक्श यानी उसके शौहर की ओर झुकाव लिए ही पाती। सारे रिश्तेदारों को अपने घर छोड़ पाकिस्तान जाते देख—सुन उसका दिल घबरा जाता था। वो रात—रातभर अपने बच्चों की ओर देखती। आमिर को छोड़ पांच और बेटे और एक बेटी आशिया के लिए अनजाना ही डर सताए जाता। अब जब उसके मां—बाप के साथ सभी भाइयों ने पाकिस्तान जाना तय किया तो उसने भी बक्सा तैयार कर लिया। पर मीर बक्श यह जगह छोड़ने तैयार नहीं थे।

‘रफीका, हम यहीं खुश रहेंगे देखना। यह दिन टल जाने दे बस।’ उन्होंने भी अकेले होने से पहले छूटती जिंदगी को एक और मौका दिया जैसे। लेकिन रफीका ने पलटकर नहीं देखा। भाइयों ने सामान उठाया और उसने सबसे छोटे दोनों बच्चों को सीने से लगाया। मीर बक्श उस जिद्दी औरत को जाते हुए देर तक देखते रहे। जब तक खाप्टे के इस मोड़ से वो मुड़ न गई। छोटी आशिया अपनी मां के कंधे से सटी अनजाने ही अपने अब्बा को सिर पर हाथ रखे सलाम कर रही थी। पांचों बेटों में से अकेला हाफिज उन्हें मुड़—मुड़कर देख रहा था। उसने कहा था अब्बा से कि वो कहीं नहीं जाना चाहता, लेकिन मां ने उसे नहीं छोड़ा। वो भी खाप्टे के उस मोड़ पर बहुत कुछ छोड़े जा रहा था। उसके घर का दरवाजा छूट भले गया, लेकिन उसकी नज़रों के भीतर से ओझल न हो सका। अपने अब्बा की, उनके मोड़ से मुड़ आने की उम्मीद भरी नजरें उसकी धड़कनों को तोड़ रही थीं। उसने कसकर अपने कुर्ते के उपर से सीने को पकड़ रखा था। दूसरे हाथ की छोटी गठरी उस पर भारी होने लगी। अब्बा कहते, कोई बवाल न होगा। देखना सब ठीक होगा। हम हंसी—खुशी अपनी ही जमीन पर रहेंगे। जमीन का मतलब उनके लिए कोई घर न था, वो दस साल का हाफिज़ बखूबी समझता। फिर वो मिट्टी में खेलते—खेलते मुट्ठी भर उसकी खुश्बू सूंघ लेता। गीली मिट्टी से अपने घर बनाते—बनाते वो उस घर के पास ही लेट जाता। फिर उसे मिट्टी में सना देख अम्मा उसकी तबीयत सुधार देती। वो खुशबू उसके साथ—साथ रही और अब्बा की एक जोड़ी वो आंखें भी। बवाल के माहौल से ठीक पहले वे लोग मीरपुर खास पहुंच चुके थे। कुछ ट्रेन, कुछ बस और कुछ सफर पैदल निकला। इधर भी वही अफरा—तफरी मची थी। सिंध प्रांत का यह इलाका लगभग खाली हो गया था। यहां रहने वाले सिंधी लोग बस्ती छोड़ निकल चुके थे। बाकी भी अपना सामान समेट रहे थे आजादी का दिन आने से पहले, सभी को अपनी जगह नहीं, अपना देश भी बदलना था। किसी बवाल के अंदेशे में हर कोई कांपता फिर रहा था। लोग अपनी पीढ़ियों से सींचे पुश्तैनी मकान छोड़ गए थे। मकान ही क्या, भरे—पूरे घर ही थे। अनाजों के ड्रम भरे थे और कपड़ों की गठरियां भी गली भर में बिखरी मिली। अम्मा रफीका अपनी तेज तर्रार आदतों से खानदान भर में मशहूर थी और यहां आते ही खूब होशियारी दिखाई। सिंधी बस्ती के दो घर रोके थे उसने। रोकना तो पांच चाहती थी, अपने बेटों के लिए, लेकिन उसके भाईयों को भी तो घर चाहिए थे। वो मन मसोस कर उन दो घरों को फिर बसाने में जुट गई। लेकिन क्या बसा था। कुछ भी तो न बसा था। बवाल बढ़ता जा रहा था और गलियों में सन्नाटा पसर रहा था। दूसरी ओर से आकर बसे इंसान भी इस बस्ती में कोई खुश न दिखाई दे रहे थे। हर घर में पथराई आंखों के कुछ लोग रहा करते। बच्चों की आंखें भी तो पथरा गई थी। अपने मोड़, अपनी दहलीजें, खेल के दोस्त, घर के दालान, कुछ की मां, कुछ के बाप और कुछ के बच्चे यहां रहने वालों की यादों में घूमते, उनके भीतर शोर मचाए रखते और बाहर कचोटने वाला सन्नाटा। दिन में कई बार अपनी अम्मा और अब्बा को लड़ते सुनने वाले हाफिज की आंखें क्या कान भी पथरा गए। ऐसे कि अब भी वो सुन्न होकर बस उन्हीं आवाजों को सुनने की कोशिश करते। आंख—कान क्यों उसकी तो नाक तक पथरा गई थी। अपने दालान की मिट्टी उसे अपने शरीर पर मली लगती और वो चौंककर अपन कुर्ते के भीतर झांकने लगता। इस पथराई बस्ती, जो अब सिंधी बस्ती की बजाय सैयदों की बस्ती कही जाने लगी, उसी में रह रहे पथराए लोगों की जिंदगी रूकी नहीं थी। चलती जा रही थी। चली जा रही थी। दो घरों में से एक में रफीका ने किराएदार रख लिए, तो इस बड़े परिवार को खाने की कमी न आई। उस एक घर में वो सात लोग अपनी जिंदगी को सहज बनाने में जुटे थे। कोई सहज नहीं हो पा रहा था, तो वो हाफिज ही था। वो अपनी अम्मा के बताए काम खामोशी से किसी बेजान मशीन की तरह किए जाता। बात तो वो किसी से नहीं करता। वो बस देखता रहता कि कैसे तीनों बड़े भाई और एक छोटा भाई यहां रम गए थे। दो बड़े भाई नए आए लोगों के लिए टूटे—फूटे घरों को ठीक करने की मजदूरी कर थोड़ा बहुत कमा लेते। वहीं तीसरे ने घर के बाहर ही कुछ पुराने कपड़ों की दुकान खोली थी। नए आए लोगों को कम दामों पर गली—गली की गठरियां जोड़ इकट्ठा किए कपड़े बेच देता। हाफिज उनके लिए कोई काम का नहीं था तो अम्मा उससे घर के काम कराती। वो आशिया को बहलाने से लेकर कपड़े धोना, सफाई करने तक का सारा काम करता। छोटा भाई भी इसमें हाथ बंटा देता। वो मिट्टी से बर्तनों को रगड़ते हुए कई बार उसे सूंघ लेता, लेकिन कोई ऐसी खुश्बू न थी, जो उसके भीतर बसी खुश्बू से मेल खाती हो। यह करता देख, कभी—कभार अम्मा की डांट तो कभी एक थप्पड़ आ लगता गाल पर। ‘ये मिट्टी खा—खाकर ही गलता जा रहा है। जितना खिलाती हूं अंग नहीं लगता तुझे। जाने किस पे चला गया मनहूस।’ मनहूस भी उसे यों कहा जाता कि वो अपने सात भाई—बहनों में कुछ काला था और बेहद कमजोर डील—डौल का। बड़े भाई कालू कह देते, तो मां मनहूस, बद्सूरत जैसा ही कुछ। वो मीर बख्श और बड़े बेटे आमिर को लेकर जो भी कुंठा होती वो हाफिज पर ही निकालती। हालांकि अकेले में उसे इस बात पर अपराध बोध भी होता, खुद को खूब झिड़कती भी। उसे फिर मीर बक्श और आमिर पर गुस्सा हो आता कि वो दोनों भी साथ आते तो घर में इतनी मायूसी पसरी न होती। वो किसी कोने में जार—जार रोती और मीर बख्श के पाकिस्तान आ जाने की दुआएं मांगा करती। जब भी हिंदुस्तान का कोई जत्था आता तो वो छत से उन जाते लोगों की भीड़ में कभी आमिर को तलाशती तो कभी मीर बख्श को। हालांकि वो तलाशना चाहती नहीं थी, वो तो बस अपने अपराधबोध को कम करने का एक उपक्रम भर करती। शायद ऐसा कर वो अपने मन का कोई बोझ कम करने की कोशिश में लगी रहती लेकिन कभी उसे भी नहीं लगा कि कोई राहत मिली हो । कभी वो बड़ी परेशान हो जाती यह सोचकर कि आमिर की शादी हुई होगी तो बहू को आमिर और उसके ससुर मीर बख्श ने सास के बारे में क्या बताया होगा? ‘बताया होगा कि कोई पत्थर दिल थी। या कि उसे मीर बख्श से ज्यादा अपने भाई प्यारे थे। अपने बड़े दालान वाले घर को छोड़, यहां दूसरे वतन में लोगों के मजबूरी में छोड़े गए घरों को शान से चोरी कर लेने वाली एक बदगुमान औरत है।’ उसने अपने दुपट्टे से मुंह को ढक लिया। ऐसे ही मुंह ढकते और कभी खुद को सही साबित करने वाली उहापोह में गुजरती रफीका ने यहां तीन साल गुजार लिए थे।

सरकार ने उनके रोके घरों को उनके नाम कर दिया था। जिंदगी कुछ सामान्य होने लगी थी। हिंदुस्तान से चिट्ठी—पत्री के सिलसिले भी शुरू हुए। लेकिन उनके घर न कोई खत आता, न ही भेजा जाता। ना, ऐसा नहीं है कि लिखा नहीं जाता। लिखा क्या, लिखे जाते थे। रफीका लिख देती कि ‘यहां आ जाओ, सभी हंसी—खुशी साथ रहेंगे। कोई झगड़ा अब न होगा।’ हाफिज परचूनी का सामान जिस कागज में लाता। वो अपने लिए रख लेता। वो लिखता, ‘अब्बा मुझे वहां बुला लो, यहां की मिट्टी मेरी अपनी नहीं। इसी तीसरे साल में कपड़ों का व्यापार अच्छा चल निकला था। तीनों बड़े इसी काम में लग गए। उसी साल दो बड़ों का निकाह रफीका ने अपने भाइयों की बेटियों से करा दिया। वो बहुत खुश थी कि अब उसकी कुछ जिम्मेदारियां पूरी होंगी तो शायद अपराधबोध भी कम हो जाएगा। लेकिन हाफिज की पथराई आंखें इन तीन सालों में भी किसी तरह उसे नहीं जीने दे रही थी। रफीका जब भी उसकी तरफ देखती, एक शूल सी लगती सीने में। लगता मीर बख्श उसे नफरत से देख रहा है और आमिर सवालिया नजरों से। हाफिज को जर्द चेहरा उसे उसका माझी याद दिलाए रखता।

‘तेरह साल के बच्चे, कमठा—मजदूरी कर घर चला लेते हैं, लेकिन यह तो भाइयों के बने बनाए कारोबार की ओर भी नहीं देखता। पता नहीं इस घर में ही गड़ा रहेगा क्या?’ अम्मा ने उसके सामने खाने की थाली लगभग पटकते हुए ही कहा । दोनों भाभियां, जो उसके मामू की बेटियां ही थी यानी उसकी कजिन, वो भी दिन—रात उसे मनहूस कहकर ही बुलाती। अम्मा उनसे कुछ न कहती। शायद उसी अपराधबोध में कोई राहत मिलती होगी उन्हें। बेवतनों को कहां राहत मिलती है ! मिलती भी होगी तो उसे न मिली।   सात साल की होते—होते आशिया एक दिन चल बसी । टीबी ने घेर रखा था अरसे थे । उसी टीबी की शिकार रफीका इस घर के बिलकुल बाहर बरामदे के एक कोने के पलंग पर अलग—थलग पड़ी रहती। जिन घरों को उसने इस मीरपुर खास में आते ही रोका था, वहां अब उसके लिए जगह नहीं रह गई थी। कई बार जिंदगी में किसी घर की जगह नहीं होती तो कई घरों में एक जिंदगी के लिए जगह नहीं होती। उसकी जिंदगी में तो यह दोनों हादसे ही हो चुके थे। वो दीवार की ओर मुंह किए अपने इन्हीं हादसों का हिसाब-किताब कर रही थी कि एक हाथ ने उसके बालों को सहलाया। वो चौंक उठी । सामने हाफिज था, उसके लिए खाने की थाली लिए। उसने हाफिज का चेहरा हाथ में लिए कितनी ही बार देखा, लेकिन वहां कोई भाव न थे। न तो नफरत के और न किसी मोहब्बत के। वो तो पथराया सा ही रहा इन पांच सालों में। उसे याद आया। उसने नीचे से उपर तक हाफिज को देखा। पैरों में चप्पल नहीं बिवाईयां थीं। जिस हाथ से हाफिज ने अम्मा को खिलाने के लिए कोर तोड़ा था, उस हाथ को अम्मा ने कसकर पकड़ लिया। ‘कितनी टांचे पड़ी हैं इन हाथों में, क्यों करता है इतना काम। घर भर के बर्तन—कपड़े क्या तेरे लिए ही हैं। क्यों बुहारता है तू इस घर को उनके लिए।’

‘यह काम आपका ही दिया हुआ है अम्मा, अब भी वही कर रहा हूं।’ अम्मा ने गौर से देखा, वाकई हाफिज का चेहरा सूता हुआ था। कोई अहसास वहां अम्मा ने नहीं देखे थे।

‘हाफिज, हाफिज, देख मेरी ओर, नफरत से देख बेटा । मैंने दी ना तुझे ऐसी जिंदगी।’। ‘नहीं अम्मा, यह हमारा नसीब यहां ले आया।’

‘झूठ बोलता है तू, झूठ बोलता है। मैं लाई यहां पर, मैं लाई तुझे तेरी जिंदगी के उस मोड़ से घसीट कर। तेरी जिंदगी का कोई सिरा वहीं कहीं रह गया हाफिज। जा, जा तू। फिर से पकड़ ले अपनी जिंदगी का हिस्सा।’

‘मैंने कुछ छोड़ा ही कहां अम्मा कि पकड़ लूं।’ ‘हां, यही कि तू यहां का हो ही नहीं सका। जहां का है, वहां का मैंने नहीं होने दिया।

तू ऐसा कर, तू जा, तू चला जा यहां से। लौट जा अपनी जड़ों की ओर। लौट जा अपनी मिट्टी में। उड़ेल लेना जी भर उसे बदन पर। शायद फल जाए तेरी जिंदगी।’ यह कहते अम्मा ने उसे धक्का दे दिया। कमजोर देह का हाफिज गिरा और थाली दूर जा गिरी।

आवाज सुनते ही दरवाजे पर दोनों बहुएं आ गई। ‘अब तुम मनहूसों ने खाना फेंकना भी शुरू कर दिया। एक तो इतना खर्च कर, तुम बेकारों का पेट भरो, इस पर भी लानतें।’ हाफिज ने खुद को संभाला, फिर अम्मा को। ‘अम्मा, मैं कहीं नहीं जा रहा। तुम्हें अकेले छोड़ना गुनाह होगा मेरे लिए।’ ‘गुनाह, हां, गुनाह ही है किसी को छोड़ना। अपनी जमीन छोड़ना, अपने लोगों को छोड़ना। बता, बता तो, मैं इतनी बीमार होती तो तेरे अब्बा छोड़ देते क्या? कभी नहीं।

आमिर किस कदर आगे—पीछे घूमता। बड़े डॉक्टर तो उसके कहने भर से मेरे पास बैठे रहते। और वो, वो हमारे रामावतार काकोसा, वो तो अपनी दुकान की हर देसी दवाई दे—देकर उकता देते मुझे।’ ‘तुझे पता है, तेरा कमजोर बदन देख, रोजाना कोई न कोई दवा ले आते। जाने कितने नुस्खे आजमाए हैं उन्होंने तेरे उपर। अब तक तो तुझे हट्टा—कट्टा बना देते।’

इस बात पर पहले तो वो खूब हंसी और फिर रोई भी। लेकिन हाफिज बस एकटक देखे जा रहा था। उसके पास जताने को कुछ न था वहां। ‘तू रोता है न हंसता है, हाफिज। तो क्या यह सब भी मेरे कसूर में जोड़ेगा।’ ‘नहीं अम्मा, ऐसा नहीं है।’ ‘ऐसा ही तो है, तू ही मुझे मेरे गुनाहों से आजाद कर सकता है। उस मिट्टी की खुशबू में मिल जा जाकर। जा।’ इस बार हाफिज ने कोई जवाब ना दिया। मगर अम्मा जानती थी, वतन से दूरी हाफिज को जीने नहीं देगी और वो जिंदा रही तो हाफिज जा न सकेगा। अपने अपराधबोध में सोई अम्मा फिर न उठ सकी।

लेकिन बरामदे का पलंग खाली नहीं था। अब दिनभर का काम कर हाफिज की थकी कमजोर देह सर्दियों की रात में भी इसी पलंग पर निकलती। उसके बिस्तर उसे नाकाफी रहते, लेकिन वो कुछ कचरा जलाकर अपने लिए सर्दी का इंतजाम करता रहता। उसकी ठिठुरती देह देख, वहां से गुजर रहे सन्नी बाबूजी ने अपनी कंधे की चादर उस पर डाल दी। उसने देखा सन्नी बाबूजी झुके उससे कुछ पूछ रहे हैं। सन्नी बाबूजी इस सिंधी बस्ती यानी अब सैयदों की बस्ती के सबसे आखिरी छोर पर अपने कुछ परिवारों के साथ रहते। ये कुछ परिवार ही थे, जो सिंध प्रांत के इस कस्बे में बचे रह गए थे।

‘जी, जी बाबूजी।’ ‘क्या हुआ बेटा, बाहर क्यों सोते हो इतनी सर्दी में?’

‘इन घरों में जगह नहीं है बाबूजी, वैसे भी कौन-से मेरे हैं। मेरा घर तो वहां है, सरहद पार। बड़े दालान वाला।’

‘कुछ यादें धुंधली नहीं पड़ती बेटा, कितनी भी कोशिश कर लो।’

‘नहीं बाबूजी, मैं ऐसी कोई कोशिश नहीं करता। मैं एक दिन फिर लौट जाउंगा वहां।’

‘कैसे जाओगे? अब तो दोनों ओर की सरकारों ने सरहद पर सख्ती कर दी है। खूब जांच होती है। कई कागज—पत्र मांगते हैं। है कुछ तुम्हारे पास।’ उसने ना में गर्दन हिला दी। ‘चलो अभी सो जाओ। सुबह आकर कोई जुगत बैठाते हैं।’

हाफिज की आंखों में पहली बार कोई रोशनी उठी। एक उम्मीद की रोशनी। वो घुप्प अंधेरे में भी बाबूजी को जाते हुए देख पा रहा था। उसने महसूस किया कि वो उनके ही परिवारों की खून—पसीने की मेहनत से बनाई सपनों की दीवारों के एक कब्रिस्तान पर बैठा है। जिस पर उसका कोई हक नहीं। उसने हक जताया भी नहीं था कभी, लेकिन आज यहां बैठना उसके लिए एक बोझ की तरह था। यह चबूतरा उस ओर के कई बच्चों की यादों का कब्रिस्तान ही था, वो जल्दबाजी में उसकी सीढ़िया उतर गया और पूरी रात सड़क पर बिता दी। दूसरे दिन इस कब्रिस्तान रूपी बस्ती में वो कहीं नजर नहीं आया।

वो जिंदगी ढूंढने निकल चुका था। मीरपुर खास से निकलते ही उसके पैर जैसे हवा में उड़ने लगे थे। यहां तब बस्तियां नहीं के बराबर थी। वो इस इलाके में अपने लम्बे पैरों से डीग भरता, फलांगे मारता काफिले से बहुत आगे निकल जाता। जैसे उसे अपनी पैदाइश के पंद्रहवें साल में चलना सीखा हो। वो दूर से अपने काफिले को अपने पास आते देखता तो मुस्कुरा देता, कि वो ही है, जो मीलों पैदल सबसे जल्दी चल सकता है। मुस्कुराना भी उसने इस पंद्रहवें साल में ही सीखा, ऐसा उसे महसूस हुआ। महसूस करना भी अब ही सीखा था। तभी तो उत्साहित था, अपनी जमीन की ओर से आते खिंचाव से सम्मोहित हो वो उस ओर चला जा रहा था। किसी टीले पर बैठ सूरज को क्षितिज में अस्त होते देखता तो लगता वहीं कहीं उसका खूबसूरत शहर भी है, घर भी है, अपने भी और अपनापन भी। कोई 30 लोगों का काफिला होगा यह, जिसमें हाफिज अकेला ही गैर सिंधी था। लेकिन यह फर्क न उसे महसूस हुआ और ना बाकी लोगों को । कुछ दिनों तक वो उन लोग की मश्क से पानी पीने में झिझकता, लेकिन अब तो वो झिझक भी नहीं रही। सभी तो उसके जैसे ही थे, एक जैसे। सभी का रास्ता एक, मंजिल भी एक। जहां कहीं थकान उतारने बैठते औरतों का निशाना हाफिज ही होता। ‘क्यों, मीरपुर का पानी लगा नहीं बदन को।’ ‘बदन को पानी नहीं मिट्टी चाहिए। घर जाकर उसी से नहाऊँगा, तब देखना पहचान नहीं सकोगी। बिलकुल मोटा—ताजा लगूंगा।’ वो अपना मुंह फुलाकर कहता और काफिले में हंसी दौड़ जाती। कोई तीन महीनों में वो अमरकोट से कुछ आगे ही निकल सके थे। ‘बाबूजी, इतना धीरे चलेंगे तो बहुत वक्त लगेगा उस पार जाने में।’

‘अपनी चाह के रास्ते लम्बे ही हुआ करते हैं। और हमारे पास कोई कागज भी तो नहीं। अभी तो दोनों सरहदों पर गश्ती बहुत खड़े रहते हैं। लूट लें तो कोई बात नहीं, पर जान का खतरा भी तो है। बस जरा समझदारी से चलना पड़ेगा। नाम बदल-बदलकर और रास्ता बदल-बदलकर।

अभी तो कोई तीन महीने ही और लगेंगे।’ उसने लम्बी सांस ली। फिर क्षितिज की ओर देखा। रेगिस्तानी इलाकों का क्षितिज भी कुछ ज्यादा दूरी पर होता होगा। यहां के लोगों का सूरज दूर है, रोशनी भी। वो उसी रोशनी का पीछा करता चलता जा रहा था। मीलों तय किए थे उसने और कई कोस चलना था। उसका कमजोर शरीर ओर कमतर होता जा रहा था, लेकिन उसके चलने में उसकी कमजोरी को जोर नहीं चला करता। फलांगे मारते-मारते ही वो इस पंद्रहवें साल में जैसे कई बरसों से चल रहा था। कस्तूरी की तरह। जिस मिट्टी की खुशबू खुद उसके बदन में थी, उसी में बच्चों की तरह हाथ-पांव मारना चाहता था। उसके मन की कस्तूरी उसी खुशबू की ओर दौड़ रही थी। अपनी जिंदगी के वो पांच साल, जो उसने जिए ही नहीं, वो तो उसी कब्रिस्तान में छोड़ आया था ।

छह महीने होने जा रहे थे जब काफिला थारपारकर पहुंचा । यहां कुछ गश्ती थे। उनके नाम की पूछताछ को जुटे। हाफिज पेट पकड़ देर तक हंसता रहा था, जब सभी ने अपने नाम रटे गए मुस्लिम नाम बताए थे। वैसे भी इतने महीनों में सभी की दाढ़ी इतनी बढ़ चुकी थी कि पहचाना जाना वैसे भी मुश्किल था। थारपारकर से कुछ ही दूरी पर थी हिंदुस्तान की सरहद।

वो उतावला हो उठा। ‘हम उस ओर क्यों नहीं जा रहे?। ‘हमें सीधे रास्ते नहीं जाना है। जहां से ये लोग ले जाएंगे, वहां से जाना है। शायद 15-20 दिन और लगेंगे।’ वो बच्चों सा रुंआसा हो गया।

‘बाबूजी बहुत दिन हो गए, वतन ढूंढते हुए। सामने है तो क्यों नहीं जा सकता।’

‘अब तुम उस वतन के नहीं हो बच्चे। जैसा कहते हैं, करो। नहीं तो सारी उम्र वतन के निशां को तरसोगे।’ उसके रोंगटे खड़े हो गए। वो वहां के स्थानीय लोगों के पीछे चलते अपने काफिले में शामिल हो गया। छाछरो के करीब पहुंचते ही काफिले में हलचल हुई। कुछ लोग उस्तरे ले आए थे। सभी मर्दों को यहां गंजा किया गया। उसका कुर्ता पाजामा उतारकर धोती और कुर्ता पहनाया गया। यों सभी एक जैसे ही दिख रहे थे। यह इसलिए भी जरूरी था कि गंजे सिर और सफेद कपड़ों से रेगिस्तान में दूर से कोई देख नहीं पाता। फिर भी काफिले को छितरे हुए चलना था। यानी सात-आठ लोगों के अलग-अलग दल बना दिए गए।

हाफिज पहले ही दल में था। बाबूजी ने उसे समझाया था कि सरहद पार कोई नाम पूछे तो लाला रमानी बताना है। उसे कई बार रटाया। लेकिन वो डर रहा था, उसने बाबूजी से कहा कि वे भी साथ चले। लेकिन बाबूजी ने समझाया अभी उन्हें बाकियों को पार पहुंचाना है, अंत में जाएंगे । छाछरों के उस रेगिस्तान में वो बाबूजी को अपने पीछे, बहुत पीछे छोड़ता जा रहा था। वो लम्बी फलांगें नहीं मार रहा था, उसे बाबूजी से अपने पैर बंधे महसूस हो रहे थे। इस रेगिस्तान में भी वो दूर से गंजे हो चुके बाबूजी को आसानी से पहचान पा रहा था। सामने उसकी अपनी जमीन थी और पीछे छूटते बाबूजी का मोह भी था। अपने बचपन के उन दस सालों बाद इस पंद्रहवें साल में उसकी आंख में फिर आंसू थे। फिर रोना अभी-अभी कुछ देर पहले ही उसने सीखा था।

हाफिज को उसका नाम रटाते हुए ले जा रहे लोग सरहद से पहले ही अलग हो गए । बाकी और दूसरे रास्तों से चले लेकिन उसे चौहटन की सरहद पर छोड़ दिया गया, जहां कोई गश्ती नहीं दिखाई दे रही थी। बाबूजी के दिए दो रुपए उसने अपनी धोती की गांठ में बांध रखे थे। बार-बार वहां हाथ लगाकर तसल्ली करता कि अब भी उसके पास पैसा है। चौहटन में वो किस ओर जा रहा था, खुद उसे भी नहीं मालूम, लेकिन हां वो चला जा रहा था। कहीं मिट्टी कंटीली थी तो कहीं मुलायम। यहां शाम होते जब कहीं दूर लालटेन जली तो उसे दिशा मिली बस्ती की। बस्ती से कुछ दूरी पर उसने रात काटी।

सुबह बस की पौं-पौं से उसकी नींद खुली। पता चला कि वो बस के रास्ते के बीचोंबीच ही सो रहा है। खलासी ने लगभग उसे लात मारते उठाया। वो लगभग कांपते हुए उठा। उठते ही उसने हाथ जोड़ लिए थे, जैसा की बाबूजी ने उससे कहा था। ‘कांई भायो, कठै जाणो हो के आत्महत्या करबा नै सू तो है।’ ‘वो मुझे शहर तक जाना है।’ ‘बाड़मेर जासी बस, चालै है कै?’ ‘हां, हां।’ यह कहते वो बस में चढ़ गया। मन में कोई डर था, लेकिन बरसों बाद उसे वो जिंदगी मिली, जिसकी तलाश में वो आया। अपनी बोली सुनने को क्या मिली, वो तो मन ही मन बौरा गया। अपना माझी जैसे वो इस खलासी के बोल सुनकर ही भूल गया हो। मारवाड़ में जन्मे हाफिज को यह बोली कई देर तक अपने कानों में घुलती महसूस हुई। उसके आंखों के कोने भीग रहे थे। लेकिन पहली जरूरत सीट पर बैठ जाना था। कई महीनों से चल रहे पांव थके से लग रहे थे। चप्पल के नाम पर पतला सा चमड़ा बचा था। पैरों पर उसने कई जगह पट्टीयां बांध रखी थी। उनमें कहीं टीस उठ रही थी। थके शरीर को सीट पर पसरते ही नींद आ गई।

कुछ ही घंटों के सफर के बाद खलासी ने झिंझोड़ दिया। ‘भायो, अठै ही उतरनो है, नी तो बस पाछी वठै ही छोड़ देसी, जठौ से तू आयो।’

हाफिज पीछे जाने के नाम से डर गया। अपने दो कपड़ों की गांठ जैसी गठरी को उठाया और बस से उतर गया। वो अपनी जमीन पर बौराया सा था। वो नहीं जानता था कि किधर जाना है। जल्दबाजी में खलासी से पूछ नहीं पाया कि जोधपुर की बस कहां से कब मिलती है।

अब वो इस अनजान से शहर में मारा मारा घूम रहा था। वहीं किसी रास्ते पर वो देर तक बैठा रहा, उम्मीद में कि शायद यहां से कोई राह मिले उसके घर तक जाने वाली। उस विशाल बरगद के नीचे वो पालथी मारे देर तक बैठा शाम हो गई थी और उसका पतला पेट कमर से चिपक रहा था। सुबह से कुछ घूंट पानी ही पी पाया था। थकान के मारे शरीर वहीं बरगद के गट्टे पर ही ढेर हो गया।

देर रात आंख खुली तो उसने अपने आपको एक कमरे में पाया। आसपास देखा कोई न था। उसने संभाला तो उसकी गठरी उसके पास ही थी। दरवाजे से कोई वर्दी पहने आदमी अंदर आया और उसे खाने की थाली पकड़ा दी। ‘शायद तुम भूखे हो।’ उसने बिना कुछ बोले थाली ले ली। भूख की वजह से वो कुछ सोच नहीं पा रहा था। उसने कुछ ही पल में थाली पूरी कर ली। वर्दी वाला हंसने लगा। ‘कई दिनों से नहीं खाया?’ ‘जी।’ ‘ये पैरों में इतने जख्म क्यों हैं। क्या दूर से चलकर आए हो, सरहद पार से।’ आखिर के शब्दों पर हाफिज सहम गया। उससे ना नहीं कहा गया। वो कुछ नहीं बोला। ‘कहां के रहने वाले हो।’ इस सवाल पर हाफिज में कुछ हिम्मत आई। ‘जोधपुर।’ ‘जोधपुर से इधर क्यों आए, कहां जाना है?’ ‘जोधपुर ही जाना है भाई साहब।’ ‘तो यहां कहां से आ रहे हो?’

बाबूजी ने कितना ही रटाया, लेकिन वो यहां झूठ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाया। ‘मीरपुर खास से।’ ‘क्या?’ वर्दी वाले को शक तो था ही, उसके कह देने पर वो चौंकते हुए अपनी कुर्सी से उठा। ‘क्या तुम जानते हो, सरहद पार से चोर रास्ते से हिंदुस्तान आने की सजा?’ ‘सजा, सजा क्यों? मैं तो अपने ही घर जाने के लिए आया हूं। अपनी ही जमीन पर लौटा हूं। मुझे क्यों सजा हो। लौट आना कोई गुनाह तो नहीं।’ पता नहीं कैसे उसने यह सब कहने की हिम्मत जुटा ली। वर्दी वाले ने आसपास देखा, कोई न था। हवलदार शायद गश्त पर थे। वो उसके पास बैठ गया।

‘जोधपुर में कहां घर है तुम्हारा?’ ‘खाप्टे पर।’ ‘वहां किसको जानते हो, नाम तो बताओ।’ उसे अपने बड़े भाई की याद हो आई वो नायब तहसीलदार के नीचे इंस्पेक्टर हुआ करते। कहते- ‘मारवाड़ में कहीं भी रास्ता भटक जाओ तो मेरा नाम ले देना।’ ‘सैयद आमिर अली साहब का छोटा भाई हूं।’

वर्दी वाला झटके से उठ खड़ा हुआ। ‘घबराओ मत, तुम्हे कुछ न होगा। सो जाओ, सुबह घर के लिए रवाना हो जाना।’ हाफिज इत्मीनान से उस पतली सी लकड़ी की बेंच पर लेट गया। उसे यकीन था कि उसके भाई का नाम यहां तो चलता ही होगा। सुबह उसकी आंख खुली तो वर्दी वाला उसके सामने ही था। ‘बाहर मेरे दो हवलदार हैं, वो तुम्हें घर तक पहुंचाएंगे।’ वो चुपचाप हवलदारों के बीच जाकर खड़ा हो गया। वो जीप से रेगिस्तान के रास्ते नाप रहे थे। हालांकि पूरे रास्ते तीनों ने आपस में कोई बात न की। वो खामोशी को समझ नहीं पा रहा था। कभी तो डर जाता और कभी मन ही मन खुद को दिलासा देता कि भाई का नाम चल जाएगा। जीप के हिचकोलों में उसे उंट की सवारी याद हो आई, जब भाई पहली बार सिवाना गए थे उंट पर तो उसे भी ले गए थे। उंट के हिचकोलों में उसे खूब नींद आई थी। अभी भी आ गई। मीलों के सफर के बाद नींच हिचकोलों में कहां टूटती है। उसका पूरा बदन एक सुकून में था। उस बदन की खुशबू यहां की हवा में मिली महसूस हो रही थी। नींद में भी उसके नथुने इस खुशबू को जोर-जोर से खींच रहे थे। रास्त लम्बा था और उसकी नींद भी लम्बी। यह भी पांच साल बाद उसकी आंखों में इतनी भरी थी कि सुकून से वो सो सके। उसकी उम्र का यह पंद्रहवां साल इतना सुकून में होगा, उसने नहीं सोचा था।

हवलदार ने झिंझोड़कर उसे उठाया। ‘उठो खाप्टा आ गया।’ गहरी नींद नहीं, लम्बे सपने से जागा था वो। ‘खाप्टा।’ उसने जीप से सिर बाहर निकाल यहां वहां नजर दौड़ाई। आंखों में चमक उभरी और वो जीप से कूद पड़ा। उसे ऐसे कूदते देख दोनों हवलदार भी हंसी नहीं रोक पाए। लेकिन कुछ आदेश के चलते वो ज्यादा देर वहां नहीं रुक सकते थे। तुरंत निकलना था इसलिए खाप्टे के कोने की परचूनी दुकान पर उसे बिना कुछ कहे ही छोड़ गए।

वो जीप को जाते देख हैरान था कि वो जिनका नाम नहीं जानता, वो यहां छोड़ भी गए और वो उनका शुक्रिया भी अदा न कर सका। शुक्रिया तो वो बाबूजी को भी कहना भूल गया था, जिन्होंने उसके सफर को दिशा दी। मंजिल तक पहुंचाने वाले इन तीन वर्दीधारियों को भी कुछ नहीं कह पाया। यह कौन थे, क्यों मदद की, यहां छोड़कर क्यों चले गए? वो कुछ समझ नहीं पाया। पलट के देखा तो वही मोड़ था यह, जहां से सबकुछ उससे छूटा था। वो उछल पड़ा कि उसकी धोती खुल गई। यह देख परचूनी वाले बुजुर्ग ने उसको डांट लगाई। ‘कुण है रे? कांई करै है अठै? भाग।’ उसके दिल और दिमाग में बिजली कौंध गई। उसने धोती को लूंगी की तरह लपेटा और दुकान में ही घुस आया।

‘काकोसा, काकोसा, मैं, मैं हाफिज।’ रामावतार ने हैरानी से उसे देखा। बूढ़ी आंखें फैल गई। उन्होंने दाएं-बाएं देखा, दुकान पर काम करने वाले छोरे को वहां से भाग जाने को डांट लगाई।

उसके जाते ही उन्होंने हाफिज को गले लगा लिया। और चुप रहने का इशारा किया। खामोशी से उसका हाथ पकड़ा और घर तक ले आया। घर का दरवाजा खोलने को हाफिज बेहद उत्सुक था, लेकिन रामावतार काकोसा ने उसका हाथ दबाया। उसने देखा कोई डर था, जो खामोशी से घिरा था। उन्होंने घर के दरवाजे का एक पट खोल उसे हाथ पकड़ अंदर कर दिया। खुद दरवाजा बंद कर लौट आए दुकान पर।

हाफिज घर के दालान में खड़ा उसे पूरे घर को देख रहा था। कुछ भी तो नहीं बदला था यहां इन पांच सालों में। कुछ भी नहीं। सीढ़ियों पर उतरती शाम उसने बरसों बाद देखी थी। वो पागलों सा सीढ़ियों पर दौड़ने-उतरने लगा। यह शोर देख अंदर चटाई के परदों के भीतर से आवाज आई। ‘कौन है, कौन है वहां?’ एक जनानी आवाज सुन वो डर गया। सोचा कहीं घर किसी ओर को देकर अब्बा और भाई कहीं चले तो नहीं गए और भी जाने क्या-क्या सोचा उसने। तेजी से सीढ़ियां उतर आया।

सामने कोई चार साल का बच्चा था।

‘कौन हो आप?’

‘मैं, हाफिज हूं, यह मेरा घर है।’ ‘हाफिज।’

परदे की ओट से किसी औरत ने नाम दोहराया और दालान में आ गई।

‘तुम हाफिज हो, इसके अब्बा के भाई?’

‘हां, मैं आमिर भाई का छोटा भाई हूं।’

‘पाकिस्तान से आए हो?’ यह कहते वो पंद्रह साल के कमजोर शरीर वाले हाफिज का हाथ पकड़ सबसे कोने वाले कमरे में ले गई।

‘तुम जानते हो, यहां पाकिस्तान से आने वालों पर कितनी नजर रखी जा रही है। तुम्हें किसी ने देखा तो मुसीबत होगी। भाई सरकार के नौकर हैं, नौकरी पर बात बन आएगी’

हाफिज सहम गया। दीवार से चिपक गया जैसे। वो तो अपनी मिट्टी अपनी जमीन में नई जिंदगी शुरू करने आया था, लेकिन यहां तो उसे देख हर किसी का चेहरा डर में डूबा था।

‘भाभी, क्यों कोई मुसीबत खड़ी करेगा। यह तो मेरा अपना वतन है ना।’ ‘इस बारे में बात बाद में करेंगे। तुम्हारे भाई दौरे पर गए हैं। एक—दो दिन में लौटेंगे, तब सोचेंगे, क्या करना है।’ ‘और अब्बा? अब्बा कहां हैं?’ ‘वो तो तुम लोगों के जाने के सालभर में ही अल्लाह को प्यारे हुए। तबसे मैं और आमिर अकेले थे यहां। अब यह तुम्हारा भतीजा है बस।’ ‘हाफिज की खुशी कहीं चली गई जैसे। अब्बा को उसने पांच साल पहले आखिरी बार देखा था उस मोड़ पर। वो तो लौट आया मोड़ से, लेकिन अब्बा नहीं लौटने वाले।’ पलंग पर बैठते वो हार मान चुका था। जोर, जोर से रोया। भाभी ने प्यार से उसके कंधों पर हाथ रख दिलासा दिया। ‘रोओ मत भाई, सब ठीक होगा। पानी पी लो और आराम कर लो। मैं खाना ले आती हूं। नहीं पहले गर्म पानी लाती हूं। देखों पैर कितने जख्मी हैं तुम्हारे।’ रोते हाफिज को नर्म लहजे ने चुप करा दिया। उसके जख्मों पर फाहे रख दिए। गर्म पानी में उसके पैरों को डूबोकर, वो घी ले आई। तौलिए से पैरों के तलवों को पौंछा और खूब घी मल दिया उन पर।

‘देखना जख्म जल्दी ठीक होंगे और दर्द भी जाता रहेगा।’

दर्द तो वाकई जाता रहा। उसे अम्मा और अब्बा दोनों के हाथ इन नर्म हाथों में महसूस हुए। खाना खाकर उसे फिर गहरी नींद आ गई। इस घर में दूसरा दिन उसके लिए खास रहा। सुबह उसे नर्म आवाज और नर्म हाथों ने उठाया। ‘चाचा, चाचा उठो। हम बहुत सारा खेलना है। बहुत सारा।’ चार साल के अतीक ने हाथ फैलाते हुए कहा। पंद्रह सालों में इस तरह उठना भी उसके लिए पहला अहसास था। वो मुस्कुराते हुए उठा। कमजोर शरीर में जान न थी, लेकिन गोल—मोल अतीक को वो गोद में उठाने का मोह न छोड़ सका।

‘अरे, उतारो, उतारो इसे। बदन पर जोर पड़ेगा।’ जिससे पहली बार मिला, वो बड़ी ही फिक्रमंदी से उससे कह रही थी और वो उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक ही दिन में वो उसे अपनी सी ही लगी। अम्मा सी।

‘भाभी, बस कुछ थकान ही तो है। उतर जाएगी एक दो दिन में।’ ‘थकान ही नहीं उतारनी है, कुछ बदन भी बनाना होगा। यह लो पी लो।’ भाभी ने एक काढ़े का प्याला उसके आगे कर दिया। ‘यह क्या है?’ ‘रामावतार काकोसा ने भिजवाया है। कहा है सुबह खाली पेट यही पीना है। गोंद की रवी जैसा कुछ है।’ उसे अम्मा की बात याद हो आई कि इस घर में बीमार पड़े तो कई लोग खड़े मिलते हैं खयाल रखने। अपनी मिट्टी नहीं, उसे तो अपने लोग भी मिल गए थे। लेकिन खड़ा वो नहीं हो पा रहा था। वो पलंग पर ही बैठा रहा। पूरा दिन उसने इसी कमरे में गुजारा। अतीक पूरे दिन उसके साथ यही रहा। शाम होते घर के बाहर आहट हुई। भाभी ने पहले ही कह दिया था कि कमरे के भीतर ही रहें। वो आहट सुन भी बाहर नहीं आया। कुछ लोगों की बातचीत जरूर सुनाई दे रही थी। उन लोगों को दूसरे दिन का काम समझाकर रवाना किया गया और फिर दालान से आगे वो दो कदम बढ़े। रसोई बना रही अतीक की अम्मी को सलाम किया गया। वो सलाम का जवाब देती उठ खड़ी हुई और पास ही के कमरे में ले गई। हाफिज का पूरा ध्यान उधर से आ रही आवाजों पर ही था। भाभी ने हाफिज के मीरपुर खास से यहां तक के सफर के बारे में बताया, बात पूरी होने से पहले ही वो उठ खड़े हुए और दौड़ते हुए उस कोने के कमरे तक पहुंचे। उसे पलंग पर ना देख वो पलटे तो हाफिज सहमा हुआ, सिर झुकाए दरवाजे के पास खड़ा था।

‘यहां आओ, आओ।’ कितनी रौबदार आवाज थी उनकी। उन्होंने हाथ फैला दिए थे, शायद हाफिज को डरा देख। वो भाई से लिपट गया। रोते हाफिज को चुप कराते भाई ने उसे नई जिंदगी में नया नाम दिया। ‘आज से तुम्हारा नाम सैयद अली है। हाफिज को हम में से कोई नहीं जानता। ठीक।’ उसने बस गर्दन भर हिला दी।

‘सालेहा, इसका खयाल रखो और सप्ताह भर में इसका डील—डौल मेरे जैसा हो जाना चाहिए।’ ‘जी।’ ‘और हां, अभी घर से बाहर या लोगों के सामने आने के लिए तुम्हें कुछ महीने इंतजार करना होगा। तब तक यह कमरा और अतीक। यही तुम्हारी जिंदगी हैं।’

‘इससे बेहतरीन जिंदगी के बारे में सोचा ही नहीं भाई। घर में ही रहना चाहता हूं। बरसों की हूक ठंडी न पड़े तब तक घर से नहीं निकलूंगा। आप कहेंगे तो भी नहीं।’ भाई ने हाफिज को गले लगाया। चार आंखों की कोरे भीगी हुई थीं। अतीक के साथ ने 15 साल के हाफिज के बच्चा मन को जिंदा कर दिया था। अब वो भी भाभी से अपनी पसंद का खाना बनाने की जिद करता। खूब खाता, खूब सोता और अतीक के साथ खूब खेलता। घर में कुछ ही लोगों का आना जाना था, लेकिन हाफिज, आमिर और सालेहा का डर जाता रहा। कोई भी घर में उस नई आवाज की या किसी नए शख्स होने का सवाल ही नहीं करता। पड़ोसी जानकर भी अनजान ही बने रहे। कहीं से कोई शिकायत नहीं उठी। उस खाप्टे पर सबकुछ पहले की तरह ही था। कहीं कोई भनक नहीं थी कि कोई पाकिस्तान से इस मोहल्ले तक आया। कोई जख्म खामोशी से भरा जा रहा था। सामूहिक तौर पर। रामावतार काकोसा पहले की तरह ही देसी दवाई देने घर आते, लेकिन एक बार भी हाफिज के बारे में जिक्र नहीं छेड़ा। यानी हर किसी ने अपने हाथों से मरहम ही रखा था हाफिज के गहरे जख्मों पर। जख्म मरहमों की इतनी परतों में दब गया कि वो जख्म ही नहीं रहा। कुछ हवाएं, कुछ मिट्टी, कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं, बिना कुछ कहे ही सर्द जिंदगी पर सुकून की गर्माहट ओढ़ा देते हैं। उसे अपनी जमीन, अपनी मिट्टी से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन उसे उम्मीद से बढ़कर मिला था। छह महीने में ही भाई का प्रमोशन हो गया। नायब तहसीलदार बन बिलाड़ा पोस्टिंग मिल गई। और ऐसे हाफिज का वनवास भी पूरा हुआ। नए लोगों के बीच आमिर अपने छोटे भाई को बिना झिझक मिलवाता। जिंदगी का नया सिरा पुराने गलकर छूट चुके सिरे की भी भरपाई कर रहा था। कमजोर डील—डौल भाई आमिर की बराबरी करने लगा था। रंग रेत की तरह सुनहरा होता जा रहा था। भाई का रौब भी उसकी आवाज से झलकता, लेकिन, लेकिन पैरों की थकान नहीं मिटी थी। वो कभी दिन में कभी सोने से पहले अतीक को पैरों पर बैठा लेता। बस यही एक पीड़ थी, जो दिन में कभी उठती, कभी बैठती। जो उसे उसका मीलों का सफर हर दिन याद दिलाती। इन पांच बीते सालों में हाफिज के सैयद अली के नाम से कई कागज तैयार थे। भाई ने डीडवाना की पुश्तैनी जमीन, जो कस्टोडियम में चली गई थी, सैयद अली के नाम पर ही फिर खरीद ली थी।

उसी पांचवें साल जोधपुर में आरएसी के लिए दौड़ हुई और आमिर अली का छोटा भाई सैयद अली भी सरकारी नौकर हुआ। पहली ही पोस्टिंग असम लगी। जब भी घर आता, अपनी महीनों की जमा तनख्वाह अपनी भाभी के उन नर्म हाथों में पकड़ा देता, जिन्होंने सबसे पहले उसके दर्द को सहलाया था। भाभी उस तनख्वाह को एक गांठ में बांध देती। हाफिज की जिंदगी को पाकिस्तान से हिंदुस्तान की साबित करने की जुगत में लगे रहे भाई-भाभी को उसकी शादी का खयाल भी उसकी नौकरी लगने के सालों बाद आया। हाफिज को तो जैसे अब जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रही थी। जाहिदा और हाफिज दोनों ही हैरान से थे, जब भाभी ने गांठ में से पूरे 35 हजार रुपए निकाल उनके हाथ में दिए। हाफिज ने बताया कि नौकरी में उसके साथी रमेश जी के घर के पास एक जमीन बिकाउ है। 30 हजार कीमत की है। भाभी ने झट 35 हजार धर दिए हाथ में। कहा- ‘तुम्हारी अब तक की कमाई है।’ ‘भाभी ये तो आपके लिए थे।’ ‘तुम्हारे भाई जो कमाते हम तीनों में बहुत पड़ता है। मैंने तो तुम्हारे घर के लिए ही जोड़े थे।’ हाफिज ने इस बार भाभी के हाथ ही चूम लिए। ‘भाभी इन हाथों का सहारा न होता तो मैं ही न होता।’ जोधपुर के खेतानाड़ी में हाफिज और जाहिदा का अपना घर, उसमें चार बेटे खुशहाल जिंदगी। बस रात की शुरुआत हाफिज से आज भी जरा मुश्किल ही कटती। सबसे बड़े बेटे फिरोज को वो अपनी टांगों पर बैठा लेते, कि उनके पैर भूल सके उस लम्बे चलने को। बेटा बड़ा होने लगा तो वो कई घंटों अपने अब्बा के पैर सहलाता। अब्बा बुदबुदाते, ‘बहुत पीड़ है इन पैरों में, जरा जोर से सहला दे फिरोज।’ उस वक्त जैसे वो अपने दर्द को दबाने की भीख मांग रहे होते।

जाहिदा भी फिरोज के साथ उनके पैर दबाने और उनका दर्द हल्का करने में लग जाती। इस पूरे खेतानाड़ी इलाके में वो अकेला परिवार था जो मुस्लिम था लेकिन अपनी जमीन, अपने देश में काहे का डर, सब अपने ही हैं। खाप्टे पर हाफिज ने यही देखा और यहां भी। बड़े सुकून से कटती जिंदगी पर वे नाज करते। जाहिदा से कहते, ‘देख मैंने मेरे पंद्रहवें साल में पहली बार अपनी जिंदगी के लिए फैसला किया, अपने वतन लौटने का, यहां के रिश्तों में जीने का। रिश्ते तो रिश्ते, दोस्त भी रमेश जी जैसे मिले जो इशारे पर जान दे दें। मोहल्ले में जो इज्जत है, वो कहीं ओर कहां मिलती?’

रमेश जी और हाफिज दोनों ने साथ नौकरी की, साथ ही रिटायर हुए। दोनों के घरों की दीवार भी एक ही थी। दोनों ने रिटायरमेंट के बाद साथ घूमने के कई सपने देखे थे, लेकिन घर की जिम्मेदारी में सपने पूरे न हो सके। रिटायर होते-होते चारों बेटों ने खुद ही डीडवाना वाले पुश्तैनी घर में रहने का फैसला कर लिया था। चारों में से सरकारी नौकर तो कोई नहीं हुआ, लेकिन रंग-रोशन में काफी नाम था फिरोज, अफरोज का।

धीरे—धीरे चारों ही इस काम से जुड़े। डीडवाना के व्यापारी उन्हें काम के लिए वहां बुलाते रहते। रोजी-रोटी का मौका वहां मिला तो पूरा परिवार वहीं चल दिया। हाफिज भी चाहता था कि उम्र के कुछ साल अपने बुजुर्गों के घर में बिता लें। जिसे बड़े भाई ने कस्टोडियम से उन्हीं के नाम खरीदा था। भाई की यादें लिए वो इस घर में आ गए थे। चारों बेटे यहां अच्छा कमा लेते। छोटी जगह पर सेठ बहुत थे। उन्हीं के घरों के साथ आसपास की जगहों से भी उन्हें खूब काम मिल जाता। एक छह महीने के सीजन में सालभर का जुटा लेते। यहीं बसने का मन जब सभी ने बना लिया तो चारों ने अब्बा से इजाजत चाही कि जोधपुर वाले घर को बेच डीडवाना में ही चारों के लिए घर बनवा दिए जाएं। अब्बा को परेशानी ना थी। वो तो अपनी मिट्टी में यहां-वहां रहकर ही खुश थी। अपने वतन में थे, यही बहुत था। उन्हें पता था, रमेश जी को भी अपने बेटे के लिए पास ही का घर चाहिए। वो कई बार हाफिज से कह चुके थे कि कीमत से ज्यादा रकम वो देने को तैयार हैं। जब हाफिज ने मन बनाया, तब तक उनकी नजर और जबान दोनों में फर्क आ गया था। पिछली बार जब वो रमेश जी से बात करने गए तो उन्होंने गाली देकर निकाला था उन्हें। हां, पाकिस्तानी कह देना उनके लिए गाली जैसा ही था। पाकिस्तानी क्यों, उन्हें अफगानिस्तानी, बांग्लादेशी या अमेरिकी भी कह देता तो उनके लिए वो भी गाली ही थी।

उन्हें कोई इस मिट्टी से अलग कर देखे, यह कैसे बर्दाश्त करें, जिस मिट्टी से लिपटने वे कोसों पैदल चले थे। आज वो नींद में बुदबुदाए नहीं चिल्ला रहे थे। ‘फिरोज, फिरोज, बहुत जोर की पीड़ उठी है।’ पास बैठी जाहिदा घबरा गई। फिरोज, अफरोज भी आ गए। वो आंखें बंद किए, पैर पटक रहे थे। लगातार चिल्ला रहे थे। ‘पीड़ उठ रही है, दबा दो इसे, पीड़ उठ रही है।’ फिरोज, अफरोज दोनों ही पैरों को जोर—जोर से दबाने लगे। जाहिदा ने सिर सहलाया। कुछ देर में चिल्लाना फिर बुदबुदाने में बदल गया। ‘पैरों में पीड़ उठ रही है, दबा दो। पीड़ फिर उठी है।’ हाफिज ने नींद में देखा, सन्नी बाबूजी, वो वर्दी वाला, दो हवलदार, रामावतार काकोसा, भाभी के हाथ, पड़ोसियों की खामोशी, न जाने कितनी ही तहों में उन जख्मों पर मरहम रखा गया था। एक बार में ही सारी तहें उधड़ गई। इस बार पैरों में पीड़ इतनी उठी कि चीखें भीतर दबने लगी। सांसें भी। बुदबुदाते सोए हाफिज अली अगली सुबह खामोश हो गए। उनके पैरों की ये पीड़ आखिरी थी।

 
      

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