वरिष्ठ लेखक-पत्रकार राजकिशोर के लेख ‘यह (उनकी) पोर्नोग्राफी नहीं, (आप की) गुंडागर्दी है’ को पढकर यह टिप्पणी दीप्ति गुप्ता ने लिखी है. प्रसंग वही है अनामिका और पवन करण की कविताएँ और ‘कथादेश’ में प्रकाशित शालिनी माथुर की ‘रीडिंग’- जानकी पुल.
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राजकिशोर जी, जिस पर चर्चा करना आप एक मुश्किल काम बता रहे हैं, भूलिए मत कि उस अंग विशेष का और नारी के समूचे नख से लेकर शिख तक के शारीरिक सौंदर्य का तरह-तरह से बड़ा ही शिष्ट और सौन्दर्यपरक चित्रण हिन्दी और संस्कृत के ‘पुरुष’ कवि ही करते आए हैं! आज तक उनकी किसी भी रचना पर किसी भी तरह का ग़दर नहीं मचा! बात अभिव्यक्ति की है, भाषा की है, संवेदना की है जिस पर कविता का कविता होना निर्भर करता है!
वस्तुत: अनामिका जी और पवन करण जी द्वारा जो कविता लिखने का ‘नया शास्त्र विकसित’ किया जा रहा है, वह साहित्य विरोधी है; न कि हमारा पाठ! ब्रैस्ट कैंसर पीड़ित कौन सी स्त्री होगी जो स्तनों से हंसी-ठट्ठा करती होगी? पूरी कविता में, कही भी भूले से तनिक सी भी अंग भंग की पीड़ा पाठक को विह्वल नहीं करती! मातृत्व के प्रतीक और जैसा कि विश्व साहित्य में उन्हें नारी सौंदर्य का भी प्रतीक कहा जाता रहा हैं– उनके शरीर से चले जाने पर कौन मूढमति और निर्मम स्त्री होगी जो अवसाद में न डूबेगी? भले ही अनामिका जी की नायिका की तरह कितनी भी दिलेर, दबंग और बिंदास हो, फिर भी कटे स्तनों से ‘हेलो, हाय’ करती हो – ऎसी स्त्री भी दर्द के ज्वार से नहीं बच पाती होगी! आपको चोली के पीछे क्या है– जैसे यह गाना खुराफाती दिमाग की उपज नज़र आया वैसे ही ब्रैस्ट कैंसर और स्तन कविताओं में कवियों की दिमागी और भावनात्मक खुराफात नज़र नहीं आ रही है? आपने ठीक लिखा कि ‘’क्योंकि मामला कैंसर का नहीं, स्तनों का है’’ …. राज जी, सच में, दोनों कविताओं में मामला कैंसर का नहीं, सिर्फ स्तनों का है! यदि कैंसर का होता तो ‘नकारात्मक चर्चा’ की बात ही न उठती!
आपने लिखा – पवन करण के रुदन से अनामिका की खिलखिलाहट क्या बेहतर है? राज जी, पवन करण का रुदन, एक स्तन के न रहने से प्रेमिका/पत्नी के साथ उनके रिश्ते में पसर जाने वाली दूरी के लिए, क्या संवेदनहीनता का द्योतक नहीं है? उनका रिश्ता, उनका प्रेम इतना उथला था जो स्तन के होने पर टिका था? क्या रिश्ता था, क्या प्रेम था….! रिश्ते और प्रेम जैसे उदात्त भाव को भी अपनी अवनति और दुर्गति पे रोना आ रहा होगा कि किनके हाथ लग गया? अनामिका जी की खिलखिलाहट का तो सिर-पैर ही नज़र नहीं आया! सो उस खिलखिलाहट की बात ही करना समय गंवाना है!
आपका कहना है कि शालिनी माथुर ने जिन कुछ अभिव्यक्तियों पर नाराजगी जाहिर की हैं, उन्हें अधिक-से-अधिक काव्य-भाषा का स्खलन कहा जा सकता है, राज जी, इसका मतलब यह हुआ कि आप अनामिका और पवन करण दोनों की कविताओं में काव्य भाषा के स्खलन को स्वीकार कर रहे हैं! शुक्रिया आपका कि आपके अंत:करण की बात यह प्रतिवाद लिखते-लिखते सहज ही आपकी जुबां पर आ गई! सच का खुलासा अक्सर इसी तरह होता है! सुन रहे हैं अनामिका और पवन करण जी …!! आपकी कविताओं की कुछ अभिव्यक्तियाँ राजकिशोर जी को भी काव्यभाषा का स्खलन लगी हैं!
इसे ही कलयुग कहते हैं कि नैतिकता, शिष्टता, भद्रता और सौंदर्य के पक्षधर सुधी इंसानों के विचारों को आजकल ‘वैचारिक गुंडागर्दी’ कहा जाता है और जो खुली ‘लिखन्त गुंडागर्दी’ कर रहे हैं – उसका क्या? वैसे भी शालिनी जी ने, अनामिका और पवन करण जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर नही, वरन उनकी दो कविताओं पर आपत्ति जताई है, तो फिर आप शालिनी जी पर व्यक्तिगत रूप से वैचारिक गुंडागर्दी का आक्षेप कैसे और क्यों कर लगा सकते हैं? यह व्यक्तिगत मुद्दा नहीं, साहित्यिक मुद्दा है! आप जैसे वयोवृद्ध को शालिनी जी पर इस तरह व्यक्तिगत आक्षेप लगाना क्या शोभा देता है? सही नज़र, सही सोच की कामना करते हुए,
दीप्ति
अगर तुम अस्वस्थ हो
कैसे उठें किलकारियां
अगर तुम भूखी रहीं ,
कैसे जमेंगी बाजियां ,
अगर तुम चाहो कि हम भी, छू सकें वह आसमां !
तब तो तुमको,स्वयं का भी,ध्यान रखना चाहिए !
याद रख , तेरी हँसी ,
जीवंत रखती है,हमें !
तेरी सेहत में कमी ,
बेचैन करती है,हमें !
जाना तो इक दिन सभी को, मगर अपनों के लिए
माँ, तुम्हे अपने बदन का , ध्यान रखना चाहिए !
कुछ बुरी बीमारियाँ
हैं ,ढूँढती रहती हमें !
कैंसर सीने में छिपकर
जकड़ता,जाता हमें !
वक्त रहते जांच करवा कर, जियें, सब के लिए !
कुछ तो अपने भी लिए ,अरमान रखना चाहिए !
तुमसे ही सुंदर लगे
संसार जीने के लिए
तुम नहीं,तो कौन है ?
हँसने, हंसाने के लिए
सिर्फ नारी ही जगत में,जीती गैरों के लिए
दूसरों की मदद करने , शक्तिरूपा चाहिए !
मायके की आंख भर
आयी तुझे ही यादकर
और मुंह में कौर न
जा पाए बच्चों के गले !
अगर मन में प्यार है ,परिवार अपने के लिए !
कैंसर बढ़ने से पहले , खुद संभलना चाहिए !
नारी आँचल में पले हैं ,
ट्यूमर घातक रोग के !
धीरे धीरे कसते जाते
रेशे, दारुण रोग के !
इनके संकेतों की हमको , परख होनी चाहिए !
कुछ तो माँ पापा की बातें, याद रखना चाहिए !
बदलाव की अचानकता
सब कुछ बदल गयी थी
सूगढ़ता उग आई थी
मन में भी
वो साल मेरे नारिबोध को
श्रींगार गए थे
मन अंतर्मुखी और तन
अजनबी हो गया था
देहिक संवाद की कामनाओं
के आमंत्रण का प्रकटीकरण
भी अजीब था
हर छुपाने के प्रयास
पर विमर्श छेड़ बैठता था
पंख लगे थे
तो उड़ान तो होनी ही थी
उड़ बैठी दैविक संवाद का
स्वांग ओड़ कर
और उड़े साथ में
एक जोड़ी सांस
जोड़ी भर जिस्म
और जोड़ी भर
जिस्मों का अंतर
लांघने जीवन का
समंदर
सीपियाँ रगड़कर
सुलगाई थी आग
और पकाया था
मूंह भर
संबंधों का स्वाद
कुछ मोती बनाये थे
तो कुछ मोती चुराए थे
बहलिये की मज़बूत
पकड़ से जिन्दगी तो
छुड़ा लायी थी
पर नोच गया था
इक पंख, 'हरामी'
बहुत फर्क है फूदकने
और उड़ने में
कमअक्ल, सोचा था
उड़ान मन से होती है
सायद कविता थी सोच
या फिर गफलत
पंखों का होना ज़रूरी है
दैविक अनुष्ठान
के के लिए भी
ये अब जानती हूँ में
अम्मा के टूटे दांतों
को बदलवाने के साथ
मैंने भी
ओढ़ लिए हैं नए
'प्रोस्थेटिक' पंख
कोन फुदकता है
परकटी के साथ ?
नए दांतों और पुरानी लार से
रोटियाँ चबाने का
या फिर
नए पंखों पर सवार हो
हवा में जाने का
इक अलग ही 'ओरगास्म' है
फुदकना छोड़ दिया है मैंने!!
राज, Kansas , 2012
शुक्रिया अशोक, इतनी साफ़ बात साफ़-सफेद कहने के लिए. बचाव के सारे तर्क हास्यास्पद हैं…
अशोक भाई… मुझे तो हर जगह सांगठनिक और व्यक्तिगत सम्बन्ध निभाने का दबाव ही अधिक दिखता है… मामला किसी को स्थापित करने का हो बचाव का हो पुरस्कार देने का हो… 'अपने गुट का आदमी' का भाव ही नज़र आता है…
बहरहाल, अगर पवन करण को स्त्री के स्तन "अमानत" लगे, तो "अपने भीतर स्त्री" को वे किस निगाह से देख रहे थे। क्या यहां अर्थ यह है कि स्त्री एक पुरुष के भीतर है, "अमानत" के तौर पर सुरक्षित है, तो सब कुछ ठीक है? जिन धारणाओं और व्यवस्थाओं ने स्त्री को संपत्ति और दोयम बना दिया, उसकी पुष्टि करके पवन करण और उनके वकील आखिर जिस सत्ता को निबाह रहे हैं, उस पर आश्चर्य इसलिए नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे तो प्राकृतिक रूप से और प्रकृति में वही हैं।
एक सामाजिक प्रश्न- दो आदमियों के बीच जो कुछ घटित होता है, उसका हिसाब कोई और नहीं रख सकता, न उसे रखना चाहिए।
ठीक है, स्त्री के सिर में दर्द होता है। घर में कोई नहीं है। वह खुद उस तकलीफ में भी सड़क पर निकल कर दवा के दुकान में जाती है और दवा ले आती है। शाम को उसका पति आता है, उसे पता चलता है कि पत्नी सड़क पर गई थी। वह कहता है कि दवा दुकान वाला क्या तुम्हारा यार है और पत्नी की हत्या करने को उद्धत होता है। यह दो व्यक्तियों के बीच घटित हो रहा है, इसका हिसाब कोई नहीं रख सकता, न किसी को नहीं रखना चाहिए।
इस देश की सरकार न जाने कहां से टपकी है और वह घरेलू हिंसा, बलात्कार आदि के खिलाफ कानून-पर-कानून बनाए जा रही है। इस मूर्ख सरकार को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती। उसे मंगल ग्रह पर भेज दिया जाना चाहिए।
# खुला हुआ मन अगर खिल्ली उड़ाने का काम आता है तो सोचना चाहिए कि आपके दिमाग का विकास कितना हुआ है। एक सामंती व्यवस्था अपने साथ एक समूचा मनोविज्ञान भी लिए होती है और ऐसे आकलन वहीं से निकलते हैं।
# जहां संवेदनहीनता एक सामाजिक विशेषता हो, वहां मानवीयता को सांस लेने के लिए हाइपर संवेदनशीलता की ही जरूरत है। वही रेड्यूस होकर सहज संवेदनशीलता में कन्वर्ट होगी। इससे व्यवस्था और यथास्थितिवाद का विनाश होगा और यह मानवीयता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य है। इसके बिना कोई भी अभियान पाखंड होगा।
# शालिनी माथुर और दीप्ति गुप्ता को कृष्णा सोबती के लघु उपन्यास "ऐ लड़की" का पाठ महीने में एक बार आमने-सामने बैठ कर करने की सलाह एक सामंती मानसिकता का परिचय देती है और सामने वाले के दोयम होने की घोषणा करता है। खासतौर पर तब, जब किसी सामाजिक वर्ग के अस्तित्व को लेकर अपनी राय जाहिर की गई हो।
उपरोक्त तीनों का समुच्चय आखिरकार किसी व्यक्ति के पोर्नोग्राफिक होने की सूचना देता है या फिर उसकी रचना करता है।
पोर्नोग्राफी केवल स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों का वीभत्स चित्रण नहीं है। पोर्नोग्राफी समाज में विभेद पैदा करने वाली या उसकी व्यवस्था रचने वाली हर उस प्रक्रिया कहना चाहिए जो व्यक्ति को शरीर और संपत्ति रूप में स्थापित करता है, उसे वंचना का शिकार बनाता है, हाशिये के बाहर करने की साजिश के बतौर काम आता है और वंचित तबकों (शूद्रों और स्त्रियों) को आखिरकार सामाजिक सत्ताधारी तबकों (पुरुषों और सवर्णों) के रहमोकरम पर छोड़ देता है।
राजकिशोर जी को शालिनी माथुर की राय गुंडागर्दी लगती है। लेकिन उनकी राय को गुंडागर्दी कहते हुए साथ-साथ वे खुद के बारे में एक तरह से यह घोषणा करते हैं कि वे आखिरकार गुंडा ही हैं… । जो आरोप वे शालिनी माथुर पर लगा रहे हैं, उसके बरक्स वे किसी चीज को सही या गलत कहने के अधिकारी के रूप में खुद को आपराधिक पैमाने पर महंथ और जज घोषित करते हैं।
"स्त्रीवादी" कवयित्री अनामिका की कविता को तो, बाकी दूसरी चीजों को छोड़ भी दें तो, उनकी सिर्फ इन पंक्तियों के लिए खारिज़ किया जाना चाहिए, जो केवल और केवल स्त्री विरोधी है-
"…दूधो नहाएं
और पूतो फलें
मेरी स्मृतियां!"
पुत्री-विरोधी अनामिका…
पवन करण की कविता का बचाव करते हुए आशुतोष कुमार या राजकिशोर ने बहुत चालाकी से कुछ लाइनों को चुरा जाना जरूरी समझा और यही उनकी बेईमानी और अनैतिकता का सबूत है। "शहद के छत्ते" और "दशहरी आमों की जोड़ी" जैसे रूपकों और दूसरी लाइनों को छोड़ दीजिए। पवन करण की कविता की पंक्तियां है- "अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को/ हाथों में थाम कर वह उस से कहता/ ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी/ मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना"
गर्भ धारण करने की मजबूरी का फायदा उठा कर पितृसत्ता जब अपना मौजूदा शक्ल अख्तियार कर रही थी तो स्त्री को सबसे पहले उसने संपत्ति ही घोषित किया था, यानी पुरुष सत्ता की "अमानत"। उसके बाद उसने उस "अमानत" के भीतर भी कई-कई "अमानत" गढ़े। जैसे पवन करण इस कविता में कहते हैं कि "ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी…", जिसे कई दफे सबके बीच भी… कनखियों से वे देख लेते हैं और घर पहुंच कर जांच लेने को कहते हैं। फिर "बचे हुए एक" को देख कर "कसमसा कर रह" जाने वाले पुरुष का हाथ जब एक स्तनविहीन स्त्री की "देह पर घूमते हाथ" कुछ "ढूंढ़ते हुए मन से भी अधिक मायूस हो जाते" हैं, उस वक्त यह कविता क्या कहती है?
क्या यह अनायास है कि आज भी पुरुष की मांग "उन्नत उरोज" वाली स्त्री है और "उन्नत" से कमतर स्तन वाली स्त्री आधुनिक चिकित्साशास्त्र की मदद से अपने स्तनों को पुष्ट करवा कर खुश हो रही है? हालत तो यह है साहब कि कैंसर जैसी असाध्य बीमारी का शिकार होकर भी अगर स्त्री अपना एक स्तन गंवा देती है तो वह पुरुष के हाथों के "मायूस होने" के वजह बन जाती है। यह कुंठा कहां से आई? हिंदी साहित्य में "उन्नत उरोज", "कदली खंभ जैसी जांघें", "धवल गोरा रंग", "पुष्ट नितंब" और "पतली कमर" जैसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसके बिना स्त्री "अधूरी" हो जाती है। "अक्षत-यौवना" या "वर्जिनिटी" भी पुरुष सत्ता के लिए स्त्री के "सुरक्षित" होने के सबूत और "पवित्र अमानत" ही हैं। साइकिल चलाने, रस्सी फांदने, दौड़ने, व्यायाम करने, भारी सामान उठाने या किसी वजह से अपनी "वर्जिनिटी" को "गंवा चुकी" स्त्री की जगह इस समाज में क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। ब्याह की पहली रात "सफेद चादर" बिछा कर सोने करने की परंपरा ऐसी "अमानतों" की परीक्षा की प्रक्रिया है, जिसमें फेल होने के बाद स्त्री चरित्रहीन घोषित कर दी जाती है। हालांकि पुरुष के लिए ऐसी परीक्षा तय नहीं है। और तमाम ऐसे "गुणों" से हीन पुरुष भी पूज्य होगा। (महात्मा तुलसीदास की जय…)
'मातृत्व के प्रतीक और जैसा कि विश्व साहित्य में उन्हें नारी सौंदर्य का भी प्रतीक कहा जाता रहा हैं– उनके शरीर से चले जाने पर कौन मूढमति और निर्मम स्त्री होगी जो अवसाद में न डूबेगी?' माफ कीजिए, मगर इस वाक्य में न जाने क्यों मुझे पुरुषवादी संस्कारों की ही गूंज सुनाई दे रही है। स्तन स्त्री के शरीर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जरूर होते हैं, मगर क्या उनके बिना स्त्री का कोई व्यक्तित्व और अस्तित्व शेष नहीं रहता। क्यों हम किसी स्त्री को यह आज़ादी देने के लिए अब भी राजी नहीं है कि वह किसी जानलेवा बीमारी के कारण अपने शरीर का एक अंग हटा दिए जाने के बाद अपने-आप को अधूरी और व्यर्थ महसूस ना करे, जैसा कि पवन दीवान की कविता बताने की कोशिश करती है। आप एक स्त्री की जीजिविषा को सलाम करने की जगह यदि उसे निर्मम और मूढमति बताना चाहते हैं तो आप पुरुषी दर्प को ही पोषित और प्रोत्साहित कर रहे हैं।
बाघ कई लोगों की जान लेते हैं, जबकि बेचारे गधे कुछ भी नहीं करते। वे तो इंसान की सेवा करते हैं। बड़े दुख की बात है कि कोई गधों को बचाने का अभियान नहीं चलाता।
रामगोपाल वर्मा, 15 जुलाई 2012
और यह एक बात और जोड़ रहा हूँ – 'भाषाई स्खलन यूं ही नहीं होते. भाषा कविता से स्वतन्त्र कोई entity नहीं रह जाती कविता में, न शिल्प. वह लिखे जाते समय के असली मनोभावों, भाव-व्यापारों और पक्षधरताओं के मुताबिक़ ढलती-बनती चलती है. तो बात इस पर भी होनी चाहिए कि इस 'स्खलन' के स्रोत क्या हैं?
इस पूरे प्रकरण में राजकिशोर का लेख सबसे बड़ी 'स्नाबरी' था…जिसका एक हद तक जवाब दिया है दीप्ति जी ने. असल में पूरा प्रकरण वही बन गया जिसका मुझे पहले दिन से डर था. जो पूरा 'बचाव पक्ष' तैयार हुआ है उसके पीछे कविता और उसके स्टैंड की जांच से ज्यादा सांगठनिक और व्यक्तिगत सम्बन्ध निभाने का दबाव अधिक दिख रहा है. खैर…इसके लिए लगभग अभिशप्त है हमारा हिंदी समाज.