Home / ब्लॉग / ‘वह’ से यह तक की यात्रा

‘वह’ से यह तक की यात्रा

इस साल हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों में जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया वह अनिल कुमार यादव की पुस्तक ‘वह भी कोई देस है महराज’ भी है. जहां तक मेरी अपनी समझ है उसके आधार पर मैं यही कह सकता हूं कि इस तरह के यात्रा वृत्तान्त हिंदी में कम लिखे गए हैं जिसमें निजी और सार्वजनिक का ऐसा कोलाज है जो पहले तो अपने विषय के कारण हमें आकर्षित करता है फिर अपने में हमें भी शामिल कर लेता है. देर से ही सही इस पुस्तक पर मैंने लिखा है ‘कथन’ में. आपके लिए यहां प्रस्तुत कर रहा हूं- प्रभात रंजन.
================================
   
कहानी शुरु होती है पुरानी दिल्ली स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर ९ पर खड़ी ब्रह्मपुत्र मेल की यात्रा से ‘जिसे देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है. अब कभी नहीं चलेगी.’ जिसका अंत होता है त्रिपुरा में रबर से बनी सड़कों पर. बीच के करीब १५० पन्नों में है ‘वह भी कोई देस है महराज’- अनिल यादव का का यात्रा संस्मरण. असम, नागालैंड, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ी, सुदूर यात्राओं में यह किताब हमें ले जाती है, देश के हिंदी भाषी राज्यों के ‘अन्य’ के रूप में मौजूद इन राज्यों की वास्तविकता है, बदलता समाज है, इतिहास की झांकियां हैं, सबके बीच लेखक और उसके मित्र के अपने जीवन के संघर्ष की परेशानियां हैं. पुस्तक के यही विभिन्न ‘बैकग्राउंड’ इसे केवल एक यात्रा-वृत्तान्त नहीं रहने देते. इसमें पूर्वोत्तर के राज्यों का जरूरी इतिहास, भूगोल, सामाजिक झलकियाँ हैं जो पुस्तक को उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण बना देती हैं जो वृत्तान्त शैली में पूर्वोत्तर के राज्यों के बारे में ‘ठीक-ठीक’ जानना चाहते हों.

हिंदी की इस पुस्तक की यात्रा जिस दौर में शुरु होती है तब पूर्वोत्तर के राज्य हिंदीभाषी विरोधी हिंसा में सुलग रहा था, जिसकी ख़बरें लेखक अख़बारों में पढ़ता है. पुस्तक पर पूर्वोत्तर के राज्यों की संवेदनशील राजनीति की गहरी छाया है, जिसको समझे बिना शायद भारत की मुख्य धारा से कटे इस भू-भाग को समझना शायद मुश्किल है, उग्रवादी बताये गए संगठनों की सामाजिक अवस्थिति को समझे बिना उसके ‘आदर्शों’ को समझ पाना शायद उपयुक्त नहीं होगा. वैसे भी उग्रवाद कवर करने गए एक पत्रकार की डायरी की तरह है, जो ‘आशंकाओं की सुरंग में नई यात्रा थी, बाहर नहीं भीतर.’ यह सचमुच पूर्वोत्तर राज्यों की ‘भीतरी यात्राएं हैं. नागालैंड को लेकर लिखे गए यात्रा-वर्णन हिंदी में नहीं मिलते. निर्मल वर्मा की डायरी ‘धुंध से उठती धुन’ में कुछ टीपें नागालैंड की भीतरी इलाकों की हैं. लेकिन इस पुस्तक में नगालैंड का समाज अपनी तमाम जटिलताओं, गौरवपूर्ण वीरता के प्रसंगों, जंगल पर अधिकार को लेकर सरकार तथा एनएससीएन के लड़ाकों के बीच चलने वाले संघर्षों के बीच पूरे आत्मविश्वास के साथ मौजूद है. जहां ‘उग्रवाद की समस्या सुलझाने में लगे अफसर यह दावा बड़े विश्वास से करते हैं, आराम की जिंदगी, अच्छी शिक्षा, अच्छे भविष्य के आश्वासन की लट लगने के बाद ये नागा युवा जंगलों में कभी नहीं जायेंगे.’ नागालैंड के स्वाधीन रहने की आकांक्षा, उसको पाने की इच्छाशक्ति के बीच वहां के समाज की कथाएं संक्षेप में ही सही लेकिन लिखित, मौखिक, किस्से-कहानियों के अनेक स्रोतों से आई है, लेखक की अपनी यात्राओं के अनुभव इसे विशिष्ट बना देते हैं. पुस्तक का यह हिस्सा बहुत दिलचस्प है.

मुझे पुस्तक में सबसे अच्छा लगा शिलोंग के वर्णनों वाला हिस्सा. नारंगी की चमक से चमकने वाले शहर शिलोंग के जीवन के बड़े अच्छे चित्र पुस्तक में हैं. उसके ‘फूले कबूतर की तरह स्लेटी कोहरे’ के, डेढ़ सौ साल पुराने इस शहर के बाजारों के. लेकिन लेखक उसके बाजार में हिंसा के दृश्य, वहां यूरेनियम की तस्करी के किस्सों को बताना भी नहीं भूलता. यह पुराना झपकी लेता पहाड़ी शहर जाग गया है, इसकी औपनिवेशिक छवि स्थानीय होती जा रही है. यह वह शिलोंग नहीं है जहां सरकारी कर्मचारी एलटीसी लेकर घूमने जाता है, जिसे फेसबुक पर शेयर किया जाता है. यह कोई और शिलोंग है, जो हिंसा का आदी हो चुका है, तब भी यह स्कूली शिक्षा का एक बड़ा केंद्र बना हुआ है. इस सबके बावजूद शिलोंग का अपना आकर्षण है जो इसे सपनीला शहर बना देता है. बादलों के घर माने जाने वाले शिलोंग की विविधवर्णी छवि पुस्तक में है.

पुस्तक में सबसे अधिक असम मौजूद है. ‘जनता होटल’ असम की राजधानी गुवाहाटी का पहला पड़ाव बनता है, उसके बाद तो असम के अनेक इलाकों की यात्राओं के वर्णन हैं, ब्रह्मपुत्र नदी के साथ-साथ बहते असमिया जीवन की, तामुल के लती असम वासियों की. लेखक वर्तमान के साथ-साथ वहां की अतीत यात्रा करवाता चलता है. यात्रा जितनी भीतरी होती जाती है जीवन-समाज का विरोधाभास बढ़ने लगता है. उल्फा-सुल्फा के चक्रव्यूह गहराने लगते हैं, उग्रवाद का व्यापार स्पष्ट दिखने लगता है. अस्मिताओं के संघर्ष के नाम पर यहां उगाही का धंधा जड़ जमा चुका है. इनके पीछे विदेशी हाथ है. एक तरफ विदेशी हाथ है दूसरी तरफ बाहरी घुसपैठ है. जिसके कारण वहां के लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है, व्यापारी बाहर से आया रहे हैं, मुनाफा कम रहे हैं. क्या कारण है कि चाय बागानों और तेल के कुओं वाला राज्य आखिर इतना दुख-रुखा क्यों है? लेखक पुस्तक में यह सवाल कई बार उठाता है.

‘वह भी कोई देस है महाराज’ में अरुणाचल प्रदेश की यात्रा का वृत्तान्त है. ल्हासा(तिब्बत) के बाद दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे प्राचीन महायान मठ तवांग की यात्रा. तवांग बदल रहा है, पूजा पद्धतियाँ बदल रही हैं. टीवी समाज को बदल रहा है. वहां आयोजनों में गाने के लिए जसपिंदर नरूला से लेकर उदित नारायण तक आ रहे हैं. भारत की मूल धरती से भले यह राज्य कटा हुआ लगता हो, सुदूर बसावट हो लेकिन देशी संस्कृति वहां घुसती जा रही है. उसको स्वीकृति मिल रही है. ‘चकाचौंध से खींचकर मठ छोड़ने वाले लामाओं की तादाद बढ़ रही थी लेकिन मठाधीश चिंतित नहीं थे. मोम्पा जनजाति में जिसके तीन बेटे हों उसे बीच वाले को मठ को समर्पित करना पड़ता है. इसलिए आने वालों की भी कमी नहीं थी.’ लेखक यह बताना भी नहीं भूलता कि इन मठों में राजनीति का प्रवेश भी हो चुका है. लामा चुनाव लड रहे हैं, सरकार में शामिल हो रहे हैं. मुख्यधारा की संस्कृति उनके जीवन में प्रवेश कर चुका है.

कुल, मिलकर यह पुस्तक पूर्वोत्तर के दृश्यों का एक कोलाज हमारे सामने प्रस्तुत करता है जिससे वहां की एक मुकम्मिल छवि बनती है. कभी हमारे पूर्वग्रह बदल जाते हैं, कभी वे और पुष्ट होते हैं. लेखक लोक और शास्त्र दोनों के आधार पर उसका पाठ हमारे सामने प्रस्तुत करता है. हाँ, यह जरूर है कि पुस्तक के आरम्भ में जितने विस्तार से वर्णन आते हैं, बाद में पुस्तक को समेटने की जल्दी दिखाई देती है. बहुत सारे सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. लेकिन यही शायद इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह हमें ढेर सारे सवालों के बीच छोड़ देती है. कुछ सवाल असहज हैं, कुछ ऐसे जिनके जवाब आजादी के बाद से ढूंढे जा रहे हैं. लेखक की किस्सागोई हमें आद्यंत बंधे रखने में कामयाब रहती है. 
निश्चित रूप से यह ऐसी पुस्तकों में है जिसका असर देर तक हमारे मन पर रहता है.  
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

8 comments

  1. यात्रा कि साहित्यिक पुस्तक बहुत कापासटिक है गुर… अनिल महाराज कि जय हो….

  2. हिंदी यात्रा साहित्य का ताज़ा, अपने आप में निराला, बेहद संवेदनशीलता में डूबा, ज़मीन, हवा और पानी में रचा, सूचनाप्रद और सटीक यात्रा-वृत्तांत / रिपोर्ताज।

  3. This comment has been removed by the author.

  4. इस पुस्तक में यात्रा वृतांत, खोजी पत्रकारिता और यायावरी का आनंद है.आजकल सरकार पूर्वोत्तर को सैलानियों का स्वर्ग प्रोजेक्ट करके एल टी सी देकर लोगों को वहां घूमने के लिए भेजती है.वहां के हालात को अनिलजी ने बहुत करीब से देखा और महसूस किया है. शैली काव्यात्मक और प्रवाहमय होने से यह पुस्तक और भी पठनीय हो गयी है.

  5. हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया

  6. जानकारी के लिए आभार ..
    इस पुस्‍तक के यात्रा वृतांत में सबकुछ शामिल दिखता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *