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इस आयोजन में कई परंपराएं टूटी हैं

हमारे प्रिय लेखक असगर वजाहत ने पटना लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने साहित्य और सत्ता के संबंधों को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. आप भी देखिये- जानकी पुल.
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पिछले महीने बाईस से चौबीस मार्च तक चले पटना साहित्य समारोह के संबंध में रपटें और समाचार प्रकाशित हो चुके हैं और लगता है कि अब उसके बारे में लिखने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन इस साहित्य समारोह के एक-दो ऐसे महत्त्वपूर्ण और सारगर्भित प्रसंग हैं जिन पर लिखा जाना चाहिए। इस आयोजन में कई परंपराएं टूटी हैं और कई बुनियादी सवाल उठे हैं।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा समारोह का उद्घाटन उस समय हुआ जब कार्यक्रम चौथाई से अधिक आगे बढ़ चुका था। आमतौर पर उद्घाटन के लिए तय किए गए वीआइपी व्यक्ति समारोह शुरू होने से पहले आते हैं, उद्घाटन की औपचारिकता निभाते हैं और किसी न किसी कारण से चले जाते हैं। लेकिन पटना साहित्य समारोह में यह एक खास बात मुझे लगी कि नीतीश कुमार उस समय सभागार में आए, जब एक सत्र चल रहा था और लोग लगभग ध्यानमग्न होकर सुन-देख रहे थे। मंच पर पाकिस्तान से आर्इं प्रसिद्ध कवयित्री फहमीदा रियाज़ और अमेरिका से आए उर्दू कवि शहज़ाद अपनी शायरी सुना चुके थे और पटना के वयोवृद्ध कवि कलीम आजिज़ अपनी गजलें सुना रहे थे। 

यों, कलीम आजिज़ को सुनना वहां मौजूद सबके लिए एक खास अनुभव था। लेकिन मुख्यमंत्री भी वहां रुके और काफी देर तक गजलें सुनते रहे। उन्होंने एक गजल की फरमाइश भी की। गजलों का सत्र समाप्त होने के बाद मुख्यमंत्री का भाषण शुरू हुआ, जिसमें अन्य प्रसंगों के अलावा उन्होंने कलीम आजिज़ के बारे में बात करते हुए उनके गांव तिलहाड़ा का नाम बताया। यही नहीं, गांव जाने का रास्ता बताया और आसपास के एक दो दूसरे गांवों के नाम लिए। आज के राजनीतिकों की जैसी छवि हो गई, उसमें यह कई लोगों के लिए थोड़ा हैरान करने वाली बात थी। खुद मुझे भी यह सुन कर लगा कि हां, एक मुख्यमंत्री है जो कवि के गांव का नाम जानता है। हिंदी प्रदेशों के अन्य मुख्यमंत्री पता नहीं, कितनी कविता पढ़ते-सुनते या कवियों के बारे में कुछ जानते हैं।

साहित्यकारों और राजनीतिकों के बीच जो दूरी है, उसे हम सब जानते हैं। हालत यह है कि अगर कोई राजनीतिक साहित्य में रुचि लेता हुआ दिखता है तो हम उसे थोड़ा विस्मित होकर देखते हैं। हालांकि हमें यह भी पता है कि प्रबुद्ध राजनीतिक और शासक इस दूरी को हमेशा पाटने की कोशिश करते रहते हैं। मुगल सम्राट अकबर गोस्वामी तुलसीदास को बिना कारण ही तो दरबार आने का निमंत्रण नहीं दे रहे थे! पंडित जवाहरलाल नेहरू का गहरा संबंध साहित्यकारों और अन्य कलाकर्मियों से था। दिल्ली के हिंदुस्तानी थिएटर के लोग बताते हैं कि एक बार कालिदास के नाटक शकुंतलाका मंचन हो रहा था जिसमें नेहरू जी भी आमंत्रित थे। लेकिन इस प्रसंग में एक बात जो हुई थी, उस पर आज के दौर में तो विश्वास करना भी कठिन हो जाता। प्रधानमंत्री सचिवालय से फोन आया कि क्या प्रधानमंत्री नाटक देखने के लिए अपने एक मित्र को भी साथ ला सकते हैं? निश्चय ही इधर से कहा गया- अवश्य!शाम प्रधानमंत्री अपने मित्र मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर (1950-70) को लेकर नाटक देखने आए। यानी मिस्र के राष्ट्रपति को साथ लेकर आने की इजाजत के लिए तब प्रधानमंत्री कार्यालय से पहले फोन पर पूछा गया था। आज के राजनीतिक अपने आगे-पीछे किस तरह की भीड़ लेकर कहीं जाते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। राम मनोहर लोहिया रघुवीर सहाय की कविताएं सुना करते थे, लेकिन आज उनके चेलों को सत्ता का संगीतसुनने से फुर्सत नहीं है।

पटना साहित्य समारोह में पाकिस्तान, अमेरिका और मुंबई से बुलाए गए कवियों से अधिक आकर्षित किया पटना के वयोवृद्ध कवि कलाम आजिज़ ने। हो सकता है कि आयोजकों को इस बात अनुमान न रहा हो कि स्थानीय, लेकिन प्रचार माध्यमों से दूर कवि-कलाकार इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि ग्लैमरकी ओर भागने की बहुत जरूरत नहीं है।

इस समारोह में नीतीश कुमार गुलज़ार का नाटक देखने आए। प्रेमचंद सभागार के बाहर मुझे बिहार के प्रतिष्ठित कवि आलोकधन्वा मिल गए। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि नीतीश कुमार उनके पुराने मित्र हैं, पर आजकल वे उनसे अधिक नहीं मिलते, क्योंकि वे बहुत व्यस्त रहते हैं। इस बीच नाटक समाप्त हो गया। नीतीश कुमार बाहर निकले और आलोकधन्वा को देखा तो रुक गए। बड़ी गर्मजोशी से मिले और सबको बताया कि आलोकधन्वा उनके पुराने मित्र हैं। बहरहाल, पटना साहित्य समारोह ने राजनीति और साहित्य के जटिल, लेकिन महत्त्वपूर्ण पक्ष पर जो इशारे किए हैं, उन पर चर्चा आवश्यक है।


‘जनसत्ता’ से साभार 
 
      

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3 comments

  1. भाई, राजीव जी इस लेख में आपको नीतीश कुमार की चापलूसी कहां से दिख गई. नीतीश कुमार की तुलना आप किसी और नेता से नहीं कर सकते.

  2. अभी तो नीतीश कुमार की आरती तक ही बात पहुंची है, थोड़े समय बाद ये असगर वजाहत नरेंद्र मोदी की भी आरती गाएंगे। सभी बुद्धिजीवियों की रीढ़ की यही हालत है। थोड़ी सी रोटी सामने फेंक दो जीभ लपलपाते हुए पूंछ हिलाने लगेंगे। असगर वजाहत ने यह आलेख नीतीश कुमार की चापलूसी करनेके लिए ही लिखा है। अब आगे देखिए किसकी बारी है खरीदे जाने की। इन लोगों की कोईजमीर नहीं होती। पाखंडी हैं ये सब.

  3. बहुत सही बात कही सर ने। हवा हवा में लटकी राजनीति और हवा हवा में लटके साहित्‍य में परस्‍पर संबंध के तार नहीं होंगे। पर जमीनी संश्‍लेषण से निकली राजनीति और ऐसे ही संश्‍लेषणों से निकले साहित्‍य में परस्‍पर संबंधों के तार लाजिमी हैं। नीतिश कुमार जी का जेस्‍चर और पटना साहित्‍य समारोह के आयोजकों की व्‍यापकता दोनों स्‍वागत योग्‍य।

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