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बेबी हालदार से शर्मिला जालान की बातचीत

बेबी हालदार, एक ऐसा नाम जिनकी जीवन यात्रा हमें स्तब्ध करती है। एक ऐसी महिला जिनकी शादी बहुत जल्द करा दी गई, उसी जल्दबाजी में बच्चे भी हो गए। लेकिन अपने जीवन में वह इज्ज़त, गरिमा नहीं मिल पाई जिसका हकदार प्रत्येक व्यक्ति होता है। सालों बाद उनकी किताब आती है ‘आलो आँधारि’ और उसके बाद जैसे उनकी दुनिया ही बदल जाती है। जिसमें सबसे बड़ा योगदान प्रबोध कुमार (जिन्हें वे तातुश कहती थीं) का रहा। अपनी दुनिया बदलने की प्रकिया पर बहुत विस्तार से उन्होंने ही बताया है। शर्मिला जालान ने कुछ बरस पहले उनसे फोन पर वार्त्ता की और उसे इंटरव्यू के रूप में शब्द-बद्ध कराया। यह एक लंबी बातचीत है, सप्ताह भर के संवाद का लिप्यांतरित रूप। आप भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी

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         बेबी हालदार, संभवत: देश की ऐसी पहली कामगार (काजेर मेय) स्त्री है जिसकी जीवनी ‘आलो अंधारि’ ने कामकाजी महिलाओं के प्रति हमारी दृष्टि को बदला है । इस किताब की रौशनी में हम वास्तविकता को और स्वयं अपने आप को भी कुछ और तरह से देख और अनुभव कर सकते हैं । प्रबोध कुमार की गहरी करुणा और लगाव के कारण ‘आलो आंधारि’ लिखी गयी । यह संयोग नहीं है कि बेबी हालदार को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली । इस पुस्तक को लिखने की यात्रा में बेबी ने अपने जीवन के नए मार्गों की खोज की और आज भी वह लिखने-पढ़ने के द्वारा नए मार्गों की तालाश कर रही हैं ।             

बेबी हालदार से बात करना कई-कई तरह के अनुभवों से गुजरना रहा, जैसे- बेबी से बात करना 90 के दशक के उस कलकत्ते में लौटना था जिसमें बहुत गहराई थी और जिसने हमें अंदर तक समृद्ध किया था। बेबी हालदार से बात करना नॉस्टैल्जिक होना है और उस ‘टाइम’ और ‘स्पेस’ में जाना है जब हम एक दूसरे को निश्छल भाव से पत्र लिख रहे थे । बाद में उनमें से कुछ पत्रों को ‘आलो आंधारि’ में भी शामिल किया गया । बेबी से बात करना अपने उस पैशन को भी याद करना है, उन पुराने दिनों के मासूम भाव संसार में लौटना है, उन मूल्यों को फिर से जीना है जिनसे हम जीवन की शुरुआत कर रहे थे, जब यह जुनून सिर पर चढ़ा हुआ था कि लिखने-पढ़ने से हम अपने संसार को बदल डालेंगे और लिखने- पढ़ने से संसार बदलता है । संसार तो बदला ही पर बहुत सारे लोग और रिश्ते भी बदल गए । बहुत सारे लोगों का साथ छूट गया और अकेलापन भी हिस्से में आया । कुछ पाया तो ज्यादा छूटा भी । जीवन की मरीचिका समझ में आई । असली और नकली क्या है यह भी समझ में आया । क्या खरा है, क्या और कौन अंत तक साथ रहेगा यह भी शायद समझ में आया, और अब जो साथ में है वही सच्चा धन है ।  वही आगे भी साथ बना रहेगा इसका बोध हुआ । इस तरह बेबी से संवाद करना कई प्रक्रियाओं से गुजरना था । बेबी से बात करना लंबे-लंबे अंतराल को पाटना और उसे साझा करना भी है। यह बातचीत फ़ोन पर एक सप्ताह तक होती रही और उसे फोन में ही रिकॉर्ड किया गया। बेबी गुड़गांव में थी और मैं कलकत्ते में । पर ऐसा लगा कि हम उसी समय समय और काल में हैं जब ‘आलो अंधारि’ लिखी  जा रही थी । पूरे एक सप्ताह बात होती रही और ऐसा लगा कि बात करने की अटूट प्रक्रिया हमारे अंदर चल रही है। ऐसा भी लगा कि इन सालों में संवाद का जो सूत्र टूट गया था, जो लंबे-लंबे अंतराल थे उनकी कमी पूरी हो गई ।

          बेबी ने बहुत धीरज के साथ बातचीत की जिसके लिए हम उसके आभारी हैं । मैं लमही के संपादक विजय राय जी की आभारी हूँ कि उन्होंने यह अवसर दिया । इस रिकार्डिंग को लिप्यान्तरण करने में कॉलेज के दिनों की मित्र और अनुवादक मीनाक्षी गर्ग ने सहयोग किया मैं उसकी आभारी हूँ – शर्मिला जालान

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शर्मिला जालान – आप अपने प्रारंभिक जीवन के बारे में संक्षेप में प्रकाश डालिये? खासकर प्रबोध कुमार जी से परिचित होने से पहले ।

बेबी हालदार प्रबोध जी से मिलने से पहले मेरी हालत बहुत ही खराब थी । बच्चों की चिंता थी कि उनको स्कूल में डालना है, पढ़ाना है । मुझे काम चाहिए था । काम नहीं करूँगी तो बच्चों का गुज़ारा कैसे होगा? जिस घर में मैं थी उस घर में भी काम ही करती थी पर वे लोग थोड़ी दूसरी तरह के थे । इंसानियत की चीज़ उनके मन में बहुत कम थी इसलिए मुझे वह घर छोड़ना था । मैंने अपने जान-पहचान के लोगों से बोल रखा था कि कोई काम के लिए बोले तो मैं यह घर छोड़ना चाहती हूँ ।

शर्मिला – प्रबोध कुमार जी से परिचय कैसे हुआ? आपको उनके यहाँ कौन लेकर आया ?

बेबीसुनील नाम का एक लड़का मुझे प्रबोध जी के पास बात करने के लिए लेकर गया । उन्होंने बोल रखा था कि उनको काम के लिए किसी की ज़रूरत है । इस तरह मैं प्रबोध जी के पास आई ।

प्रबोध जी के पास आई उससे भी पहले की बात अगर कहूँ कि मेरी शादी कैसे हुई और मेरा बचपन कैसे बीता तो मेरी सौतेली माँ थी, मेरे पिता ‘आर्मी’ में थे लेकिन ‘आर्मी’ में रहने से भी उनकी वैसी सोच नहीं थी जैसी होनी चाहिए । बच्चों को किस तरह से रखेंगे, परिवार को किस तरह से रखेंगे, यह  मेरे पापा नहीं सोचते थे । मेरे पापा दूसरी तरह का ज़ुल्म मेरी माँ पर करते थे । ‘आर्मी’ के लोग ज़्यादातर नशा करते हैं । मेरे पापा का थोड़ा-सा औरत की तरफ़ भी नशा था । माँ पर भी बहुत ज़ुल्म हुआ । इसी वजह से माँ घर छोड़कर निकल गई । एक छोटे से बच्चे को गोद में लेकर, मेरे भाई को लेकर घर से निकल गई । इसके बाद हमारी हालत बिगड़ती गई । बचपन में ही मेरी शादी हो गई ।  मेरी सौतेली माँ आ गई । सौतेली माँ जो कहती वही होना चाहिए । एक छोटी सी बच्ची की बचपन में ही शादी करा दी । शादी के बाद जिसके साथ शादी कराई उसकी भी हालत उतनी अच्छी नहीं थी ।  जो लड़का मिला उसी के हाथ में मुझे दे दिया ।

शर्मिला आपकी शिक्षा-दीक्षा कहाँ तक है ? क्या आपको हिंदी पढ़ना-लिखना आता है ?

बेबीबचपन में मैं स्कूल जाती थी । स्कूल में जाना,पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था । क्लास 7 तक ही पढ़ाई हुई थी । माँ घर छोड़ कर चली गई उसके बाद हमारी पढ़ाई भी छूट गई । पढ़ाई उतनी अच्छी नहीं हुई । हुई ही नहीं एक तरह से । फिर सौतेली माँ आ गई, फिर बचपन में ही शादी करा दी  और ऐसे इंसान के साथ में दिया जिसके पास ना घर है, ना चूल्हा है, ना चाल-चलन है और ऐसे इंसान के हाथ में दिया जिसकी ज्यादा उम्र थी, दुगनी| मेरी उम्र 12-13 साल के बीच में थी । 13 साल की पूरी नहीं हुई थी । उसके बाद ज़ुल्म ही ज़ुल्म । शरीर की तरफ से, मानसिक, सभी तरह से । मैं बार-बार पापा के पास भाग जाती थी । इतना कष्ट, शाम होते ही रोती थी ।  बहुत जुल्म होता था रात को ।

शर्मिला- आपका विवाह कहाँ हुआ था ? उस जगह और मुहल्ले का नाम क्या है?

बेबी– दुर्गापुर-वर्द्धमान ‘डिस्ट्रिक्ट’ में । Sbstc Garage रोड कहते हैं । बगल में बस स्टैण्ड है उसी के नाम से उस एरिया की पहचान होती थी ।

शर्मिला- आपकी ससुराल में  और कौन  थे ?

बेबीनहीं, मेरे ससुराल में कोई नहीं था । मेरे हसबैण्ड जहाँ रहते थे उसी के आस-पास के दो-चार लोग थे । मेरी शादी के टाईम भी मेरी ससुराल का कोई नहीं था । बताया ही नहीं उस समय पापा-मम्मी को कि मेरा कोई है या नहीं ।

शर्मिलापति का दुर्व्यवहार सहते हुए कितने साल उनके साथ रह पाई ?

बेबी– मुझे रहना ही पड़ा । शुरू में तो मैं बार-बार पापा के पास भाग जाती थी तो मामी-माँ फिर समझा-बुझा कर दे जाते थे कि शादी के बाद लड़की को ऐसे ही रहना पड़ता है, सहना पड़ता है ।  पापा के पास जाकर भी मुझे शांति नहीं मिलती थी । काम करो । मारपीट, झगड़ा,  मुझे लेकर अशांति  थी कि क्यों चली आई ? लड़की को शादी के बाद सब कुछ  सहना पड़ता है । तो सोचती थी कि वहाँ पर भी मेरी ऐसी हालत यहाँ पर भी ऐसी ही तो यहीं पर ठीक है । शायद लड़कियों को शादी के बाद ऐसे ही सहना पड़ता है ।  यही सोच कर मैं अपने ‘हसबैण्ड’ के पास रह गई । उतनी सी उमर में शादी के दो-तीन महीने के बाद ही मेरा बड़ा वाला लड़का मेरे पेट में आ गया । एक छोटी सी बच्ची के पेट में बच्चा । आप समझ सकते हैं क्या हालत होगी । मैं समझ ही नहीं पा रही है कि मेरी लाइफ में क्या हो रहा है ।

बच्चे बाहर खेलते तो मैं भी उनके साथ खेलने भाग जाती । आस-पास की औरतें समझातीं, कहती अन्दर जाओ, ऐसा नहीं करना चाहिए, अभी तुम्हारे पेट में बच्चा है, ऐसा करोगी तो पेट में चोट लग जाएगी । मैं शर्म के मारे दौड़कर अन्दर आ जाती थी । इसी तरह से मेरे दिन बीते । ऐसे ही पहला बच्चा हुआ । फिर इसी तरह के अत्याचार के अन्दर मैंने तीन-तीन बच्चों को जन्म दिया । जब बच्चे हो गए तो मुझे लगा कि मेरे साथ जो हुआ है वैसा मैं अपने बच्चों के साथ नहीं होने दूँगी । उनको अच्छी परवरिश देनी है, अच्छा समाज देना है, पढ़ाना है, लिखाना है ।  ऐसा मैं सोचने लगी । फिर मैं देखती थी उस एरिया में कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों के लिए अच्छा कुछ नहीं सोचते थे । मतलब बचपन में ही थोड़े बड़े होते हैं, होटल में लगा देते हैं, पर मैं सोचती मुझे कुछ करना पड़ेगा । बच्चों को स्कूल में देना है । तीन-तीन बच्चे हैं । स्कूल में दिया । बड़े लड़के को दिया, उसके बाद छोटा भी बड़ा हो रहा था । अपने ‘हसबैण्ड’ से बात करने लगी कि क्या यहाँ के बच्चों की तरह बच्चों को पालना है ? यहाँ के माँ-बाप को देख रहे हो ? कोई बच्चे के अच्छे-बुरे के बारे में सोचते नहीं हैं ।

शर्मिला- तीनों बच्चों में उम्र का कितना अंतराल है ?

बेबी मेरा बड़ा वाला बेटा हुआ था तो मुझे थोड़ा सा सावधान होना पड़ा कि बच्चा अभी देर से होना चाहिए । अभी बच्चा छोटा है । इतनी जल्दी अभी बच्चा नहीं होना चाहिए । इसी वजह से हमारे घर में बहुत लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट भी होता । यही सब ज़ुल्म सहकर मैंने 5-6 साल बिता दिए । हाँ, उसके बाद छोटा लड़का पेट में आया । लड़ाई-झगड़ा होता था । मैं चली जाती थी ।  मेरा हसबैण्ड मुझसे बच्चा छीन लेता था कि मैं बच्चे के लिए उस घर में रहूँ ।  बहुत ज़ुल्म करता था ।

शर्मिलाबड़े  बेटे का नाम  ?

बेबी– सुबोध ।

शर्मिला सुबोध और फिर तापस का जन्म हुआ छह साल बाद  ।   पिया कितने साल बाद आई ?

बेबी– तीन साल बाद आई । नौ-दस साल के अन्दर तीन बच्चों का जन्म हुआ ।

शर्मिला- आपके मन में यह कब आया कि आपको बच्चों के लिये कुछ करना चाहिए ?

बेबी उन्हीं दिनों, बात करती थी अपने हसबैण्ड से कि समाज बदलो, खुद को बदलो, बच्चों को अच्छा समाज चाहिए, अच्छी शिक्षा चाहिए । इसी बात पर उसको गुस्सा आता था ।  घर में लड़ाई-झगड़ा, मारपीट रोज़ होती थी । मुझे बहुत बुरा लगता था कि मैं बच्चों को क्या शिक्षा दे रही हूँ ? बच्चे क्या देख रहें है ? क्या सीख रहे हैं ? फिर मुझे वहीं पर काम पर लगा था कि मुझे बच्चों को स्कूल में डालना है । थोड़ी-बहुत पैसे की भी जरूरत है । मुझे लिखना-पढ़ना आता था तो मैं घर पर छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन देने लगी थी ।

शर्मिलाअच्छा, आपने अपने दुर्गापुर में ट्यूशन शुरू कर दिया था ?

बेबी– हाँ, ट्यूशन शुरू कर दिए थे । छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती थी ।

शर्मिलाउस समय पिया (बेटी) की  उम्र क्या  थी  ?

बेबी– बहुत ही छोटी थी ।

शर्मिलादो साल ?

बेबी– हाँ, तब दूध पीती थी ।

शर्मिला ट्यूशन के आलावा कुछ और भी किया ?

बेबी– हाँ, दूसरों के घर में भी काम शुरू कर दिया था । फिर मेरे हाथ में थोड़ा-बहुत पैसा आने लगा ।  मेरे हसबैण्ड ने देखा कि पैसा मेरे हाथ में आ रहा है तो घर चलाने का खर्चा भी देना करीब-करीब बंद ही कर दिया । मुझे बहुत बुरा लगा । मैंने कहा कि मैं बच्चों के लिये कुछ करना चाहती हूँ । तुम अगर ऐसे करोगे तो ऐसे कैसे चलाऊँगी । इन सब बातों का उसको बुरा लगता था ।  लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट शुरू कर देता था । मुझे लगा कि नहीं, ऐसा नहीं चलेगा, मैं बच्चों को लेकर अलग होना चाहती हूँ ।  बच्चे क्या देखेंगे ? क्या सीखेंगे ? यह सब देखकर मुझे लगा कि मुझे यहाँ से निकलना पड़ेगा । मुझे अगर काम करके ही खाना है, मुझे अगर बच्चों को अकेले ही पालना है तो उसके पास फिर क्यूँ रहूँ ? इतनी मार-पीट क्यूँ सहूँ ?

शर्मिला24-25 की उम्र में आपके मन में यह बात आई कि मुझे अपने बच्चों के लिए कुछ करना है और मैं अलग होना चाहती हूँ ।  इस बारे में  आपने क्या किसी से बात की ?

बेबीनहीं ।

शर्मिलाप्रबोध कुमार जी के घर में प्रवेश एक घरेलू काम करने वाली महिला के रूप में हुआ फिर धीरेधीरे आप उस घर की सदस्य हो गई और आप तथा आपके बच्चे वहीं रहने लगे । पूरी जानकारी विस्तार से दीजिए ।  

बेबी-जब मैं 1999 में उस घर में गई थी तो मेरी सोच भी वैसी ही थी और वहाँ पर भी मेरे साथ और कामवालियों की ही तरह का व्यवहार होता था लेकिन कुछ ही दिनों में मेरा उनके साथ अच्छा रिश्ता हो गया । छः महीने-साल भर में ही मैं उनके घर के सदस्य जैसे हो गई । यह समय था 2001 से 2013-14 तक का । हमारा रिश्ता बहुत अच्छा रहा । मेरा लिखना-पढ़ना, मेरा विदेश जाना, मेरी किताब पर इतनी चर्चा, इतने अवार्ड मिलना, सब कुछ अच्छा ही था । जब मैं विदेश जाती थी तो तातुश ही मेरे बच्चों का खयाल रखते थे । थोड़ा अनमना तब होने लगा जब ममा ( अलित्स्या जी  ) इधर शिफ्ट हुई ।

शर्मिलाप्रबोध कुमार जी को आप किस रूप में देखती हैं ? आपके जीवन में उनका महत्त्व क्या है?

बेबीतातुश मेरे  लिए सबसे बड़े व्यक्ति हैं हमारी लाइफ के । वह मेरे लिए गुरु हैं, वह मेरे लिए पिता हैं, वह मेरे लिए शिक्षक हैं, सब कुछ हैं । उनके चले जाने के बाद जिस तरह की कमी महसूस होती है वह मैं ही जानती हूँ । उस तरह के कोई भी व्यक्ति मेरे लाइफ में नहीं थे और न हो सकते हैं ।

शर्मिला आपमें पढ़ने-लिखने की इच्छा को देखकर प्रबोध कुमार जी ने तसलीमा नसरीन की पुस्तकें आपको दी और कहा कि उस कॉपी में अपने जीवन और संघर्ष को अपनी भाषा में लिखो । अपने बांगला में ‘आलो आँधारी’ लिखा जिसे दुरुस्त करने से लेकर उसका हिंदी अनुवाद तक प्रबोध कुमार जी ने किया ।  इस पूरी प्रक्रिया पर आपकी क्या टिप्पणी है ?

बेबीपूरी प्रक्रिया पर! जो काम मैं कर रही थी, डस्टिंग करती थी घर की । डस्टिंग करते-करते वहाँ पर किताबों की अलमारी से किताब देखकर पढ़ने की कोशिश करती थी । एक दिन तातुश ने देख लिया और उसी अलमारी से तसलीमा नसरीन की किताब निकाल कर दी मुझे और कहा कि पढ़ो, देखो कैसा लगता है । इसी तरह से मेरा पढ़ना शुरू हुआ और फिर कुछ दिन बाद ही पेन और कॉपी दी लिखने के लिए । शुरू में तो मेरे दिमाग में कुछ आया ही नहीं कि क्या लिखूँ । मुझे देखकर उन को समझ में आ गया और तातुश ने खुद ही कहा इसमें तुम अपने बारे में लिखो । फिर मैंने सोचा कि मेरे अंदर इतना कुछ है, इसी तरह से मैं अपनी व्यथा बाहर निकालूँ, मेरे अंदर जो कुछ भी है उसे बाहर निकालूँ तो फायदा होगा । सचमुच मुझे बहुत अच्छा लगता था जब मैं लिखती थी । मेरे अंदर का क्रोध निकलता था तो मैं हल्का महसूस करती थी । कुछ दिनों बाद तातुश ने कहा कि तुम्हें कॉपी दी थी, तुमने क्या लिखा है मुझे दिखाओ । मुझे लगा, पता नहीं मैंने कितना गलत लिखा होगा ! मैं उनके हाथ में कॉपी देकर हट गई । थोड़ी देर में उनको पढ़कर इतना अच्छा लगा कि उनकी आँख में पानी आ गया । वह मेरे पास आकर मेरे सिर पर हाथ रखकर बोले ‘बेबी बहुत अच्छा लिख रही हो ।  लिखती जाओ ।’ मैंने सोचा कि इसमें क्या है ? मैंने ऐसा क्या लिख दिया कि उन्हें इतना अच्छा लगा ! फिर मेरा लिखा हुआ उन्होंने अपने तक ही नहीं रखा । अपने मित्रों जैसे कोलकाता में अशोक सेकसरिया जी जिन्हें हम जेठू बोलते थे उन्हें फ़ोन पर सुनाने लगे ।  दिल्ली में रमेश गोस्वामी जी को सुनाने लगे । फिर वे लोग भी मुझसे बात करने लगे । चिट्ठी भेजने लगे कि बेबी बहुत अच्छा लिख रही हो, लिखो हम लोगों को बहुत दिनों बाद ऐसा कुछ पढ़ने को मिल रहा है । एन फ्रैंक  की डायरी जैसी पढ़ी थी एकदम वैसा ही है । इसके बाद मेरा लिखना शुरू हुआ ।  मुझे लगा कि इतने बड़े-बड़े लोग अगर बोल रहे हैं तो मैं क्यों ना लिखूँ । मैं तातुश को लिखकर दिखाती गई और वे हिंदी में ट्रांसलेट करने लगे ।

शर्मिलासाथ-साथ में  अनुवाद करने लगे थे?

बेबी– हाँ, साथ साथ में करने लगे थे । तातुश को ट्रांसलेट करते-करते दो साल और लग गया ।

शर्मिलाआपने मूल जो लिखा जो पाण्डुलिपि थी उन्होंने उसे को सुधारा, भाषा वगैरह को ?

बेबी– बिल्कुल सुधारा । मैंने भी बैठकर तातुश के साथ काम किया । उसमें भी साल लग गया । एक बार लिखने के बाद उसको दोबारा लिखा । उसको भी तातुश ने ट्रांसलेट किया उसमें भी टाईम लग गया । मैं लिखती, तातुश को दिखाती । तातुश बताते कि यह यह चीज़ यहाँ पर अच्छी रहेगी । इस तरह का काम हमने तातुश के साथ बैठकर किया ।

शर्मिलाक्या-क्या सुधार करते थे तातुश आपके लिखे हुए में ?

बेबी– एक तो स्पेलिंग जो मेरी अभी भी गलत होती है, वह सुधारी थी । उसके बाद मेरा लेखन थोड़ा फैला हुआ था । उसको दोबारा पढ़कर मुझे भी लगा कि यह बात यहाँ होनी चाहिए, वह बात वहाँ होनी चाहिए, निकाला कुछ नहीं, किस बात को कहाँ होना चाहिए, यह सारी बातें हमने तातुश के साथ बैठकर की । तातुश ने भी बताई ।

शर्मिला‘शीर्षक’ आलो आंधारि  किसने रखा  ?

बेबी– हाँ, नाम । इसका नाम क्या रखा जाए, यह मैंने नहीं, तातुश ने ही सलाह दी कि इसका नाम यह होने से अच्छा रहेगा । डिक्शनरी देखी थी कि नहीं मुझे याद नहीं आ रहा- लेकिन यह नाम उनको अच्छा लगा था । मुझे भी अच्छा लगा और यह दुनिया को भी अच्छा लगा, यह तो मेरे लिए बहुत ही अच्छी बात हुई ।

शर्मिलाअंत या बीच के भाग को लेकर उसमें कुछ बदलना-छेड़ना ? कितनी बार लिखवाया ?

बेबी– नहीं, उसमें कुछ नहीं बदला । बस भाग किया कि इसमें से इतना भाग होना चाहिए, उसमें से उतना भाग होना चाहिए ।

शर्मिला मतलब एक कथा को एक भाग, दो भाग, तीन भाग में उन्होंने बताया कि ऐसे होना चाहिए

बेबी– हाँ, ऐसा ही था ।

शर्मिलाऔर कितनी बार लिखवाया । मतलब एक बार पूरा लिख लिया तो उसको दोबारा लिखा ?

बेबी– हाँ, दोबारा लिखा मैंने ।

शर्मिला- वह पाण्डुलिपि आपके पास है जो आपने तातुश के साथ बैठकर सुधारी ?

बेबी – हाँ, लेकिन अभी जहाँ पर हूँ, वहाँ पर नहीं है ।

शर्मिलासुधार की हुई कॉपी  जब वे कलकत्ता भेजने लगे तो कलकत्ता में उनके मित्रों के सुझाव पर आपने उसमें सुधार किया  ?

बेबी– देखिए, यह तो मैं कहूँगी, तातुश के मित्र जो थे अशोक जी, जिनको हम जेठू बोलते हैं उनके साथ, और उनके साथ एक और आदमी का नाम जोड़ना चाहूँगी, रमेशजी, इन तीनों में जो बातचीत होती थी, माने इन तीनों में बहुत लंबी बातचीत चलती थी, थोड़ी बहुत उनकी भी राय थी । मतलब उन दोनों की भी कुछ राय है मेरी बुक में ।

प्रश्न तातुश ने क्या कभी  यह कहा इन पचास पन्नों को फिर से लिखो  ।

बेबी– नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ ।

शर्मिलाअच्छा ।

बेबी – फिर जो भी हुआ पूरी बुक का ही हुआ ।

शर्मिलाएक तरफ आपका लेखन का कर्म चल रहा था, आप लिख रहीं थी, दूसरी तरफ आपकी लिखी हुई चीजें मित्रों को पढ़ाई जा रही थी15-20 साल बाद आज  उस जीवन को आप कैसे देखती हैं ?

बेबी – वो जीवन मेरा सबसे अच्छा जीवन था ।  यह एक तरह से ‘बेबी हालदार’ की शुरुआत हो रही थी । बेबी हालदार का नया जीवन शुरू हो रहा था । वो दिन और पल मैं कभी भूल नहीं सकती ।

शर्मिलाबेबी हालदार ने बाद में जो यात्रा की, बाद में जो किताबें लिखी, उन किताबों में  बेबी को किसने, कैसे सहयोग किया? जिस तरह का सहयोग, समर्थन, मार्गदर्शन आपको तातुश से मिलता था ? क्या आज उस की कमी महसूस होती है?

बेबी– अभी ?

शर्मिला – हाँ, अभी ।

बेबी– बिलकुल ! (भावुक होते हुए)

शर्मिला हमारे पाठक यह जानना चाहेंगे कि बाद के सालों में जब आप कलम और कागज लेकर बैठती हैं तो किस जगह पर आपको लगता है कि अगर तातुश या जेठू होते तो मुझे यहाँ पर कुछ बताते । आपको उनकी कमी महसूस होती है ?

बेबी–  बहुत । मुझे अपने लिखे के बारे में किससे बात करनी चाहिए इस बारे में कुछ सोच ही नहीं पाती हूँ । हर समय महसूस होता है कि मैंने लिख तो दिया लेकिन तातुश होते तो दिखा सकती थी ।  वे अपनी राय देते, कि उन्हें कैसा लगा । एक तरह से साहित्य कर्म में जैसे मेरा दाहिना हाथ ही टूट गया ।

शर्मिला – समझ सकती हूँ !

बेबी– जब भी मैं कलम पकड़ती हूँ तो सोचती हूँ कि मेरे तातुश तो मेरे सामने ही हैं । मेरे पास ही हैं ।  एक तरह से मुझे अपने को मजबूत करना पड़ता है नहीं तो मैं आगे नहीं बढ़ पाऊँगी । तातुश का आशीर्वाद मेरे साथ है ।

शर्मिला- ‘आलो आंधारि’ के प्रकाशित होने पर जो अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी लेखिका के रूप में मान्यता और सम्मान मिला उसे आप किस तरह देखती हैं ?

बेबी– लोग अगर मानते हैं कि मैं बड़ी लेखिका हूँ, इतना सम्मान और जो कुछ भी मिला, सब तातुश के कारण ही मिला है । अगर वे नहीं होते तो शायद यह सब कुछ मेरे साथ नहीं होता । जो सम्मान, जो विदेश जाने का मौका मिला है और जो कुछ भी मैं आज हूँ, उन्हीं के कारण हूँ । और उन सब चीजों को सम्हाल कर रखना बड़ा मुश्किल है लेकिन फिर भी मैं कोशिश करती हूँ । बड़ी लेखिका हूँ या नहीं, लेकिन लिखती हूँ तो ठीक-ठाक  लिख ही लेती हूँ । इन सबके ऊपर तातुश का ही हाथ है ।

शर्मिला- संभालना  कैसे मुश्किल होता है ?

बेबी– मैं उतना लिख नहीं पाती हूँ जितनी की बड़ी लेखिका लोग मुझे मानते हैं । मैं बड़े हाई-फाई लेखकों को देखती हूँ, उस तरह का मैं खुद को नहीं समझती हूँ । मैं उतनी पढ़ी-लिखी भी नहीं हूँ, मेरे पास उतना दिमाग भी नहीं है लेकिन जो कुछ भी करती हूँ अपने दिल से करती हूँ । यह सब तातुश का ही आशीर्वाद है । उसी को बचाकर रखने की कोशिश करती हूँ ।

शर्मिलाआप जो विदेश गईं और जो एक अंतर्राष्ट्रीय रूप में आपकी पहचान बनती है, उस अनुभव के बारे में कुछ कहें ?

बेबी– ज्यादा क्या बोलूँ । अच्छा है । तातुश की वजह से मिला । यह मेरा सौभाग्य है जो मुझे मिला है।

शर्मिला आजकल क्या हर  महीने आपके  कार्यक्रम होते हैं ? किस तरह के प्रोग्राम?

बेबी– दो सालों से कोविड की वजह से सबकी हालत ख़राब है । आना जाना कहीं नहीं हो रहा है ।  सब बंद है करोना के चक्कर में । अभी प्रोग्राम वगैरह छोटा-मोटा जो कुछ भी होता है ऑनलाइन ही होता है । पता नहीं अब कब फिर से लोगों से भेंट होगी लेकिन लोग याद करते हैं यह भी अच्छी बात है ।

शर्मिला- प्रबोध कुमार जी को आप जितना जानती थीं,  उनके व्यक्तित्व के किस  पक्ष से आप  प्रभावित हैं ?  उनपर एक संक्षिप्त टिप्पणी करनी हो तो आप क्या कहेंगी ?

बेबीवह तो  बिल्कुल सरल इंसान थे । उनके बारे में यही कह सकती हूँ- बहुत ही सिंपल रहते थे ।  खाने के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं बोलते थे कि यह बनाओ, वो बनाओ ।  एकदम सिंपल खाते थे ।  दाल, चावल, सब्जी लेकिन जब भी मैं कुछ लिखती हूँ तो लिखने के बाद मुझे उनकी बहुत याद आती है । मैं जो भी लिखती थी हर वाक्य के बारे में हर शब्द के बारे में जो उनकी सोच होती थी वह बताते थे ।

शर्मिलाउनका वह कौन-सा गुण था, जिसके कारण तातुश दूसरों से अलग हैं ?  इन सालों में आप बहुत लोगों से मिली हैं लेकिन तातुश में वह कौन-सी बात थी जो उन्हें दूसरों से अलग करती थी? वे कौन-सी चीजें हैं जो तातुश को तातुश बनाती हैं ?

बेबी– ‘बातचीत’। मैं कहूँगी वह जो बातचीत करते थे मुझे बहुत अच्छी लगती थी, लोगों पर इतना प्रभाव पड़ता था उनके बोलने का । उनके स्टूडेंट भी आते थे उनसे मिलने, सब उनकी बातों से बहुत प्रभावित होते थे । वो जिस तरह से समझाते थे । उनका समझाना और बाकी लोगों के समझाने में बहुत फर्कें है । उनका बात करने का ढंग अलग था । मेरी आदत तो ऐसी थी कि एक बार में बात मेरे दिमाग में नहीं घुसती थी । लेकिन मैं दोबारा पूछती थी तो वे दोबारा भी उतनी ही अच्छी तरह से मुझे समझाते थे ।  मुझे ! खास करके मुझे ।  इतनी अच्छी तरह से समझाते थे मुझे ।  इसीलिए वह सबसे अलग थे ।

शर्मिला- प्रबोध कुमार जी के यहाँ आप कितने वर्ष रहीं और वहाँ से कब और कैसे  हटीं ?

बेबी यह तो बहुत अच्छा सवाल है । इस के बारे में तो मैं सोचती रहती हूँ । मैं वहाँ पर करीब पंद्रह साल रही । करीब नहीं पक्का 15 साल ही रही । तब तक मेरा कलकत्ता में घर बन गया था । 1999 के बीच में मैं उनके यहाँ गई  और 2015 तो पूरा रही और अंत में छोड़ना पड़ा ।

शर्मिलाघर कलकत्ता में ?

बेबी – नहीं, नहीं ।  प्रॉपर कलकत्ता भी नहीं । कलकत्ता के थोड़ा बाहर है । चौबीस परगना बोलते हैं और स्टेशन का नाम है हालीशहर । पश्चिम बंगाल राज्य के  चौबीस परगना जिला में अवस्थित एक शहर है हालीशहर । थोड़ा अंदर जाना पड़ता है । मेरे पहले प्रकाशक जो थे संजय भारती उन्होंने घर देखने एवं घर बनाने तक भी बहुत साथ दिया ।

शर्मिलाआपका घर कब बनना शुरू हुआ ?

बेबी– कब बनना शुरू हुआ यह तो पक्का याद नहीं लेकिन 2009-2010  में ही शुरू हुआ था ।  उसी बीच में हमारी रॉयल्टी भी आने लगी थी । उसी पैसे से हमने जगह ली है । संजय दा  ने मेरी बहुत मदद की । जेठू ने भी बहुत मदद की । वे संजय दा से बातचीत करते थे घर-जगह के बारे में । संजय भारती ने इस तरह से मेरा बहुत ख्याल किया ।

शर्मिलाहमारा प्रश्न है, आप तातुश के घर से कब हटीं और कैसे हटीं ?

बेबी कब हटी और कैसे हटी वही मैं बताने वाली हूँ । 2015 तक तो मैं वहाँ पर थी । उसके बाद तातुश तो कभी नहीं चाहते थे कि मैं वहाँ से हटूँ लेकिन कहते हैं ना घर के हर सदस्य की सोच एक जैसी नहीं होती । तातुश की जो वाइफ थी, बच्चे थे, वे लोग पहले इस तरह से नहीं सोचते थे बाद में ऐसा सोचने लगे । वे कहते थे कि अभी घर बन चुका है तो तुम्हें वहाँ जाना चाहिए ।  मैं कहती थी कि अभी और दो-तीन साल मुझे यहाँ पर रहना चाहिए और मेरे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी अभी खत्म नहीं हुई है । इस तरह की बातचीत होती थी । उनका यही मतलब था कि अब हम चले जाएँ । तातुश को भी बुरा लगता था इस बारे में । तातुश चाहते थे कि हम वहाँ से ना हटें और उनकी भी बात माननी पड़ी । मेरा मन भी थोड़ा छोटा हो गया । बच्चों की पढ़ाई भी खत्म नहीं हुई थी ।  कैसे जाएँ, क्या करें ? मेरी एवं तातुश की सोच तो एकदम ही अलग थी ।  उनका कहना था कि जब तक मैं जिंदा हूँ, बेबी अपने बच्चे को लेकर यहीं रहेगी ।  लेकिन घर के हर सदस्य की सोच तो एक जैसी नहीं होती है ।  तातुश जब नहीं मानते थे तो उनपर भी ममा बहुत गुस्सा होती थी ।  वाद-विवाद होता था ।  तो मैं भी तातुश से कहती थी कि अब हमें जाना चाहिए । आप लोगों के बीच में ऐसा हो रहा है । मैंने एक बार कहा भी था कि हम तातुश को साथ में ले जाना चाहेंगें । लेकिन उन लोगों ने नहीं चाहा । वे कहने लगे कि उनको वहाँ लेकर जाओगी ?

शर्मिला तातुश को साथ ले जाने की बात  आपके मन में आई उसके कारण क्या हैं ?

बेबीकारण था हमारे बच्चे । हमारे बच्चों से उनका बहुत लगाव था । जब हम वहाँ से निकले तो हमारे बच्चों ने बहुत रो-रोकर बुरा हाल बना लिया था । खास करके मेरी बेटी जो उनकी गोद में खेली है । बच्चे उनको बहुत प्यारे थे । उनको बच्चों से बहुत लगाव था और बच्चों की पढ़ाई खत्म नहीं हुई थी ।

शर्मिला तातुश का स्वास्थ्य उन दिनों कैसा था ?

बेबी – तब तो ठीक थे । जब हम निकले थे तब तो तातुश की तबियत बिल्कुल ठीक थी । हाँ, बिल्कुल ठीक थे । तातुश के दिमाग पर इस बात का भी असर पड़ा है । उनके साथ हम इतने दिन, इतने साल रहे । हम भी सोचते थे और वो भी चाहते थे कि हम तातुश को कभी न छोड़ें । बच्चों के साथ रहें ।  एक तरह से जबरदस्ती वहाँ से निकलना पड़ा ।  वहाँ से निकलना पड़ा तो इससे तातुश को सदमा जैसा लगा था ।  कुछ इसी तरह का ।  घर के लोगों की भी बहुत बातें उन्हें सुननी पड़ी । उनके साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे थे वे लोग । मैं देखी हूँ ।  मेरा घर बन गया है । हमें कुछ सोचना है, कुछ करना है ऐसा । यह तो बाद में पता चला वे लोग वहाँ से (गुड़गाँव) से चले गये । वो जगह छोड़-छाड़कर ।  तो यह सब प्लान उन लोगों का शायद तब चल रहा होगा । लेकिन जब मुझे पता चला कि यह सब चल रहा है कि घर तुड़वाना है, इस घर को निकालना है और मुझे यहाँ से हटना पड़ेगा तो हमारे वहाँ रहते हुए वे नहीं कर पाएँगे शायद यही वजह हो सकती है । जब हम निकले तब तातुश की तबियत अच्छी ही थी ।  मन तो बहुत खराब था लेकिन इस तरह से बीमार पड़ जाएँगे यह तो मुझे भी पता नहीं था ।

शर्मिलातातुश वहाँ पर किस कमरे में रहते थे ?

बेबी– उन लोगों का तो सबका अलग-अलग ही रूम था ।  ममा (अलित्स्या जी) का अलग था, अर्जुन का अलग था ।  मनु भैया का अलग रूम था । तातुश का अलग रूम था । सब अलग-अलग ही रहते थे । लेकिन खाना-वाना सब एक साथ होता था ।

शर्मिलाफिर आप वहाँ से निकलकर तुरंत कहाँ गई ?

बेबी– वहाँ पर रहते हुए ही जब उनके साथ बहुत प्रॉब्लम होने लगी तो तातुश ने गुस्से से थोड़े दिन उनके साथ खाना बंद कर दिया था । अब इस बारे में उनको कोई दोष देना चाहिए कि नहीं यह तो अभी तक मुझे समझ में नहीं आ रहा,क्या कहूँ ? उन लोगों ने एकदम डायरेक्ट मना कर दिया था मुझे कि तुम ऊपर अलग ही खाना बनाओ । उससे पहले 12-13 साल तक एक ही साथ खाना बन रहा था । एक ही साथ सब खाना-वाना होता था । जब ममा(अलित्स्या जी) यहाँ शिफ्ट हो गई तो हमें बोल दिया गया  कि तुम अलग खाना बनाओ । तो दो-तीन साल से इस तरह की प्रॉब्लम चल ही रही थी ।  हमें हमारे बच्चों को लेकर । तातुश का उनके साथ मन-मुटाव होता था तो तातुश ने उनके साथ खाना भी बंद कर दिया था, हमारे साथ ही खाते थे । हम जो बनाते थे वहीं खाते थे । वैसे भी तातुश सादा ही खाते थे- दाल-चावल, सब्जी, लेकिन उन लोगों के बीच का यह मनमुटाव देखकर हमें लगता था कि अच्छा नहीं हो रहा है । हमें हट ही जाना चाहिये ।  तातुश की उम्र भी हो रही है ।

शर्मिला कितनी उम्र हो चली थी तातुश की  ?

बेबी – उस समय तातुश की करीब अस्सी । पक्का तो पता नहीं लेकिन अस्सी से ऊपर ही थी । हमने सोचा कि चले ही जाना चाहिए ।  मैं बच्चों को इधर-उधर रख कर घर शिफ्ट हो गई अपना सामान लेकर ।  फिर भी मैं बीच-बीच में तातुश से मिलने की कोशिश करती थी ।  फ़ोन करके पता करने की कोशिश, वहाँ सब कुछ कैसा है ?

शर्मिलाहालीशहर आ गई थी ?

बेबी– हाँ, हालीशहर आ गये थे । इसी तरह हमें वहाँ से निकलना पड़ा । मेरे बच्चों की पढ़ाई खत्म नहीं हुई थी तो मैंने दोनों बच्चों को पी.जी. में डाल दिया था ।  बच्चों को पी.जी. में डालकर मैं अपना सामान लेकर घर आ गई थी । तब मुझे काफी दिनों तक बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे भी भेजने पड़े ।  पी.जी. का खर्चा भी उठाना पड़ता । दो साल तक मेरे साथ ऐसा ही हुआ । इस तरह से मुझे घर छोड़ना ही पड़ा । वो लोग तातुश को भी बहुत बातें सुनाते थे । तातुश खाना भी नहीं खाते थे ।

शर्मिलागुड़गाँव से क्या पहली बार निकली या पहले भी कोई काम खोजने का प्रयत्न किया ?

बेबी – बीच में जब ममा (अलित्स्या जी), अर्जुन भैया मुझे नहीं पसंद करते थे तो तातुश से बात करके मैंने एक काम खोजा था । मुंबई में मुझे एक एन.जी.ओ. में काम करने को मिला था ।  मन में था कुछ दिन वहाँ जाकर देखूँ काम करके । यह सोचकर तातुश के पास ही दोनों बच्चों को छोड़कर मुंबई चली गई थी कुछ दिनों के लिये । तब मेरे बच्चे स्कूल जाते थे ।

शर्मिला- उस समय पिया (बेटी)  किस क्लास में थी जब आप मुंबई गई थी ?

बेबी- यह तो पक्का याद नहीं है । शायद आठवीं या नौवीं । ऐसे ही कुछ था ।

शर्मिलाऔर तापस (छोटा बेटा) क्या कर रहे थे ?

बेबी – तापस की पढ़ाई भी उस समय चल रही थी । नौ या ग्यारह  में था ।

शर्मिलातातुश के सामने ही आप मुंबई काम करने निकल गई थीं ?

बेबी- हाँ । मैंने तातुश से बात की थी कि वहाँ एक अच्छा काम मुझे मिल रहा है हम वहाँ जा कर देखें । थोड़े बहुत पैसे की भी जरूरत है । तातुश बोले बच्चों को यहीं पर छोड़कर जाओ, हम हैं । जाकर देखकर आओ । तातुश हमारे बच्चों के साथ ऊपर ही रहते थे, खाते-वाते थे । अपने रूम में सोते थे ।  उस समय तक हमारी पिया (बेटी) ने भी थोड़ा बहुत खाना बनाना सीख लिया था । दाल-चावल बना लेती थी । वो लोग अच्छे से रहते थे ।

शर्मिला मुंबई जब आप गईं, कितने साल वहाँ पर रहीं, कितने महीने ?

बेबी- एक साल भी नहीं रही, छह -सात महीने ही रही । वहाँ पर एक एन.जी.ओ. में कैंटीन संभालने का काम करती थी ।

शर्मिलाएन.जी.ओ. का नाम आपको कुछ याद है ?

बेबी- हाँ, उस एन.जी.ओ. का नाम ‘स्त्री मुक्ति संगठन’ था ।

शर्मिला–  वहाँ  सिर्फ छह महीने ही क्यों रह पाई ?

बेबी– वहाँ पर मैं रही ठीक-ठाक ही । वहाँ पर काम भी कर रही थी । वहाँ पर रहने की बहुत अच्छी-सी जगह भी मिली थी । फिर मैंने सोचा कि बच्चों को छोड़कर आई हूँ, घर भी देखना है, तातुश भी अकेले हैं, तो यह ठीक नहीं हो रहा । फिर मैं चली आई । अब जो करना है वहीं पर कर लेंगे यह सोचकर ।

शर्मिलावहाँ से जो आप आई  सिर्फ इस कारण कि बच्चों एवं तातुश का खयाल आया या फिर…..

बेबी – हाँ, बिलकुल वही बात है । मुझे ठीक नहीं लग रहा था ।

शर्मिलाममा और अर्जुन थे घर पर ?

बेबी– हाँ, घर पर ही थे वे लोग ।

शर्मिलाआपको  मुंबई में जो पैसे मिल रहे थे उससे आप संतुष्ट थीं ?

बेबी – नहीं, उतना भी ज्यादा नहीं मिल रहा था लेकिन बैठे रहने से अच्छा है कि कुछ करें, यह सोचकर गई थी ।

शर्मिला क्या तातुश भी चाह रहे थे कि आप लौट आएँ मुंबई से ?

बेबी उन्होंने यह चीज़ मेरे ऊपर छोड़ा दी थी । मेरे ऊपर तो था ही लेकिन बच्चों को लेकर, बच्चों की पढ़ाई को लेकर बहुत टेंशन था ।

शर्मिला- जो छह महीने मुंबई में रहीं उस बीच गुड़गाँव आई थीं बच्चों से मिलने?

बेबी- नहीं, छह महीने ही रही वहाँ पर, तब तक सब कुछ ठीक ही चल रहा था । तातुश की तबीयत भी बहुत अच्छी थी ।

शर्मिलायह 2015 की बात है ?

बेबी – नहीं, यह 2014 की बात है ।

शर्मिलायह 2014 की बात है जब आप मुंबई छह महीने रहीं काम करने के लिए फिर लौट आईं । उन दिनों आप क्या लिख रहीं थी ?

बेबी– उस समय मैं काम में व्यस्त थी । उस समय मैं कुछ नहीं लिख रही थी । बस मैं थोड़ा-बहुत पढ़ती थी । घर में जो काम करती थी उसके बारे में लिखने की सोच रही थी ।

शर्मिलाऔर आप क्या-क्या लिख चुकी थीं 2014 तक ?

बेबी 2014 तक तो मैं तीसरी किताब भी लिख चुकी थी ।

शर्मिलातीसरी किताब, उसका नाम?

बेबी– ‘घोरेर फेरार पथ’

शर्मिला–  क्या वह प्रकाशित हो गई थी ? किस प्रकाशन से ?

बेबी– याद नहीं आ रहा कि वो किताब 2014 में निकली या 15 में ।  कोलकाता ‘देव पब्लिकेशन’ से ।

शर्मिला- बांग्ला में ?

बेबीबांग्ला में थी ।

शर्मिला–  उस किताब को तातुश ने पूरा पढ़ा था ?

बेबी – हाँ, पढ़ा था ।

शर्मिलातातुश ने उसको थोड़ा ठीक-ठाक किया था जैसे ‘आलो आँधारि ’ को ।

बेबीनहीं-नहीं, उसमें कुछ नहीं किया था, सिर्फ पांडुलिपि देखी थी ।

शर्मिलापांडुलिपि को दोबारा लिखने के लिये नहीं कहा आपको ?

बेबी – नहीं, ‘ठीक है’, ऐसा बोला था ।

शर्मिला तातुश उस समय अपनी ‘निरीहों की दुनिया’ पूरी कर चुके थे । उनकी वह पुस्तक छप चुकी थी ।

बेबी – हाँ, वो हो चुका था।

शर्मिलाऔर तातुश खुद क्या लिख रहे थे ?

बेबी– तब उन्होंने शायद कुछ लिखना शुरू किया था । एक ही पन्ना देखा था मैंने । क्या लिखा था पता नहीं । कुछ शुरू किया था । मैंने थोड़ा-सा देखा था ।  वह ‘काले इंसान और गोरा इंसान’ के बारे में था ।

शर्मिलाकितना लिख लिया था ?

बेबी – थोड़ा, एक ही पन्ना बस ।  शुरू ही किया था ।

शर्मिला और वह कहाँ है ?

बेबीमेरे पास तातुश के हाथ का लिखा हुआ ।

शर्मिलाऔर भी कुछ चीजें हैं आपके पास तातुश के हाथ की लिखी हुई ।

बेबी– नहीं, अभी नहीं है । सब कुछ छोड़कर आई थी । बहुत कुछ छोड़कर आई थी ।

शर्मिला आपके पास तातुश के हाथ की लिखी हुई और कोई चीज़ नहीं है ?

बेबी नहीं, बस वही है । वह कॉपी यह सोचकर रख ली कि और कुछ तो लिख नहीं पा रहे हैं जो लिखा वह ठीक से रख दें । दो साल तक वह कुछ भी नहीं लिख पाए ।

शर्मिलाउसी समय जेठू (अशोक सेकसरिया) का देहांत होता है नवंबर में, उस समय क्या आप तातुश के पास थीं ?

बेबी – नहीं, उस समय मैं मुंबई में थी ।

शर्मिलाउन दिनों  तातुश की मन: स्थिति  कैसी थी ?

बेबी– जब किसी का एक बहुत करीबी दोस्त चला जाता है, तब उसकी हालत क्या होती है यह तो सब लोग महसूस कर सकते हैं । इन लोगों की इतनी पुरानी और गहरी दोस्ती थी । तो चले जाने के बाद मन के ऊपर तो बहुत असर होता ही है । अनमनापन ।  लेकिन वो हमारे बच्चों के साथ तो बहुत ही खुश रहने की कोशिश करते थे ।  मेरे बच्चों को पढ़ाना कि इंग्लिश कैसे लिखते हैं ? जोड़-जोड़कर कैसे लिखते हैं ? इसी तरह से मेरे बच्चों के साथ बिजी रहने की कोशिश करते थे । मुझे भी तो पता चलता था कि जेठू के जाने के बाद तातुश को बहुत बुरा लगा है, बुरा लगने की ही बात है ।

शर्मिलाइतने साल गुड़गाँव में रहने के बाद आपके वहाँ से जाने का जो वातावरण बन रहा था उस पर तातुश उन दिनों परेशान होकर, क्षुब्ध होकर किसी चीज़ को लेकर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे, कोई बात आपसे शेयर की हो, कोई बातें आपको याद आ रही  है?

बेबी– नहीं, उस तरह की बात तातुश कभी नहीं करते थे । बहुत बात टालते थे । मैं अगर कोई बात करने जाती थी तो सुनना ही नहीं चाहते थे । वह बहुत कंफ्यूज थे ।  उनको उस समय बहुत बातें सुननी पड़ती थी ।  इस वजह से भी मैं कहूँगी तातुश पर बहुत असर पड़ा है ।

शर्मिला- अपने अभिन्न मित्र के जाने का दुःख। दूसरा आपको निकालने का माहौल बन रहा था ।

बेबी- हाँ, उन सबका मिला जुला तातुश के दिमाग पर बहुत असर पड़ा है । नहीं, उस समय लिखना ही छोड़ दिया था एकदम । दो-ढ़ाई सालों से कुछ भी नहीं लिखा । सिर्फ़ अखबार में ही मन लगाते थे । कुछ पढ़ने की कोशिश करते थे या फिर मेरे बच्चों के संग बिजी रहने की कोशिश करते थे ।  लिखना तो बहुत पहले ही छोड़ दिया था ।

शर्मिला- किसी से फ़ोन पर बात होती थी ?

बेबी– फ़ोन पर तो बात होती थी ।  रमेशजी से होती थी ।  और उनके कजिंस को भी हमारे बारे में पता चल गया था ।  उनकी सिस्टर जो बसंतकुंज में रहती थीं, वो भी बार-बार मिलने आती थीं ।  हमें समझाती थीं ।  नहीं, मत जाओ, लेकिन ऐसे कैसे रहा जाए |  इस तरह की बात उनसे भी होती थी ।  वो लोग भी तातुश का हालचाल लेने आते थे ।  फिर क्या करोगी ? लेकिन न वो कुछ कह सकते थे ।  ना तातुश कुछ कह पाते थे । तातुश उनको भी बोलते थे जो चल रहा है, चलने दो । जब मुझे निकलना पड़ा वहाँ से तो मैं बच्चों को तो नहीं लेकर जा पाई क्योंकि बच्चों की पढ़ाई तब खत्म नहीं हुई थी ।  मैं दोनों बच्चों को दो पी.जी. में डालकर अपना सामान लेकर अपने घर में शिफ्ट हो गई ।  जब हम निकल रहे थे  मेरी बेटी का तो रो-रोकर बुरा हाल था ।

शर्मिला-  आप हालीशहर किस साल में आई ?

बेबी – 2016 में आई थी ।

शर्मिलायहाँ आकर तातुश संपर्क रहा ? तातुश की बाद में मानसिक, शारीरिक स्थिती कैसी थी ?

बेबी – जब मैं वहाँ से निकल गई तब तो तातुश की हालत खराब ही थी ।

शर्मिला – प्रबोध जी की पत्नी अलित्स्या जी  और पुत्र राहुल, मनु और अर्जुन से आपके कैसे रिश्ते थे ?

बेबी– रिश्ते तो काफी सालों तक अच्छे ही रहे । तातुश की वाईफ को हम ममा बोलते थे । अर्जुन भैया तो भैया थे । मनु भैया, भैया ही थे और राहुल भैया भी भैया ही थे ।  अर्जुन को तो मैं हर साल राखी भी बाँधती थी ।

शर्मिला- अच्छा ।

बेबी  ऐसा रिश्ता हमारे साथ था ।

शर्मिला- और ममा के साथ ?

बेबी – ममा के साथ भी अच्छा रिश्ता था ।  श्री पेराम्बदूर  से आतीं तो हमारे लिये थोड़े-बहुत कपड़े वगैरह कुछ-कुछ ले आती थी ।  बाद में जो घर छोड़ने के लिये बोला वह मुझे थोड़ा अजीब सा लगा ।  उससे पहले तो उनके साथ रिश्ता अच्छा ही था ।  हर बर्थडे पर तातुश मुझे गिफ्ट देते थे ।  ममा भी देती थी । और हमारे बच्चों के बर्थडे पर अर्जुन भैया बहुत खिलौने वगैरह गिफ्ट देते थे ।  बहुत अच्छा रिश्ता था हमारा ।

शर्मिला- आप काम करती थीं आपके काम करने को किस तरह से  वे लोग लेते थे  ?

बेबी – नहीं, काम से  शिकायत नहीं था । पर ममा बोल देती थी टाईम पर चाहए । मैं वहीं पर रही इतने साल, सब कुछ मेरे ही हाथ में रहा तो उसी तरह का मुझे करना पड़ता था । टाईम से खाना देना, टाईम से घर संभालना, सभी कुछ करना पड़ता था । शुरू में तो मैं सभी काम करती थी सफ़ाई से लेकर बर्तन धोना, कपड़े धोना, सभी कुछ करती थी । जब लिखना शुरू किया, मेरे पास इतना सारा काम हो गया कि घर में उतना टाईम भी नहीं दे पाती थी, फिर इंटरव्यू वगैरह होने लगे । घर पर कोई न कोई लोग आते रहते थे । तब तातुश कहने लगे कि अब सफ़ाई के लिए दूसरा कोई देखना पड़ेगा । बाहर से कोई औरत आती थी सफ़ाई करने, बर्तन धोने । लेकिन शुरू में तो मैं सभी काम करती थी ।

शर्मिला- कितने साल बाद वहाँ पर एक और कामवाली आई ?

बेबी– एक ही साल । जब मैंने लिखना शुरू किया मैं 1999 में आई थी और 2001-2002 में ही दूसरी औरत आने लगी थी । खाना बनाना, बाकी सब काम । कपड़े धोना, बिस्तर वगैरह मैं करती थी ।

शर्मिला- तातुश ने तुरंत ही दूसरी कामवाली रख ली थी कि  मदद हो जाए ।

बेबी – हाँ, मेरी मदद हो जाए ।

शर्मिला- उसको लेकर किसी को कोई परेशानी नहीं थी ?

बेबी– नहीं, बीच-बीच में बोलती तो थी ममा कि पहले तो जरुरत नहीं पड़ी, अब क्यों जरुरत पड़ती है । उनको दिखाई तो देता ही था कि मैं करती हूँ पर मेरे पास इतना टाईम भी नहीं रहता क्योंकि मुझे बीच-बीच में बाहर भी जाना पड़ता था । किताब छपने के बाद तो इधर-उधर बाहर जाना पड़ता था ना । लेकिन मैं चुप रहती थी ।

शर्मिलाप्रबोध जी के घर में एक घरेलू कामगार के रूप में कार्य करते हुये आपने अपने और अपने बच्चों के प्रति उनके रवैये को किस तरह समझा है  ?

बेबीये तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि एक अच्छे इंसान मुझे मिल गए और मेरे बच्चों की किस्मत अच्छी थी कि उनको भी एक ऐसे इन्सान मिले जिन्होंने उनको प्यार की कमी महसूस होने नहीं दिया, अपनी गोद में खिलाया । यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था ऐसे होगा । विस्तार से तो मैं दूसरे उत्तर में बोल ही चुकी हूँ ।

शर्मिला प्रबोध जी का अपने परिवारजनों, विशेषकर अपनी माँ, पत्नी, बच्चों के प्रति कैसा व्यवहार था ? परिवार का माहौल कैसा था ?

बेबीपरिवार के साथ मेरा अपनापन ही था ।

शर्मिला- नहीं, आपका नहीं । परिवार में कैसा माहौल था ? तातुश का अपने परिवार के साथ, मतलब अपनी माँ, माँ तो नहीं थीं जब आप आई  उनका अपनी पत्नी, बच्चों के साथ कैसा व्यवहार था ? और उनके परिवार का कैसा माहौल था ?

बेबी– मैं शुरू से देखती आई हूँ कि तातुश का उनके साथ व्यवहार बहुत अच्छा ही था । सब अपने हैं तो अपने जैसे ही रहेंगे । खुश होते थे जब मनु भैया या राहुल भैया आते थे ।

शर्मिलाप्रबोध जी जब बीमार पड़े, उन्हें अल्जाईमर हुआ तब उन्हें देखने या फ़ोन से उनका हालचाल लेने की आपने कोशिश की ? आपका उनसे आखिरी संवाद कब हुआ ?

बेबी- उनका हालचाल तो मैं बीच-बीच में लेती रहती थी उनकी सिस्टर लोगों से । उनके पास मेरा फ़ोन नंबर था, मेरे पास उनका फ़ोन नंबर था । बीच-बीच में उनकी बहन से भी मेरी बातचीत होती थी ।

शर्मिला- क्या प्रभा प्रसाद जी से ?

बेबी नहीं, प्रभा जी से तो कम ही होती थी । वे बैंगलोर में रहती थीं अपनी बेटी के पास ज्यादातर ।  उनकी अपनी सिस्टर जो हैं, माया आंटी, उनके साथ बातचीत होती थी । और उनका यही कहना था कि हम तो देखने जाते हैं, मिलने जाते हैं । दादा तो ऐसा ही हैं, वैसा ही हैं । मतलब पहचान नहीं पाते हैं । तातुश के साथ बात नहीं हो पाती थी । इच्छा होने पर भी उनको देखने नहीं जा पाती थी । एक बार मैं लास्ट 2016 में ही देखने गई थी । मतलब 2016 के लास्ट या 2017 के पहले में, ऐसा ही कुछ होगा । मैं जया आंटी के साथ उनसे मिलने उनके घर गई थी । तातुश की भाभी रहती हैं- डी.एल.एफ. में । मेरा उनसे बहुत अच्छा रिश्ता था । वो भी कुछ-कुछ लिखती हैं । वे समाज सेविका भी हैं । उनके साथ मेरी बातचीत होती थी तातुश के बारे में । वो भी तातुश को देखने जाती थी । वो भी यही कहती थी कि हम उनसे मिलने गए थे । किसी को पहचान नहीं पा रहे थे । मैं एक बार जब गई थी उनके साथ ही गई थी मिलने । मैंने उनसे पूछा था कि मैं मिलने जाना चाहती हूँ तो आपके साथ मैं जाना चाहती हूँ । जब उनके साथ गई थी तो उतनी बुरी हालत नहीं थी । सबको पहचान पाते थे मतलब बहुत देर से, बहुत रुक कर । यह 2016 का अंत होगा शायद । उनके साथ जब गई मैं, तब घर पर कोई नहीं था ।  अर्जुन भैया और ममा, मनु भैया के पास गए हुए थे । मैं उनके पास बैठी थी तो तातुश से जया आंटी ने कहा- ‘गुड्डू’ देखो (उनके सारे करीबी रिश्तेदार उनको गुड्डू नाम से ही जानते थे) तुमसे मिलने कौन आया है ? देखो बेबी आई है तुमसे मिलने । तातुश एकदम से उठकर बैठ गए । उन्होंने कहा कि बेबी को जानते हो ना । मेरा नाम सुनकर उठकर बैठ गए और बोले ‘हाँ-हाँ’, बेबी को कौन नहीं जानता ? बाबा ! बेबी हालदार को कौन नहीं जानता ? ऐसे बोल रहे थे जैसे सब कुछ उनको याद है । सब कुछ एकदम नॉर्मल है ऐसा लग रहा था । सिर पर हाथ लगाकर बोले – “अरे बाप रे ! बड़ी लेखिका ! बड़ी लेखिका को कौन नहीं जानता !” फिर जया आंटी बोली- बेबी हलदार को बेबी हालदार कौन बनाया ! तुम्ही तो बनाए हो । ऐसा बोला जया आंटी ने । वह बोले- “हाँ-हाँ, हम क्यों बनाए हैं । आप लोग बनाए हैं”। उनको सब कुछ याद आ गया ऐसा लग रहा था । मैं तब उनके पैर के पास बैठ कर उनके पैर को पैर को थोड़ा मलने लगी थी । उन्हें इस तरह देखकर मेरी हालत अच्छी नहीं थी । देखकर बहुत बुरा लग रहा था । फिर मैंने उनसे पूछा- आप चलेंगे ना हमारे साथ । तो बोले – “हम क्यूँ जाए? तुम रहो यहाँ पर । तुम्हें रहना है । तुम क्यों चले जाओगे? तुम रहो यहाँ पर ।” एकदम नॉर्मल तरीके से बात कर रहे थे । थोड़ी देर हमारे साथ रहे, फिर चाय पी । तब एक लड़का था उनकी देखभाल करने के लिए । वही लड़का हम सब लोगों के लिये चाय बनाकर लाया । हम सबने एकसाथ बैठकर चाय पी ।  उन्होंने बहुत अच्छे से बात की । जया आंटी ने पूछा “मैं कौन हूँ ?” तो बोले –“आप तो हमारी भाभी हैं ।” मुझे लगा हमें देखकर उन्हें सब कुछ याद आ गया था । वही मेरा अंतिम बार मिलना हुआ ।  उसके बाद दूसरे दिन तब मैं गुड़गाँव आई थी कुछ काम के लिए तब मिलने गई थी । फिर दूसरे दिन भी मुझे लगा कि मैं हूँ तो कल भी आऊँगी- आज भी आऊँगी ऐसा ही कुछ सोच रही थी । तभी जया आंटी का मेरे पास फ़ोन आया कि बेबी तुम बोल रही थी कि एक बार और जाओगी, क्या तुम इधर हो ? मैंने कहा हाँ, मैं और एक बार जाना चाहती हूँ । “बेबी मत जाओ ।” “मैंने पूछा – क्यूँ?” जया आंटी ने बोला, “क्योंकि हमारे पास इला का फ़ोन आया था ।” मतलब ममा का फ़ोन आया था वो मना कर रही हैं कि बेबी और उधर ना घुसे, ना जाए उनसे मिलने । बाद में ओल्ड होम में जहाँ पर रखकर गए वहाँ पर तातुश कितने दिन रहे यह मुझे ठीक से पता नहीं । मुझे किसी ने बताया भी नहीं कि ओल्ड होम में हैं । जया आंटी से तो बातचीत होती थी पर मुझे बुरा लगेगा सोचकर शायद उन्होंने कुछ नहीं बताया होगा ।

शर्मिला- कितने दिन रहे तातुश ओल्डहोम में ?

बेबी– यही तो मुझे पक्का पता नहीं ना । अगर मुझे पता होता तो मैं जरूर जाती  मिलने । तब  कोरोना बहुत ज़्यादा था । शायद इसीलिए नहीं बोला होगा । ओल्ड होम बंद था या मिलने नहीं देना चाहते थे या मिलना नहीं होता पता नहीं!

शर्मिला- पिछले एक-डेढ़ साल ही रहे हैं वो ओल्डहोम में ?

बेबी- एक-डेढ़ साल वहाँ पर नहीं रहे । वहाँ पर तो उतने दिन नहीं रहे, मुझे लगता है । घर पर ही रहे ।  जब उन लोगों ने विदेश जाना चाहा तभी शायद वे लोग उन्हें वहाँ छोड़कर चले गए होंगे लेकिन अगर मुझे पता चलता तो मैं जरूर वहाँ पर भी मिलने जाती ।

शर्मिला-  तातुश से अंतिम मुलाकात के दिनों में आप कौन-सी किताब पर काम कर रहीं थी ?  जब उनकी याददाश्त ठीक थी, आपकी लिखी वह कौन-सी अंतिम चीज़ थी जो तातुश ने पढ़ी थी?

बेबी- तीसरी किताब की पांडुलिपि ही देखी थी उन्होंने ।

शर्मिला- प्रकाशित होने के बाद भी देखा था ?

बेबी- नहीं, प्रकाशित होने के बाद नहीं देखा था ।

शर्मिला- तीसरी के बाद आपने और कौन-सी पुस्तक निकली ?

बेबी- तीसरी किताब के बाद तो मेरी कोई किताब नहीं निकली । मेरे पास है दो-तीन पांडुलिपि । मैंने तैयार करके रखी है ।

शर्मिला- उनके नाम बताइए ।

बेबी– नाम अभी तक नहीं दिया है । एक विदेश यात्रा के ऊपर  है ।  एक हॉस्पिटल के ऊपर  है ।  जब मेरा बच्चा हॉस्पिटल में था ।  तातुश भी नहीं थे ।  मतलब घर भी देखना था, बच्चों को भी संभालना था ।  घर में अकेली थी मैं । अकेले ही हॉस्पिटल और घर कर रही थी ।  तब हालत थोड़ी खराब चल रही थी ।  उसके ऊपर मैंने लिखा है । और अभी थोड़े दिन पहले एक पांडुलिपि तैयार की है  । दो-तीन साल जो एक एन.जी.ओ. में काम कर रही थी उसके ऊपर है । अभी मैंने नया लिखना शुरू किया है, तातुश के ऊपर लिखना ।

शर्मिला- अच्छा!  तातुश के ऊपर?  क्या लिख रही हैं?

बेबी- तातुश के ऊपर ही लिख रही हूँ कि उनके पास मैं कैसे गई । उनके यहाँ नौकरी कैसे मिली । उनके घर से क्या था,  मेरा उनके साथ में क्या रिश्ता था ।  वह कितना मानते थे मुझे ।  वे मेरे लिये क्या थे ।

शर्मिला- आपकी दो किताबें ‘ईशत रुपांतरण’ और ‘आलो आंधारि’ तातुश के सामने ही निकली और ‘ईशत रुपांतरण’ नाम तातुश ने ही दिया क्या ?

बेबी हाँ ‘ईशत रुपांतरण’ नाम तातुश ने ही दिया है ।

शर्मिला- और तीसरी जो है जिसकी पांडुलिपि तातुश ने देखी थी, उसका नाम भी क्या तातुश ने ही दिया था ?

बेबी नहीं, उसका नाम दिया था अनिता अग्निहोत्री ने ।

शर्मिला– आप अब जो भी लिखतीं हैं वो किसको दिखाती हैं?  किससे डिसकस करती हैं ? इतने सालों से आप लिख रही हैं तो कुछ लोगों होंगे जिनसे आप सुझाव लेती होंगी?

बेबी– मैं जो भी लिखती हूँ वो अनिता अग्निहोत्री को ही दिखाती हूँ जो बंगाली लेखिका हैं ।  उनको बताती हूँ कि मैंने लिखा है और वह थोड़ा ठीक करके बताती हैं । अपने ऊपर ही थोड़ा-सा भरोसा करती हूँ और जो भी कुछ थोड़ा-सा लिखूँगी तातुश के आशीर्वाद से ।

शर्मिला- किसी और  को नहीं ।

बेबी- नहीं, और किसी को नहीं ।

शर्मिला- आपके जीवन में प्रबोध जी एवं उनके मित्र अशोक सेकसरिया का कितना महत्व है ?

बेबी– तातुश और जेठू । मैं इन दो के साथ एक और को जोड़ना चाहती हूँ, वह हैं रमेश गोस्वामी जी ।  इन तीनों को ही मैं एक तरह से देखती हूँ क्योंकि तातुश कोई अच्छा काम करना चाहते थे तो उस पर बातचीत करते थे । पहले जेठू से बात कर लेते थे फिर रमेश जी से भी बात करते थे और जब तीनों की एक ही बात होती थी तो तातुश को बहुत अच्छा महसूस होता था कि हमारी तरह ही वे भी सोचते हैं, हमारा कहना वे लोग भी मानते हैं । इसी तरह से वे लोग काम करते थे । मैं यही कहूँगी कि तीनों मेरे लिए बराबर हैं । तातुश तो मेरे लिए सब कुछ हैं ही, मतलब हीरो हैं, पिता हैं, एक तरह से मेरे लिए भगवान ही हैं । मेरी जिंदगी बदल दी । मेरे बच्चों की भी, लेकिन उनके साथ वे लोग भी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।

शर्मिला- आपकी उनसे बातचीत है ? रमेश गोस्वामी जी से  फ़ोन पर ?

बेबी- रमेश जी से तो बातचीत हो जाती है ‘ह्वाट्सऐप’ पर । रमेश जी से बात करके मुझे बहुत तसल्ली मिलती है । दूर रहकर भी लगता है पास ही हैं । अभी कुछ दिन पहले हाय-हैलो ‘ह्वाट्सऐप’ पर की । लिखने-पढ़ने के बारे में ही बात होती है उनसे । कहते हैं “लिखते रहो”, हम हैं । मतलब बहुत अपनापन जैसा लगता है ।

शर्मिला-  कोई परामर्श लेना हो तो क्या रमेश गोस्वामी जी से लेती हैं ?

बेबी- नहीं, रमेशजी से उस तरह की बात अभी नहीं हो पाई है क्योंकि उतना दूर रहते हैं और ‘ह्वाट्सऐप’ पर आवाज़ उतना साफ़ नहीं आती है । जितनी बात हो जाती है उससे हमें बहुत कुछ मिलता है । जो कुछ भी बताते हैं लिखने-पढ़ने के लिए ।

शर्मिला- जैसे ?

बेबी- जैसे बोलते हैं तुम कुछ भी लिखो, अच्छा ही लिखोगी । हमें बांग्ला तो पढ़ना नहीं आता है लेकिन थोड़ा बहुत भी तुम पढ़कर सुनाओगी तो हम सोचेंगे, तो हम बता देंगे कि क्या सही  है । जैसे मैंने अपने बच्चों पर लिखा था तो बोले, हाँ, अच्छा लिखी हो, लिखती रहो । तातुश की तरह तो उनको तो दिखा नहीं पाती हूँ ना ।

शर्मिलाअब तक कितनी पुस्तकें आ चुकी हैं ? आजकल आप क्या लिख रहीं हैं ? इन दिनों आपकी  रिहाइश कहाँ हैं और आपकी आजीविका-अर्जन का मुख्य साधन क्या है?

बेबी – अभी तक मेरी तीन किताबें छप चुकी है जो बाजार में हैं एवं पाठकों द्वारा पढ़ी भी जा रही है ।  उसके बाद भी मैंने दो-तीन पांडुलिपि तैयार की है ।  एक है हमारे बच्चों पर जो कि तबीयत खराब थी और तातुश श्री कोयम्बटूर गए हुए थे । मैं अकेली थी घर पर तो उस समय की हालत के ऊपर लिखी थी । और दूसरी पांडुलिपी है जबकि मैं विदेश गई थी । हांगकांग, पैरिस, जर्मनी गई थी । विदेशयात्रा के ऊपर पांडुलिपि लिखी है । कलकत्ता आने के बाद तीन-चार साल जो एक एन.जी.ओ. में काम करती थी तो उस एन.जी.ओ. में क्या काम था मेरा उसके ऊपर एक पांडुलिपि है । वहाँ पर मेरा काम था कि ‘प्रोस्टीट्यूट्स’ जो रहती हैं वहाँ पर उनको कैसे वहाँ से बाहर निकाला जाए । उनकी अच्छाई उनकी बुराई के बारे में समझना है । किस तरह से उनके काम आऊँ इसके ऊपर है । अभी मैंने कुछ दिन पहले से अपने तातुश के ऊपर लिखना शुरू किया है।

शर्मिला- आजकल आप कहाँ रहती हैं ?

बेबी- अभी मैं गुड़गाँव आई हुई हूँ तीन-चार महीनों से । तीन महीने पहले मेरा बड़ा भाई गुजर गया था । तब से  यहीं हूँ । अभी लॉकडाउन में कोरोनाकाल में जो सबका हाल हो रखा है । 2020 में तो सबकी ही बुरी हालत हुई । बड़ी-बड़ी कंपनियों की भी हालत बुरी हो गई और आम जनता और गरीब की तो कहिए ही मत इतना बुरा हाल हो गया था । मेरा भी कलकत्ता में जो एन.जी.ओ. का काम था वो भी बंद हो गया । मेरे बेटे का भी काम बंद हो गया था । हमें लोकल ट्रेन का ही भरोसा था ।  लोकल ट्रेन ही नहीं चलेगी तो हमलोग कलकत्ता में आना-जाना कैसे करेंगे ? कोलकाता का सब बंद ही पड़ा था । मेरे भैया के बारे में पता चला तो मैं यहाँ गुड़गाँव आ गई और चार महीने से गुड़गाँव में ही हूँ । काम तो उधर भी नहीं है मैंने सोचा कुछ इधर भी ट्राई किया जाए ।  बच्चों को कुछ छोटा-मोटा काम भी मिल जाये तो गुज़ारा तो चलेगा । अभी मैं तो कुछ कर नहीं रही हूँ । मेरा तो सब कुछ ही बंद है । कोई काम नहीं है । जो थोड़ा-बहुत बच्चे काम कर रहे हैं उसी से जैसा-तैसा चल रहा है ।  बहुत अच्छे से तो नहीं चल रहा ।

शर्मिला- आपके दोनों बच्चे काम कर रहे हैं ?

बेबी- दोनों बच्चे काम कर रहे हैं । बेटी एक कंपनी में है । छह महीने से कर रही है । अभी बेटा तीन महीने से एक कंपनी में है ।

शर्मिला-  बच्चे आपको पैसे देते हैं ?

बेबी – पैसे मतलब ? बेटे के साथ ही रहती हूँ मैं ।

शर्मिला- अच्छा

बेबी- हाँ ।

शर्मिला – आपकी जो किताबें प्रकाशित हुईं उनसे अब आपको कुछ पैसे मिलते हैं ?

बेबी – नहीं, अब तो बहुत ही कम हो गया है ।  शुरू में तो मेरी पहली किताब से जो रॉयल्टी मिली थी वह बहुत ही अच्छी मिली थी । उसी से मेरा घर बना, बच्चों की पढ़ाई हुई ।

शर्मिला- हिंदी  किताब की रॉयल्टी से ?

बेबी- नहीं, जो मेरी अंग्रेजी में ट्रांसलेट हुई थी ।

शर्मिलाअंग्रेजी में जो अनुवाद हुआ उसकी रॉयल्टी से आपने अपने मकान का खर्च उठाया और जो विदेशी भाषा और जो अन्य भारतीय भाषाओं में किताबे आई हैं उसकी रॉयल्टी आती है  ?

बेबी- बहुत ही कम है, ना के बराबर ही है । अंग्रेजी ट्रांसलेशन जो हुआ है दिल्ली से, जो ज़ुबान ने निकाली है उर्वशी बटालिया ने, उसकी रॉयल्टी हर बार तो एक जैसी नहीं होती है लेकिन थोड़ी बहुत हो जाती है साल भर में । साल में अगर आठ हजार कभी छः हजार या दस हजार । साल में इससे क्या हो सकता ?

शर्मिला- साल के अंत में छः,आठ, दस के बीच में आपको मिलता है ।  जुबान प्रकाशन से निकले अंग्रेजी संस्करण पर ?  क्या यह पिछले दस साल से मिल रहा है ?

बेबी– नहीं, हर साल इतना नहीं मिलता है । किसी साल में तीन हजार, किसी साल दो हजार । इस साल भी मिला था दस हजार ।

शर्मिला- इस साल, 2021 में ?

बेबी– हाँ, 2021 में ।  उनका रॉयल्टी का 31 मार्च में सारा हिसाब किताब होता है ना ।

शर्मिला- अच्छा ।  इसके अलावा और जो आता है वह एकदम छुटपुट मतलब 500 से 1000 ?

बेबी – हाँ-हाँ, इसी तरह का ।  500-1000 भी कहाँ होता है ।

शर्मिला- आप अपना सारा रॉयल्टी का पैसा, बैंक का काम सब स्वयं संभाल लेती हैं कि कोई आपकी मदद करता है ?

बेबी – मेरे अकाउंट में आता है,संभालना क्या है ? उतने पैसों में क्या होता है ? खर्चा हो ही जाता है । हाँ, एकाउंट चेक करना, उठाना सब मैं ही करती हूँ ।

शर्मिला- पूरे साल जो आपके प्रोग्राम होते हैं ? उससे आपको कोई पारिश्रमिक मिलता है ?

बेबी – हाँ, मिलता है ।  कोई इंटरव्यू लेना चाहता है या मेरा प्रोग्राम होता है तो उसमें कुछ पारिश्रमिक मिलेगा ही । अभी कोरोना से हालत खराब है सबकी । जो होता है वो दे देते हैं । पहले के दिन अलग थे अभी अलग है ।  अब कहना पड़ता है मुझे ।

शर्मिला-  पूरे साल में कितने इंटरव्यू हो जाते हैं ?

बेबी– पांच-छह तो हो ही जाते हैं । अभी तो ऑनलाईन ही प्रोग्राम होता है तो उसमें भी हमें मिल जाता है । इस साल में, 2021 में,  तीन-चार हो गए हैं  ।

शर्मिला – चार हो गए तो क्या चार के पीछे पाँच हजार रुपये तक आपको मिल गये ?

बेबी – हाँ-हाँ, पाँच हजार तक आ जाता है ।

शर्मिलाआप कहाँ पर स्थाई रूप से रहना चाहेंगीं या रहेंगीं ? आपका घर हालीशहर में है और आप अभी गुड़गाँव में है और आजीविका के लिए भी संघर्ष कर रहीं हैं?

बेबी – अभी मैं थोड़ा सा कन्फ्यूज़ हूँ क्योंकि मेरे हिंदी पाठक लोग भी मुझे बहुत चाहते हैं और अभी चार महीने से गुड़गाँव में हूँ तो सबको पता चल रहा है, दिल्ली-गुड़गाँव हिंदी पढ़ने-लिखने वाले हैं धीरे-धीरे सबको पता चल रहा है कि बेबी हालदार गुड़गाँव में है ।  उन्हें  लग रहा है कि हमें मिलना चाहिए, बेबी का कुछ छपना चाहिए, कुछ होना चाहिए । इस तरह से यहाँ गुड़गाँव में बहुत अच्छा  रहा है लेकिन मैं लिखती बांग्ला में तो लिखने-पढ़ने के लिए कोलकाता भी चाहिए । लेकिन प्रॉपर कोलकाता होना चाहिए । जहाँ पर हालीशहर में मैंने घर बनाया है वहाँ पर मुझे कोई काम नहीं मिलता । वहाँ घर पर कभी कोई कोई आना चाहें तो नहीं आ पाते । वहाँ पर मैं अकेली हूँ । मेरी ज्यादा जान-पहचान  कोलकाता की तरफ है ।  अगर मैं किसी से कोलकाता में मिलती हूँ , वहाँ के बहुत से प्रोग्राम में गई हूँ तो वहाँ पर सुनती हूँकि लोग कहते हैं हम हालीशहर  आपके घर इंटरव्यू लेने कैसे जाएँ? | जिसको काम करना है  वो तो जायेगा ही  लेकिन थोड़ा सोचना पड़ता है ।  अगर प्रॉपर कोलकाता में मेरा घर होगा  तो मेरे लिये अच्छा होगा ।

बच्चों के लिये सोचूं तो मेरे लिये गुड़गाँव ही ठीक है ।  मेरे पाठक लोग गुड़गाँव में भी हैं । लेकिन मैं रहना चाहूंगी प्रॉपर कोलकाता में ही क्योंकि मेरा लिखना-पढ़ना, मेरा काम  कोलकाता में ही होगा ।

शर्मिला- जो आप क्या सोच रहीं हैं वह कैसे हो पाएगा ?

बेबी– उसके लिए मुझे वहाँ से घर बदलना पड़ेगा । कोलकाता में घर ले लूँ वो घर निकाल कर । अगर घर कोलकाता में लेना है तो वह हटाकर ही लेना पड़ेगा क्योंकि मैं आर्थिक रूप से उतनी मजबूत भी नहीं हूँ कि एक जगह घर होते हुए दूसरी जगह भी ले लूँ ।  वहाँ का निकाल कर ही प्रॉपर कोलकाता में या गुड़गाँव में ले सकती हूँ ।

शर्मिला-  आप अभी सोच रहीं हैं ?

बेबी- हाँ, सोच रही हूँ ।

शर्मिला- इसके बारे में आप किसी से परामर्श भी लेती हैं ?

बेबी- हाँ, अनिता अग्निहोत्री दी से ही बात करती हूँ । अनिता दी तो काफी बड़ी इंसान हैं ना । दिल्ली की आइ.ए.एस. ऑफिसर भी थीं और बहुत बड़ी लेखिका भी हैं तो बहुत तरह की मदद उनसे भी मिल जाती है । हर चीज़, हर बात मैं उनसे शेयर करती हूँ ।

शर्मिला- दोनों बच्चों के भविष्य को आप किस तरह से देख रही हैं ? उनकी नौकरी, उनका विवाह ?

बेबी – मेरी लड़की के लिए तो मुझे सोचना नहीं पड़ेगा । खुद का टैलेंट है उसमें । वह अपने आप खड़ी हो गई है । बेटा लड़की से बड़ा है । सबका दिमाग एक जैसा तेज नहीं होता है । बेटे के पीछे मुझे मेहनत करनी पड़ेगी । देखिए क्या होता है ? अभी तो काम कर ही रहा है । उसके साथ ही हूँ मैं ।

शर्मिला- तातुश के देहांत के बाद लोगों ने क्या उनकी सुध ली ?

बेबी– नहीं । मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है  कि जब ‘आलो आँधारि’ निकली थी तब तो मीडिया से, रेडियो से, टीवी चैनल से लोग आते ही रहे लेकिन जब सुना कि तातुश नहीं रहे, प्रेमचंद के नाती थे, तो क्यों नहीं उनके बारे में कुछ किया !

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