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इसमें सिनेमा और साहित्य दोनों का मजा है!

अपने लेखन में राजस्थान की मिटटी की खुशबू लिए लेखक रामकुमार सिंह की एक कहानी पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने बड़ी शानदार फिल्म बनाई ‘जेड प्लस‘. बाद में ‘जेड प्लस’ उपन्यास के रूप में छप कर आया. दोनों के अनुभवों से गुजरते हुए आशुतोष कुमार सिंह ने यह लेख लिखा है, जिससे किताब और फिल्म दोनों को समझने में थोड़ी-थोड़ी मदद मिलती है- मॉडरेटर.
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ज़ेड प्लस फिल्म देखने जागरण फिल्म फेस्टिवल पहुंचा था। भारतीय लोकतंत्र की खामियों को जिस अंदाज में इस फिल्म ने प्रस्तुत किया है वह बेहतरीन है। भारत के गंवई जीवन व शहरी जीवन के द्वंद्वों को इस फिल्म ने बहुत ही बारीकी के साथ रखा गया है। एक आम इंसान जो पंक्चर की दुकान से अपनी रोजी-रोटी चलाता हैएक दिन देश के प्रधानमंत्री से उसकी मुलाकात होती है और देखते ही देखते उसका जीवन आम आदमी व खास आदमी के बीच त्रिशंकु सरीखा हो जाता है।

दरअसल, प्रधानमंत्री से असलम कहता है कि उसे अपने पड़ोसी से जान का खतरा है। असलम की हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयी इस बात को अंग्रेजी में ट्रांसलेट कर के पीएम का सचिव उनको बताते है। प्रधानमंत्री को लगता है कि पड़ोसी देश से असलम को खतरा है। आनन-फानन में असलम को ज़ेड प्लस सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश प्रधानमंत्री देते हैं। देखते ही देखते असलम पूरे देश में छा जाता है। मीडिया का चेहरा बन जाता है। जिस तरह से चेहरों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की होड़ आज दिख रही है, ठीक वैसे ही असलम के चेहरे को राजनीतिक रूप से भुनाने में पार्टियां जुट जाती हैं। आम से खास बने असलम को शुरू में तो यह सब अच्छा लगता है। लेकिन एक समय ऐसा आता है जब उसे अपनी गलती  का एहसास होता है। इस पूरी प्रक्रिया में उसकी पत्नी हमीदा अहम भूमिका निभाती है। वह अपने पति के बुरे कर्मों से प्राप्त धन से अपने बच्चों की परवरिश करने से साफ-तौर से इंकार कर देती है। पत्नी का यह विरोध असलम के भटके हुए कदम को संभालने का काम करता है।

लोकतंत्र के स्याह सच को देश की जनता के सामने लाने में यह फिल्म बहुत हद तक सफल रही है। सच्चाई भी यही है कि देश के आम आदमी को सरकारों से कुछ भी मिला नहीं है। जो भी योजनाएं बनती-बिगड़ती रही हैं उनकी कसौटी राजनीतिज्ञ व नौकरशाही के लाभ ही रहे हैं, जिसमें अधिक लाभ वह योजना पहले पास। पहले हजम।

इस फिल्म की मूल कथा हाल ही में राजकमल प्रकाशन समूह के उपक्रम सार्थकसे ज़ेड प्लसके नाम से उपन्यास के रूप छपकर आयी है। संयोग से यह किताब  मैंने पढ़ी है। इसको पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे मैं उपन्यास नहीं पढ़ रहा बल्कि फिल्म देख रहा हूं। शायद यही कारण रहा होगा कि इस कहानी के बारे में ज़ेड प्लस फिल्म के निर्देशक डॉ.चन्द्र प्रकाश द्विवेदी लेखक रामकुमार सिंह को शुभकामना देते हुए खुद लिखते हैं कि, ‘एक विलक्षण और जादुई कहानी, पढ़ते ही मैंने तय कर लिया था कि इस पर फ़िल्म बनानी है। राम से कहानी सुनते ही मैंने उसे बधाई दी थी। कारण था कहानी की मौलिकता। कहानी में हिन्दुस्तान की मिट्टी की सुगंध थी और पात्र हिन्दुस्तान की सड़कों से लेकर राजनीति के गलियारों तक के कुछ देखे कुछ अनदेखे।’ 

खुद रामकुमार सिंह उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं कि, ‘वीआइपी होने का खयाल ही मुझे असहज करता है। कुछ गुस्सा था और कुछ तंत्र पर खीझ। पत्रकार होने की अपनी त्रासदी भी थी, जिसमें आम और खास आदमी होने के एक सम्मिश्रित से खयाल के चलते दिमाग में अपने ही कस्बे फतेहपुर का असलम पंचरवाला आया।…गांव मेरे भीतर रहता ही है। शहर ने चेतना पर एक बाहरी आवरण लगा दिया। कोशिश रहती है कि मेरा गद्य पाठक को ऊबाऊ न लगे, लेकिन सतही भी न रह जाए। पता नहीं, मैं साध पाता हूं कि नहीं, यह कहानी अब आपके हवाले है।

बेशक रामकुमार सिंह अपनी कहानियों की पठनीयता के बारे में सशंकित हो, जो कि प्रत्येक लेखक स्वाभाविक रूप से होता है। लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने व इस पर बनी फिल्म को देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि रामकुमार सिंह को अपने गद्य को लेकर सशंकित होने की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है। इस ज़ेड प्लस उपन्यास में उनका गद्य किस तरह प्रभावी है इसका नमूना इन गद्यांशों में झलकता है।

इधर, असलम के जेहन में यह अहसास तक नहीं था कि सईदा के इश्क और पड़ोस में रहने के कारण हबीब मियां अब शायर से कहीं ज्यादा घातकऔर क्रांतिकारी होते जा रहे थे। हालत यह थी कि सईदा कश्मीर हो गई थी। असलम मियां हिन्दुस्तान और हबीब मियां पाकिस्तान। (पृ. 23)

राजू यूं तो पनवाड़ी था लेकिन था पूरा बीबीसी लंदन। हबीब मियां भी अपनी परमाणु मिसाइलनुमा शायरी का प्रक्षेपण सबसे पहले वहीं के श्रोताओं में किया करते थे। आलम यह था कि राजू की दुकान पर यदि हबीब मियां बैठे दिख जाते थे तो शायरी की विकिरणों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए ग्राहक इधर-उधर सरक लिया करते थे और उनकी दिली तमन्ना हुआ करती थी कि सईदा किसी दिन किसी शेर पर यह कह दे कि मियां यह शेर मुझे दे दो और बदले में मेरा वजूद, मेरा दिलोदिमाग ले लो। (पृ-18)

नीचे दिए संवाद यह स्थापित कर रहे हैं कि लेखक रामकुमार सिंह ने कितनी गहराई में जाकर मानवीय स्वभाव व सामाजिक जनसरोकारों को अपने पात्रों के माध्यम से जीवंतता प्रदान की है।
हमीदा ने ज़िंदगी में पहली बार घर में नोटों की इतनी गड्डिया देखी थी। पैसा किसे बुरा लगता है लेकिन फिर भी हमीदा डरी हुई थी कि असलम एक साथ इतना पैसा लाने लगा है और यह पैसा सचमुच अच्छा है नहीं। उसने असलम से कहा,

तुम्हारी क्या कोई लॉटरी लगी है, या जुआ खेलने लगे हो जो इतने पैसे कमाने लगे?”

तू जुआ ही समझ ले बेगम,अब देख गुरबत के दिन मिट रहे हैं। तुझे गुस्सा करने के बजाय खुश होना चाहिए

अल्लाह मियां से डरो जी, बच्चों की परवरिश ऐसी कमाई से करोगे तो दुनिया से रुखसत होकर उनको क्या मुंह दिखाओगे? मुझे बहुत डर लग रहा है।

तुम बस अपने पर, बच्चों पर ध्यान दो।अल्लाह मियां की तरफ से पंचायती करने की कोई जरूरत नहीं है।असलम ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा। उसे लगता था कि हमीदा ठीक कह रही है। उसके भीतर का आदमी भी उसे डरा रहा था। वह नाराज होकर हमीदा पर हावी होने की कोशिश कर रहा था। लेकिन हमीदा भी अपनी हदों तक प्रतिकार कर रही थी। उसे आगे वह कितना बढ़ पाती,

खुदा से डरो। उसने तुम्हे अक्ले सलीम बख्शी और अच्छे बुरे का भेद करना सिखाया। लालच ने तुम्हें अंधा कर दिया है मियां।” (पृ.101)

इस उपन्यास के बारे में मीडियाकर्मियों से बात करते हुए रामकुमार सिंह ने कहा था कि, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि पाठकों को किताब पढ़कर मजा मजा आयेगा। सिनैमैटिक व लिटररी दोनों अनुभव एक साथ होंगे।

लेखक की बातों से सहमति जताते हुए मैं कह सकता हूं कि मैं इस अनुभव का आनंद उठा चुका हूं।

‘जेड प्लस’ राजकमल प्रकाशन समूह के उपक्रम ‘सार्थक’ से प्रकाशित है. 
 
      

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