इस होली पर हम आभारी हैं यशस्वी संपादक प्रेम भारद्वाज जी के कि उन्होंने आज जानकी पुल के पाठकों के लिए सम्पादकीय लिखा है. हालाँकि होली का सुरूर ऐसा चढ़ा है कि ठीक ठीक कह नहीं सकता कि यह सम्पादकीय उन्होंने ही लिखा है. बहरहाल, उनको भी होली मुबारक, उनकी तरफ से भी भी होली मुबारक- प्रभात रंजन
=======================
हर तरफ पुकार है… चीख है.. सीत्कार है… कहने को बहार है… रंगों की मार है… मन में मचता हाहाकार है… दूर कहीं शून्य से आती आवाज है… गाली है, गुप्तार है… सिसकता यौवन है… मन में न जाने कितने बीते फागुन हैं… कहीं दूर से आती फाग की आवाज है… रंग हैं, भंग है, बिन संग सब बेरंग है… क्या यही मुक्तिबोध की अंध गुहा है… न जाने कितने ब्रह्मराक्षस कुँओं से झाँक रहे हैं…
क्या यही होली है? किसकी यह होली है? कितना कुछ बदल गया? पहले जो कवयित्रियाँ लेखकों के दराजों से निकलती थीं, कवि पौवे के संग बहते थे अब सब फेसबुक के रंग में रंगे हैं… फेसबुक पर तो रोज ही होली जलती है, रोज ही होली मनती है…
मुझे धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की याद आ रही है.
मुझे धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की याद आ रही है.
क्या यही होली है?
हाँ यही होली है…
हाँ यही होली है…
मेरी होली दूर से आती हुई वह आवाज है जो मेरे मन को मथ जाती है, तन को सिहरा जाती है… कौन है? कौन है? होली न जाने कितने सवाल मन में जगा जाती है? पिछले न जाने कितने सवालों को भुला जाती है…
मुझे मोहन राकेश की डायरी याद आ रही है…
मुझे मोहन राकेश की डायरी याद आ रही है…
इस होली पर यही कहना है कि तन का यौवन जाए तो जाए मन का यौवन कभी न जाए… संपादक वही होता है जो उस यौवन को पहचान कर चलता है… मैं तो हर दिन एक नए यौवन के साथ जीता हूँ, इसलिए कुछ नहीं पीता हूँ… होली मिलन का रंग और जुदाई का रंग एक साथ लेकर आता है. जो मिलता है वही तो खोता है… होली का एक रंग यह भी तो होता है. एक दिन रंग है बाकी दिन भंग है..
अरे यह कहना तो भूल ही गया- होली मुबारक हो!
अंत में सभी पाठकों से यह विशेष अनुरोध है कि इस होली फिल्म ‘ज़ख़्मी’ का यह गीत जरूर सुनें- ‘दिल में होली जल रहे हैं…’
बुरा न मानो होली है
प्रेम सर के शब्दों का जवाब नहीं
रंगों और उमंगों के पावन त्योहार होली की रंग बिरंगी शुभकामनायें 🙂