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द्वारिका प्रसाद उनियाल की कविताएँ

आज पढ़िए शिक्षाविद, मोटिवेटर द्वारिका प्रसाद उनियाल की कविताएँ। इसी साल पुस्तक मेले में द्वारिका का कविता संग्रह आया है ‘मेरे आसान झूठ’। उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ पढ़िए-

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1

अम्मा का पल्लू

हम अपना बचपन दो बार जीते हैं
पहले खेल-खेल में
और फिर उनकी स्मृतियों में बार-बार
विस्मृतियों के किसी कोनें में
अम्मा का पल्लू छुपा होता है
जिस से लिपट कर हम रोते थे
हंसते थे
छुपते थे
छुपाते थे

पल्लू जिसकी ओट में हम
अपनी एक अलग दुनिया बनाते थे
पहले हमारी ढाल
फिर हमारी हक़ीक़त
अंत में एक स्मृति भर रह जाती है

फिर धीरे-धीरे
वक्त के साथ वे साड़ियाँ भी संदूक़ों में क़ैद हो गयीं
अवचेतन में विस्मृत अतीत की तरह
पर माँ
तुम्हारे आंचल का साया
दु:ख के कातर क्षणों में
स्वत: ही स्नेहिल स्पर्श बनकर चारों तरफ छा जाता है
तुम्हारी महक घर के दरों-दीवार में
अज्ञात कस्तुरी की तरह बसा हुआ है
आज भी साड़ियों को जब तब लपेट लेती हूँ
मैं तुम बन जाती हूँ
और तुम्हारा पल्लू
धीरे धीरे याद की मीठी चाशनी-सा मुझ में घुलता जाता है

2
काली मिर्च

रास्तों पर खिड़कियाँ नहीं होती
रास्तों पर खिड़कियाँ खुलती है
नदियाँ सींचती है जीवन
फिर न जाने कैसे
कोलतार से लिपटे कंकड़ों ने गंगा में अवसाद बिखेर दिया है

बर्फ़ की सिल्लियों में
अपनी रूहों को पटका है बहुत
फेनिल झागों की सफ़ेदी यूँ ही फिसल गयी मानो

परदे के गिरते ही नाटकों के किरदार
पन्ने की गिरफ़्त से छूट गए हों जैसे
वरना जुगनू ऐसे ही तो आवारा नहीं होते

तुम्हारे धक्के को देखा नहीं था मैंने
औंधे मुँह गिरना ही था
कटते प्याज़ के मार्फ़त भी आँसू बहाए जाते हैं

गुम हूँ कि अब नाम रहा नहीं कोई
सुनसानी रातों के साए भी उस कबर्ड में बंद हैं
खौलती चाय में काली मिर्च तेज़ हो गयी शायद
3

उल्टे पैर

भटकती आँखों में ज्वालामुखी
ट्रैफ़िक सिग्नल पर बत्तियाँ नही दिखती
मानो फिसलते आँसुओं के बुलबुले में पिघलता लावा क़ैद हो

गरजती बिजलियों की तड़प पहले दिखाई
फिर सुनाई पड़ती है
घास काटती दरांतियों से गुलाब नहीं छाँटे जाते

यूँ तो जुगनूओं को अनिद्रा रोग होता है
दफ़न हैं आधी जली कई लाशें
हाँ, ज़िंदगी की लाशें
ज़िंदा रूहों में पनाह की तलाश में है

वह कोई तारा नहीं
कि टूटा और तुम्हारी चाहतें पूरी करेगा
ये तो उल्का पिंड है
ज़ख़्म देगा ज़मीन की देह पे

अधर में टंगे शून्य की तलाश
ब्लैक होल सी रोशनी है
ना आर होती है ना पार
रात के सायों के पैर उलटे हैं

4
जड़ों में कीलें

ज़मीन पर लोटते सायों को
धोबी घाट में धुलने डाल दिया
ज्यों ज्यों सूरज बढ़ेगा
मिट्टियाँ धुल-धुल कर बाहर निकलेंगी

आख़िरी बूँद से उसकी प्यास
क्यों पूछती हो तुम ?
झर्र से फिसलती रेतों की झुर्रियाँ
बहते पसीने से गीली हैं शायद

कँटीले झाड़ों के बीच
वो पीला फूल तनहा है
बीते पतझड़ वो कली
मुरझा जो गयी थी

बरगद की जड़ों में कीलें ठोकी थी जिसने
उससे पूछना ज़रा
रिसते-रिसते मरने की सज़ा
सबसे पहले इन पत्तियों को क्यों मिलती है ?

5
वाराणसी

उजड़ा नहीं जब से बसा
सदियों पुराना ये शहर
हर गली की एक कहानी
हर कहानी का अपना इतिहास
हर गली की अपनी दुनिया
और दुनिया के सारे रंग यहाँ है

कई जीते जागते घाट
कई मरे हुए को तारते घाट
अपनी-अपनी गिनती में
किसी को कोई याद
तो कई भूले-बिसरे घाट

हर कोई खोया हुआ है
ज़िंदगी जो नहीं पाया हुआ है
हर मुर्दे की जीवित है आत्मा
हर जिंदा कहीं थोड़ा मरा हुआ है

कोई भभूत लगाए
कोई भांग छनाए
काली भूरी कोई गंगा नहाए
चौके पर धूनी रमाए
सब मस्त हैं
न धूल दिखती है, न मिट्टी
भूखों के उदर में देखी भभकती भट्टी
वहीं कचरे के ढेर से
खाना चुनते बंदर, गाय, कुत्ते और इंसान
और उन्हें अनदेखा कर
हर हर महादेव बोल कर
भीड़ बढ़ती है
ठेल कर, झेल कर
हर एक को दर्शन की लालसा
पंडों का ज़ोर
दलालों में होड़
गर भगवान से कोई हो जुगाड़ तो मेरा भी जोड़
आस्थाओं का ये कैसा अजीब-सा तोड़ मरोड़

यही अनोखा बनारस है
कभी गोदौलिया में होर हल्ला
गिरता पड़ता, जीता डोम मोहल्ला
टोटो की पों-पों
रिक्शे की खों-खों
ठंडाई की गरमा-गरमी
कचौड़ियों, मलइयों की भोर
सबसे भारी ताम्बूल का ज़ोर

बी एच यू के लौंडों की मारम-मार
मदनपुरे की शिवाला से तकरार
रामनगर की लीला
लंका में धंधा ढीला
ठठेरी की चाट-पाट
सोनू की अड़ी के ठाठ
गंगा आरती की शान
पर बनारसी परेशान

तरता है
तारता है
रेशम के तानों-बानों-सा
जीवन को कातता है
यह शहर सुबह दशाश्वमेध पर बसता
और साँझ तले मणिकर्णिका पर मरता है

6
मेरे आसान झूठ

सड़कों पर रेंगते उन शरीरों को देखता हूँ
फुटपाथों पर पड़े ज़िंदा लाशों को
एकबारगी शर्म आती है
पर हर आदमी की तरह मैं भी बेशर्म हूँ

जल्दी से सिक्के फेंक
कुछ रुपए बिखरा
मन मसोसता
जाने क्या सोचता
कभी ज़िंदगी
कभी उनकी क़िस्मत
कभी सरकार को कोसता
भागते क़दमों से अपनी दुनिया में वापस आने की कोशिश करता हूँ

कानों पर ईयरप्लग लगाए
लोग बसों, टैक्सी में बेतरह चले जाते हैं
आँखों पर दुनिया के मायावी चश्मे से
रास्ते पर पड़े दीनहीन दिखाई नहीं पड़ते
मैं भी सब देखते-सोचते एयरपोर्ट के लिए निकल पड़ता

वह रेंग रहा है
मैं भाग रहा हूँ
वह मर रहा है
मैं उड़ रहा हूँ
मैं आसमान में हूँ
अब वो ना गली है
ना ज़िंदा लाशें
ना ग़रीबी
ना गंदगी
हाँ! अब ठीक है
ज़रा! कॉफ़ी देना प्लीज़

7
घूरती बिल्ली का रतजगा

यूँ जो लटका हुआ है हाड़-मांस का पुतला
भेड़ियों की पहुँच से ऊपर है
उसी शाख़ पर बैठी नीली आँखों से घूरती बिल्ली का भी रतजगा है

रेत में छेद कर रहा है घोंघा
लौटती लहर के नमक के लिए
सूरज के ऊपर से उड़ती चील को
घोंसलों की दरकार नहीं

जहाँ गली की नालियों में
चूहों ने अपना नया घर बनाया है
बकरियाँ साँझ के चूल्हे में
अपना धुआँ तलाशती हैं

भागती सड़क का वो लैम्प बुझा हुआ है
जबसे सरकारी बिजली पानी बंद है
डिस्पेन्सरी में अब दवा नहीं मिलती
और उबले भात की हांडी कल ही तो छिटकी थी
हवाई जहाज़ की परछाई के पीछे
भौंकते-लोटाते आवारा कुत्ते के बग़ल में
ढाई मुट्ठी अनाज को मुट्ठियों में भींच
दाँतो को पीसता वह फुटपाथ के सीमांत पर

नलके की बूँदों में अब
पसीना टपकता है उसका
क्योंकि अपने पैरों की आहट से डर
पूरी रात भागते हुए उसने
सियारों के दबे पाँव
शहर में आने की ख़बर सुनी है

8

ख़ाली घर, प्यासे बर्तन

चीड़ों के जंगल के उस पार
पगडंडियों के ऊपर
गाँव मेरा रूमधार

पुरखों के दिए खेत हैं
कुछ नीम
आम भी
पठयालियों से ढ़का
गेरू पूरा एक घर भी
उसी के भैंस खाने में
माँ बताती है कि मैं पैदा हुआ

कुछ दूर तिमले का धारा था
जब भी गरमियों में गाँव आता तो
ऊपर वाले खेत से
हीसर चुना करता था

बीस सालों से मैंने सुध नहीं ली
रूमधार की
टूटा-सा ख़ाली घर है
प्यासे बर्तन भी
तिमले का धारा भी कब का सूख चुकी है

खेत बंजर हैं
सपनों को जंगल की आग खा गयी
नए हैंडपम्प से टपकता है बोतल पानी

बीस सालों में
गाँव वालों ने तरक़्क़ी कर ली है
देहरादून हम सभी के घर बन गए हैं
इक्का-दुक्का शादियों में मिल लेते हैं
कभी-कभी हरिद्वार में भी

गाँव सड़क जाती है
हम नहीं
बिजली पहुँची
लेकिन बूढ़ों की आँखों के लालटेन अब टिमटिमाते नहीं
और पटवारी की सरकारी आँखों में तो मोतियाबिंद पड़ा है

दो स्कूल हैं
मास्टर जी भी
बच्चे क़स्बे के इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं
प्रधान जी बोले
सड़कें गाँव आयीं
बहुत कुछ ले गयीं
रिश्ते भी

शहरी मन में
बचपन का गाँव अब भी बसा है
मन की आँखों में धूल झोंक
कब का दूर निकल आया था

बस अकेला धार हैं
बचे-खुचे चीड़
वही ख़ाली घर
और प्यासे बर्तन

9
रूह और जिस्म

सोचो
कि कल अगर तुम मर्द बन जाओ
और मैं औरत
तो तुम मुझे भी कुछ जान पाओ
और मैं तुम्हें

गर्भ होता क्या है
प्रसव की पीड़ा
और माँ का ममत्व महसूस कर पाऊँ
तो मैं भी छटपटाऊँ
जब तुम मेरा गला दबाओ
जब घर की देहरी मेरी सौत बने
मेरा अस्तित्व गौण हो जाए

कभी मुझे भी तो पता चले
प्रेम की पराकाष्ठा
यौवन की महक
सावन के झूले

कभी मैं भी संवर जाऊँ इतराऊं
कभी माँ
कभी बहन
कभी पत्नी
कभी दोस्त
और कभी सिर्फ़ स्त्री बनूँ

तुम्हें भी अहसास हो
एक बाप के निश्चल प्यार का
एक बेटे की शरारत का
एक पति की निगाह का
एक प्रेमी के पागलपन का
तुम भी जानो कि
आवारापन क्या होता है
तुम भी अपनी नाकामियों से भागो
अपने घमण्ड को टूटते देखो
तुम भी मानो
कि सब मर्द एक से नहीं होते
हाँ शायद एक दिन
हम जिस्म बदल लें
ना तुम रहो ना मैं
और वो रूह , बस रूह रहेगी
कॉकरोच

सुबह नज़दीक से एक कॉकरोच को मरते देखा
हमेशा दूर से हिक़ारत भरी नज़रों से देखा था मैंने उन्हें
मानो उनका ज़िंदा रहना
मानवीयता पर धब्बा हो
कभी झाड़ू से तो कभी अख़बारों से
कभी लातों से दुत्कारा है
पर आज मैंने वह सब नहीं किया
उसे देखा कोशिश करते हुए जीने के लिए
देखा कैसे अपनी पीठ के बल लेटे हुए
बेजान पैरों से उठने की कोशिश कर रहा है
देखा कि वह थक रहा था
उसके मरने को देख कर
मैं उधेड़ बुन में था
वह तड़पता रहा
सुन्न सा उसे देखता रहा
उसके मरने के आख़िरी पलों में वो अकेला नहीं था
पहली बार मुझे उसके ज़िंदा होने का अहसास हुआ
तब जब वह मर रहा था

दो टूक देख कर
बाहर निकल आया
अपनी ज़िंदगी जीने
जैसे कि होता ही है
बारिश में चींटियाँ बह जाती हैं
सड़क पे कुत्ते कुचलें जाते हैं
वैसे ही बस्तियों में बाढ़ आती है
जब गलियों में आँते कटती हैं
जब कोई दरिया में डूबता है
जब बोरवेल में साँसें अटक जाती हैं
हम सब किसी ना किसी के लिए
सिर्फ़ एक कॉकरोच है
हमारे वजूद की साँसें कोई गिनता नहीं
हमारी रीढ़ की हड्डियाँ टूट चुकी हैं
हमारे हाथ लाचार
सोचने समझने की इंद्रियाँ कुंद
हम भी अपने-अपने किचन की तलाश में भाग रहे हैं
यहाँ से वहाँ
रोज़ सुबह अपने बिलों से निकलते हैं
देर रात अपने बिलों में वापस
हमारे आस-पास सब कॉकरोच हैं
एक दिन इसी तरह कोई दूसरा
देखेगा हमें मरते और मुँह फेर
एक लात मार
कचरे के ढेर में डाल
निकल लेगा
उसे ऑफ़िस जो जाना होगा

10
सदियों का ब्लैक होल

एक दिन मिट्टी खोदी मैंने
अपनी पहचान सी खोजी मैंने
कुछ कंकड़ निकले
कुछ दबी हुई मुर्दा जड़ें भी

परत दर परत
मिट्टी के रंग बदले
मेरी खंडित विरासतों के
जाने कितने रूप बदले
जिन देवताओं को भूल आया था
पुरखों के उस घर में
उनके कुछ अंश निकले

मीलों गहरी
वास्तविकताओं से परे
एक नए भू गर्भ में प्रवेश किया जैसे
ना वो धरा है
ना पाताल
ब्रह्मांड का वो हिस्सा
जिसे ना त्रिलोक मे जगह मिली
ना त्रिदेव ने स्वीकारा

यहाँ ना आसमान नीला है
ना मिट्टी का लेप गीला है
बस धू-धू कर उड़ती है रेत
खारी है हवा
और
समंदर कहीं नहीं
मरते सूरजों
की रश्मियाँ दफ़न हैं यहाँ

ना मनुष्य की श्वास
ना आत्मा का वास
वीरानियाँ अपने सन्नाटे गिनती हैं
खुली आँखों की नींद में
सपने चीखते हैं
अपने अहम् के वक्ष को
वो मृत्यु से चीरते हैं

एक क्षण
एक युग मानो
आदि भी
अंत ही
यही सत्य
यहीं सत्य
ना भूत
ना भविष्य
रुके हुए समय का
यही है
यहीं है
सदियों का ब्लैक होल

11
टंगा हुआ समय

भारी , सिल बट्टे का तला
जैसे
गहरी कोयले की खदान
की वो अंधेरी सुरंग
जंगलों में फँसी पुरातन हवा
जिसके पीपल की जड़ों में
जमे हुए पानी सी
सहस्र वर्षों की रिक्ति
यहाँ
कुछ है जो अपूर्ण है
टंगे हुए समय की तरह

मंदिरों के इन गर्भ गृहों में
सदियों पुराने इतिहासों की क्षणभंगुरता
उन अनश्वर पत्थरों के नीले घावों में
दंभ, द्वेष, लालसाएँ
हारे हुए समरों के शेष हैं
रक्त पिपासाओं की देह में
कुछ है जो अपूर्ण है
टंगे हुए समय की तरह

आकाश के असीमित विस्तार को
राजाओं की भू लोलुपता में
देवों के शापित लोकों तक
भटकते धूमकेतु की धूल से
शिव सती के प्रेम में
कुछ है जो अपूर्ण है
टंगे हुए समय की तरह

वो खंडित है, विखंडित कहीं
जीवन मृत्यु अमरत्व के मध्य
त्रिशंकु ही
यही आदि , यदि अंत है
यौवन के भिक्षुक ययाति सा
कौन काल, मौन त्रिकाल है ?
कालनेमि के छल सा
कुछ है जो अपूर्ण है
टंगे हुए समय की तरह

 
      

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