Home / Featured / सौम्या बैजल की कहानी ‘संग-साथ’

सौम्या बैजल की कहानी ‘संग-साथ’

सौम्या बैजल युवा लेखिका हैं. बदलते वक्त को कहानियों के माध्यम से समझने-कहने की कोशिश करती हैं. भाषा में भी हिंदी रोमन मिक्स लिखती हैं लेकिन निश्चित रूप से उनके पास कहने के लिए कुछ है और कहने का एक अपना सलीका भी है. जैसे कि यही कहानी देखिये- मॉडरेटर

==========================

मिस्टर और मिसेज शर्मा की शादी को बावन साल से ऊपर हो चुके थे. शर्मा जी उर्फ़ श्याम शर्मा , लखनऊ के माल एवेन्यू में अपनी पत्नी अनीता जी के साथ रहते थे. इकहत्तर  वर्षीया श्याम जी अपनी उम्र के हिसाब से बेहद फुर्तीले और चुस्त थे। पिछले पैंसठ सालों से तो सुबह ४:३० बजे उठते ही थे. आधा घंटा गुसलखाने में बिताने के बाद, आप रसोई में घुसते थे. पांच बजे से अलग अलग भगोनो में से दूध उलट फेर किया करते थे. भगवान् ही जानते थे, क्यों! पतले दुबले थे, सफ़ेद बाल, और सफ़ेद बनियान, पैजामा  पहन कर, काले फ्रेम का चौकोर चश्मा नाक पर चढ़ा कर कई देर तक लगे रहते थे. और इतने आहिस्ता, की अनीता जी की नींद न टूटे.  फिर गंदे कपडे एक बाल्टी से दूसरी बाल्टी में डाला करते. फिर, जब बाहर रौशनी होती, तो अपने बागीचे का मुआइना करते. खुरपी लेकर, उकडू बैठ कर, क्यारियों की गुड़ाई किया करते।  ६:३०  बजने का इशारा लेकिन उन्हें घडी नहीं देती थी. अनीता जी के बिस्तर से उठने की आहट , उनकी असली सुबह होती थी.

जब तक अनीता जी, गुसलखाने से बाहर आती थी, गरम चाय उनके तखत के सामने की मेज़ पर, एक cane के होल्डर में इंतज़ार करती थी. ‘अरे बउजी, देखो चाय रखी है’, श्याम जी अपनी पत्नी को इशारा करते. दोनों फिर साथ मेज़ पर बैठते। रोज़ की तरह अनीता जी चाय का गिलास दोनों हाथों में उठाती, फूँक मारती , जिससे उनके चश्मे पर भाप जम जाती. रोज़ की तरह श्याम जी उनका चश्मा उनकी आँखों से उतारते , मुस्कुराते , उसे पोंछते और अनीता जी की नाक पर चढ़ा देते. अनीता जी तब तक चाय की पहली चुस्की ले चुकी होती थी. इसके बाद श्याम जी अपनी खुरपी दोबारा उठाते और बाहर चले जाते. जाते हुए अख़बार मेज़ पर रख देते.  अनीता जी सुबह के अखबार के साथ ही चाय पिया करती थी. श्याम जी वापिस गुड़ाई में, और  अनीता जी दिन भर की ख़बरों में डूब जातीं.

‘क्या होगा इस शहर का? लो, कुछ ४ मर्डर और ३ चोरियां तो १० मिनट में ही पढ़ ली’, अनीता जी, अखबार से नज़र न उठाते हुए श्याम जी को आवाज़ लगाती। श्याम जी तुरंत जवाब देते’ अरे , कितनी बार कहा है, अश्बार पीछे से पढ़ा करो. खेल कूद की खबरें और सिनेमा से शुरुआत करो’.

यह दोनों की रोज़ सुबह की कहानी थी. इतने साल गुज़र गए, लेकिन मोहब्बत वैसी ही थी, जब पहली बार हुई थी

अनीता जी बेहद खूबसूरत, गोल-मटोल , और स्नेही थीं. सूती साड़ियां पहनती थी, जो पुरानेपन से और भी मुलायम हो गयीं थी. काले सफ़ेद बाल, चेहरे पर झुर्रियां थी, जो उन्हें और भी खूबसूरत बना दिया करती थी.  उनकी आँख श्याम जी के बिस्तर से उठते ही खुल जाती थी. रसोई में होने वाली खटर-पटर उन्हें बिलकुल नहीं सोने देती थी. पर वह जानती थीं की श्याम जी अपनी जान से पूरी कोशिश कर रहे हैं की आवाज़ न हो. उनके इस भ्रम को बनाये रखने के लिए, बावन सालों से, वह बिस्तर पर मुँह ढक कर पड़ी रहती थी. जहाँ ६:३० बजे, और वह उठी , चाय की खुशबू आने लगती थी. लेकिन इतने सालों में , कभी भी श्याम जी ने चाय में चीनी डालना न सीखा. चश्मे पर भाप तो बहाना था. अनीता जी नहीं चाहती थी की फीकी चाय पीने पर उनका चेहरा श्याम जी देखें. जब वह गुड़ाई करने चले जाते , तो अनीता जी, चुपके से चाय में चीनी मिला लिया करती. ज़रा सोचिये, ऐसी मोहब्बत जो सालों से फीकी चाय से सुबह की शक्ल देखती हो, और दूसरे की सुबह एक के उठने के बाद ही होती हो.

अनीता जी और श्याम जी, एक दूसरे को तबसे जानते थे, जब से श्याम जी नौ साल के थे और अनीता जी सात की. मोहल्ले में घर आस पास थे, और दोस्ती भी थी. जब श्याम जी वकालत पढ़ने गए, और अनीता जी मीट्रिक करने, तब ही दोनों माँ-बाप ने रिश्ता तय कर दिया. अब न तो उस ज़माने में कोई ऐतराज़ करता था, और न ही  दोनों के पास ऐतराज़ करने की कोई वजह थी. शायद एक दूसरे  की आदत तो थी ही, और कहीं खुद भी पहले ही मान चुके थे, की ज़िन्दगी साथ बिताएंगे. बस कहा नहीं था, न खुद से, न एक दूसरे से. ज़रुरत ही नहीं पड़ी. बारहाल, शादी हुई, और एक दूसरे के साथ ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत गुज़री. एक ही बेटा था, समीर, जो Canada में अपने परिवार के साथ अब रहता था.

दोनों मियाँ- बीबी एक साथ एक रूटीन में बंधे हुए थे. नाश्ता साथ करते. फिर नाहा धो कर अनीता जी ठाकुर जी की पूजा करतीं और श्याम जी बुशर्ट- pant पेहेन कर बाज़ार जाते।  कुछ खरीदना नहीं होता था, बस जाकर दो चार लोगों से मिल आते थे. और क्या करते ? अनीता जी की पूजा तो २ घंटे चलती थी. लौट कर आते तो दोनों बूढ़े या तो पिक्चर देखते या इधर- उधर की बाते करते. आज बाज़ार में क्या हुआ, घर में काम करने वाले वाले मुन्ना ने क्या कहा, डबल रोटी के दाम बढ़ गए हैं, रामायण में आज भरत मिलाप देखेंगे, जैसा काम राजेश खन्ना ने आनंद में किया वैसा कभी नहीं किया, वगैरह.जब तक हर बात एक दुसरे से कह न देते, तब तक दोनों को चैन न आता.  फिर दोपहर का खाना. श्याम जी के हाथ की बानी सब्ज़ी और अनीता जी के हाथों से छुकी दाल. और शाम को खेलते थे पप्लू. ताश की बाज़ी के बीच में कोई कुछ कह दे, या कोई दोस्त ही घर आ जाये, तो दोनों इतना गुस्सा होते थे, जैसे किसी संगीन कारवाही के बीच किसी ने कुछ कह दिया हो. श्याम जी की नाक फूल जाती, और अनीता जी ‘हम्म हम्म्म्म ‘ केह कर बोलने वाले का मुँह सी देतीं. इतने साल हो गए थे. हर बार बाज़ी अनीता जी हारती थी. तब भी दोनों ऐसे खेलते थे जैसे पहली बार खेल रहे हो. शायद दोनों के लिए वक़्त कई साल पहले थम गया था. एक दुसरे के बिना दो पल नहीं ठहर सकते थे. इश्क़ ऐसा, की एक के बिना दुसरे के हलक से निवाला न उतरे. कहते नहीं थे, लेकिन जानते दोनों थे. वरना एक दुसरे के मिनट दर मिनट पर अपनी ज़िन्दगी कोई कैसे चला सकता था? उन्हें किसी तीसरे इंसान की ज़रुरत नहीं थी. शाम को टहलने जाते तो श्याम जी आगे निकल जाते, और अनीता जी धीमे धीमे पीछे चली आती थी. फिर थोड़ी देर आगे जाकर, श्याम जी उनका इंतज़ार करते। और फिर दोनों हाथ पकड़कर एक साथ चला करते. इसे ज़्यादा खूबसूरत रिश्ता शायद ही किसी ने देखा हो. हाथों में झुर्रियां थी, लेकिन साथ में और प्यार में नहीं.

उम्र के साथ यह भी समझ में आने लगता है की जो साथ इतने प्यार से सींचा है, उसका जीवन घट रहा है. बातों में अक्सर चले जाने का ज़िक्र आता था. अनीता जी श्याम जी से कहा करती थी, ‘सुनो अपने सामने ही मुझे भेजना. और ज़यादा शोर शराबा न हो. शान्ति से उठा के ले जाएँ. और यहीं गोमती में बहा देना. कहा हरिद्वार वगैरह जाओगे बेमतलब में’. श्याम जी सर हिला दिया करते, और बात वहीँ ख़तम हो जाती. जवानी में ज़िन्दगी जीने से डरते थे, आज मौत से आँखें मिलाने को जी नहीं चाहता. वह भी जानते थे की उनका शरीर कमज़ोर हो रहा है. बीमार पड़ने लगे थे. आय दिन बुखार, कभी बदहज़मी. उम्र ने आखिर मात दे ही दी थी. यह जानते भी थे और चाहते भी की अनीता जी से मै पहले चला जाऊं. इतने सालों के साथ के बाद, खुदगर्ज़ होना लाज़मी था. एक के जाने के बाद, दुसरे का जीना एक सज़ा से कम नहीं होता। और उस सज़ा को जी जाने की हिम्मत उनमें नहीं थी.

अनीता जी भी श्याम जी के बार बार बीमार पड़ने पर परेशान थी. आजीवन वही ज़्यादा स्वस्थ्य रहे थे. अभी कई बार अस्पताल हो आये थे, भतेरे tests हो चुके थे, लेकिन हर बार  सारि  reports  नार्मल ही आती थी . एक तरफ यह ख़ुशी की बात भी थी, लेकिन फिर बार बार बीमार पड़ने का सबब क्या था?  डॉक्टर्स भी वजह समझ नहीं पा रहे थे. लोग कहते हैं, जो जाना ही नहीं, उससे क्या डरना? लेकिन सच तो यह है, की न जानने वाले कल के आने का खौफ कहीं ज़्यादा डरावना होता है. श्याम जी तो उम्र को दोष देकर, बात टाल दिया करते थे. लेकिन अनीता जी श्याम जी की झेंपी हुई सूरत पर साफ़ देख लिया करती थी, की उन्हें कितनी तकलीफ है. समझ नहीं पा रही थी, की क्या करें.

धीमे धीमे अस्पतालों के चक्कर बढ़ने लगे. समीर से रोज़ ही बात होती थी. दूर बैठे उसे भी पिता की सेहत और माँ की चिंता सताती रहती थी. सभी डरे हुए थे. सभी जवाब ढून्ढ रहे थे. आखिर बात क्या थी? एक दिन डॉक्टरों ने पाया की फेंफड़ों में पानी भरने लगा है. Drainages शुरू हुए. श्याम जी का वज़न एकाएक कम होने लगा. अनीता जी को ऐसा लग रहा था, जैसे ज़िन्दगी और वक़्त उनकी बंद मुठियों के बीच में से फिसल रहे हो. वह समझ नहीं पा रही थी, की क्या करें. लेकिन कहीं न कहीं वह यह ज़रूर समझती थी, की जो आया है, जाएगा ज़रूर. श्याम जी को खोना नहीं चाहती थी, आनेवाले अकेलेपन से डरती भी थी, लेकिन कुदरत और किस्मत के सच को झुटलाने की न तो उनकी गरिमा थी और न ही तबियत. दोनों इस नयी मुसीबत से साथ झूझने लगे. शायद श्याम जी के थके हुए शरीर में जान, अनीता जी का विश्वास और मोहब्बत ही लाते थे. दोनों  ,अस्पताल जाते, अनीता जी procedure room के बाहर राह देखती. वह आधा घंटा काटना उनके लिए ७० साल की ज़िन्दगी से ज़्यादा लम्बा हुआ करता था. तनहा, झुर्रियों वाले छोटे छोटे हाथ, जैसे हवा को टटोला करते. सोने की वह पतली पतली चूड़ियाँ, अस्पताल की ठंडी स्टील की बेंच पर पल पल टकरा जाती. बेसब्री से इंतज़ार रहता श्याम जी के हाथो का. होंठों पर हनुमान चालीसा दबी आवाज़ में चलती रहती. जब तक कमरे से बाहर निकलते हुए श्याम जी नज़र न आ जाएँ. चाहे वह कितनी भी प्रैक्टिकल हों, उस आधे घंटे में, उनकी जान उस procedure room में लेटे श्याम जी में क़ैद रहती थी.

समीर को भी लगा की वह कुछ दिन के लिए Canada से आ जाए. उस शाम उसने अपने पिता के सामने यही सुझाव रखा। ‘ माँ भी थक जाती होंगी. मै आ जाऊँगा और आपको अस्पताल ले जाय करूंगा. माँ आराम से घर पर रुक जाएंगी’. यह बात सुनकर श्याम जी हंस दिए. ‘बेटा , तुम शौक से आओ, लेकिन माँ को घर पर छोड़ने की बात न सोचना. वह नहीं रुकेगी’. समीर यह माँ की हठ समझा, और श्याम जी , अपनी और अनीता जी की ज़रुरत. रात को बेटे से बात कर कर, उसके आने की उम्मीद ने , दोनों मिया-बीबी में एक नया हौसला फूँक दिया. पप्लू की बाज़ियां चलीं. और इतने सालों में, जो कभी नहीं हुआ, उस दिन पहली बार हो गया. अनीता जी एक बाज़ी जीत गयी. विश्वास अनीता जो को भी न हुआ, और तीन बार अपने points गिने. दोनों उस शाम बहोत हसे. रात को खाना खाने के बाद, रोज़ की तरह श्याम जी किताबें पढ़ने लगे, और अनीता जी उनके सिरहाने, उनका हाथ पकड़कर सो गयी. एक दुसरे के हाथों की गर्माहट ने, कितनी सर्दियां पार कराई थी. यह तूफ़ान भी गुज़र ही जाएगा.

अगले दिन, रोज़ सुबह की तरह श्याम जी ४:३० उठ गए और ६:३० बजने का इंतज़ार करने लगे. अनीता जी भी ६:३० उठ गयी. लेकिन उठते ही बोली ‘अरे सुनिए, अभी चाय न बनाइयेगा’. श्याम जी चौंके, ‘क्या बात हो गयी, तबियत ठीक है?’. ‘हाँ ज़रा नहा आऊं’. ऑक्टूबर की बात है, तो सुबह हलकी ठण्ड हो जाया करती थी. ‘ऐसी क्या जल्दी है? चाय पि लो, फिर नाहा लेना’, श्याम जी रसोई की ओर जाते हुए बोले. ‘ मन कर रहा है, नहाय आऊं. बस अभी आयी.’, कहती हुई वह गुसलखाने चली गयी, और अंदर से आवाज़ लगायी, ‘चाय मत बनाना, बेमतलब में फिक न जाए’. श्याम जी कुछ नहीं बोले. बात उन्हें अटपटी लगी, लेकिन जाने दी, और पानी चढ़ा दिया. बाल धो कर अनीता जी बाहर आयीं और बोली, ‘ठण्ड लग रही है थोड़ी’. श्याम जी उनकी तरफ बढ़ते हुए बोले, ‘कहा था ठण्ड है. सुनती हो नहीं. ऊपर से बाल धोने को किसने कहा था? ठण्ड न लग जाए. आओ, थोड़ी देर कमभाल ओढ़ कर लेट जाओ, फिर चाय लाता हूँ.’ अनीता जी मान गयी, और कंभल की ओर बढ़ी. पलंग पर बैठते ही, उन्होंने श्याम जी के काँधे पर सर रख दिया, और श्याम जी उन्हें कंभल ओढ़ाने लगे. जब तक वह उन्हें लेटा पाते, उन्हें अनीता जी का शरीर अजीब तरह से निढाल, बेजान सा लगा. डर से उनकी जान सूख गयी. सांस नहीं आ रही थी. उन्होंने फिर अनीता जी के चेहरे की ओर अपनी नज़र घुमाई. उनकी आखें अनीता जी की मुस्कान ढून्ढ रही थी. लेकिन उनकी नज़रों को अनीता जी के चेहरे का सुकून दिखाई दिया. आँखें बंद, शांत. जैसे वह श्याम जी की बाहों में सो रही हों. श्याम जी ने उन्हें हिलाया, कई बार उनका नाम पुकारा. गाल पर हाथ मारे. ‘देखो बउजी, यह मज़ाक अच्छा नहीं.. चलो उठो. ‘, उन्होंने भर्राते गले से कहा. पर कोई जवाब नहीं मिला. अनीता जी को पलंग पर लेटा कर, जितनी तेज़ी से उनके बूढ़े पेर उन्हें रसोई तक ले जा पाए, वह भागे, और ठंडा पानी लेकर अनीता जी के चेहरे पर छिड़कने लगे. कोई असर न हुआ. फिर उन्होंने उनकी नब्ज़ ढूंढ़ने की कोशिश की. वह भी न मिली. वह समझ नहीं पा रहे थे, की यह क्या हो  रहा था. शायद भड़भड़ी में उन्हें नब्ज़ परखना न आया हो. दौड़ कर पड़ोस में रहने वाले डॉक्टर को बुला लाये. दिल ऐसे धड़क रहा था, जैसे चारों ओर दीवारें उनकी आँखों के सामने गिर रही हों. मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी. किसी के कुछ कहने की आवाज़ें कानों तक नहीं पहुंच रही थी. अभी, ५ मिनट पहले ही तो सब ठीक था. चाय का पानी बस अभी तो चढ़ाया था. क्या हो रहा था यह? सुबह ७ बजे घर में भगदड़ थी. लेकिन क्यों परेशान है सब? अभी उठ खड़ी होंगी अनीता जी. थक गयी होंगी. परेशान भी तो कितनी हैं, इतने दिनों से. डाक्टर साहब एम्बुलेंस बुला रहे थे शायद. १० मिनट में आ गयी. इमरजेंसी डॉक्टर्स अनीता जी की जांच करने लगे. ‘अरे आहिस्ता भाई. चोट न पहुंचे उन्हें’, श्याम जी ने खुद को कहते हुए पाया. पर कुछ नहीं हो सकता था.

अनीता जी उनसे पप्लू की, और और ज़िन्दगी की बाज़ी जीत चुकी थी. पानी अब भी उबल रहा था. जाते जाते, अनीता जी, चाय भी फिकने से रोक गयी थी.

श्याम जी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. जाने की बारी तो उनकी थी न? बीमार तो वह चल रहे थे. कहीं शायद वह मान भी चुके थे, की पहले बारी उनकी आएगी. इसीलिए, अनीता जी से छुप कर एक वसीहत भी बना ली थी, जिसमे सबकुछ उनको ही छोड़ कर जाने का फैसला किया था. उनसे इस बारे में बात कभी नहीं की लेकिन, लगता था बेमतलब परेशान हो जाएंगी. क्या पता था, ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी. अनीता जी को गए हुए हफ्ता भर हो चुका था. अपने हाथों से गोमती में बहा कर आये थे. समीर भी खबर मिलते ही २ दिन के अंदर अंदर आ गया था. घर में भीड़ बढ़ी. आने वाले नसीहते देते, कुछ सांत्वना देते। लेकिन सब एक ही बात कहते , की ऐसी मौत नसीबवालों को मिलती है. जहाँ पति की गोद में, बिना कुछ महसूस करे चले जाओ. जब खुद के हाथ पेर चलते रहैं.

आज ७ दिन बाद, घर में ज़रा सन्नाटा था. समीर भी किसी काम के लिए बाहर गया हुआ था. श्याम जी, अकेले खाने की मेज़ पर बैठे हुए थे. घर जैसे काटने को दौड़ रहा था. सन्नाटा ज़ोर ज़ोर से चीख रहा था. चलना, उठना, बैठना सब दूभर हो गया था. जैसे जान  गयी हो, और बस खोल बचा हो. रोज़ पूछते थे भगवान् से, की जान भी ले ली और ज़िंदा भी छोड़ दिया, क्यों? जानते थे की उन्हें या अनीता जी को यह सज़ा कटनी ही थी. लेकिन जान्ने और जीने में बहोत फर्क होता है. दुनिया की कोई बात आपको इस सफर के लिए तैयार नहीं कर सकती. जो सफर आपको अकेले ही काटना होता है.

अब न तो श्याम जी सुबह ४:३० उठते , न अपने बगीचे का मुआइना करते। फूल भी मनमर्ज़ियों पर खिल रहे थे, जी रहे थे. दो हफ्ते अनीता जी के जाने के बाद, श्याम जी ने फैसला किया, की वह वैसे ही जियेंगे जैसे अनीता जी उन्हें देखना पसंद करती थी. लेकिन श्याम जी की फुर्ती, उनका वज़न, उनका चेहरा, सब फीका पड़ने लगा था. हसी में तो झिझक थी ही, रोना भी अब नहीं आता था. सारा वक़्त जीने में ही गुज़र जाता था. समीर के Canada लौटने वाली रात थी. बेटे के लाख कहने पर भी वह उसके साथ चलने को राज़ी न हुए थे. अनीता जी नहीं थी, लेकिन उनकी महक थी घर में, जिससे लिपट कर श्याम जी सोया करते थे. उनकी खिलखिलाती हुई हसी थी रसोई में, जब वह चौंक लगाने आया करती थी. मसालों में उनकी उँगलियों के निशाँ अब भी थे. एक बार तो अनीता जी को खो ही चुके थे. दोबारा खोने की हिम्मत नहीं थी. खाने की मेज़ पर बोल पड़े, ‘बेटा , चिंता मत करना ज़्यादा. अस्पताल वक़्त पर चला जाया करूंगा, और डॉक्टर साहब घर भी आया करेंगे. और यहाँ दोस्त भी है’. बेटे ने हताश होकर कहा, ‘पापा आप मेरे साथ रहते तो मै  देखभाल कर पाता आपकी. तुरंत न सही, महीने भर बाद आकर आपको यहाँ से ले जाऊँगा’. बेटे के चेहरे की ज़िद ने अनीता जी की याद दिला दी. ‘जैसा तुम चाहो.’ समीर चला गया. उस रात श्याम जी यही सोचते रहे, कितना वक़्त और जीना होगा? बेटे को भी फ़िक्र ही रहेगी. इसी उधेड़ बून में, आँख लग गयी.

समीर रोज़ सुबह शाम फ़ोन किया करता था. पडोसी भी श्याम जी को ज़्यादा देर अकेला नहीं छोड़ते थे . कोई न कोई हमेशा उनके पास रहता था. एक दिन अपने पडोसी से बोल पड़े ‘मैंने बउजी से २ महीने का वादा लिया है. एक महीना तो कट चूका। बस महीना और’.  पडोसी ने यह बात हसी में उड़ा दी ‘क्यों अंकल, हम सब इतने बुरे हैं क्या? इतने सालों बाद आंटी चैन से जी रही होंगी , उन्हें रहने दीजिये’. श्याम जी भी हंस दिए. अगले दिन जब डॉक्टर साहब श्याम जी से मिलने आये, उन्होंने उनसे भी वही बात कही. २ महीने वाली बात. समीर जब महीने बाद लौट कर आया, तो उससे भी दोहराई. समीर रुआंसा होकर बोलै, ‘पापा , मुझपर तरस नहीं आता आपको? अभी तो माँ को खोया है, अब आप तो ऐसा मत कहिये’. ‘सच कह रहा हूँ बेटा. बस एक महीना। तुम्हे तकलीफ नहीं देना चाहता, आगाह करना चाहता हूँ ‘. एक तरफ जैसे जैसे शरीर श्याम जी का साथ छोड़ रहा था, वैसे वैसे श्याम जी की ख़ुशमिज़ाजी, आँखों की चमक लौट के आ रही थी. समीर ने psychologist को भी श्याम जी से बात  करने को कहा. कहीं depression में तो ऐसी बातें नहीं कर रहे थे? पर psychologist ने भी साफ़ कह दिया की श्याम जी को कोई मानसिक रोग नहीं था. जैसे जैसे उस महीने का अंत  पास आता रहा , श्याम जी उतने ही खुश रहने लगे. समीर को डर था की उसके पिता खुद को कुछ कर न लें. शारीरिक रोगों की कहानी चलती रही. समीर ने Canada चलने की बात फिर छेड़ी। ‘क्या फायदा बेटा , अब ज़्यादा दिन नहीं रहे. और अपने घर से ही जाना चाहूंगा’. समीर ने अपनी छुट्टियां बढ़वा ली थीं. १५ दिन से लखनऊ में ही था. पर जैसे जैसे उसके लौटने के दिन नज़दीक आते गए, उसकी चिंता बढ़ने लगी. लौटने के ३ दिन पहले पिता से बोलै, ‘इतनी ज़िद ठीक नहीं है पापा. आप चलिए मेरे साथ. माहौल भी बदलेगा, आपको अच्छा लगेगा. मै नहीं मानता आपकी बात, आप चल रहे हैं बस’. श्याम जी ने फिर महीना ख़तम होने की बात याद दिलाई, तो समीर को गुस्सा आ गया. तुरंत श्याम जी के टिकट्स बुक कर दिए और बोलै ‘बस पापा. मौत का इस तरह इंतज़ार करेंगे आप?’. ‘इंतज़ार नहीं कर रहा हूँ बेटा , तुम्हे बस याद दिला रहा हूँ’. समीर ने उनकी एक न सुनी, और उनके साथ चलने की तैयारी करने लगा.

अगले दिन समीर की आँख ८ बजे खुली. जब वह लखनऊ में रहता था, तो श्याम जी उसे ७ बजे तक जगा ही दिया करते थे. आज ऐसा नहीं हुआ. समीर उठा, हाँथ मुँह धो कर पिता के कमरे में पहुंचा. वह उन्हें लेटा पाया. आज वह बिस्तर की अनीता जी वाली तरफ पर लेटे हुए थे. समीर ने जाकर देखा, तो पिता को गहरी नींद में पाया. रसोई में जाकर अपने और पिता के लिए चाय बनाने लगा. पिता को आवाज़ दी, तो उनका  जवाब आया- ‘सो लेने दे कुछ देर और’.

२ घंटे बाद समीर फिर उनके कमरे में गया, उन्हें जगाने। १० बजे तक तो शायद ही कभी सोये हों. श्याम जी के चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान थी, जैसे कोई मीठा सपना देख रहे हों. समीर ने उन्हें जगाने के लिए उनके हाथ पर हाथ रखा तो उसे बिलकुल ठंडा पाया. समीर डर गया. उसने आवाज़ें लगायी, हाथ पांव मले, पर वो जानता था की कुछ नहीं हो सकता था. पिता के बेजान शरीर को बस एकटक देखता रहा.

एक महीने ख़तम होने में सिर्फ ३ दिन बचे थे. चाय रसोई में ठंडी हो रही थी.

 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

3 comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *