सांस्कृतिक इतिहासकार सदन झा के इस पाठ को उसी तरह से देखा, सुना और महसूस किया जा सकता है जिस तरह से रेणु के उपन्यासों को. सदन झा चरखा के ऊपर अपने शोध को लेकर चर्चा में रहे हैं. एक इतिहासकार के द्वारा किया गया किसी साहित्यिक कृति का यह एक अनूठा पाठ है. यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि महबूब खान की मशहूर सिनेमा मदर इंडिया और फणीश्वर नाथ रेणु का दूसरा उपन्यास परती: परिकथा 1957 में एक मास के भीतर ही रिलीज हुए. मदर इंडिया उस बरस पहले पहल 25 अक्टुबर को बम्बई और कलकत्ता में परदे पर आयी और परती: परिकथा के लिये इससे कुछ पहले 21 सितम्बर को राजकमल प्रकाशन के दफ्तर में दिल्ली में और 28 सितम्बर को पटना में बड़े धूम–धाम से ‘प्रकाशनोत्सव‘ मनाया गया. देश के अख़बारों में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ साथ था. गौर तलब कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी. मदर इंडिया और परती: परिकथा दोनो ही भारत के ग्रामिण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं. मदर इंडिया की कहानी फ्लैश–बैक में चलती है जिसके घटना–क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं जो सन् पचास के नव भारत के सपनो की धरती है. एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका–चौंध हैं.
मदर इंडिया एक औरत की कहानी है, एक गाँव की जो भारत के पूरे उत्तर पट्टी के किसी भी गाँव की हो सकती है. यह एक भारतीय गाँव है. यहाँ स्थान, क्षेत्र और जाति एवं बहुतेरे अन्य विशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है. यहाँ गाँव के परिवर्तन की कहानी बस्तुत: राष्ट्र के विकास की कहानी है.बहुत कुछ सुमित्रानन्दन पंत की कविता ‘भारत माता‘ का भाव लिये हुए जब उन्होने सन् तीस के दशक के अंत की ओर लिखा:
भारतमाता ग्राम वासिनी
खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा–यमुना में अंशुजल, मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी,
दैन्य जरित अपलक नव चितवन, अधरों में चिर निरव रूदन,
युग युग के तम से विषणन, वह अपने घर में प्रवासिनी,
भारत माता ग्राम वासिनी.
भारत की स्वतंत्रता के बाद पंत ने कु्छ पंक्तियाँ और जोड़ी:
सफल आज उसका तप संयम, पिला अहिंसा सतन्यं सुधोपम,
हरति जन–मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननि, जीवन विकासिनी,
भारतमाता ग्रामविसिनी.
(पंत, “भारतमाता“)
एम. एफ. हुसैन की पेन्टिंग कुछ इसी अंदाज में भारत के परिवर्तन और समृद्धि को सेलिब्रेट करता है.
परतीः परिकथा भी एक गाँव के परिवेश के परिवर्तन की कहानी है. यहाँ भी बाँध बनता है, यहाँ भी सपने आकार लेते हैं नेहरुवादी विकासमूलक सपने. परतीः परिकथा के अंत की ओर पाठक एक ऐसे ही जश्न से रुबरु होता है:
पाँचवाँ चक्र: उदघोषक की आवाज–निराश, हताश, कोसी–कवलित मानवों की टोली में जनजागरण ने विद्रोह मंत्र फूँका–धु–तु–तु–तु–तु…! लड़ाई के नक्काड़े बजते हैं. कोसी बह रही है, लहरें नाच रही है. अर्ध–नग्न– जनता का विशाल दल! पर्वत तोड़, हइयो! पत्थर जोड़ हइयो! इस कोसी को साधेंगे… बच्चे मर गये, हाय रे! बीबी मर गयी, हाय रे! उजड़ी दुनिया, हाय रे! हम मजबूर हो गये. घर से दूर हो गये. वर्ष–महीना, एक कर! खून पसीना एक कर! बिखरी ताकत, जोड़कर. पर्वत–पत्थर, तोड़कर. इस डायन को साधेंगे. उजड़े को बसाना है ठक्कम–ठक्कम, ठक्कर–ठक्कर! घटम–घटम, घट–टिड़िरक–टिड़िरक! ट्रैकटरों और बुलडोजरों की गड़गड़ाहट!… लहरें पछाड़ खाती हैं. अट्ट हास! मंच रह रहकर हिलता है. … दर्शकों के मुँह अचरज से खुले हुए हैं. कौन जीतता है–मार जवानो, हइयो! एक डैम की प्रतिछाया परदे पर! गड़–गड़, गुड़–गुड़ गर्र–र्र–र्र–र्र–र्र!…
वीरान धरती का रंग बदल रहा है धीरे–धीरे…हरा, लाल, पीला, वैगनी. …हरे–भरे खेत
(परती: परिकथा, 645-6).
ये किस प्रकार का उत्सव है? क्या इस उत्सव को, इस नेहरुवादी लम्हे को भिन्न रुपों में देखा जा सकता है? इस कोसी, इस डायन, इस वीरान धरती और इसके गाँव में रेणु का वह कौन सा तान है जो हमें भारत के गाँवो को देखने का एक नया नजरिया देता है?
रेणु के गाँव और मदर इंडिया के गाँव में एक बड़ा फर्क है. रेणु के गाँव को उत्तर भारत में किसी दूसरे क्षेत्र में प्रतिस्थापित नही किया जा सकता है.यह कोशी नदी के पूरब का गाँव है, इसे कोशी के पच्छिम भी नहीं सरका सकते. मदर इंडिया और परती: परिकथा दो रूप हैं सन पचास के गाँव पर नेहरुवादी आधुनिकता की औपनिवेशिकता के. मदर इंडिया जिसमें आपकी कल्पना को इज़ाज़त है जगह चुनने की क्योंकि स्थानिकता के विस्तार में जगह की बिशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है. परतीः परिकथा, जहाँ पाठक के स्थातनजनित कल्पना को जगह के इर्द–गिर्द समेटने की कोशिश है. दोनो ही भारत के गाँवो के पिछड़ेपन की कहानी है. एक में औरत के जीवन–चरित के तौर पर, दूसरे में धरती के टुकड़े की. यह पिछड़ा टुकड़ा है पूर्णिया जिला का एक गाँव.अपने पहले उपन्यास, मैला आँचल की भूमिका में रेणु इस धरती से परिचय करवाते हैं–
यह है ‘मैला आँचल‘, एक आँचलिक उपन्यास. कथानक है पूर्णिया. पूर्णिया
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