अशोक कुमार पांडे संवेदनशील कवि ही नहीं हैं एक सजग कथाकार भी हैं. उनकी इस कहानी में हाशिए के लोगों का जीवन है, उसकी तकलीफ है- जानकी पुल
झिर्रियों से आ रही हवा किसी धारदार हथियार की तरह जख़्मी कर रही थी। गोमती ने साड़ी का पल्लू चेहरे पर लपेट लिया और बाबू को और कस के भींच लिया। रामेसर ने बीड़ी सुलगा ली थी। गोमती का मन किया कि मांग के दो कश लगा ले तो थोड़ी ठंढ कटे। यह सोच कर ही उसके होठों पर एक हल्की सी मुसकराहट तैर गयी…बचपन में दादा बीड़ी सुलगाने के लिये देते तो चूल्हे से सुलगाने के बहाने दो फूंक मार लेती थी और कभी-कभी बूआ के साथ बंडल से दो बीड़ी पार करके नहर उस पार की निहाल पंडिज्जी की बारी में बुढ़वा पीपल के पीछे…पीपल का ख़्याल आते ही जैसे ढेर सारा कड़वा थूक मुंह में भर आया हो…एकदम से पूछा, ‘केतना घण्टा और लगेगा’…रामेसर ने बीड़ी का अंतिम कश खींचा और फिर ठूंठ को खिड़की से रगड़ते हुए बोला, ‘दू बज रहा होगा…सात बजे का टाइम है…सो काहे नहीं जाती?’…’नींद नहीं आ रहा है’…उसने ठंढ का जानबूझकर कोई जिक्र नहीं किया था। ‘काहें घर का याद आ रहा है का’ रामेसर ने मफ़लर को और कस के लपेटते हुए पूछा। ‘नाहीं’…उसने ऐसे ही चारो तरफ़ नज़रें फिराईं। डब्बा खचाखच भरा हुआ था। खिड़की के पास को दो सीटों में खुद वे चार जन सिमटे हुए थे। बीच की जगह में एक बूढ़ा आदमी अधलेटा सा हो गया था। रास्ते में चार–पाँच लोग, बगल की लम्बी सीटों पर छह–छह लोग जमें थे और उनके बीच तीन लोग टेढ़े–मेढ़े होकर पड़े हुए थे। ऊपर की सीट पर चार–पांच लोग उकड़ू होकर बैठे थे। बच्चों की तो गिनती ही नहीं। गोमती को बहुत ज़ोर से पेशाब आ रही थी लेकिन पिछले आधे घंटे से कई बार गैलरी का नज़री मुआयना कर लेने के बाद उसकी हिम्मत जवाब दे गयी थी। उसे पिछले साल की रैली की याद आई। रामनक्षत्तर ट्रालियों में भरकर ले गये थे बहन जी की रैली में। सुबह आठ बजे के निकले बारह बजे पहुँचे थे सब लोग लखनऊ। कितने सारे आदमी–औरत। जहां तक देखो बस लोग ही लोग। रामनक्षत्तर बता रहे थे चार लाख लोग पहुंचे थे। गरमी का दिन। आसमान से जैसे आग़ बरस रही थी। दूर–दूर तक न पानी न खाना। चार बजते–बजते हालत ख़राब हो गयी थी। मर्द लोग तो वहीं किनारे शुरु हो गये अब औरतें कहां जायें? सब की सब बस एक–दूसरे का मुंह देखें और मुस्करायें। बहन जी ने क्या कहा कुछ समझ नहीं आया। एक बार तो मन किया कि वहीं किनारे बैठ जायें। लेकिन गांव–जवार के सारे बड़े–बुजुर्ग और लौंडे अलग। आठ बजे जब ट्राली लौटना शुरु की और लखनऊ से बाहर निकली तब जाकर शांति मिली। सात बजने में अभी पाँच घण्टा है! शायद सुबह लोगों की नींद खुले तो कुछ जगह बने। बाबू फिर से कुनमुनाया तो गोमती ने उसे खींच कर चिपका लिया।
रामेसर ने बंडल निकाला तो बस तीन बीड़ियाँ और बची थीं। जबसे स्टेशन पर बीड़ी–सिगरेट मिलना बंद हुआ है आफ़त हो गयी है। बारह–पन्द्रह साल के लौंडे बेचने आते हैं और तीन रुपये की बीड़ी पाँच–दस रुपये में देते हैं, माचिस का भी दो रुपया मांगते हैं। इसीलिये निकलने से पहले ही उसने दो बंडल रख लिया था। लेकिन अठारह घंटा का रास्ता। अब ख़ाली रहो तो और मन करता है। अभी चार–पाँच घंटा है। लेकिन रात में तो कोई बेचने वाला भी नहीं आयेगा। और एक तो बचानी ही होगी नहीं तो सबेरे–सबेरे समस्या हो जायेगी। उसने बंडल वैसे ही अंटी में डाल लिया। चलने से पहले मन में जितना उछाह था शहर के पास आने के साथ–साथ मन उतना ही घबरा रहा था। खदान का काम, न ढंग का घर न दुआर, जंगल में दिन रात…कैसे रहेगी गोमती? खेती–बारी की बात और है लेकिन यहाँ तो दिन रात पत्थरों के बीच खटना है…न खाने का कोई टाइम न सोने का। ऊपर से बस्ती का माहौल। उसको तो शराब की महक से घिन आती है और यहां तो दिन–रात शराब बनती है। कैसे रहेगी उस महौल में? और बच्चे? कैसे पलेंगे? बाबू तो अभी तीन बरस का है और बबलू 8 का…यहां कहां स्कूल वगैरह। और मालिक तो ऐसा जबर कि बबलू को भी खटाने के लिये कहेगा। लेकिन बबलू को नहीं करने दूंगा काम। क्या करें कोई चारा भी तो नहीं। जब तक बाबूजी थे सहारा था। अब गांव में भी अकेली औरत जात कैसे रहेगी? पट्टीदारों का क्या भरोसा? साथ रहके तो एक की कमाई में भी चार पेट पल जायेंगे पर यहां से पैसा भेजना कहां मुमकिन है? और गांव में तो अब मज़दूरी भी नहीं है। ज़मीन धकाधक शहर के सेठ लोग ख़रीद रहे हैं और खेती का जो थोड़ा बहुत काम है भी, सब ट्रैक्टर और थ्रेसर से हो रहा है। सोचते–सोचते दिमाग भन्ना गया। एक बीड़ी और सुलगा ली। बबलू ने नींद में बैठे–बैठे करवट ली तो हाथ उसकी गरदन से लिपट गये। कितने सुंदर हाथ। जब नयी–नयी आयी थी गोमती तो बिल्कुल ऐसे ही हाथ थे। नरम–नरम। अंधेरे में छूओ तो जैसे कोई खरगोश…दस साल में क्या से क्या हो गया! खेत बिके, मज़दूरी गयी, पहले अम्मा…फिर बाबूजी और अब गांव भी छूट गया। मज़दूरी करते-करते हाथ पत्थर हो गये और घर की शोभा अब खदान में खटेगी! हाय रे तक़दीर…जाने क्या-क्या लिखा है भाग्य में। कितना सोचा कि चार पैसे इकट्ठा हो जायें तो कोई ढंग का काम कर ले। कहीं चौकीदारी ही मिल जाये…लेकिन अब क़िस्मत में पत्थर तोड़ना ही लिखा था तो क्या करे? तीन साल में दो-दो मौत। सारी जमा-पूंजी हवा हो गयी। शहर में काम करने जाओ तो एक कमरे का किराया ही पाँच-सात सौ पड़ जाता है। बिना जमानत रखे कोई काम नहीं देता। पहले महीने की पगार जमानत रखो तो दो महीने खायेंगे कैसे? लेकिन अब दो जन हो गये और गांव का कोई चक्कर भी नहीं रहा तो साल-छह महीने में तीन-चार हज़ार बचा लेंगे। फिर चौकीदारी कर लूंगा किसी बिल्डिंग में। वहीं दो-चार घर का काम कर लेगी गोमती भी। बच्चों को स्कूल में डाल देंगे। सब ठीक हो जायेगा…बीड़ी खत्म होते-होते ख़्याल सुलझने लगे तो मन शांत हो गया। खिड़की से बाहर देखा तो सूरज की लाली उभरने लगी थी। सरसों के खेतों के उस पार सूरज धीरे-धीरे आंखे खोल रहा था। पीली सरसों ने मन में पुरानी हूक जगा दी। अभी चार साल पहले तक अपने खेत में उगती थी सरसों। पाँच कट्ठा का नहर किनारे का खेत। अम्मा सरसों देखतीं तो निहाल हो जातीं… कहतीं … जैसे नई बहुरिया आई है पीयरी पहिन के…कटते ही बुकुआ पीसतीं…बबलू को रगड़-रगड़ के लगातीं…सरसों का तेल और बुकुआ। पूरे घर में महक भर जाती। … देखते ही देखते खेत पीछे छूट गये और मकानों की बेतरतीब भीड़ उभरने लगी। यह सफ़र भी ज़िंदगी के सफ़र जैसा ही है…ख़ूबसूरत चीज़ें कितनी जल्दी बीत जाती हैं! उसने खिड़की से निगाहें हटा लीं।
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दद्दा ने खिड़कियों से निगाहें फेरी तो फिर मन में भूचाल आने लगा। वही सपना बार–बार खुली आंखों के सामने घूमने लगा। सारे खेत में सरसों खिली है, पीले–पीले फूल यहां से वहां तक दानों के आने की ख़बर लिये खिलखिला रहे हैं और तभी अचानक चारों तरफ से बड़ी–बड़ी मशीनें…जैसे राक्षसों की सेना ने ब्रज पर हमला बोल दिया हो! देखते–देखते पूरा खेत उजड़ रहा है…दद्दा उनके पीछे–पीछे भाग रहे हैं बदहवास से चीखते हुए… पर कोई फायदा नहीं। मशीनों के शोर में उनकी आवाज़ कहीं नहीं सुनाई देती…सारे ड्राईवर ज़ोर–ज़ोर से अट्टाहास कर रहे हैं…अचानक उनमें से एक पीछे मुड़कर देखता है…संतोष! दद्दा की चीख निकल जाती है…कितनी रातों से बस यही एक सपना। न सोने देता है– न जगने देता है। बिस्तर जैसे दुश्मन हो गया है। देखें तो कौन सी कमी है? महल जैसा घर, नौकर–चाकर, गाड़ियां, रोब–रुतबा सब तो है, लेकिन दद्दा तो वही ढ़ूँढ़ते हैं जो छूट गया पीछे। घड़ी में देखा तो अभी पांच बजे थे, इस घर में सात बजे से पहले कोई नहीं उठता। गांव होता तो अब तक कितना काम निपट चुका होता। यहां तो कोई काम ही नहीं। एकाध बार संतोष खदान पर ले भी गया तो इतनी धूल, इतना शोर कि दद्दा टिक ही नहीं पाये। जब तक भैंस थी कुछ मन लगा रहता था लेकिन अगल–बगल के घरों से गोबर की बदबू की शिक़ायत आई तो संतोष ने उसे भी बेच दिया। गोबर से बदबू? कैसे लोग हैं यहाँ के…पानी वाला दूध पी लेंगे लेकिन गोबर की बदबू नहीं बर्दाश्त कर सकते! इतने बड़े–बड़े घर लेकिन एक जानवर के लिये जगह नहीं। पालेंगे भी तो कुत्ते! और वे भी कैसे–कैसे? कोई चोर डपट भी दे ज़ोर से तो मिमियाते हुए अंदर चले जायें।
सात बरस हो गये थे गांव छूटे पर अब तक शहरी नहीं हो पाये दद्दा। दद्दा यानि रामबरन सिंह गूजर…जिसके साठ बरस ग़ुज़रे हों खेत, जंगल और जानवरों की ख़ूशबू के बीच उसे सात बरस का शहर कैसे भाये? कितना कहा संतोष से कि दस–बीस बीघा खेत छोड़ दे…वह यहाँ खदान संभाले और मैं गांव पर रहकर खेती संभाल लूंगा…औरों ने भी तो यही किया। लेकिन एक नहीं सुनता संतोष। उसकी भी ग़ल्ती कहाँ है…डरता है बेचारा? चारों तरफ़ जो नये–नये डकैत पैदा हो गये हैं किसी को भी पकड़ ले जाते हैं। अब कहाँ होती है पहले जैसी डकैती…अब तो नाम के डकैत हैं लेकिन काम है पकड़ का…किसी पैसे वाले के घर से एक आदमी को उठा लो और दस–बीस लाख वसूल लो। पुलिस–थाना तो बस दलाली के काम आते हैं। देखते–देखते सब बदल गया…
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ई भी कोई जिन्नगी है? रात–दिन बस पत्थर ही पत्थर…हवा में पत्थर…पानी में पत्थर…पसीने में पत्थर…और धीरे–धीरे सबके कलेजे में भी भरता जा रहा है पत्थर। इंसान तो कोई लगता ही नहीं है यहाँ। सब जैसे भूत की तरह बिना पांव के चलते–फिरते बिजूके लगते हैं। काम–काम–काम। सबेरे मुह अंधेरे जो खटना शुरु होता है तो घण्टे–मिनट की कोई गिनती ही नहीं! शाम ढलते सब नशे में चूर…दिन भर काम का नशा तो रात भर शराब का। चीख–चिल्लाहट–लड़ाई–रोना–धोना…ऐसा लगता है साक्षात नरक में रह रहे हैं तीन सौ पापियों और एक यमराज के साथ…यमदूत भी हैं आठ–दस। ज़रा सा गड़बड़ हुई नहीं कि पैसा काट लेते हैं। छह महीने से दोनों जन खट रहे हैं…अभी तक एक हज़ार भी जोड़ नहीं पाये।
और लाज–लिहाज, इंसानियत की तो पूछो ही नहीं। एक बार नशा चढ़ा नहीं कि कौन किसका हाथ पकड़ ले, कौन किसकी साड़ी खींचने लगे…कुछ पता नहीं चलता। औरत–मरद सब नशे में धुत। करें भी तो क्या? न पीयें तो दिन भर की थकान मार डाले। कैसे टीसता है बत्ता–बत्ता देह का… कई बार तो सच में मन करता है कि कुल्हड़–दो कुल्हड़ ढरका लें। लेकिन औरत को शराब पीना अच्छा लगता है क्या? इनकी तरह थोड़े हैं हम? गांव–जवार है, नाते–रिश्ते में पढ़े–लिखे लोग हैं…अरे वह तो वक़्त ख़राब चल रहा है वरना…। लेकिन इसी में सड़ना नहीं है जिन्नगी भर। थोड़े पैसे और जुट जायें तो बाहर निकलें। शहर में कोई ढंग का काम करेंगे…बच्चों को पढ़ायेंगे–लिखायेंगे।
सबसे ज्यादा चिंता बच्चों की ही होती है। दिन भर आवारों की तरह घूमते रहते हैं। यहाँ तो ज़रा-ज़रा से बच्चे बीड़ी पीते हैं…दिन भर यहाँ-वहाँ से ठूंठ इकट्ठा करके फूंकते रहते हैं…अब मां–बाप को तो फ़ुर्सत है नहीं…पता नहीं कौन-कौन सी रहन सीख रहे हैं। न आस-पास कोई स्कूल…न कोई बड़ा-बूढ़ा…अपनी जिन्नगी तो हो ही गयी बर्बाद…पता नहीं इन बच्चों का क्या होगा? सीबू सही कहता है – क्रेशर नहीं है यह नर्क की आग है…किसी पिछले नहीं इसी जन्म के पाप का फल है यह…एक ही पाप है सबका…ग़रीबी…किसी का खेत छिन गया…किसी की फैक्ट्री बंद हो गयी…कोई सूखे में फंस गया…कोई बाढ़ में…और यह नर्क सबको लील गया…और इस नर्क से बाहर निकलने का बस एक ही रास्ता है…मौत…टीबी से खांसते–खांसते एक दिन प्राण निकल जायेंगे और उसके बाद ऊपर का नर्क मिलेगा…क्योंकि वहाँ भी स्वर्ग तो रईसों के लिये रिज़र्व होगा न भाई…’ वैसे तो बोलता ही नहीं है सीबू…चुपचाप खटता रहता है…गाली, मज़ाक, हंसी किसी का कोई फ़र्क नहीं पड़ता उस पर…लेकिन एक बार पौआ अन्दर चला जाये तो फिर बोलता ही जाता है…
कितना मासूम सा लगता है सीबू…लोग बताते हैं कि बस्तर से आया था…पढ़ा–लिखा भी था…लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि गांव ही उजड़ गया…बाप और भाई को पुलिस ने नक्सली बता कर जेल में डाल दिया और यह अपनी पत्नी के साथ यहाँ भाग आया…दोनों मियाँ–बीबी जम के मेहनत करते थे और फिर चुपचाप झोपड़े में सो जाते थे…आदिवासी होने के बावज़ूद दारू को हाथ नहीं लगाता था सीबू…कहता था कि थोड़े पैसे इकट्ठा हो जायें तो बंबई चला जायेगा…कोई ढंग का काम करेगा…लेकिन…कहां निकल पाया इस नरक से…बताते हैं कि उसकी बीबी की तबियत ख़राब थी उस रात…शहर गया था दवा लाने…लौटा तो कहीं नहीं मिली…क्रेशर में नहीं…आस–पास नहीं…कहीं नहीं…पागलों की तरह खोजता रहा…पर नहीं मिली वह तो नहीं मिली। लोग बताते हैं कि सुपरवाइजर की नज़र थी उस पर…वही उठा ले गया था उसे उस रात।
वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी यह। साल में चार–पांच ऐसी घटनायें हो ही जाती थीं। अभी पिछले महीने रामनिवास की जवान बेटी पूरे हफ़्ते के लिये गायब हो गयी थी। शुरु में दो–तीन दिन तो मियाँ–बीबी बहुत परेशान रहे। फिर चुप लगा गये। तक़दीर वाले थे कि एक हफ़्ते बाद लौट आई। सबको सब पता था लेकिन बोला कोई नहीं।
कैसी दुनिया है यह? इस सुपरवाइजर कों जितनी बार देखती हूँ निहाल पंडिज्जी का लौंडा याद आ जाता है…और मन काँप जाता है…हे देवी माई रच्छा करना हमारी..हे डीह बाबा…
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चौथा पैग हलक से नीचे उतर चुका था। रामदीन अभी तक लौटा नहीं था। संतोष ने गिलास मेज़ पर रखी और बाहर निकल आया। आसमान में न चाँद दिख रहा था, न तारे…दूर-दूर तक घुप अँधेरा। बाहर जलते बल्ब की रौशनी दो-चार कदम चलकर भटक सी गयी लगती थी। उसी भटकी सी रौशनी में पेड़ों की छायायें पसरी पड़ी थीं…बीच-बीच में कुछ जंगली आवाज़ें आकर ख़ामोशी और अंधेरे से चुहल करतीं। लेकिन जंगलों में रहते-रहते इन आवाज़ों की ऐसी आदत पड़ जाती है जैसे ग़र्मियों के दिनों में पंखे की आवाज़ की। संतोष ने उचटती हुई सी एक निगाह इधर-उधर डाली और फिर कमरे में आकर बैठ गया।
ये रामदीन कहाँ मर गया साला। इसकी आदतें भी दिन ब दिन ख़राब होती जा रही हैं। कैसा सीधा-साधा सा था गांव में…भैंसों के साथ घूमने और पेट भर जीमने के अलावा कोई काम नहीं था इसे। जबसे खदान पर लगाया है साले के पर निकलते जा रहे हैं। दिन भर मस्ती करता रहता है…लौंडियाबाजी की ऐसी आदत लगी है कि हरामी सबके कान काट रहा है। पहले डरता था थोड़ा…लेकिन अब तो पूरा खुर्राट हो गया है। सुपरवाइज़री सर पर चढ़ गयी है। साले को सीधा करना होगा। लेकिन आदमी है काम का। अफसरों को पटाने में ऐसा माहिर की पूछो मत। कितना भी टेढ़ा रेंजर हो…बस एक बार साले के हत्थे चढ़ जाया…शीशे में उतार के दम लेता है। बस इस बार नहीं चल पा रही है बिल्कुल…ऐसा अफ़सर आया है कि किसी भी तरह वश में नहीं आता…न शराब की लत, न औरत की और न पैसे की भूख। चारो तरफ़ से ज़ोर लगाके देख लिया…कोई असर नहीं। कहता है सारी अवैध खदाने बंद करा दूंगा…साला बाप का राज़ है क्या? ऊपर से नीचे तक सबको खिलाते हैं तब जाकर चलती है खदान…सात साल लग गये जमाते–जमाते और अब कहता है साला कि बंद करा देंगे। बंद की मां की…। मुंह में जैसे कुछ कड़वा सा भर गया। भीतर गया और सीधे बोतल से ढेर सारी शराब भीतर उतार ली। फिर वहीं सोफे पर बैठ गया। सिगरेट निकाली और एक लंबा कश गले से नीचे उतार कर ढेर सारा धुंआ एक साथ बाहर निकाला। धुंए के साथ जैसे तमाम कड़वाहट भी पूरे कमरे में घुल गयी।
कैसे बीत गये सात साल…जब गांव में था तो जैसे दुनिया बस उतनी ही थी। घर से खेत…बहुत हुआ तो कभी–कभी तहसील तक…वह भी बाबूजी ही संभालते थे ज़्यादा…कहते गरम सुभाव से पटवारी–गिरदावरों से नहीं निपटा जाता। लट्ठ से लड़ना हो तो पचास से लड़ लो…काग़ज़ों की लड़ाई किसानों के बस की नहीं। लेकिन बाबूजी नहीं जानते थे कि वक़्त कैसे सिखा देता है सब… योजना आई गांव में तो सब भड़भड़ा गये…ज़मीन जा रही है…सुनकर जैसे सबके प्राण निकलने लगे…लेकिन मैने देखा कि कैसे यह योजना तक़दीर बदल सकती है हमारी…सरकार से लड़ना कोई बच्चों का खेल है क्या? पटवारी से लेकर तहसीलदार तक दौड़ लगाई…ऊसर ज़मीनों को रातोरात काग़ज़ में ऊपजाऊ बनवाया… पूरे अस्सी लाख वसूले…बाकी ज़मीनें बेच डालीं…और आज देखो…शहर में आलीशान मकान, गाड़ियाँ…सजे–संवरे बच्चे…और हर महीने दो–तीन लाख देने वाली खदान! बर्बाद होते हैं ग़रीब–गुर्बे और बेवकूफ़…जिसके पास दिमाग़ है वह रास्ता निकाल ही लेता है। वही चीज़ जो दुनिया के लिये तबाही है आपके लिये वरदान बन सकती है…बस दिमाग़ तेज़ करना पड़ता है और चमड़ी सख़्त! बस कभी–कभी बाबूजी को देख कर दुख होता है…आज तक गांव से पीछा नहीं छुड़ा पाये…कितनी कोशिश की कि खदान पर आने–जाने लगें। बूढ़ा आदमी हो तो अफ़सर भी थोड़ा शर्म करते हैं। लेकिन यहां आये तो लगे सबसे हाल–चाल पूछने…कहते…’संतोष…ये सब भी हमारी तरह कहीं न कहीं से उजड़ के आये हैं’…हद है…ये साले मरभुक्खे अब ‘हमारी तरह’ हो गये? उजड़ें साले भिखमंगे…हम काहे के उजड़े? … चार दिन भी कभी रह नहीं पाये यहां। अच्छा ही हुआ…रहते तो हर बात में अड़ंगा लगाते…
लेकिन ये रामदीन साला कहाँ मर गया…न जाने किस इंतज़ाम में लगा है? अगर नहीं कर पाया कुछ तो…
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अब इंतज़ाम तो मुझे ही करना पड़ेगा न इस अफ़सर का। भैया ने तो कह दिया कुछ भी करो ख़रीदो साले को…कैसे भी करके निपटाओ…आज के आज…इतना आसान होता है क्या? साला कल का लौण्डा भले है पर है इमान का काटा। हाथ नहीं रखने देता। इतने दिन से आजमा के देख लिया पर एक कमज़ोरी नहीं पकड़ आई। शादीशुदा होता तो साले के बच्चों की ही पकड़ करा देता…लेकिन ये ठहरा अकेला मुस्टण्ड। इंतज़ाम नहीं किया तो सारी खदाने बंद करा देगा। विधायक जी से कहा कि ट्रांसफर करा दो तो साफ मुकर गये – ‘केंद्र सरकार का मुलाजिम है…हमसे कुछ नहीं होगा।’ और एम पी की गूजरों से पुरानी दुश्मनी। उसे तो मज़ा आ रहा है कि इसी बहाने एक साला निपटे।
लेकिन जब तक रामदीन है भैया को निपटाना किसी के बस की बात नहीं। और ख़ाली नमक की बात थोड़े है…खदान बंद हो गयी तो हमारा क्या होगा? खदान है तो हैं हम सुपरवाइजर…खदान है तो है यह गाड़ी, पैसा, दारू और लौंडिया। खदान बंद हुई तो सब बंद। अब तो मजूरी भी नहीं होगी कि फिर से वही रामदीन किसान बन जायें! जिन हाथों को दारू और पैसे की चाव लग जाय उनसे फिर कुदाल और भैंस की रस्सी नहीं थामी जाती। निपटाना तो होगा साले को…और वह भी आज की ही रात.
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कहाँ फँस गया…जब नौकरी मिली तो कितना कुछ सोचा था. आई ए एस नहीं बन पाने की हताशा आई एफ एस ने दूर कर दी थी. सोचा था इसी बहाने अपने देश का हर कोना देख पाऊँगा करीब से…जंगल…उनमें रहने वाले लोग…इस देश का असली चेहरा. खुद से वादा किया था कि कभी बेईमानी नहीं करूँगा…लेकिन यहाँ? यहाँ बेईमानी कोई शब्द नहीं है बल्कि रोज ब रोज की जिंदगी का हिस्सा है. जो बेईमान है वही सामान्य है और हम जैसे लोग बस एक अपवाद हैं जिन्हें हर कोई जल्दी से जल्दी निपटा देना चाहता है. सब लिप्त हैं इस खेल में … ऊपर से नीचे तक सब. जंगल काट-काट के धरती को वीरान बनाते जा रहे हैं. अवैध खदानों ने सारे पर्यावरण को नष्ट कर दिया है. कहाँ-कहाँ से मजदूरों को लाकर उनसे अमानवीय तरीके से मज़दूरी कराई जा रही है. अम्पटन सिंक्लेयर का जंगल याद आता है इन्हें देखकर.
क्या कर रहे हैं यहाँ हम जैसे सरकारी अधिकारी? कहने को पूरी व्यवस्था है – पुलिस, जंगलात महकमा, पर्यावरण विभाग, राजनैतिक दल, एन जी ओ…सब तो हैं. लेकिन सब जैसे एक ही उद्देश्य से…कितना दोहन किया जा सकता है इन जंगलों का. सुनता हूँ कभी इतने पेड़ थे कि दिन में भी सूरज की रौशनी जमीन तक नहीं पहुंचती थी. आज सिर्फ नाम है जंगल का…जंगल जैसे पत्थर का जंगल है…जंगल जैसे अन्याय का जंगल है…जैसे लाशों का जंगल है. मुझे लगता है जैसे हम सब काफ्का आन द शोर के उन सैकड़ों बरस के सैनिकों की तरह हैं जो जंगल और शहर के बीच न जाने किसकी रखवाली कर रहे हैं. लेकिन वे तो युद्ध की विभीषिका से भाग कर रुक गए थे उन जंगलों में…और हम? एक पूरा का पूरा देश पलायित हो गया है अपने ही उद्देश्यों से…एक पूरी की पूरी व्यवस्था बिच्छू के बच्चों की तरह अपनी ही जड़ों को कुतरने में लगी है. एक बफर ज़ोन हैं हम. अंदर की बात अंदर रहे और उस पर वैधानिकता की मुहर लगती रहे इसके लिए मिलती हैं हमें इतनी सुविधाएँ. जहाँ किसी सच को बाहर लाने की कोशिश करो…सब नाराज़. उन ग़रीबों के चेहरे देखता हूँ तो जैसे अंदर से कुछ टूट सा जाता है. कौन सी आजादी है इनके हिस्से? कौन सा लोकतंत्र? न जाने कहाँ-कहाँ से लाकर डाल दिए गए हैं इस धमनभट्टी में जहाँ से कोई ज़िंदा नहीं निकल सकता.
क्यों नहीं है कोई इनकी बात करने वाला? सबकी शिक्षा की बात करने वाली सरकारें यहाँ एक स्कूल भी नहीं खोल सकतीं? लेकिन स्कूल खोलना तो इस बात की गवाही हो जायेगी कि यहाँ इंसान रहते हैं…जबकि सरकारी कागजों में तो यहाँ न कोई खदान है न कोई इंसान…बस जंगल है जिसमें पेड़ हैं…पेड़ों के कटने पर तो फिर भी सज़ा है लेकिन इन बेदखल दोपायों के कटने पर तो कोई सज़ा भी नहीं. ठेकेदार और उसके कारिंदे इस जंगल के शेर हैं…शेर नहीं भेडिये… जब जिसे चाहें दबोच लेते हैं. सरकारी अधिकारी उनके ज़रखरीद गुलाम. अब ऐसे हालात में अगर वह सीबू कहता है कि ‘साहब भैया और बाबूजी को तो पुलिस ने झूठ में नक्सली बताकर पकड़ लिया था…मेरा मन करता है सच में बन्दूक मिल जाए कहीं से तो सालों को भून डालूँ’…तो क्या करूँ मैं? क्या समझाऊं? अब तो सचमुच लगने लगा है कि व्यवस्था के भीतर से कोई बड़ा बदलाव कर पाना संभव नहीं.
वह दो टके का सुपरवाइजर रामदीन जब मुझे धमका के चला जाता है तो इन बेचारों की क्या मजाल? दरोगा से लेकर एस पी तक सब कहते हैं कि इन लोगों से पंगा मत लो…क्या करूँ? अफसरों से कहा तो वे भी बस कागजी खानापूरी से आगे नहीं जाते…कभी-कभी सच में डर लगता है. हर किसी पर संदेह होता है. लेकिन किया क्या जा सकता है? रोकना तो होगा ही यह सब…हर हाल में…कल की सुबह बहुत महत्वपूर्ण है. अल्लसुबह शहर से पूरी टीम आ जायेगी…फिर रेड करेंगे…सीबू, रामेसर, गोमती…ये सब सरकारी गवाह बनेंगे. सारे बंधुआ मज़दूरों को छुडा लिया जाएगा…कल सुबह…कल ही…
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सुबह-सुबह थाने में बड़ी उथल-पुथल थी उस दिन. जिस रेंजर की ईमानदारी के किस्से दुनिया भर में मशहूर थे वह आज बलात्कार और हत्या के जुर्म में अंदर था. कितने पत्रकार…कितने सारे फोटोग्राफर…कैसे-कैसे लोग…जैसे मजमा लगा था. पुलिस के बड़े-बड़े अफसर आये थे…बदहवास रामेसर एक कोने में बैठा था…बड़े साहब बता रहे थे – ‘कल देर रात किसी का फोन आया था कि रेस्ट हाउस में कुछ गडबड है. हमलोग सूचना मिलते ही पहुंचे तो देखा कि रेस्ट हाउस का दरवाजा खुला पड़ा है. अंदर बिस्तर पर रेंजर साहब बेहोश पड़े हैं और एक औरत बिलकुल नंगी पडी है बिस्तर पर. नब्ज देखी तो मर चुकी थी. पूरी देह पर खरोंच के निशान थे और साफ़ लग रहा था कि बलात्कार के बाद गला घोंट
Tags ashok kumar pandey
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अच्छी, रोचक और भयावह यथार्थ से रू-ब-रू कराती कहानी.
waah
कहानी बहुत मार्मिक तथा विस्तृत फलक वाली है। अपने समय और यथार्थ से मुटभेड़ करती है। बहुत बारीकी से वैश्वीकरण के फलस्वरूप गाँवों में आ रहे परिवर्तन को रेखांकित किया है। भले ही आज नई अर्थव्यवस्था ने किसान को अपने गाँव से पलायन करने के लिए विवश किया है पर अपनी जमीन के प्रति उसके प्रेम को वह समाप्त कर नहीं पायी है । शहर और गाँव को लेकर किसान मन के अंतद्र्वंद्व तथा गाँव छूटने की पीड़ा को यह कहानी बहुत अच्छी तरह से उभारती है। किसान की मजदूर बनने की मजबूरी और मजदूर के शोषण की दास्तान अच्छी तरह से व्यक्त हुई है। एक बात और जो इस कहानी में उभर कर आयी है वह है आदमी की संवेदना का सूखते जाने से उसका पत्थर होना। कहानी का अंत मर्म को भेदने वाला है जो आज के समय के कटु यथार्थ से हमारा परिचय कराता है। एक अच्छी बात और है कि वर्तमान की विसंगति और विडंबनाओं का इस तरह चित्रण किया गया है कि कहानी यथास्थिति के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करती है। बदलाव के विकल्प की और भी संकेत करती है।
कहानी में एक सहज प्रवाह है। पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है कहीं कोई रूकावट नहीं है ,कहानी खत्म होने तक पाठक दम नहीं लेता है । यह एक कहानी की सफलता है। कहानी में भरपूर काव्यात्मकता है ,पढ़ते हुए कविता का सा आस्वाद प्राप्त होता है
आपका
महेश चंद्र पुनेठा
बहुत सुन्दर और सशक्त कहानी …जमीनी हालतों से रूबरू करती आज की गावों से शहरों की और उसमें भी किस तरह रहें इंसानी परिद्रश्य की घुमती समय की सुई को बहुत सटीक शब्दों का रूपांतरण दिया है अशोक भाईजी ने ……बधाई उनको …और आप को धन्यवाद प्रभात जी ..शेयर करने का !!!!!!!Niraml Paneri
कोलाज की शैली में लिखी यह कहानी भिन्न संवेदना से लबरेज है। आज जब भाषा के खेल को कहानी के रूप में प्रयोजित करने का चलन बढ़ रहा है, यह कहानी अपने कथ्य से सशक्त हस्तक्षेप करती है। अशोक बाई को ढेर सारी बधाईयां… प्रभात भाई का आभार