Home / ब्लॉग / देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के लेख पर पहले कवि-संपादक गिरिराज किराडू ने लिखा. अब उनके पक्ष-विपक्षों को लेकर कवि-कथाकार-सामाजिक कार्यकर्ता अशोक कुमार पांडे ने यह लेख लिखा है. इनका पक्ष इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि श्री मंगलेश डबराल अपनी ‘चूक’ संबंधी पत्र इनको ही भेजा था और फेसबुक पर अशोक जी ने ही उस पत्र को सार्वजनिक किया था. आइये पढते हैं- जानकी पुल.

—————————————————————————


थानवी साहब का लेख जितना लिखे के पढ़े जाने की मांग करता है उससे कहीं अधिक अलिखे को. एक पत्थर से दो नहीं, कई-कई शिकार करने की उनकी आकांक्षा एक हद तक सफल हुई तो है लेकिन यह पत्थर कई बार उन तक लौट के भी आता है. खैर मेरी यह प्रतिक्रिया
अनामंत्रित हो सकती है कि उन्होंने कहीं मेरा नाम नही लिया था, लेकिन फेसबुक/ब्लॉग पर उपस्थित व्यापक साहित्य-समाज का एक अदना सा हिस्सा, और मंगलेश डबराल सम्बंधित उस पूरे मामले में अपने स्टैंड के साथ उपस्थित रहने के कारण मुझे इस बहस में हस्तक्षेप करना ज़रूरी लगा, सो कर रहा हूँ- अशोक कुमार पांडे
————————————————— 
थानवी साहब, एक मजेदार सवाल करते हैं दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का अहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का?” ज़ाहिर है कि इन सबके सहारे वह अपनी घोषित पुण्य भूमि अज्ञेय तक पहुँचते हैं और वामपंथियों को अज्ञेय को उचित स्थान न देने के लिए कटघरे में खड़ा करते हैं. देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं? वैसे अज्ञेय के संबंध में पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कि उनकी सबसे तीखी आलोचना कलावादी खेमे के शहंशाहों ने ही की. उन्हें बूढ़ा गिद्ध किसी नामवर सिंह ने नहीं अशोक बाजपेयी ने कहा था (प्रसंगवश उसी लेख में सुमित्रा नन्द पन्त को भी अज्ञेय के साथ बूढ़ा गिद्ध कहा गया था, लेकिन बहुत बाद में नामवर सिंह के पन्त साहित्य में एक हिस्से को कूड़ा कहे जाने पर जो बवाल मचा उस दौरान अशोक बाजपेयी के कहे को किसी ने याद करना ज़रूरी नहीं समझा). अब उन कटघरों और अनुदारताओं की भी बात कर ली जाए. सीधा सवाल थानवी साहब से. पिछले साल जिन बड़े साहित्यकारों की जन्मशताब्दी थी उनमें अज्ञेय के अलावा केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन, फैज़ अहमद फैज़, उपेन्द्र नाथ अश्क, गोपाल सिंह नेपाली प्रमुख थे. फिर ओम थानवी ने केवल अज्ञेय पर ही आयोजन क्यूं करवाया? अज्ञेय के अलावा इनमें से किसी और पर उन्होंने इस साल या इसके पहले कौन सा आयोजन करवाया, कौन सी किताब संपादित की, क्या लिखा?
ज़ाहिर है कि उन्हें अपना नायक चुनने का हक है. बाक़ी कवियों/लेखकों की उनके द्वारा जो उपेक्षा हुई, उसकी शिकायत कोई पंथी उनसे करने नहीं गया. हम उन वजूहात को अच्छी तरह से जानते हैं, जिनकी वजह से केदार नाथ अग्रवाल या नागार्जुन को छूने में बकौल नागार्जुन, अशोक बाजपेयी या थानवी साहब को घिन आयेगी. लेकिन थानवी साहब या उनके लगुओं/भगुओं को यह अनुदारता कभी दिखाई नहीं देगी. वह अशोक बाजपेयी से यह सवाल पूछने की हिम्मत कभी नहीं कर पायेंगे कि उन्हें अज्ञेय के अलावा सिर्फ शमशेर ही क्यूं दिखे और उन्हें भी अपने चश्में के अलावा किसी रंग से देखना उनसे संभव क्यों नहीं होता? (इस मुद्दे पर आप मेरा लेख यहाँ देख सकते हैं). उनसे यह पूछने कि हिम्मत कभी किसी की नहीं होगी कि वामपंथ को लेकर जो उनका हठी रवैया है उसे अनुदारता क्यूं न कहा जाए? क्या थानवी या बाजपेयी की तरह हमें भी अपने कवि चुनने का हक नहीं? क्या कभी थानवी या अशोक बाजपेयी या उनके लोग किसी अदम गोंडवी पर कोई आयोजन करेंगे? नहीं करेंगे. तो जाहिर है हमें भी कुछ कवियों से घिन आती है. यह हमारा हक है. जिन्हें आप या अज्ञेय जीवन भर विरोधी घोषित किये रहे उनसे किसी समर्थन की उम्मीद क्यूं (और जो समर्थन में जाके दुदुम्भी या पिपिहरी बजा रहे हैं, वे क्यूं बजा रहे हैं इसका उत्तर उन्हीं के पास होगा, मैं इसे उदारता नहीं अवसरवाद मानता हूँ)
आवाजाही का समर्थन करने वाले कभी अपनी ब्लैक लिस्टों का विवरण नहीं देंगे. यह एक खास तरह का दुहरापन है, जिसमें दुश्मन से खुद के लिए सर्टिफिकेट न जारी होने पर सीने पीटे जाते हैं. यह कौन सी उदारता है जिसका सर्टिफिकेट हत्यारों के मंचों पर बैठ कर ही हासिल होता है? हत्यारे और उसके आइडियोलाग में अगर फर्क करना हो तो मैं आइडियोलाग को अधिक खतरनाक मानूंगा. एक आइडियोलाग हजार हत्यारे पैदा कर सकता है, हजार हत्यारे मिल कर भी एक आइडियोलाग पैदा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता हिटलर या मुसोलिनी ने अपनी पिस्तौल से किसी की ह्त्या की थी या नहीं…मैं मुतमईन हूँ कि हेडगेवार या मुंजे या सावरकर या गोलवरकर ने किसी की ह्त्या नहीं की थी. क्या फासिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वालों से सच में कोई सार्थक बहस संभव है? क्या वे अपने मंचों पर आपको इसलिए बुलाते हैं कि वे आपसे कोई सार्थक संवाद करना चाहते हैं?  ऐसा भोला विश्वास संघ या दूसरे फासिस्ट संगठनों के इतिहास से पूरी तरह अपरिचित या फिर उनकी साजिश में शामिल लोगों को ही हो सकता है. विदेश का उदाहरण थानवी साहब इस तरह दे रहे हैं मानो वाम-दक्षिण की बहस शुद्ध भारतीय फेनामना हो. उस पर इतना कह देना काफी होगा कि वह शायद पश्चिम अभिभूतता से पैदा हुई समझ है. केवल काँग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम के सी आई ए द्वारा वित्तपोषण और इसके खुलासे के बाद मचे हडकंप का भी अध्ययन कोई कर ले, या ब्रेख्त जैसे लेखक की आजीवन निर्वासन वाली स्थिति को समझने की कोशिश कर ले तो यह वैचारिक विभाजन साफ़ दिखेगा. चार्ली चैप्लिन के ज़रा से समाजवादी हो जाने पर क्या हुआ था, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. दुनिया भर की सत्ताओं ने वामपंथी लेखकों के साथ क्या सुलूक किया है वह भी कोई छुपी बात नहीं है, बशर्ते कोई देखना चाहे.

वैसे इस रौशनी में तमाम कलावादियों/समाजवादियों/वामपंथियों द्वारा महात्मा गांधी हिन्दी विश्विद्यालय और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान जैसे मंचों के बहिष्कार को भी देखा जाना चाहिए (इन दोनों के बहिष्कार में मैं खुद शामिल हूँ और इसे किसी तरह की अनुदारता की जगह वैचारिक दृढता मानता हूँ)
और ऐसा भी नहीं कि हिन्दी में वैचारिक विरोधियों से संवाद की परम्परा रही ही नहीं. रघुवीर सहाय और धूमिल ही नहीं, बल्कि लोहियावादी समाजवाद की विचारधारा के मानने वाले तथा कट्टर कम्यूनिस्ट विरोधी तमाम लेखकों के बारे में वाम धारा के भीतर हमेशा एक सम्मान वाली स्थिति रही, वे मुख्यधारा की बहसों में शामिल रहे और आज भी हैं. कलावाद के साथ भी वाम का संवाद लगातार हुआ, एक ही पत्रिका में दोनों तरफ के लोग छपते और बहस करते रहे (जनसत्ता के पन्नों पर भी यह निरंतर होता रहा है), दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जैसी धुर मार्क्सवाद विरोधी धाराओं के साथ हिन्दी के वामपंथियों का न केवल सार्थक और सीधा संवाद है, बल्कि उन्हें आदर सहित मुख्यधारा की पत्रिकाओं में लगातार स्थान मिलता रहा है. अज्ञेय पर आलेख काफी शुरू में जसम की पत्रिका में छपा. प्रभास जोशी लोहियावादी और कम्यूनिस्ट विरोधी ही थे, लेकिन क्या वाम धारा के लेखकों के साथ उनका संवाद नहीं था? क्या खुद थानवी साहब का संवाद नहीं है? फिर स्टालिन काल की याद इसलिए करना कि किसी के हिटलर के प्रशंसकों के हाथ पुरस्कार लेने की आलोचना हुई है, क्या है? मैंने कल भी लिखा था, फिर लिख रहा हूँ संवाद करना और किसी के अपने मंच पर जाकर शिरकत करना दो अलग-अलग चीजें हैं. हम ओम थानवी को इसलिए भाजपाई नहीं कहते कि उनके यहाँ तरुण विजय का कालम छपता है या इसलिए कम्यूनिस्ट नहीं कहते कि वहाँ किसी कम्यूनिस्ट का कालम छपता है. कारण यह कि जनसत्ता के न्यूट्रल मंच है. किसी टीवी कार्यक्रम में या यूनिवर्सिटी सेमीनार में आमने-सामने बहस करना और किसी संघी संस्था के मंच पर जाकर बोलना दो अलग-अलग चीजें हैं.
अब थोड़ा इस आलेख की चतुराइयों पर भी बात कर लेना ज़रूरी है. थानवी साहब बात करते हैं मंगलेश जी के वैचारिक सहोदरों के आक्रमण की, लेकिन जिन्हें कोट करते हैं (प्रभात रंजन, सुशीला पुरी, गिरिराज किराडू आदि) उनमें वामपंथी बस एक प्रेमचंद गांधी हैं और जसम का तो खैर कोई नहीं. जबकि उसी वाल पर हुई बहस में आशुतोष कुमार जैसे जसम के वरिष्ठ सदस्य और तमाम घोषित वामपंथी उपस्थित थे. लेकिन थानवी जी ने अपनी सुविधा से कमेंट्स का चयन किया.
उदय प्रकाश को कोट करते हुए यह तो स्वीकार किया कि उन्होंने आदित्यनाथ से पुरस्कार लिया था लेकिन साथ में दो पुछल्ले जोड़े पहला यह कि उदय प्रकाश को यह पता नहीं था और दूसरा कि परमानंद श्रीवास्तव जैसे लोग वहाँ सहज उपस्थित थे लेकिन हल्ला दिल्ली में मचा. दुर्भाग्य से दोनों बातें तथ्य से अधिक चतुराई से गढ़ी हुई हैं. उस घटना के तुरत बाद उठे विवाद के बीच अमर उजाला के गोरखपुर संस्करण में २० जुलाई को छपी एक परिचर्चा में आदित्यनाथ ने कहा था इस समारोह में जाने से पहले मैंने खुद आगाह किया था कि उदय प्रकाश जी को कठिनाई हो सकती है ज़ाहिर है यह वार्तालाप कार्यक्रम के पहले का था और मेरी जानकारी में उदय जी ने अब तक कहीं इसका खंडन नहीं किया है. परमानंद जी ने उसी परिचर्चा में कहा है कि जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं रचना समय नाम की एक पत्रिका में उदय प्रकाश का इंटरव्यू लेने के सिलसिले में उनसे मिलने भर गया था न कि उसमें भाग लेने के उद्देश्य से. और गोरखपुर का कोई और साहित्यकार उस समारोह में उपस्थित नहीं था, बल्कि अलग से प्रेमचंद पार्क में मीटिंग कर इसके बहिष्कार का निर्णय लिया गया था. इन सबकी रौशनी में थानवी साहब की इस अदा को क्या कहा जाना चाहिए.
खैर, बात यहीं तक नहीं. थानवी जी ने लिख दिया कि मंगलेश जी ने अब तक चुप्पी बनाई हुई है, जबकि सच यह है कि मंगलेश जी ने अपना स्पष्टीकरण मुझे मेल किया था और मैंने उसे सार्वजनिक रूप से अपनी वाल पर पोस्ट किया था जिसे अन्य मित्रों के साथ प्रभात रंजन ने भी शेयर किया था. मोहल्ला वाले अविनाश दास ने मुझसे फोन पर पूछा भी था और मैंने उन्हें यह जानकारी दी थी. जाहिर है, मंगलेश जी की चुप्पी थानवी साहब के लिए सुविधाजनक थी, अब वह थी नहीं तो गढ़ ली गयी. इसे पत्रकारिता के सन्दर्भ में गैर-जिम्मेवारी कहें या अनुदारता?
लिखने को और भी बहुत कुछ है…लेकिन यह कह कर बात खत्म करूँगा कि यह चतुराई भरा आलेख सिर्फ और सिर्फ मार्क्सवाद का मजाक उड़ाने और प्रतिबद्ध साहित्य पर कीचड़ उछलने के लिए लिखा गया है..और दुर्भाग्य से इसका मौक़ा हमारे ही लोगों ने उपलब्ध कराया है.
*इस लेख के ‘रिज्वाइनडर’ के रूप में छपे गिरिराज किराडू के आलेख को मैं बहसतलब मानता हूँ लेकिन फिलहाल उस पर कुछ नहीं कह रहा. उस पर अलग से लिखे जाने की ज़रूरत है और लिखा ही जाएगा.
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

29 comments

  1. सहमत।

  2. I have posted an answer on my fb wall, with the scan copies of paper cuttings. and your translation of SAMMAN as MOMENTO is really "original" 🙂

  3. ओम थानवी जी का पूरा लेख epaper 22 april के जनसत्ता पर पढा जा सकता है।

  4. हमे भी कुछ कवियों से "घिन" आती है, इसका हमे हक है.. वाह! अशोक भाई! बहुत बड़ी, सही और आइने दिखानेवाली बात कह दी है आपने..

  5. This comment has been removed by a blog administrator.

  6. This comment has been removed by a blog administrator.

  7. I just read this whole futile and contemptuous post and ongoing comments. Let me clear it forever, Mr. Pandey ji that I've never received any 'puraskaar' (award) on the first first death anniversary of my close cousin. It was accepting a memento (in Hindi usually called 'sammaan').
    Secondly, you Mr. Pandey quote a Hindi news paper (edited certainly by your own kin and caste) to validate your 'accusations' and (strangely) you also quote Yogi Adityanath's statement as a preferred authentic source to prove me again communal. Don't you frankly agree that this all was an organized assault on an author, who had just made a mistake – 'attending a 'barakhi'.
    Thirdly, entire Indian society is not that way absolutely 'politicized' as you think. People still attend funerals, cremations, marriages etc. without being aware what are the political interpretations and consequences of it.
    Fourthly, can you cite another incidence where more than 60 (actually 66) Hindi writers came out for condemnations without even asking or calling me about the truths and so on.
    Fifth, persistent lies, contained with hatred and contempt against anyone, is a proven sign of 'Fascists' ….
    And that you all are !! There is no reason to doubt it so far…!
    You keep on carrying hate campaign, and we'll keep on encountering it. I know, Hindi as a language belongs to you, and certainly I'm an outsider, but I've strong believe that finally it's the truth, which prevails.
    Here, I stand and express my solidarity with Om Thanvi. (Now think with your mind that I want some favor from him!)
    —-Uday Prakash
    (I use 'anonymous' as I don't have a 'google account' opened here)

  8. kya bakwaas laga rakhee hai yaar, histroy padhee hai Ashok Babu, kewal 100 saal puranee nahee hai, shuru se padho, pichle 1000 saalon ka itihaas (The Mughal World by Ebrham Early)bakwaas karnaa band kar doge khud hee

  9. यह ऊपर anonymous और नीचे एक नाम क्या है और किसका व्यक्तित्व है समझ नहीं पा रहा हूँ. अपने संस्कृत – हिन्दी के सारे ज्ञान/ अज्ञान के बावजूद " चेला " शब्द का जेंडर बायस भी मेरी समझ से बाहर है. बहस तथ्यात्मक तो हो सकती है लेकिन जहां बहस का स्थान धमकियां लेने लगें वहाँ किसी सार्थक बात की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? ऐसे बहस अंतहीन है और इसे आगे चलाने का कोई लाभ नहीं है.

  10. भाई लोगों और बहनों, इस अंतहीन बहस को विराम दीजिए अब. अगर आप सीरियसली कुछ बहस करना चाहते हैं तो जानकी पुल के लिए लेख लिख दीजिए. व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप से क्या हासिल होता है? शब्दों का संयम बना रहे तभी बहस का आनंद है. आप सब लोगों से सविनय निवेदन है.

  11. मानुषी जी चेला शब्द में जेंडर बायस नज़र आ रहा हो तो उसे चेलिन पढले ……शिष्यत्व पढ़ ले disciple पढ़ ले ……और दो चार मुकदमा इन् शब्दों पे आपत्ति हो तो और ठोंक दे …..हाँ गुरु चेला और पुलिस चोर का सादृश्य निरूपण ठीक नहीं है मेरी कमअक्ली पे ध्यान न दीजियेगा …किसी विद्वान या राकेश सिन्हा जी से ही पूछ लीजियेगा …………की ये अनोलोजी दुरस्त है या नहीं

  12. माननीय मानुषी जी जो जी में आये बोले जा रही है बिना जानकारी के. बहस की तमीज़ ही नहीं है आपमें. राजेंद्र जी से मैंने ही पूछा था हंस के कार्यक्रम में निशंक की कहानी को लेकर. इस बारे में भी बहस कर लिया जायगा. वैसे राकेश सिन्हा का हमारे लिए इतना महत्व है नहीं. मुझे तो लगता है राकेश सिन्हा ही लिख रहा है इसकी तरफ से . बोखलाहट से तो यही लगता है. आप भी अशोक भाई गीदर भभकी को इतना सीरियसली लेते हैं.

  13. मानुषी जी ! पहले ऊपर अशोक जी द्वारा दिए गए तर्कों और सन्दर्भों की काट खोज के लाइए फिर उन्हें अनपढ़ साबित कीजिये ! आप स्त्री हैं इसका मतलब ये नहीं कि किसी गंभीर बहस में आपको केवल स्त्री होने की वजह से छूट प्रदान की जाय ! बहस कीजिये, बहस !

  14. आप जो भी हें मानुषीजी स्त्री या पुरुष अव्वल तो आप फेक हें एक झूठे इंसान को बोध्हिक बहस में भाग लेने का कोई हक नहीं संघियो की ये आदत हें शिखंडियो की तरह लदानी की में अशोक जी के साथ हूँ ,,आपकी आपतियो को ख़ारिज करता हूँ पहले आप अपनी पहचान के साथ प्रकट हो .

  15. कोई भी मोहतरमा पुरुष वर्चस्व वाले समाज में केवल तभी धम्की दे सकती है जब उसके पीछे निहित स्वार्थ में लिपटे पुरुषों का समूह हो और जो कायर हो । महिला जब सही बात पर अड़ती है तो या तो गार्गी होती है या फूलन देवी । धमकी देनेवाले लड़ते नहीं इस्तेमाल होते हैं या करते हैं ।

  16. मानुषी जी ! तर्क करिए ! मैं देख रहा हूँ कि अशोक जी परस्पर सन्दर्भों और कोट के साथ बात कर रहे हैं और आप तर्क की जगह व्यक्तिगत हमले कर रही हैं ! सवाल ये उठता है कि आखिर क्यूँ ?? ऐसे में यदि कोई आपको राकेश सिन्हा का चेला कहे तो क्या बुराई है ? बहस कीजिये, बहस ! बच्चों की तरह रुठिये नहीं !

  17. शुक्रिया भाई

  18. आप सौ बार लिखेंगी तो मै डर नहीं जाउंगा. आप बिलकुल कोर्ट में आइये…स्वागत है. दलित और स्त्री विरोधी संघ के गुरुजी गोलवलकर साहब के वे आप्त वचन हैं जिन्हें यहाँ पोस्ट कर दिए जाने से आप बौखलाई हुई हैं. अब संवाद कोर्ट में ही होगा. यहाँ कमेन्ट दर कमेन्ट धमकियों से नहीं.

  19. above comment is not a threat but a protest against attack on gender. -manushi

  20. @ pandey you are anti women and also anti dalit. the way u justified you bad intentionally written terms and firmly stands on that leaves me with no option but to take legal recourse.

  21. क्या दलील है अशोक कुमार जी! गुरु कहा तो चेला भी कहा जा सकता है. किसी को पुलिस कहोगे तो उसे तुमको चोर कहने की छूट मिल जायेगी?

  22. चूंकि मेरे किसी सवाल का आपके पास जवाब नहीं है तो आपकी झल्लाहट स्वाभाविक है. मैंने पहले भी कहा है और अब भी कह रहा हूँ कि आप जो चाहें कर सकती हैं. ऐसी धमकियों से डरने वालों में मैं नहीं हूँ.

  23. Mr pandey, you are illiterate, not knowing anything, quoting irrelevent protion, if you stand on your word and calling me chela of Rakesh sinha in a very dergatory manner then I will take legal recourse. Are you accepting? You made a gender remark. it is a very serious issue .-Manushi(manushi29@gmail.com)

  24. सुधार – गोलवरकर की किताब "द मैं एंड हिज मिशन" की जगह 'द मैन एंड हिज मिशन" पढ़ें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *