गीताश्री का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. बस इतना और याद दिलाता चलूँ कि पत्रकारिता, संपादकी की तमाम जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए उन्होंने कहानियां भी लिखी हैं, जीवन और जमीन पर जुड़ी कहानियां. उनका एक कहानी संग्रह ‘प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है और उसे पाठकों-आलोचकों का प्यार भी खूब मिला. पढ़िए उनका यह लेख अपनी कहानी(कहानियों) की रचना प्रक्रिया पर- मॉडरेटर
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इस कहानी की नींव उसी दिन पड़ गई थी जिस दिन लक्ष्मीनगर की उस बंद गली के आखिरी मकान में छोटे शहरो की कई लड़कियों ने अपना ठिकाना बनाया था। बहुत तंग सी गली थी जिसमें कोई गाड़ी नहीं घुस सकती थी। सिर्फ पैदल जा सकते थे या आपके अरमान वहां घुस सकते थे। सपनों और ख्वाहिशों से लदे हुए अरमानो को हमने रोज गुजरते देखते और गली के किनारे बह रहे उस गंदे नाले में बजबजाते संड़ांध को अपने जिस्म में महसूस करते। उस बंद से तिलिस्मनुमा मकान में अंधेरी सीढियां चढते ही जान में जान आती। समूचे शहर का शोर बहुत पीछे छूट जाता और नाली की सड़ांध भी नीचे ही छूट जाती। वह छोटा सा कमरा बहुत सुकूनदायक था। उस छोटे से कमरे में बहुत बड़े सपने. ख्वाहिशे संजोने संभालने की अपार क्षमता थी। वे दिन न होते तो यह कहानी भी न होती। पत्रकारिता के वे अनगढ दिन अगर न होते तो बहुत सी कहानियां न होतीं। कितनी कहानियां उस गली, उस मकान उस मुहल्ले में घटते दिन रात देखती और वे कहीं न कहीं जेहन में दर्ज होती रहतीं। जब कहानियां वहां घट रही थीं, तब क्या पता था कि मुझ पर इतनी हावी रहेंगी कि बिना इन्हें लिखे, मेरी मुक्ति संभव न होगी।
वे कहानियां मेरे दिलोजान को इतनी लग जाएंगी, तब कहां सोचा था। न जाने कितनी रचनाएं और प्रार्थनाएं उन गलियों में फैली हुई थी जिनकी संघर्ष गाथाएं कभी कभी चौंका देती थी। छोटे शहर से बड़े शहर में आई लड़कियों को ठिकाने की इतनी मुश्किले होती थीं कि उन्हें कैसे कैसे झूठ बोल कर आशियाना तलाशना पड़ता था। पहले छोटा सा कमरा मिल जाए फिर नौकरी की तलाश शुरु होती थी। शुरुआती कई महीने तो जिंदगी डीटीसी बसो में घिटसती और कंडक्टर उन्हें घिसटता देख कर हाथ बढा कर ऊपर चढा लेने के बजाय कहता कि दिल्ली में रहना है तो पीटी उषा बनना पड़ेगा….।
बसो में धक्के खाते हुए हर चीज चुभती थी, हर तरफ चुभती थी। चाहे आंखें हो या मर्दाना घमंड से उभरे हुए अंग। वे आपको उसी भीड़ में चटनी बना कर खा जाने पर आमादा दिखती थी। सपनो से भरी झोली लेकर जब कोई लड़की बस स्टाप पर उतरती तो कोई न कोई साया जरुर पीछे लग जाता। कुछ साये स्थायी हो जाते। निर्धारित बस स्टाप पर चढते और मंजिल तक साथ बने रहते। मनचलों और निठल्लो से भरी हुई दिल्ली में ऐसे सायो की कमी नहीं थी जिसका काम सिर्फ पीछा करना और मौके की ताक में रहना कि कब मौका मिले और थोड़ी छेड़छाड़ हो जाए।
नब्बे के दशक में बेरोजगारी इतनी बढी नहीं थी। भूंमंडलीकरण से ठीक पहले का समाज न इतना शुला था न ही इतना नीडर हुआ था कि सरेआम राह चलते किसी लड़की को उठा ले। जब तक कि किसी लड़की से दुश्मनी न हो । उसके खानदान से मोटी रकम न वसूलना हो।
तब पूर्वी दिल्ली बस ही रही थी। बिहार उत्तर प्रदेश से पलायन करके परिवारो का आना और यहां बसने का अबाध सिलसिला जारी था। हर किस्म के लोग आ रहे थे। दिल्ली के आकाश में उड़ान भरने के लिए बड़े बड़े डैने लिए रचनाएं और प्रार्थनाएं उसी दौर में सर्वाधिक आईं। सबके लिए छोटे मोटे काम थे. उच्च शिक्षा भी थी। कलक्टरी के सपने थे, कंपीटीशन की तैयारियां थीं। लड़के मुखर्जी नगर में डेरा जमाते थे। अकेली लड़कियां अपने परिचितो के सहारे घर ढूंढ कर स्वतंत्र रहना पसंद करती थीं। ये कस्बाई लड़की को मिली नई नई आजादी थी। कुछ संभाल नहीं पा रही थीं तो कुछ अचकचाई हुई थीं कि आजादी के मायने क्या है। कुछ के बांध टूट रहे थे तो कुछ संवर रही थीं। कुछ ने समझौते की राह पकड़ी तो कुछ ने कछुआ गति को ही अपना भाग्य मान लिया। कुछ को गॉडफादर की तलाश थी तो कुछ को गॉडफादर जैसे दोस्त मिले। कुछ ने प्रेम किया और साथी के साथ साथ संघर्ष का मजा लेने लगीं।
कुछ न कुछ सबके साथ घट रहा था। जो अच्छा और बुरा दोनों था। सबके पैमाने थे। घटते हुए वक्त में अच्छे बुरे की तमीज कहां होती है। एक दौड़ थी जिंदगी उस वक्त, खुद को पाने, खोजने और पहचानने की। सब दौड़ रहे थे। रचना भी दौड़ रही थी। प्रार्थना भी दौड़ रही थी। दोनों के सपने अलग थे, जाहिर है रास्ते भी अलग होंगे। अलग रंग वाले सपनों के दो राही एक साथ दौड़ते हैं तो उनकी चालें भी अलग होती हैं। सब उन सपनों में समाने की जद्दोजहद में थे। सपने थे कि छलावा साबित हो रहे थे। लड़कियां अपने को टटोलने में लगी थीं। एकांतवास कुछ लंबा खींच रहा था। करियर बनाने की जिद ज्यादा ही लंबी खींच रही थी। पर लगन और धुन में कोई कमी नहीं थी।
रचना मिली थी कुछ कुछ सकुचाई सी, घबराई सी, प्रार्थना तब भी बेखौफ थी, आज भी बेखौफ है। तब साहसी नहीं थी, अपने कृत्यों का खुलेआम ऐलान करने का साहस नहीं था। अब तो रचना का तेवर भी बदला हुआ है और प्रार्थना कुछ ज्यादा खुल कर जीने लगी है। दोनों को अपना यह रुप प्राप्त करने में इतने साल लग गए। रचना की होठो पर तब भी शिकायतें थीं, भली लड़की बनने की जिद ने उसे शिकायती पुलिंदे में बदल दिया था। प्रार्थना को उसकी बिंदास अदाओ ने बैडगर्ल के खिताब से नवाज कर अमर कर दिया है।
यह कहानी मुझे इसलिए नहीं प्रिय है कि यह मेरी पहली कहानी है या बोल्ड कहानी के खांचे में फिट बैठती है। मैं कहानी को बोल्ड या कोल्ड जैसे खांचे में डाल कर देखने की पक्षधर नहीं हूं। ये जिनका काम है वे जानें। इस कहानी को 15 साल बाद लिखने के पीछे कोई बड़ी वजह होगी। यह कहानी साहित्य के किसी भी विमर्श से प्राभावित नहीं है। इसे जिस तरह विमर्श से जोड़ कर देखा जा रहा है, वह तंग नजरिए का परिचायक है। इस कहानी पर बात जिस तरह होनी चाहिए, नहीं हुई। अगर किसी जंग में अच्छाई पर बुराई की जीत होती है, इसका मतलब ये नहीं कि पूरा समाज उसके पक्ष में खड़ा है। जिस भूमंडलीकरण से जोड़ कर इस कहानी को देखा गया, उन्हें ये बात समझ में नहीं आई कि जिस दौर में यह कहानी घट रही थी, उस वक्त उदारवाद का “उ” तक किसी ने नहीं सुना था। तब तक समाज के चेहरे से मुखौटा उतरा नहीं था। शुचिता का मुलम्मा चढा हुआ था। उसी वक्त नई लड़की ने समाज में जन्म ले लिया था जो बाद में चल कर उत्तर आधुनिक समाज की रचना करने वाली थी और जो आगे आने वाली पीढियों को रुढियों से मुक्ति देने वाली थी। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल थे।
भले यह कहानी भूंडलीकृत समाज के दौर में लिखी गई। यहां स्पष्ट करना जरुरी है कि यह कहानी किसी भी अराजकता पक्ष में नहीं खड़ी है पर साथ साथ यह भी समझ लें कि यह कहानी किसी लड़की की यौन शुचिता पर सवाल खडे करने के पक्ष में भी नहीं खड़ी है। स्त्री की जिस आजादी को मैंने उस दौर में देखा था, वह तब ढंकी छुपी थी। इसीलिए रचना जैसी भली लड़की अचरज में पड़ी रहती है। प्रार्थना अपने समय से बहुत आगे की लड़की है। उसके लिए अपना लक्ष्य भी उतना ही इम्पोरटेंट हैं जितना उसका आनंद। पाउलो के उपन्यास ब्रीडा में एक जगह लिखा है…ईश्वर तक जाने वाली पहली राह है प्रार्थना और दूसरी आनंद।
प्रार्थना के लिए उसकी पढाई और उसकी दैहिक मस्ती, दोनों परमानंद की तरफ ले जाने वाली राहे हैं। वह लड़कियों के लिए वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करती है तो हंगामा हो जाता है। सेक्स उसके लिए कोई टैबू नहीं है। वह ऐसे प्रतीक के तौर पर उभरती है जो सारी वर्जनाओं को तोड़ देती है। वह रुढियों को छिन्न भिन्न करती है और नैतिकता के पाठ की धज्जियां उड़ा देती है। आप उसके आचरण की निंदा करते है, करिए, पर क्या ऐसा करते समय आप किसी की व्यक्तिगत आजादी का हनन नहीं करते। आप किस मुंह से मोरल पुलिसिंग करते हैं ? शादी से पहले अनेक पुरुषो से संसर्ग करने वाली लड़की कैसे धिक्कार का पात्र बन जाती है। सोचा है कभी, अपनी आत्मा में धंस कर कि यौन शुचिता का पाठ किसने सिर्फ स्त्रियों को पढाया और मर्दवादी सत्ता खुद को उससे बाहर रख कर नैतिक ठेकेदार बन गयी ? प्रार्थना चुनौती देती है इस पाठ को और नैतिक ठेकेदारो को। ये ठीक है कि प्रार्थना की स्थापनाओं से हमारी सहमति असहमति हो सकती है, पर बिना अपने भीतर झांके, दूसरो को अच्छा और बुरा साबित करने की हिम्मत किस ग्रह से आती है, हैरान होती हूं, सोच कर। क्यों हम नैतिकता का सारा बोझ कहानी पर डालना चाहते हैं, समाज को क्यों बाहर रखना चाहते हैं। कहानी या कहानीकार को क्यों कटघरे में खड़ा करते हैं, अपने समाज की विद्रूप सच्चाईयों से आंखें क्यों बंद करते हैं। कहानी क्या किसी और ग्रह से निकल कर आती है। समाज के अंधेरे कोनों में भी झांकने की जरुरत नहीं है क्या। उन बंद गलियों में जाइए, जहां जिंदगी की सच्चाईयां दफ्न हैं। आप इन सच्चाईयों को प्रतिशत में आंकने चले हैं और कुतर्क करते हैं-“समाज में कितने प्रतिशत है ऐसे लोग ?” कैसा अजीब सा तर्क है न। प्रार्थना जैसी लड़की मनुष्य नहीं है क्या ? उसकी इच्छाएं क्या निर्वासित ही रहेंगी ? क्यों गणित की तर्ज पर हम कहानी को आंकने चले हैं। क्यों एक लड़की के कौमार्य भंग से हम इतना डरने लगे हैं कि उम्रदराज स्त्रियां भी प्रार्थना की ख्वाहिशो को दुरदुराती हुई कहती है…” ब्वायफ्रेड से सेक्स का रिफ्रेशमेंट… यह कैसा स्त्री विमर्श है।“ ऐसे सवाल उठाने वालो को अपने पुरखो से पूछना चाहिए जिन्होंने अब तक कोठे आबाद कर रखे हैं और घर में बीवियो के रहते कोठे पर अपना “रिफ्रेशमेंट” खोजने जाते रहे हैं। उस रिफ्रेशमेंट को पुरुष लेखको ने समय समय पर ग्लोरीफाई भी किया है। तब कोई सवाल नहीं उठे। चेहरे से मुखौटा उतरता है तो तकलीफ होती है।
आखिर प्रार्थना जैसी लड़कियां कब तक अपने आनंद को अंधेरे का हिस्सा मानती रहेंगी। मुझे तो फील्ड रिपोर्टिंग करते समय बहुत प्रार्थनाएं दिखीं, वे भले खुल कर न मानें, पर हमने बहुतायत में देखा समझा है।
भूमंडलीकरण के बाद क्या समाज नहीं बदला, दिल पर हाथ रख कर कोई इनकार कर दे। फिर बदलते हुए समाज को, उसके पतन को चिन्हित करना क्या गलत है।
हाल ही में इस कहानी को पढने के बाद एक परिचित पाठक, नई लड़की ने खुल कर स्वीकार कर मुझे चौंका दिया।
“दी…मैं आपकी प्रार्थना हूं। आपने मेरे ऊपर कहानी लिख दी। कैसे आप बिना मिले मेरे बारे में इतना स्पष्ट लिख पाईं….?
”
मैं यह सब सुन कर शौक्ड थी। वह पाठिका खुल कर अपने महाआनंद के बारे में बात कर रही थी। कहीं कोई संकोच नहीं…वह ऐलान कर रही थी कि “हां मैं हूं प्रार्थना…जिससे चाहे कह डालिए, बता दें…। मुझे कोई संकोच नहीं। किसी से भय नहीं…मैं जो हूं सो हूं…। किसी की दया पर जिंदा नहीं हूं..खुद कमाती हूं, अपनी शर्तो पर जिंदगी जीती हूं…।”
यानी कहानी लिखने के चार साल बाद, कहानी घटित होने के 20 साल के बाद…मुझे प्रार्थना मिल गई और रचना। रचना अच्छाई का प्रतीक है, सीधी सादी लड़की, जो किसी भी घर, कस्बे में पाई जाती है। वह भली लड़की बनने के चक्कर में लगातार पिछड़ रही है। वह नहीं जानती कि भली औरतें इतिहास नहीं रचतीं। जानती तो क्या वे भली बनी रह पाती ?
यह कहानी मेरी प्रिय कहानी नहीं है पर मेरी पसंदीदा कहानी जरुर है। सबसे पसंदीदा…। अपनी कहानियों में से कोई प्रिय चुनना मेरे लिए संभव नहीं है, किसी के लिए हो तो हो। शायद मैंने अब तक अपना बेस्ट लिखा ही नहीं…लिखा जाना बाकी हो। यह कहानी जिस बहस को जन्म देती है, और जिस यातना से गुजर कर लिखी गई, लिखने के बाद जितनी आलोचना और पीड़ा मैंने झेली, उस वजह से यह कहानी मुझे पसंद आई। जिस दौर की कहानी है, वह परिवेश एकदम अलग था। बिल्कुल भिन्न…यह कहानी भूमंडलीकरण के बदलाव की आहट से उपजी है। यानी भारतीय मध्यवर्ग में बदलाव शुरु हो चुका था, गति आई, उदारीकरण के बाद। यह कहानी उसी बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करती है। अच्छी और बुरी प्रवृतियां हर दौर में रही हैं…हम उन्हें राम रावण की तर्ज पर देखने के आदी रहे हैं। बुराई का स्वरुप हमेशा विराट होता है। इसका ये मतलब नहीं कि हम उस विराटता को दिखाते दिखाते उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
हम इस कहानी को भारतीय पौराणिक मिथको के तर्ज पर क्यों न देखें, बजाए इसके कि कहानीकार को यह कह कर लताड़ते रहें कि कहानीकार ने सेक्स को ग्लोरीफाई किया है। प्रार्थना ने सेक्स के जरिए पढाई नहीं की…इस बात को तो समझने की जरुरत है। सेक्स उसके लक्ष्य के लिए न साधन था न साध्य। बस वहां तक पहुंचने की राह को आनंद से भर देने वाला तत्व भर था। जैसे कुछ लोग अपना आनंद अलग अलग साधनो-प्रसाधनो में ढूंढते हैं।
"आप किस मुंह से मोरल पुलिसिंग करते हैं ? शादी से पहले अनेक पुरुषो से संसर्ग करने वाली लड़की कैसे धिक्कार का पात्र बन जाती है। सोचा है कभी, अपनी आत्मा में धंस कर कि यौन शुचिता का पाठ किसने सिर्फ स्त्रियों को पढा़या और मर्दवादी सत्ता खुद को उससे बाहर रख कर नैतिक ठेकेदार बन गयी ?"
स्त्री स्वातंत्र्य पर पुरूषवादी सोच से उभरकर नयी व्याख्या का अब समय है। जब तक देश में संयुक्त परिवार परंपरा विद्यमान रही है स्त्री सर्वाधिक प्रताड़ित रही है। इधर के वर्षों में एकल परिवार चलन ने स्त्री को स्वतंत्रता दी है।
लेखिका ने यौन शुचिता के नये आयाम गढ़ने की कोशिश की है।
मेरा आपका अर्ध नहीं पूर्ण सत्य , देखा भोग यथार्थ
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