रियो ओलम्पिक और उसको लेकर खिलाड़ियों के ऊपर आने वाली ऊलजुलूल प्रतिक्रियाओं के बहाने जाने-माने पत्रकार, लेखक रंजन कुमार सिंह का एक चुभता हुआ, झकझोर देने वाला लेख- मॉडरेटर
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मैं भारत का एक अदना सा नागरिक, रंजन कुमार सिंह, अपनी और से और अपनी औकात से बाहर जाकर पूरे देश और उसकी जनता की और से रियो ओलंपिक में शामिल अपने सभी खिलाड़ियों से क्षमा मांगता हूं कि हमने समय रहते उनपर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उन्हें नजरअंदाज ही किया। वह चाहे दीपा करमाकर हो या फिर पी.वी. सिन्धु, विकास कृष्ण हो या फिर साक्षी मलिक, हमारे ये तमाम साथी जब अपनी तपस्या में लगे भारत को ओलंपिक पदक दिलाने का मंसूबा संजो रहे थे, तब हमारा पूरा ध्यान विश्व क्रिकेट और ट्वेंटी-ट्वेंटी पर था। हमारी हालात उस पिता के समान है जो साल भर तो अपनी बेटी की पढ़ाई-लिखाई से बेखबर रहता है और फिर यह आशा करता है कि वह अच्छे नंबरों से पास हो। शर्मसार होकर ही सही, पर मुझे यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि अब से पहले मैंने दीपा करमाकर का नाम तक नहीं सुना था। मैंने ही क्यों, देश के खेल अम्बैस्डर सलमान खान तक ने उनका नाम कहां सुन रखा था? और ना ही प्रेस के लोग उसका सही नाम जानते थे। यदि भारतीय प्रेस ने अपनी जिम्मदारी का निर्वाह करते हुए हमें उनके तप और तपस्या का बोध कराया होता तो भी कोई बात होती। लेकिन प्रेस को तो सलमान खान और शाहरुख खान की यारी-दुश्मनी से ही फुर्सत नहीं होती और होती भी है तो फिर उसके ध्यान में धोनी और विराट समाये रहते हैं। और नहीं तो उसकी नजर विराट और अनुष्का से ही नहीं हट पाती।
ओलंपिक में भारत का झंडा लेकर जानेवालों के प्रति हमारे मन में कितना सम्मान है, यह तो शोभा डे ने ही अपनी ट्वीट से साफ कर दिया था। जिनसे हम कोई आशा रखते हैं, उनके प्रति हमारे मन में अगर सम्मान ही न हो या फिर हमें उनकी कोई चिन्ता ही न हो तो फिर इस तरह की आशा-आकांक्षा का कोई मतलब नहीं होता। सालो-साल हमारे खेल संगठन अन्तरकलह का शिकार बने रहते हैं और फिर कहीं कोई राज्यवर्धन सिंह राठौर या साइना नेहवाल सामने आए नहीं कि वह अपनी ढपली बजाने में लग जाते हैं। पी0टी0 उषा के पैरों में जूते हैं कि नहीं, दीपा करमाकर को वाल्ट मयस्सर है भी या नहीं, नरसिंह यादव की खुराक में अवांछित तत्व कहां से आ रहे हैं, कब, किसने इनकी चिन्ता की? दीपा ने जो किया, वह उसकी और उसके कोच बिस्वेश्वर नन्दी की मेहनत और उसके माता-पिता के प्रोत्साहन का सुफल है। साक्षी ने जो कुछ किया, वह उसकी अपनी लगन और उसके परिवार के बढ़ावे का नतीजा है। सिद्धु या फिर श्रीकान्त के करिश्मे के पीछे वे खुद है, या फिर उनके कोच गोपीचन्द। हम उनके लिए करते ही क्या हैं? आस्ट्रेलिया या अमेरिका अपने खिलाड़ियों को किसी सिने अभिनेता से कम महत्व नहीं देता। जबकि हम शायद अब भी उसी मानसिकता के शिकार है कि खेलोगे-कूदोगे होगे खराब। इस मानसिकता को अगर कहीं चुनौती मिलती भी है तो केवल क्रिकेट से।
विकास कृष्ण ने उज्बेकिस्तान के बेक्तमीर मेलिकुझेव के हाथों अपनी हार के लिए देश से माफी मांगी है कि वह हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका। इससे पहले दीपा करमाकर ने भी ट्वीट कर देश से माफी मांगी थी कि उसने हमें निराश किया। क्या वाकई इनमें से किसी ने भी हमे निराश किया? सच तो यह है कि हम ही उन्हें आज तक निराश करते रहे हैं। जब कोई राज्यवर्धन राठौर या योगेश्वर दत्त मेडल जीतकर लाता है तो हमारा सीना गर्व से फूल उठता है और नहीं तो हमें उन्हें अपना कहने में भी लज्जा आती है मानो कि वे कोई गली के आवारा कुत्ते हों। है ना शोभा जी? अंग्रेजी में लटर-पटर करने से आप देश की गौरव और हरियाणवी में बोलने से वे देश का कलंक नहीं हो जाते मैडम। आप जैसे लोगों को ख्याति इतनी आसानी से मिल गई है कि आप इन खिलाड़ियों की उपलब्धियों के पीछे की तप-तपस्या को समझ ही नहीं सकते। और मैं आपको सही-सही कहूं, जब आप जैसे लोग इस बात को समझ लेगें तो फिर हम जैसे लोगों को अपने खिलाड़ियों से मापी मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
www.ranjanksingh.com
कटु सत्य…
सच्ची कही। हिंदी हमवतन है…महज़ कागजी…
behtarin so called prograsive ki Dhajjiya udate huye………………
Bahut badhiya lekh…..aik dam khari baat.
Sach hai…