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न मैं काठ की गुड़िया बनना चाहती हूँ न मोम की

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है. इस अवसर पर प्रस्तुत हैं आभा बोधिसत्व की कविताएँ- जानकी पुल.


मैं स्त्री
मेरे पास आर या पार के रास्ते नहीं बचे हैं
बचा है तो सिर्फ समझौते का रास्ता.
जहाँ बचाया जा सके किसी भी कीमत पर,
घर, समाज
न कि सिर्फ अपनी बात।
मैं स्त्री, मेरे पास
आर या पार के रास्ते सचमुच नहीं बचे
बचा है तो सिर्फ समझौते का रास्ता
जहाँ मिल सके मान हर स्त्री को,
मिल सके ठौर हर स्त्री को,
कह सके हर स्त्री
यह मेरा घर और यह मेरी गृहस्थी।
काठ की गुड़िया बन कर देख लिया
कुछ नहीं हुआ मेरे मन का
मोम की गुड़िया बन कर देख लिया
क्या हुआ मेरे तन का
रेत की तरह उड़ती फिरी
न मैं काठ की गुड़िया बनना चाहती हूँ न मोम की
न चाहती हूँ सरबस हो मेरा, न हो सिर्फ मेरी ही बात ।
बीच के बहुत से रास्ते बचे हैं अब भी
मै स्त्री हूँमै चाहती हूँ वही ठौर
जहाँ बनी रहे मेरी मर्यादा
जब कि जानती हूँ नहीं होने दिया जाएगा
मेरे मन का,
सिवाय बरगलाए जाने के
सिवाय भरमाए जाने के ।
फिर भी
मै स्त्री, शांत हो बैठ नहीं जाता मन मेरा
मिला या न मिले,
चाहती तो रहूँगी ही कि
जीवन के अंत तक
मिले एक ऐसा कुरुक्षेत्र
जहाँ मिल सके मान हर स्त्री को,
मिल सके ठौर हर स्त्री को,
कह सके हर स्त्री
यह मेरा आंगन, यह घर और यह गृहस्थी मेरी।
देवताओं
तुम्हारे सतयुग, त्रेता, द्वापर में न सही
राक्षसों के इस कलियुग के किसी चरण में तो
पूरी होने दो मेरी इच्छा।
एक स्त्री की
जो तुम्हारी माँ भी रही और पुत्री भी
पत्नी भी रही सखी भी
और दासी भी रही जो
उस स्त्री की एक इच्छा पूरी होने से
तुम्हारा कौन सा मुकुट मैला हो जाएगा।
बहुत दूर आ गई हूँ
बहुत दूर
बहुत दूर
इतनी दूर की नींद में भी
सपने में भी वहाँ नहीं पहुँच सकती।

एक अंधेरी छोटी सी गली
एक अंधेरा छोटा सा मोड़
एक कम रौशन छोटी सी दुनिया
सब पीछे रह गए
मैं इतने उजाले में हूँ कि
आँख तक नहीं झपकती अब तो।

सब इतना चकाचौंध है कि
भ्रम सा होता है
परछाइयाँ धूल हो गई हैं
आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
दूर-दूर तक
कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ
सब पीछे
बहुत पीछे छूट गया है।

सीता नहीं मैं
तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुखदुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।

तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।
हाँ सीता नहीं मैं… मैं धरती में नहीं समाऊँगी
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

मैं जन्मी नहीं भूमि से
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।

बंद थी मैं भी नौ महीने
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर।

मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं
अग्निपरीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं
तुम्हारे अग्निपरीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा।

मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या
उसकी कोई मर्यादा न थी
क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी

 
      

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7 comments

  1. bahut sundar kavitayen

  2. bahut sundar

  3. really nice poems mam !

  4. Aabha ji sachmuch aanand aagayaa STREE KI EK ICCHHA PURI HONE SE TUMHARA KAON MUKUT MAILA HO JAAYEGA WAAH WAAH

  5. अच्छा लगा पढ़ कर …पर राम के द्वारा शूर्पनखा को प्यार दिये जाने की संस्तुति !?…स्त्री मुक्ति के रास्ते का यह एक बहुत बड़ा गड्ढा नहीं है क्या ?

  6. बहुत अच्छी कविताएं…इसके पहले नया ज्ञानोदय में आभा जी की कुछ कविताएं पढ़ी थीं…अच्ठी लगी थीं… प्रस्तुत कविताएं अपनी संवेदना और कथ्य में एक भिन्न संसार रचती हुई दिख रही हैं… मेरी अशेष बधाईयां….

  7. कब तक धडकनों में पिघलता रहेगा फौलाद ?
    कब तक जीवन को उबाते रहेंगे वही प्रशन ?
    कब तक सच इंधन – सा जलता रहेगा दिल में?
    आखिर कब तक हौसले को परीक्षा देनी होगी हमारे?
    और कब तक चलता रहेगा सिलसिला
    दूसरों की छवियों में घटित होते चले जाने का?

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