विक्रम चंद्रा भारतीय-अंग्रेजी लेखन के ‘बूम’ के दौर के लेखक हैं. १९९५ में जब उनका उपन्यास ‘रेड अर्थ पोरिंग रेन’ प्रकाशित हुआ था तो उसने उनको अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाई. अरुंधति रे से पहले के दौर के भारतीय अंग्रेजी लेखकों में उनको सबसे संभावनाशील लेखकों में माना जाता था. बाद में ‘लव एंड लोंगिंग्स इन बॉम्बे’ की कहानियों ने उनको मुंबई के जीवन के कुशल और संवेदनशील चितेरे के रूप में स्थापित किया. मुंबई के सपनों के, उसके छलावों के, उसकी फास्ट लाइफ के. २००६ में प्रकाशित उनके वृहताकार उपन्यास ‘सेक्रेड गेम्स’ को उसी की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है. तकरीबन १००० पन्नों के इस उपन्यास में मुंबई की अँधेरी दुनिया की चकाचौंध है, चमक-दमक के पीछे का खोखलापन है, अपराध का मायावी संसार है, उस दुनिया के नायक-खलनायक हैं. लेखक ने अपराध-कथा की परंपरागत शैली में जीवन-जगत के इस अछूते पहलू को देखने की कोशिश की है. अंग्रेजी साहित्य के लिए यह नई आकर्षक दुनिया थी, भारत का एक अलग रंग. इसीलिए केवल अपने मोटापे के कारण ही नहीं बल्कि मोटे एडवांस के कारण भी विक्रम चंद्रा के इस उपन्यास की खूब चर्चा रही.
अब पांच सालों बाद जब यह उपन्यास हिंदी में इसी नाम से पेंगुइन-यात्रा बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है तो इसे पढ़ने-समझने के नए सन्दर्भ सामने आये. यह सवाल भी कि आखिर जो उपन्यास अंग्रेजी के पाठकों के लिए एक निषिद्ध क्षेत्र की एक्सोटिक’ कथा-यात्रा है उसका हिंदी के पाठकों के लिए भी क्या वही सन्दर्भ हो सकता है. अगर सरसरी तौर पर देखें और कहें तो कह सकते हैं कि सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों की दिल्ली की अँधेरी दुनिया भी कोई कम रोमांचक नहीं है या वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों में भी तो कहानी ऐसी ही होती है. मैंने कहा न सरसरी तौर पर. लेकिन ध्यान से पढ़ें तो हमें अंतर साफ़ दिखाई दे जाता है. सरगना गणेश गायतोंडे और पुलिस अधिकारी सरताज सिंह के बीच चल रहे चूहा-बिल्ली के खेल में उपन्यास की कथा में अपराध के उस तंत्र को गहराई से समझने का एक प्रयास भी दिखाई देता है जो ‘सेक्रेड गेम्स’ को महाकाव्यात्मक संभावनाओं वाले उपन्यास में बदल देता है- ऐसा महाकाव्य जिसमें कविता नहीं है, जीवन का बीहड़ गद्य है. सपनों की दुर्गम यात्रा है, विस्थापन की पहचानविहीनता है, रिश्तों की कृत्रिमता है और कहीं न कहीं हमारे जनतंत्र की वह विडंबना भी जिसमें रक्षक और भक्षक के दोनों एक ही जमीन पर खड़े दिखाई देते हैं. उपन्यास में एक स्थान पर संवाद आता है कि ‘अगर फिल्मों में ऐसा होता है, तो हकीकत में नहीं होगा.’ वास्तव में, सेक्रेड गेम्स में विक्रम चन्द्रा ने एक अवास्तविक, फ़िल्मी लगने वाली दुनिया की कहानी को उसके तमाम कोणों से समझने-समझाने, देखने-दिखाने का प्रयास किया है. अंडरवर्ल्ड की कहानी फिल्मों में खूब आती है, रामगोपाल वर्मा जैसे फिल्मकारों ने इस थीम को अनेक फिल्मों में दुहराया है. लेकिन इस उपन्यास की खासियत है लेखक का वह शोध जो उसे मुंबई का असली कथा जादूगर बना देता है.
उपन्यास की कहानी में अपराध-जगत के जितने प्रसंग आये हैं उनके बारे में हम यह कह सकते हैं कि वह फिल्मों में हम देख चुके हैं, उनके बारे में पढ़ चुके हैं, लेकिन इतनी बारीकी और गहराई से शायद नहीं. कहा जा सकता है कि अपराध-कथा के शिल्प में लेखक ने एक ऐसा संसार रच दिया है जिसके बाद इस जगत के बारे में जो कुछ भी लिखा जायेगा, दिखाया जायेगा इसी का दुहराव लगेगा.
अब सवाल यह उठता है कि ‘सेक्रेड गेम्स’ और और चालू अपराध-कथाओं में, उनकी कथात्मकता में क्या अंतर है? कोई अंतर है भी? इसी के जवाब में इस उपन्यास की वह प्रासंगिकता छिपी है जिसके कारण प्रकाशन के करीब पांच सालों बाद हिंदी भाषा में इसे पुनर्जीवन मिला है, इसके पाठ को नए सन्दर्भ मिले हैं, कथात्मकता के नए सूत्र मिले हैं. ऊपर से देखने पर भले उपन्यास पुलिस-अपराधी के बीच के द्वंद्व की सामान्य-सी कथा लगता हो, लेकिन जिस तरह से इसकी अंतर्कथाएं चलती हैं वह सहज ही आभास देने लगती हैं कि लेखक ने एक तरह से उपन्यास में अपराध-कथा के चालू शिल्प की पैरोडी की है. किसी ज़माने में अम्बर्टो इको ने शर्लक होम्स की कथाओं की पैरोडी करते हुए ‘द नेम ऑफ द रोज़’ जैसा महान उपन्यास लिखा था. ‘सेक्रेड गेम्स’ में अपराध-कथा एक ऐसी युक्ति है जिसके माध्यम से लेखक ने अँधेरे समाज के नग्न यथार्थ को सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. एक ऐसे समाज का जिसमें सबसे बड़ा सपना होता नायक नहीं खलनायक बनने का. लेखक ने मुंबई के अंडरवर्ल्ड के किस्सों के माध्यम से इसके रहस्य को, इसके आकर्षण को समझने का बेहतर प्रयास किया है. निश्चय ही यह कोई महान उपन्यास नहीं है लेकिन एक दस्तावेजी किस्म का ज़रूरी उपन्यास ज़रूर है, जिसमें समाज के दूसरे चेहरे को दिखाया गया है. उपन्यास मोटा ज़रूर है लेकिन आद्यंत पठनीय है.
हिंदी में इस उपन्यास को पढते हुए एक और बात जो समझ में आई कि आखिर इसमें जो विस्थापित पात्र हैं उनमें पुरबिये भी हैं, उपन्यास के पात्रों के तार बिहार के छपरा तक से जुड़े हुए हैं. दूसरे हिंदी में हिंदी की गालियों को पढ़ना उपन्यास से हिंदी पाठकों का एक आत्मीय रिश्ता बनाता है. शायद इसलिए भी हिंदी में पढते हुए यह उपन्यास अनूदित नहीं लगता, न कथा-परिवेश के स्तर पर न ही भाषा के स्तर पर. बार-बार न सही एक बार पढ़ने के लिए उपन्यास बुरा नहीं है. एक तरह से यह हिंदी कथा साहित्य के उस रिक्त स्थान की पूर्ति भी करता है जहाँ इस तरह से सहज उपन्यासों का अभाव है.
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