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कुछ भी ठोस नहीं रहता, सब पिघलता जा रहा है

युवा मीडिया समीक्षक विनीत कुमार की पुस्तक ‘मंडी में मीडिया’ की यह समीक्षा मैंने लिखी है. आज ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुई है- प्रभात रंजन
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जब युवा मीडिया विमर्शकार विनीत कुमार यह लिखते हैं कि ‘मेरे लिए मीडिया का मतलब इलेक्ट्रानिक मीडिया ही रहा है’, तो वास्तव में वे इस तथ्य की ओर इशारा कर रहे होते हैं कि नब्बे के दशक के बाद के दौर में धीरे-धीरे हमारे समाज में मीडिया का मतलब इलेक्ट्रानिक मीडिया ही होता गया है. जबसे मीडिया के माध्यम के रूप में इस माध्यम का विस्तार होता गया है, इसका प्रभाव बढ़ता गया है, इसकी व्याप्ति बढ़ती गई है, इसको लेकर हमारी अपेक्षाएं भी बढ़ती गई हैं. यह विमर्श और विश्लेषण का विषय बनता गया है. विनीत कुमार की पुस्तक ‘मंडी में मीडिया’ भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया, विशेषकर टेलीविजन मीडिया, की संभावनाओं, सीमाओं और सबसे बढ़कर विश्वसनीयता के आकलन का एक प्रयास है. उस विश्वसनीयता का जिसके कारण मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता रहा है. ऐसे दौर में जब लोकतंत्र के तीन स्तंभों से आम जन का विश्वास दरक रहा हो, इस चौथे खम्भे से यह उम्मीद और बढ़ती गई है कि वह जनता की सही आवाज बने, उसकी आकांक्षाओं का सही वाहक बने. लेखक पुस्तक में इस तरह के सवालों से बार-बार टकराते हैं, साथ ही, यह याद दिलाना भी नहीं भूलते कि यह ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ का दौर नहीं है. भारत में, विशेषकर हिंदी-पट्टी में टेलीविजन मीडिया के विस्तार के विश्लेषण की एक मुकम्मिल कोशिश दिखाई देती है ‘मंडी में मीडिया में’.

पुस्तक ‘पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग’ के सपने से शुरु होती है लेकिन जल्दी व्यवसाय के उस फॉर्मूले की चर्चा पर आया जाती है जिसने हाल के वर्षों में टेलीविजन मीडिया की भूमिका को संदिग्ध बनाया है. पुस्तक के पहले ही अध्याय में विनीत यह याद दिलाते हैं, ‘यह एक ऐसा दौर है जहां मीडिया के साथ दो शब्द हमेशा जुड़े रहते हैं- इंटरटेंमेंट और इंडस्ट्री.’ चंदा कमेटी(१९६६), वर्गीज कमेटी(१९७८), जोशी कमेटी(१९८५), सेनगुप्त कमेटी(१९८०) की रपटें इस बात को लेकर चिंता जताती रहीं कि पब्लिक ब्रोडकास्टिंग सामाजिक मुद्दे से हटने की स्थिति में है, जबकि दूसरी तरफ वह मुनाफा-आधारित व्यवसाय में तब्दील होता गया. इस दौर को अक्सर मिशन से प्रोफेशन में बदलने का दौर कहा जाता है. लेखक ने पुस्तक में इस दौर के संकटों, उहापोहों का विश्लेषण किया है. वे एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं कि ‘अगर मीडिया सामाजिक विकास का माध्यम बनने के बदले एक स्वतंत्र उद्योग बनने की दिशा में काम करने लग गया तो क्या इसे बाजार, अर्थशास्त्र और निवेश का क्षेत्र मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए?’ लेखक का आग्रह इस माध्यम को व्यवसाय के रूप में समझने को लेकर अधिक है, सच और विश्वसनीयता के वाहक के रूप में नहीं. यही द्वंद्व है जो समकालीन मीडिया को सुपरिभाषित करता है.

पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग को लेकर लंबे अध्याय के बाद पुस्तक में मीडिया की समकालीन द्वंद्व को समझने के लिए नीरा राडिया प्रकरण को लेकर, अन्ना हजारे के आंदोलन को मिली मीडिया कवरेज को लेकर दो अध्याय हैं. राडिया प्रकरण के बाद मीडिया की नैतिकता-अनैनिकता को लेकर लंबी बहसें चली, देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों के लॉबीइंग करने वाली महिला के साथ घनिष्ठ संबंध  उजागर हुए, मीडिया के हैरतनाक ‘सच’ सामने आए. लेखक का यह मानना है कि यह मीडिया के मिथक के भंग होने का प्रकरण है. इस प्रकरण के बाद मीडिया समूहों में अपनी कमीज को सफ़ेद दिखाने की नहीं बल्कि दूसरे की कमीज को मैली दिखाने की होड़ मच गई. चिंता की बात यह है कि इतने गंभीर प्रकरण पर मीडिया का भाव लीपापोती का अधिक रहा. किसी समूह ने इसके आधार पर विवोदों में आए किसी पत्रकार ऐसी कोई कारवाई नहीं की जिसके बारे में यह कहा जा सके की वह दरकती विश्वसनीयता को वापस पाने की दिशा में एक उचित कदम था.

मुनाफे के कारोबार, होड़ के इस दौर में मीडिया की नैतिकता का सवाल बेमानी होता जा रहा है. समाचार चैनलों पर बढते मनोरंजन के स्पेस के कारण समाचार संदिग्ध होते जा रहे हैं. लेखक मीडिया के कारपोरेटीकरण के इस दौर मे पुस्तक में यह महत्वपूर्ण सवाल उठाता है पेशा भले व्यवहारिक होता जा रहा हो लेकिन इसके नियामक संस्थाओं के आदर्श अभी भी वही हैं पत्रकारिता को मिशन समझे जाने वाले दौर में थे. लेखक मीडिया एथिक्स के बहाने मीडिया के इस माध्यम के व्यवसाय को समझने के प्रयास करता है, कि आखिर किन स्रोतों से मीडिया के पास पैसा आता है, विज्ञापन किस तरह मीडिया को प्रभावित करता है, किस तरफ मीडिया के प्रसारण विज्ञापन केंद्रित होते जा रहे हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके व्यावसायिक पहलू को लेकर पुस्तक का विश्लेषण इसे एक जरूरी सन्दर्भ ग्रंथ बना देता है.
पिछले साल अन्ना हजारे के रामलीला मैदान में अनशन के कवरेज को लेकर यह बहस व्यापक स्तर पर चली कि क्या मीडिया के कारण ही अन्ना का आंदोलन इतना सफल रहा या भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के मुहिम को कवरेज देना मीडिया के लिए अपनी खोई हुई साख को वापस पाने की दिशा में एक जरूरी प्रयास था. इस पुस्तक में लेखक अन्ना आंदोलन के मीडिया कवरेज को व्यावसायिक ऐंगल से देखता है, कि उसके कारण मीडिया का मुनाफा कितना बढ़ा. दिलचस्प विश्लेषण है. हालांकि इसे इतने सरलीकृत ढंग से भी नहीं समझा जा सकता है. लेकिन यह लेखक का सोच है इस पुस्तक में कि इस माध्यम को लेकर एक आलोचनात्मक दृष्टि विकसित की जा सके. इसे चौथे खम्भे के परंपरागत संबोधन से अलग हटकर देखा जा सके- विशुद्ध व्यवसाय के सांचे में. जिसमें कुछ भी ठोस नहीं रहता, सब पिघलता जा रहा है.

पुस्तक का अंतिम अध्याय मीडिया के रेगुलेशन-सेल्फ रेगुलेशन की दिशा में हुए प्रयासों को लेकर है. एक तरफ सरकार इसे नियंत्रित करना चाहती है, दूसरी तरफ प्रेस काउन्सिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष पद का कार्यभार संभालने के बाद जस्टिस काटजू इस तरह के बयान देते हैं कि वे मीडिया की वर्तमान स्थिति से बहुत निराश हैं. लोगों की भावना भी इस तरह की बनती जा रही है कि मीडिया गैर-जिम्मेदार हो गया है, वह निरंकुश बन गया है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर यह रोग है तो इसका निदान क्या है? लेखक इसका कोई आशावादी विकल्प नहीं सुझाता. पुस्तक इसलिए सहज लगती है कि इसमें ‘यथार्थ’ को लेकर बहस है, लेखक अपनी ओर से पाठकों के ऊपर किसी तरह के विचार का आरोपण नहीं करता. दूसरे, पुस्तक को पढते हुए अक्सर यह लगता है कि इसमें समकालीनता का दबाव अधिक है. अधिकतर प्रसंग पिछले दो-एक वर्षों के लिए उठाये गए हैं, लेकिन इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में टेलीविजन मीडिया के विस्तार का यह आरंभिक चरण ही है. हमारे यहां जिस माध्यम की शुरुआत विकास के सपनों के साथ हुई थी, आज वह बाजार के मुनाफे की चकाचौंध में गुम होता जा रहा है. ‘मंडी में मीडिया’ मूलतः इसी चिंता को बेहद शोधपरक, विश्लेषणपरक ढंग से से बहस के केंद्र में लाने की कोशिश है.

समीक्षित पुस्तक: मंडी में मीडिया; लेखक-विनीत कुमार; प्रकाशक-वाणी प्रकाशन; प्रकाशन वर्ष- 2012; मूल्य-पेपरबैक- 275 रुपए,  हार्ड बाउंड- 595 रुपए. 

 
      

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2 comments

  1. वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विचारक राकेश दीवान ने एक सेमीनार में मीडिया को चौथा खम्भा कहे जाने पर सख्त ऐतराज जताया था.. उनका कहना था कि व्यवस्था मीडिया को चौथा खम्भा बता कर अपने अन्दर शामिल करना चाहती है, जबकि मीडिया की असली जगह व्यवस्था से बाहर और जनता के बीच है… उनका मानना था कि इसे चौथा खम्भा मानना ही इसके प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है.

  2. नब्बे बाद मीडिया का चेहरा बुनियादी रूप से बदला है. लोकतंत्र का खम्भा होने का उस का दिखावा बढ़ गया है , जबकि भीतर ही भीतर पूर्णरूपेण वह एक बाजारू धंधा बन चुका है. विनीत की किताब इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि वह इस परिघटना का गम्भीरता से पुस्तकाकार अध्ययन करती है .इस महत्व को रेखांकित कर के आप ने जरूरी काम किया है .

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