विष्णु खरे जी के लेख पर अशोक वाजपेयी जी ने एक कमेन्ट किया था. आज विष्णु खरे का एक पत्र उस कमेन्ट के सन्दर्भ में प्राप्त हुआ, जिसे हम अविकल यहां प्रस्तुत कर रहे हैं- जानकी पुल.
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भाई,
तथ्यों की ग़लतियों को मैं भी नज़रंदाज़ नहीं करता। मैं अभी भारत में नहीं हूँ इसलिए विस्तार में जा नहीं सकता।यदि ऐसी चूक मुझसे हुई है तो मैं अशोक वाजपेयी, उनके सारे पाठकों और मेरी वह टिप्पणी प्रकाशित करने और उसे पढ़ने वालों से मुआफी चाहता हूँ। मुझे वेरिफाई करके लिखना चाहिए था।
दो बातें फिर भी कहना चाहूँगा। कथित रूप से स्वशासी होते हुए भी साहित्य अकादेमी केन्द्रीय संस्कृति विभाग या मंत्रालय के तहत चलती है। अदालत में उसे “स्टेट” या “सरकार” माना जाता है। कुछ भारतीय भाषाओँ को उसने मान्यता केन्द्रीय दबाव से ही दी है और देती रहेगी।दरअसल आधुनिक हिन्दी को कमज़ोर करने का एक ज़िम्मा साहित्य अकादेमी को भी सौंपा गया है। सामसुंग पुरस्कार देने के लिए उसे बाध्य किया ही गया था।उसकी आय का स्रोत भारत सरकार ही है- सब जानते हैं कि उसके प्रकाशन कितने बिकते हैं।अब मैं ठीक से यह भी नहीं कह सकता कि अशोक 1994 में संस्कृति मंत्रालय में थे या नहीं और यदि थे तो किस पद पर थे और 1994 में अकादेमी भी उनके कार्य-क्षेत्र में आती थी या नहीं।
लेकिन इससे यह सार्वजनिक साहित्यिक सच झूठा नहीं हो जाता कि वे तब भी चंद्रकांत देवताले और विनोदकुमार शुक्ल से,जो दोनों उस वक़्त मध्यान्ह सूर्य की तरह हिंदी कविता में तप रहे थे,कहीं कमतर कवि थे,बल्कि उनके बाद के अधिकांश पुरस्कृत कवियों से भी थे ,इन 18 वर्षों में और हो गए हैं,तथा सर्वदा रहेंगे।कुछ नहीं तो मेरा मत “पहचान” सीरीज़ के बाद यही रहा चला आया है।
इस पत्र को जो भी चाहें कृपया अविकल रूप से प्रकाशित करें।