फारूख शेख को याद करते हुए एक लेख लिखा है सैयद एस॰ तौहीद ने-जानकी पुल
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फारुक शेख नहीं रहे, जी हां वो चले गए! यूँ अचानक! अब भी दिल नहीं मान रहा कि एक अजीज दुनिया छोड गया है। शहर-ए-सिनेमा से अक़ीदत और तहजीब का एक किरदार चला गया है। फारूक ने बदतमीज होने के चलन को बेहतरीन तरह से मात दी थी। ऐसा नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में तहजीब का सारथी बाक़ी नहीं,लेकिन फारुक साहेब एक अलग मिसाल थे। कहना होगा कि जल्दी चले गए। फारुक का होना हिन्दी सिनेमा को ताकत देता था,एम एस सथ्यु व मुजफ्फर अली सरीखे फिल्मकारों का शुक्रगुजार हूं । सामानांतर फिल्मों ने समाज को सच में एक उम्दा कलाकार दिया। फारूक शेख के चले जाने का दुख तहजीब सहन नहीं कर सकेगी। उनका जाना संभावनाओं पर विराम लगा गया। एक अरसे तक गलेमर वर्ल्ड में रहकर भी उसकी बुरी बातों से दूर रहने की उम्दा मिसाल को जिन्दा रखा था।
आल इज नोट वेल! यह दिल भला उनके चले जाने का मातम क्यूं ना करे, फारुक में एक उम्मीद जिंदा थी। फिजा में सबकुछ अच्छा ना होकर भी एक उम्मीद का कोना सांसे ले रहा था। काफी समय के लिए आफ-सक्रीन हो जाने बाद जब वापस आए तो समझ आया कि कहानी में यही बडी खासियत हैं। करन जोहर की एक हालिया फिल्म में रनबीर कपूर के पिता का किरदार रूटीन कहानी का आकर्षण बिंदु रहा। देखकर आप महसूस करेंगे कि फारूक साहेब ने चरित्र किरदारों को लेने में थोडी देर कर दी। यह भी कह सकते हैं कि उनकी प्रतिभा को उसके स्तर के रोल ही नहीं मिले। एक सकारात्मक संभावना वाले अभिनेता में काफी तलाश किया जाना बाक़ी रह गया। सितारों की जमात में फारुक की सादगी नजर को सुकुन देती थी। सामानांतर व मुख्यधारा हिन्दी फिल्मों के बीच सकारात्मक संतुलन कायम करने में नसीर साहेब समान रुझान उनमे था। सागर सरहदी की ‘बाजार’ में दोनों को एक साथ देखना दुर्लभ अनुभव था। चुडियां का कारोबार करने वाला किरदार देखा ही नहीं था। हांथों की सजावट को घूम घूम कर ‘चुडियां… लाल हरी चुडियां’ आवाज लगाकर सेल करने वाला सरजु। फारूक के यह किरदार हाशिए के लोगों का प्रतिनिधि सा था। मुस्लिम पृष्ठभूमि पर कहानी का चलन कम रहा है,इस मिजाज की कहानी बालीवुड में नहीं बनती है। ताज्जुब नहीं होता कि इसके सामान फिर कोई फिल्म सागर साहेब ने भी नहीं बनाई। फिल्म का गीत-संगीत भी इसे यादगार बनाता है। मीर से लेकर मखदुम मोहीउद्दीन फिर बसर नवाज के कुछ बेहद उम्दा कलाम काफी पसंद आएंगे।
फारुक शेख का जाना इसलिए भी दिल तोड गया क्योंकि शराफत की परिभाषा उन्हें ही देखकर सीखी। कामयाबी की खातिर कभी फिल्मों की पसंद को नहीं बदला,सिनेमा से हट गए लेकिन किरदार से कभी समझौता शायद नहीं किया। लेकिन इस क्रम में सिनेमा छूट गया, दर्शकों ने उनके निर्णय का सम्मान किया। क्योंकि वापस आए तो उसी दमखम के साथ, कहानी में रोल बदल गया लेकिन छवि की तासीर वही रही। फिल्मों की बनावटी रवैये से दिल टुटा तो टीवी का रुख कर लिया। वहां धारावाहिक ‘श्रीकांत’ में शीर्षक भूमिका कर दिलों को जीत लिया। जी टीवी पर ‘जीना इसी का नाम है’ को कौन भूला होगा। कार्यक्रम की लोकप्रियता ने फारुक की पुरानी यादों को जिन्दा कर दिया था।
मुजफ्फर अली हाल ही मे किसी कार्यक्रम के सिलसिले में पटना आए। प्रेस वार्त्ता में ‘उमरावजान’ की बात निकली। महफिल में आए एक शख्स ने ‘उमरावजान2’ बनाने पर जोर दिया। मुजफ्फर साहेब उस पर बात करना पसंद पसंद नहीं कर रहे थे ,क्योंकि क्लासिक फिल्मों का सिक्वेल बनाने में बालीवुड कमजोर पडता है। लेकिन निकली हुई बात दूर तलक जाती है। शख्स ने फिल्म बनने की सुरत में खुद को फारुख साहेब की जगह कास्ट करने की बात हंसी खुशी कह डाली। महफिल में रौनक थी। आज जब उस दिन को मुडके देखता हूं तो उस शख्स की हंसी ठहाका, तालियां चुभते हैं। खुद मुजफ्फर साहेब को भी एहसास न होगा कि उस अजनबी की दुआ उनके एक अजीज़ के लिए बददुआ हो जाएगी। फारुक अब हमारे बीच नहीं। खुदा ने किसी एक बंदे की गैर-मामूली सी गुजारिश में एक अजीज़ को बुला लिया। दिल नहीं लगता इस जहान में, ना जाने अब कौन वो मुहब्बत लाएगा। तहजीब की महफिल अपना एक सितारा खो चुकी है।
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