भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के बारे में यह आम धारणा है कि वे वैज्ञानिक सोच वाले थे, पूर्ण रूप से नास्तिक थे. लेकिन उनके करीबी माने जाने वाले कवि रामधारी सिंह दिनकर ने उनके ऊपर एक किताब लिखी थी- ‘लोकदेव नेहरु‘. उस पुस्तक में नेहरु जी के धार्मिक विश्वासों के बारे में भी उन्होंने लिखा है, जो उनकी इस छवि को पूरे तौर पर न सही थोडा सा तो बदल ही देती है. नेहरु की मृत्यु की अर्धशती के वर्ष में दिनकर की उस पुस्तक का एक छोटा-सा अंश- जानकी पुल.
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“राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन मुझसे कहते थे कि मैं प्रधानमंत्री को भगवत के चुने हुए श्लोकों की व्याख्या सुनाता हूँ और वे जिस मुद्रा में इस आख्यान को सुनते हैं वह मुद्रा भक्तों की मुद्रा से मिलती-जुलती है. राष्ट्रपति ने ही मुझे बताया था कि टंडन जी से मिलने को जब राष्ट्रपति इलाहाबाद गए, तब टंडन जी ने उनसे कहा, ‘जवाहरलाल पर आपकी संगति का अच्छा प्रभाव पड़ा है. पिछली बार जब वह प्रयाग आया था वह आनंदमयी माँ के कीर्तन में गया और वहां डेढ़ घंटे बैठा रहा.’
पंडितजी के मरने के बाद ‘कल्याण’ का जो भक्ति अंक प्रकाशित हुआ उसमें माँ आनंदमयी के साथ पंडितजी के दो फोटो छपे हैं. एक में माँ आनंदमयी भी बैठी हैं और पंडित जी ध्यान में हैं, मानो माँ उन्हें ध्यान करवा रही हों. दूसरे में वे हाथ में माला धारण किये माताजी के पास खड़े हैं.
ज्योतिष में पंडित जी का विश्वास नहीं था. अष्टग्रह के समय सम्पूर्णानन्दजी ने उन्हें हवाई यात्रा करने से मना किया था, किन्तु पंडित जी ने उनकी चेतावनी को हंसकर उड़ा दिया.
गीता वे जब-तब पढ़ा करते थे और हठयोग के प्रति भी आस्थावान थे. शीर्षासन तो उन्होंने जेल में ही आरम्भ किया था. इधर श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से उन्होंने शंख-प्रक्षालन आदि कुछ यौगिक क्रियाएं भी सीख ली थी. मैंने एक दिन धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से पूछा, ‘पंडितजी को योग सिखाने में आपको भय नहीं लगता है?’
धीरेन्द्र जी ने कहा, पहले के छः-सात दिन तो मुश्किल के रहे. पंडितजी पर क्रियाओं का कोई फल ही नहीं होता था. मैं मन ही मन थोडा सहमने भी लगा था; किन्तु पंडितजी ने ही मुझे यह कहकर आश्वस्त किया था कि घबराने की क्या बात है, जब तक कहियेगा कोशिश करता रहूँगा. पीछे क्रिया सफल हो गई और पंडितजी बहुत प्रसन्न हो गए.’
कमलाजी का स्वर्गवास स्विट्ज़रलैंड के एक सैनिटोरियम में हुआ था. जब उनका शरीर छूट रहा था, पंडितजी उनके पास ही बैठे थे. कमलाजी रह-रह कर कहती थी, ‘वह कौन है जो मुझे बुला रहा है? दरवाजे के पास कौन खड़ा है? तुम देखते नहीं, वह कौन छाया कोने में कड़ी है?’ मगर पंडितजी को कुछ भी दिखाई नहीं देता था.
क्या इस घटना की याद जवाहरलाल जी को परलोक की ओर उन्मुख नहीं करती होगी?
अंधविश्वास अथवा पौराणिक संस्कार की बातें पंडित जी के भी परिवार में थी. पंडितजी की माताजी उसी अर्थ में धार्मिक थीं, जिस अर्थ में हमारी माताएं हुआ करती थीं. श्रीमती कृष्णा हठी सिंह(नेहरु जी की बहन) ने लिखा है कि सन 1919-20 के करीब नेहरु परिवार जिस महल में रहा करता था उसके जलावन वाले घर में एक साँप रहता था. पंडितजी की माताजी का विश्वास था कि वह साँप खानदान की किस्मत का पहरेदार है. इसलिए उसे डराना नहीं चाहिए. किन्तु दुर्भाग्यवश एक नए नौकर को परिवार के इस विश्वास का पता नहीं था. इसलिए एक दिन जब सांप उनके सामने पड़ा, नौकर ने उसे मार दिया. इससे परिवार आशंकाओं से सन्न रह गया. पीछे जब बाप-बेटे जेल चले गए, नौकरों ने इस बात का बड़ा विलाप किया कि साँप इस परिवार के सौभाग्य का सचमुच ही रक्षक था.
आदरणीय श्री प्रकाश नारायण सप्रू ने एक दिन मुझे बताया, ‘अभी कई वर्ष पूर्व पंडितजी एक दिन इलाहाबाद में बैठकर अपने पुरखों के बारे में यह हिसाब लगाने लगे कि कौन कितनी उम्र में मरे थे. फिर आप ही आप बोल उठे, मैं चौहत्तर और पचहत्तर के बीच मरूँगा(नेहरु जी की मृत्यु इसी उम्र में हुई). इसके बाद उन्होंने ज्योंही विजया जी की ओर उंगली उठाई, विजयाजी ने यह कहते हुए पंडितजी को रोक दिया कि ‘भैया, अब बस करो.’
और यह क्या विस्मय की बात नहीं है कि जबकि यह तय हुआ था कि संसद 29 मई को आरम्भ होगी, पंडितजी ने ही इस निश्चय को बदलकर संसद के आरम्भ की तारिख 27 मई(27 मई को नेहरु जी का देहावसान हुआ था) कर दी थी?”
‘पंडित नेहरु और अन्य महापुरुष’ पुस्तक से साभार. प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन