सोद्देश्य सिनेमा को समर्पित फिल्म लेखक, निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास की यह जन्मशताब्दी का साल है. उनकी लेखन-कला, उनकी सिनेमा कला को याद करते हुए एक बढ़िया लेख लिखा है सैयद एस. तौहीद ने- जानकी पुल.
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उन दिनों वी शांताराम की एक द्विभाषी फिल्म ‘दुनिया ना माने’ बनी थी। बांबे क्रानिकल में उस समय कन्हैयालाल फिल्मों पर लिखा करते थे। शांताराम की फिल्म प्रीमियर में कन्हैयालाल को भी आमंत्रण मिला। उस दिन उनके पास इसके लिए समय नहीं निकल रहा था। ऐसे में फिल्म के प्रीमियर पर खुद के बदले साथी ख्वाजा अहमद अब्बास को भेज दिया। जाहिर था कि फिल्म पर लिखने का मसला भी अब्बास ही को देखना पडा। इस खास अवसर ने आपकी जिंदगी का रूख मोड दिया। क्योंकि ‘दुनिया ना माने’ शांताराम की फिल्म रही सो उसमें जिंदगी की हक़ीकत को बेबाकी से रखा गया था। कहानी में अभिनेत्री शांता आपटे का किरदार पुरुष प्रधान समाज में नारी अधिकारों का विमर्श था। इस अनुभव से अब्बास बदलाव की हद तक प्रभावित हुए। फिल्म ने अब्बास को शांताराम के जीवन व फिल्मों से अनायास जोड दिया। बहरहाल जब बांबे क्रानिकल में अब्बास का यह लेख प्रकाशित होने पर काफी सराहना मिली। तब से आप फिल्मों पर नियमित लिखने लगे। युरोप की यात्रा पर जाने से यह सिलसिला रुका लेकिन फिर से क्रानिकल में वापसी की। इस बार समीक्षाएं भी लिखने का काम मिला। इस दरम्यान आपको देश दुनिया की हजारों फिल्में देखने का अवसर मिला। अखबार ने आपको अपने मिजाज की समीक्षाएं लिखने की आजादी दे रखी थी। किंतु यह राय भी दिया करता कि अब्बास शब्दों के असर पर थोडा जरूर सोंचे। अब्बास अखबार के लिए ‘आखिरी पन्ना’ कालम लिखने लगे। कालम की मांग को देखते हुए इसे एक साप्ताहिक अखबार में भी जगह मिली। इस घटना के एक बरस बाद शांताराम की ‘आदमी’ बनकर आई। आप शांताराम की इस महान पेशकश से भी अक्रांत हुए । इस पर लिखा आलेख भी पाठकों ने काफी पसंद किया। अब्बास ने शांताराम की इन फिल्मों को बार-बार देखा। इस दीवानगी ने आपको फिल्मों की कहानियां व सीनारियो लिखने की ओर आमुख किया। एक तरह से आपने शांताराम को अपना सिनेमाई आदर्श बना लिया था। आपकी लिखी कहानी पर सबसे पहले बनने वाली फिल्मों में ‘नया संसार का नाम लिया जाता है। यह बांबे टाकीज की मशहूर फिल्मों में एक थी। पहली कामयाबी ने अब्बास को तीन नयी कहानियों पर फिल्म बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। फिल्मकार अब्बास ने अपना संसार रचना शुरू कर दिया था। बंगाल के भीषण अकाल से उपजे हालात सभी को प्रभावित किया था। अब्बास को बंगाल जाकर जो अनुभव हासिल हुए उसे फिल्म के रूप में लौटा दिया। आपने इस त्रासदी के ऊपर विश्व विख्यात ‘धरती के लाल’ का निर्माण किया था। सामानांतर सिनेमा के मूल्यों को लेकर चलने वाले अब्बास की ज्यादातर फिल्में सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना की महान दस्तावेज थीं।
अब्बास जीवन को उसकी हक़ीकतों के साथ बयान करने में विश्वास रखा करते थे। बंगाल के अकाल पर फिल्म बनाने का विचार विषय पर बनी रंगमंच प्रस्तुति से मिला। इस महान प्रस्तुति को साकार करने में भारतीय जन नाटय संघ का मुख्य सहयोग था। देश में प्रायोगिक फिल्मों की दिशा में यह पहली कडी थी। बलराज साहनी को कहानी में पेश किरदार निभाने के लिए कडी साधना की थी। भूखमरी व गरीबी पीडित किरदार के लिए दिनों तक एक वक्त का खाना त्याग करना पडा। बलराज साहनी-दमयंती की इस फिल्म को हर जगह सराहना मिली। भारतीय सिनेमा में अब यह एक रिफरेंस की दर्जा हासिल कर चुकी है। अब्बास द्वारा प्रकाशित फिल्मी पत्रिका ‘सरगम’ हालांकि कामयाब नहीं हो सकी। लेकिन उर्दु-हिन्दी बीच पनपी खाई को कम करने का बेहतरीन प्रयास थी। आजादी बाद रिलीज हुई फिल्मों में राज कपूर की ‘अवारा’ दुनिया भर में विख्यात रही। इसकी क्रांतिकारी कहानी को ख्वाजा अहमद अब्बास ने ही लिखा था। महबूब खान की ‘अंदाज़’ को पृथ्वीराज कपूर ने काफी पसंद किया था एवं महबूब खान से सेवाएं लेने का मन बनाया था। उन दिनों अब्बास आवारा की कहानी पर काम कर रहे थे। कहा जाता है कि अब्बास ने पहले पहल यह कहानी को लेकर महबूब खान के पास आए थे। फिर यह कहानी पृथ्वी व राज कपूर के पास लेकर आए। राजकपूर की तक़दीर रही कि जिंदगी का रुख मोड देने वाली ‘आवारा’ को बनाने का अवसर मिला। फिल्म की बेजोड कामयाबी ने राज साहेब व अब्बास को लंबे समय तक साथ बांधे रखा। अब्बास ने राजकपूर के लिए अनेक कामयाब फिल्में लिखी। स्वयं के लिए फिल्में लिखने व बनाने का काम भी अब्बास ने सामानांतर रूप से चला रखा था। इस सिलसिले में अनहोनी-चार दिन चार रातें- शहर और सपना महत्त्वपूर्ण थी। अब्बास की फिल्मों को भारत के राष्ट्रपति की ओर से सम्मान मिला था। यह आज के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के समतुल्य था। आपने बच्चों के लिए भी फिल्में की जिसमें ‘हमारा घर’ को विश्व स्तर पर सराहना मिली। देव आनंद- नलिनी जयवंत अभिनीत ‘राही’ कामयाबी के मामले में बदकिस्मत रही। अब्बास की उपन्यास पर बनी ‘चार दिन चार रातें’ एक सफल फिल्म थी। अब्बास की यह फिल्म बांबे टाकीज व कमाल अमरोही के सहयोग से बनी थी।
अब्बास ने साथियों के लिए बाक्स आफिस पर कामयाब फिल्मों की कहानियां लिखी। खुद के फिल्मी शाहकारों के साथ स्वतंत्र होकर प्रयोग किए। इस मसले पर उन्हें बाज़ार से अधिक समाज व राष्ट्र की फिक्र सता रही थी। आप की ‘सात हिन्दुस्तानी’ को लोग सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म के रूप में जानते हैं। गोवा की दास्तान-ए-आजादी पर आधारित यह फिल्म काफी मशहूर हुई। आपने ‘बंबई रात की बाहों में’ तथा ‘शहर और सपना’ महानगर के अनुभवों पर आधारित थी। बडे शहरों की जिंदगी के ज्यादातर पहलुओं को पेश करने में यह फिल्में सफल थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की राय थी कि अब्बास बच्चों के लिए भी फिल्में बनाएं। इस क्रम में ‘हमारा घर एवं मुन्ना’ बनी तो जरूर लेकिन रिलीज हो सकी नेहरू के निधन उपरांत। साठ दशक के मध्य में मित्र आनंदराज के सहयोग से ‘आसमान महल’ फिर इसी के आसपास दो नए कलाकार दिलीप राज व सुरेखा को लेकर ‘शहर और सपना’ का निर्माण किया। नामी बर्लिन फिल्म फेस्टीवल में ज्युरी होने का गौरव भी इन्ही बरसों में मिला। उस फेस्टीवल में ‘वाल आफ बर्लिन’ फिल्म देखी। माना जाता है कि अब्बास ने फिल्म ‘बंबई रात की बाहों में’ की कहानी उस दरम्यान लिखी थी। दुख की बात रही कि अब्बास की फिल्मों को सेंसर बोर्ड से कडवे व दुखदायी अनुभव मिले। अस्सी दशक में रिलीज ‘नक्सलाईट’ लंबे समय तक सेंसर के चक्कर में फंसी रही। इस क्रम में ‘ए टेल आफ फोर सिटीज’ के बारे में भी सुनें जो मुकदमा जीत कर भी दर्शकों तक नहीं पहुंच सकी। अपने चार दशक के सिनेमा सफर में आपने पच्चीस से अधिक फिल्मों का निर्माण किया। दूसरे फिल्मकारों के लिए लिखी फिल्मों की संख्या भी तकरीबन इसी के आसपास थी। फिल्म में सेवाएं देने के साथ समाचार-पत्र व पत्रिकाओं मे फिल्मों पर कालम लिखने का काम जारी रखा। आखिरी पारी में अब्बास साहेब ने मिथुन चक्रवर्ती व स्मिता पाटील को लेकर ‘नक्सालाईट’ का निर्माण किया। इसी क्रम में आपकी आखिरी मानी जाने वाली फिल्म ‘आदमी’ का भी जिक्र किया जा सकता है। अस्सी दशक के मध्य समय में आपकी सेहत में चिंताजनक बदलाव आए। सन 1987 मार्च के एक दिन पेश आए हार्ट अटेक में ख्वाजा अहमद अब्बास का देहांत हो गया। मौत से पहले लिखे वसीयतनामे को आपके आखिरी फिल्म कालम के रूप में प्रकाशित किया। फिल्मों में नयी क्रांति लाने के लिए जीवन भर प्रयासरत रहे अब्बास ने नए कलाकारों को काम देकर ‘स्टार व्यवस्था’ को कडी चुनौती दी। भारतीय सिनेमा का यह सितारा हमारे बीच ना होकर भी अपने कारनामों व फिल्मों में जिंदा है।
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सैयद एस.तौहीद
आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि फटफटिया बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।