हर साल आजादी के दिन हम कुछ देशभक्ति की बातें कर लेते हैं, कुछ गीत गा-सुन लेते हैं मगर उन गीतकारों को नहीं याद करते हैं जिन्होंने देशभक्ति की भावना से लबरेज ये गीत लिखे थे. ऐसे ही कुछ गीतकारों पर सैयद एस. तौहीद का यह लेख- मॉडरेटर.
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देश को मिली आज़ादी हजारों की कुर्बानी का सिला है। देशभावना को देशभक्ति गीतों में एक जुबान मिल जाती है। कहना होगा कि हिन्दी फिल्म में इस जुनून के गीतों की एक सकारात्मक विरासत रही है। इन गीतों के लिखने वालों पर हमारा उतना ध्यान नहीं रहता, ना इनमें जीता आम आदमी नजर आता है। यह आम आदमी कौन है? क्या आम आदमी पार्टी के लोग ही आम हैं? सडक का आदमी-गरीब आदमी-दुखी आदमी-असहाय आदमी आम आदमी है। देशभावना में इस आदमी का भी हिस्सा बनता है।
एक बेकार काम दस खूबसुरत कामों को हाशिए पर डाल दिया करता है। ज्यादातर फिल्म वाले सामाजिक जिम्मेदारियों को अदा करने में सीमाओं की बात लाकर खुद को बचा लिया करते हैं। सकारात्मक चीजें करने में दायरा देखने से काम मुश्किल हो जाता है। फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के दायरे में डालने से सिनेमा के सामाजिक पक्षों को कमजोर सा कर दिया है। मुख्यधारा फिल्मों में इसको ठीक करने में काफी लोग जुटे हुए हैं। सिनेमा का एक सेक्शन जिम्मेदारियों को पूरा करने की दिशा में चल रहा,एक मनोरंजन सिर्फ मनोरंजन की बात कर साथियों की कोशिशों को कमजोर कर रहा। बुरी बातों के साथ कुछ सकारात्मक बातें जरूर पेश आती हैं,लेकिन पहले का असर दूसरे को देखने से रोक देता है। फिल्म मेकिंग में जन भावनाओं को आवाज देने की एक पहल देशभावना के गीतों में मिलती है । सामानांतर सिनेमा की फिल्मों ने देश-समाज के हितों को दूसरे तरीकों से पेश किया।
देशभक्ति गाने आपको राजेद्र कृशन की याद देंगे। सितारों की भीड में वो एक बडे सितारे थे। फिल्मी दुनिया में रहकर धारा से अलग होकर चलने का उनमें कमाल का फन था। वो अनबुझ पहेली की तरह समकालीनों के साथ कभी नजर नहीं आए। कहा जा सकता है कि उनके समय के बहुत से फनकार राजेन्द्र को जानते भी ना होंगे। आज उनको गुजरे अरसा हुआ लेकिन फनकारी की विरासत कभी ना फना हो शायद। ताज्जुब नहीं कि हिन्दी सिनेमा के पांच सर्वकालिक गीतकारों में आपका भी शुमार है। चालीस से साठ दशक के दरम्यान राजेन्द्र कृशन को पूरा फिल्म जगत दीवानों की तरह मांगा करता था। बेहतरीन फनकारी को बार-बार पाना एक वाजिब चाहत थी।
दिल्ली है दिल हिन्दुस्तान का
यह तीरथ है जहान का
कहने को छोटा सा नाम है यह
सोचों तो इसके मतलब हजार
बिखरा है इतिहास गलियों में इसकी
सदियों के बाक़ी यहां पे निशान।
फिल्म पतंग का यह गीत राजधानी दिल्ली पर सरसरी नजर रखने में बेहद कामयाब मालूम पडेगा। यह शहर अपने में बेशुमार भूली बिसरी दास्तानों को सदियों से समेट कर चल रहा है। यहां के हरेक पडाव पर एक इतिहास तालाश का इंतजार करता है। अतीत की कहानियों के साथ जीना का चलन यहां सांस लेता है। फिर भी दिल्ली का आज रह-रह कर खतरनाक क्यों हो जाता है? राजेन्द्र जी एक गाना ‘इक तहजीबों का संगम है’ भी याद आता है। देश की गंगा-जमुनी तहजीब को समर्पित यह गीत विविधता में एकता को बयान करता है। यह गीत देश के गौरव गान की तरह लिखा गया था। हमें खुद के भीतर जिंदा भारतीय को तलाश करने की जरूरत है।तालाश उसकी जो हमारे भीतर रहता जरूर है, लेकिन वक्त पर सवाल-जवाब नहीं करता। नहीं करता सवाल कि भला ऐसा क्यों नहीं ?
इक तहजीबों का संगम है
जिसे दुनिया भारत कहती है
तुलसी के दोहों के संग
गालिब की गजल भी रहती है।
देशभक्ति गानों के लिए मशहूर कवि प्रदीप को देश का सिनेमा याद करता है। जिस किसी ने ‘अए मेरे वतन के लोगों’ को सुना वो प्रदीप को भी जानता होगा। चालीस के दशक में फिल्मों से हुआ रिश्ता लंबे समय तक कायम रहा। प्रदीप की शख्सियत को उनकी रचनाओं के बहाने याद करना मुल्क की इबादत से कम नहीं। सरल जीवन में यकीं रखने वाले इस लेखक ने कभी नहीं सोंचा होगा कि एक दिन सारा हिन्दुस्तान उनका आदर करेगा। प्रदीप ने गीत व कविताएं गाकर सुनाने का रास्ता अपनाया, अपने बहुत से फिल्मी गीतों को आवाज देने का अवसर नसीब हुआ था। आपको मालूम होगा कि पहली ही फिल्म में लेखन के साथ गायन का काम मिला था। गायक का फर्ज ‘जागृति’ से निखर कर आया। फिल्म क गीत ‘साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल’ याद आता है। हिन्दुस्तान की जानी मानी आडियो कंपनी एचएमवी ने प्रदीप के लिखे व गाए गानों का अल्बम जारी किया था। कवि प्रदीप भारत के मुस्तकबिल की बडी जिम्मेदारी लेकर चल रहे थे। वो इंसानियत को बचाने की फिक्र में लिखा किया करते ‘कितना बदल गया इंसान’ फिर यह भी
दुनिया के दांव पेंच से रखना ना वास्ता
मंजिल तुम्हारी दूर है रास्ता
भटका ना दे कोई तुम्हें धोखे में डाल के
इस देश को रखना संभाल के…।
प्रेम धवन ने चालीस दशक में आजादी के आसपास फिल्मों में कदम रखा। फिल्म के लिए संगीत रचकर गीत लेखन का रास्ता भी अपनाया। देव आनंद की एक फिल्म में किशोर कुमार के साथ कामयाब गाने दिए। गर आप उनके गीतों का जायजा लें तो महान गीतकारों का ख्याल होगा। कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा के दिग्गज गीतकारों में प्रेम धवन को जगह मिलनी चाहिए। खेमचंद प्रकाश से लेकर अनिल बिश्वास फिर सलील चौधरी व रवि एवम चित्रगुप्त के साथ काम किया था। सिनेमा में उनका नजरिया जिक्र का हक़दार होकर भी उससे बाहर रहा। धवन ने देश भावना को गीतों के जरिए खास जुनून दिया । उनके लिखे गाने सुनने वालों में वतन का जज्बा तराश कर लाते हैं। यह गीत इंसानी भलमनसाहत का एहसास कराते हैं। समपन्न लोगों को हाशिए पर पडे लोगों की इस भावना का ख्याल करके इनकी सहायता में वाजिब कदम उठाने चाहिए। जिन लोगों का इनसे मोहभंग हुआ, खुद हक़ के लिए उठ खडे हुए। मुल्क की खातिर मर मिटने वाले अपने वास्ते भी लड सकते हैं।
अए मेरे प्यारे वतन ,अए मेरे बिछडे चमन
तुझपे दिल क़ुरबान…!
तु ही मेरी आरजू…तू ही मेरी आबरू।
फिल्मी गीतों को सरल सुगम बनाने में दीनानाथ मढोक जैसे गीतकारों का सराहनीय योगदान था। चालीस दशक की बहुत सी हिट फिल्मों में दीनानाथ की लेखन काबलियत उभरकर आई । उस वक्त की फिल्मों में तानसेन,रतन एवं भक्त सूरदास के गीत काफी सराहे गए। कलकत्ता के ‘न्यु थियेटर्स से फिल्मों में आने वाले दीनानाथ ने पहले पहल बतौर हीरो काम किया। लेकिन उन्हें बहुत जल्द ही समझ आया कि यह वो मंजिल नहीं जिसकी उनको जुस्तजु थी । वो समझ गए कि लेखन को उनकी ज्यादा जरूरत है। चालीस के दशक की बहुत सी हिट फिल्मों का अहम हिस्सा रहे दीनानाथ ने देशभक्ति स्वर के गाने का अंदाज काबिले तारीफ था। हर आदमी में जी रहे देश जज्बे को जानते थे। वतन से अलग हमारी पहचान नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय के बिना क्या अपनी मुकम्मल पहचान मिल सकती है? मूक-बधिरों के हक़ में राजपथ की परेड का आंखो देखा हाल बताना सराहनीय कदम था। लेकिन इसमें देर तो नहीं हुई? एक गाने में दीनानाथ कह गए…
वतन की मिटटी हांथ में लेकर माथे तिलक लगा लो
जिस माटी ने जन्म दिया उस माटी के गुन गा लो।
अमृतसर के एक पंजाबी परिवार से ताल्लुक रखने वाले ओमप्रकाश उर्फ क़मर जलालाबादी को बचपन से शायरी में दिलचस्पी थी। इस शौक की वजह जल्द ही शायरी लिखना-पढना सीख लिया था। स्कूल की पढाई पूरी होने तक अखबारों में लिखने का फन हासिल कर लिया था। चालीस के दशक में फिल्मों की कशिश क़मर को बाम्बे ले आई। ज्यादातर कहानी व सीन की डिमांड पर लिखने वाले इस गीतकार की संजीदा शख्सियत गानों में बखूबी महसूस की जा सकती है। वतनपरस्ती के जुनून में डूबे गीत क़मर जलालाबादी को एक और पहचान का मालिक बनाते हैं…शहीदों तुमको मेरा सलाम,फांसी के तख्ते पर चढकर लिया वतन का नाम’ को सुने। आप उनका यह गीत भी सुनें… शोषण की शक्तियों का खात्मा अब भी नहीं हुआ है, किसी बदले हुए रूप में वो आज भी जनता के दुख का कारण हैं।
सिकंदर भी आए कलंदर भी आए
ना कोई रहा है न कोई रहेगा…
मेरा देश आजाद होके रहेगा।
गीतकारों में शौकत परदेसी का नाम एक बहुत जाना पहचाना नाम नहीं। हिन्दी संगीत की बडी विरासत में आज यह एक भूला-बिसरा नाम है । इस गीतकार ने वतन की इबादत में एक खूबसुरत फिल्मी गीत लिखा था। जिसके बोल सराहनीय कहे जा सकते हैं। परदेसी का यह बोल एकता का महत्त्व बता गए। कहना जरूरी नहीं कि सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन का तुफान हर समय जरुरी है।
आकाश के आंचल में सितारा ही रहेगा
यह देश हमारा, हमारा ही रहेगा
तुफान का अंजाम किनारा ही रहेगा।
आपको सत्तर दशक के गीतकार वर्मा मलिक का ख्याल होगा। हिंदी सिनेमा में परिवर्तन का समय लेकर आया। इस युग में रूमानियत व प्रतिशोध की धाराएं हिन्दी सिनेमा को एक खास सांचे में ढाल रहा था। पचास व साठ दशक के बडे नाम उभरते सितारों के कारवां से अलग होकर खुद में एक नयी शख्सियत देख रहे थे। रूमानियत से आगे के समय पर सोंच कर सलीम-जावेद ने ‘प्रतिशोध’ थीम वाली कहानियों को लिखा। परदे की ‘एंग्री इमेज’ ने रूमानी कहानियों से हमारा ध्यान हटा दिया। वर्मा मलिक के गीतों ने इस समय को गीतों की जुबान देने की अच्छी कोशिश की। उनके देशभावना गीत हुकूमत को सडक के आदमी की ताकत बताने में कामयाब रहे थे। इन पंक्तियों का तेवर महसुस करें…
मजलूम किसी कौम के जब ख्वाब जागते हैं
तो देश में हजारों इंकलाब जागते हैं।
यही हम यही इरादा,यही फैसला करना है
हमें देश की खातिर जीना और मरना है।
वर्मा मलिक के समकालीन संतोष आनंद भी याद आते हैं। मनोज कुमार अपनी फिल्मों में संतोष आनंद एवं वर्मा मलिक सरीखे गीतकारों को लेकर आए। संतोष के गीतों में देशभक्ति-रिश्तों की झनक-मानवीयता विषयों का दिलचस्प मेल देखने को मिलता है। मनोज कुमार एवं राजकपूर की फिल्मों के गीत लिखते हुए एहसास के ज्यादातर पहलुओं को देखा था। मनोज सिनेमा में अगली पारी का तेवर लेकर मुल्क से ताल्लुक रखने वाले विषयों पर फिल्म बना रहे थे। संतोष आनंद का लिखा यह गीत यह कह गया कि आंदोलन के लिए मेहनतकश हमेशा सजग रहते हैं…दुआएं तुमको ना दूंगा ऐश-ओ-इशरत की…कि जिंदगी को जरूरत है कडी मेहनत की।
दुनिया की सारी दौलत से इज्जत हमको प्यारी
मुटठी में किस्मत अपनी,हमको मेहनत प्यारी।
देश का हर दीवाना बोला,मेरा रंग दे बसंती चोला…।
इंदीवर को भी आज याद किया जा सकता है। हिन्दी फिल्मों के लिए एक से एक सुंदर गीत लिखने वाले इंदीवर रूमानियत से रूबरू होकर जीवन के सत्य से अलग नहीं थे। उनकी यह सोंच ‘जिंदगी का सफर,यह कैसा सफर’ फिर ‘नदिया चले रे धारा तुझको चलना होगा’ में देखी जा सकती है। मौत से मुहब्बत निभाने का वादा सिखाने वाले इंदीवर का यह गीत याद आता है। न्याय व तरक्की को लेकर जुबानें एक स्वर में आवाज उठाएं तो हर मुश्किल आसान होने लगती है।
दुनिया में कितने वतन
दुनिया में कितने वतन कितनी जुबानें
प्यार का बस एक वतन दिल
एक जुबान सब जानें।
गुजरे वक्त के गीतकारों में अनजान का नाम इस मायने में काफी महत्त्व रखता है कि वो कवि सम्मेलनों में जाया करते थे। बनारस से ताल्लुक रखने वाले लालजी पांडेय उर्फ अनजान को हिन्दी प्रसार से दिली मुहब्बत थी। हालांकि वो मुशायरों में भी शिरकत करते रहे। पचास दशक के शुरुआती सालों में फिल्मों का रूख करने वाले इस गीतकार ने हिन्दी संगीत को बेहतर गानों की विरासत दी है। आज अनजान का लिखा ‘मत पूछ मेरा कौन वतन’ याद आता है।
मत पूछ मेरा है कौन वतन
और मैं कहां का हूं
सारा जहान है मेरा, मैं सारे जहान का हूं।
नब्बे दशक ने भी हिन्दी सिनेमा को उम्दा गीतकार दिए। पी के मिश्रा- मेहबूब सरीखे लोग आज भी याद आते हैं। मणि रतनम की फिल्मों से लेखन की शुरूआत करने वाले मेहबूब
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