अभी कुछ दिन पहले ही 30 अगस्त को हिंदी सिनेमा के अमर गीतकार शैलेन्द्र की जयंती थी. उनका और राज कपूर का रिश्ता अटूट माना जाता था. फिल्म समीक्षक सैयद एस. तौहीद ने इसी बात की याद दिलाने के लिए यह सौगात भेजी है हम पाठकों के लिए कि राज कपूर ने शैलेन्द्र के मरने पर क्या कहा था. पढ़िए और उस महान गीतकार को याद कीजिए- मॉडरेटर.
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दिल का एक सितारा चला गया है। ठीक नहीं हुआ। आपके बगिया के खूबसुरत गुलाबों में से कोई एक भी जाए, तकलीफ होती है। अजीज के लिए यह आंसु भी कम पड़ रहे हैं। किस कदर सादा सच्चा बेखुदगर्ज़ इंसान था। इस शख्सियत का एक अहम हिस्सा। अब जबकि वो नहीं रहा…हमेशा के लिए चला गया, याद में आँसू में आएंगे। गुजरे जमाने को मुडकर देखता हूं तो चालीस का दशक आंखों में तारी हो जाता है। ख्वाबों की दुनिया…ख्वाब जिन्हें पूरा करना था। इरादे की बुलंदियों से ताकत मिल रही थी। उस जमाने में ‘आग’ पर काम कर रहा था। पृथ्वी थियेटर से थोडा ही आगे इप्टा का कार्यालय था। एक बेबाक आदर्श युवा कवि से मिलना शायद लिखा था। मुलाकात के उस दिन को भुला नहीं सकता। मिलकर जल्द ही समझ गया कि मेरी फिल्म के थीम गाने के साथ केवल यही व्यक्ति न्याय कर सकेगा। फिल्म के लिए लिखने को कहा। वो कविताओं की कीमत पाने के लिए लिखा नहीं करता था। फिल्म वालों में खासी दिलचस्पी भी नहीं दिखी थी। एक समझ से ठीक भी लगा… क्योंकि रेलवे में काम करके ठीक-ठाक तनख्वाह मिल जाती थी। मुंबई के परेल में एक ठिकाना भी बना लिया था। मुल्क के मुस्तकबिल के बारे सोचने वाला – क्रांतिकारी विचारों का शख्स था। गांधी जी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया। नेहरू के समाजवादी चिंतन- मार्क्सवादी विचारों का प्रवक्ता बन क्रांति की ज्योत जलाई। लेखन में मार्क्सवादी प्रगतिशील विचारों का तेवर था। कवि के इंकार को स्वीकार कर लिया। लेकिन मुलाकात का प्रभाव अब भी साथ था। मेरी मुलाकात शंकरदास केसरीलाल उर्फ शैलेन्द्र से हुई थी। उस वक्त थोडा निराश जरूर हुआ…फिर भी उस लेखक का मुरीद था। हमारे प्रोडक्शन ने आगे बरसात पर काम शुरू किया। उस जमाने में महालक्ष्मी में हमारी एक सिनेलैब हुआ करती थी। शैलेन्द्र एक रोज़ वहां किसी जरूरत पडने पर पहुंचे। रूपए की शख्त की जरूरत थी। कहा कि मुझे अभी आपकी सहायता चाहिए, बदले में कोई काम ले लेना। उस वक्त मेरे मन में बरसात का मुखडा ‘बरसात में हमसे मिले तुम साजन तुम से मिले हम’ था। हमने उस फिल्म पर साथ काम किया। वो एक मधुर रिश्ते की शुरुआत बनी। तब से आज इस मोड तक हम साथ रहे। मृत्यु ने मुझसे मेरे अजीज को हमेशा के लिए दूर कर दिया है। अब वो नहीं रहा…।
उस शख्स की महान धरोहर आंखों के सामने है। क्या लोगों ने कभी रूककर सोचा कि सोवियत रूस व दुनिया में राजकपूर को मिली शोहरत में शैलेन्द्र का योगदान क्या था? उन गीतों जिसकी दुनियावालों ने गुनगुनाया ‘आवारा हूं’ लेकर ‘मेरा जूता है जापानी’ या ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गीत ‘मेरे नाम राजू घराना अनाम’ अथवा ‘होठों पे सच्चाई रहती है’ सरीखे गीतों को किसने लिखा? माध्यम को लेकर शैलेन्द्र की समझ में बदलाव एक स्वागतमय मोड़ था। सिनेमा में भी आम आदमी की तड़प शायद उन्हें नजर आई थी। कविताएं लिखने वाला शख्स ने फिल्मों को भी एक सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया। खूबसुरत अंदाज में… एक सितारा आसमान पर बुलंद हुआ। आम आदमी को एक सिनेमाई अभिवयक्ति देने का सराहनीय काम किया था। मिसाल के लिए ‘जिस देश में गंगा बहती है’ का गीत ‘कुछ लोग ज्यादा जानते हैं,इंसान को कम पहचानते हैं’ को याद करें। शाटस व दृश्यों के मुताबिक से गीतों के बोल सटीक थे। राजकपूर की इमेज में शैलेन्द्र का निर्णायक हिस्सा था। आम आदमी का राजकपूर कविताई के अक्स से बना था। आर के स्टुडियो के लोगों की समझ में फिल्म निर्माण में कदम रखने की बडी भूल ने गीतकार की जान ली। हुआ यही था…तीसरी कसम के साथ जो हुआ उसने शैलेन्द्र की असमय मौत तक पहुंचा दिया था। फिल्म व्यवसाय की बारिकियों को ठीक से समझ बिना वो निर्माण में डूब गए। रूपया डूब गया… फिल्म फिर भी अधूरी थी । मुकेश-शंकर जयकिशन के सहयोग से किसी तरह पूरी होकर रिलीज हुई। यह हमारी टीम की एकता को एक महान श्रधांजली थी। मुश्किलों के बावजूद शैलेन्द्र ने फिल्म को पूरा किया। आज भी जुबान पर दर्ज गीत तीसरी कसम को खास बनाते हैं। मुझे याद आ रहा कि एक रात फिल्म की आर के स्टुडियो में प्राईवेट स्क्रीनिंग थी। उपस्थित लोगों से फिल्म के ऊपर मत देने को कहा गया। ज्यादातर लोगों ने महसूस किया कि फिल्म को बाक्स-आफिस की थोडी फिक्र करनी चाहिए। सभी मतों को पढ कर भी गीतकार ने अपने काम में बदलाव से मना कर दिया। मेरी डायरी में शैलेन्द्र ने लिखा ‘मेरे पास वो दो पंक्तियां अब भी शेष बची —फिल्म अपने हिसाब से बनाऊंगा’। फिल्म से जुडे व्यावसायिक रिश्ते ने शैलेन्द्र को बडी पीडा दी थी। शरीर व आत्मा गहरे रूप से दुखित हुए थे। फिर भी दिल को छु जाने वाले गीतों को लिखा। फिर मेरे अगली फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए भी गीत लिखे। उसकी गहरी भावपूर्ण थीम पंक्तियों को रचा। यह पंक्तियां बहुत दिनों से मेरे मन में थी…लेकिन शैलेन्द्र मिल नहीं रहे थे। एक रात मकान पर वो खुद आ पहुंचे। थीम पंक्तियों को लिपिबध करके नीचे अपना दस्तखत कर दिया। संकेत मिला कि ‘जीना यहां मरना यहां,इसके सिवा जाना कहां’ की अमर पंक्तियां लिखी जा चुकी थीं ।
खुदा के सामने झोली फैलाए खडा अपने अजीज के जाने का मातम कर रहा हूं। वापसी की दुआएं कर रहा हूं… ना सुनने वाले को आवाज दे रहा हूं। मेरा अजीज मुझे अधूरा छोड गया है। मेरा दिल तडप रहा…उसे ढूंढ रहा।
(राजकपूर)