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एक अनुशासनहीन फेंटेसी है ‘अँधेरे में’

पिछले साल मुक्तिबोध की मृत्यु की अर्ध-शताब्दी थी. इस मौके पर उनके ऊपर खूब कार्यक्रम हुए, थोक के भाव में उनकी रचनाओं को लेकर लेख सामने आये. लेकिन दुर्भाग्य से, किसी लेख में कोई नई बात नहीं दिखी. लगभग सारे लेखों को पढने के बाद यह कह सकता हूँ कि युवा लेखक आशुतोष भारद्वाज का यह लेख कालजयी कविता ‘अँधेरे में’ को देखने-समझने की एक नई दृष्टि देता है- प्रभात रंजन 
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क्या कोई रचना अपनी फॉर्म की बंधक हो सकती है? पहली दृष्टि में यह प्रश्न अपर्याप्त या शायद अनुपयुक्त भी लगेगा. आखिर यह माना जाता रहा है कि कृति अपनी फॉर्म से भिन्न नहीं होती, उसे उसके रूप से विलगित कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन अगर हम कृति और रूप को क्रमशः अनुभव व अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर दें और कहें कि चूँकि अनुभव और अभिव्यक्ति के मध्य एक अनिवार्य अंतराल है जो मनुष्य की समझ और संयम से निर्मित होता है, जिसके फलस्वरूप उसका अनुभव एक विशिष्ट स्वरुप में अभिव्यक्त होता है, इसलिए जिस क्षण मनुष्य का संयम दरक जायेगा, उसका अनुभव अविकसित या अतिरेकपूर्ण अभिव्यक्ति में कायांतरित होगा. इस आलोक में अब पहला प्रश्न वैध दिखलाई देगा.

‘अँधेरे में’ कविता मुक्तिबोध के एक अत्यंत संश्लिष्ट अनुभव की अभिव्यक्ति है. इस अभिव्यक्ति का स्वरुप फेंटेसी में कही गयी लम्बी कविता है. लेकिन यह संश्लिष्ट अनुभव क्या कवि द्वारा चुनी गयी फेंटेसी की फॉर्म की गिरफ्त में है? अभिव्यक्ति की सार्थकता सिर्फ इसमें निहित है कि वह अनुभव को सर्वोत्तम तरीके से व्यक्त करती है. मैं प्रस्तावित करना चाहूँगा कि मुक्तिबोध ने फेंटेसी-बद्ध लम्बी कविता का जो स्वरुप चुना वह उनके अनुभव की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति नहीं थी. खामी इस फॉर्म में थी या वे इसे साध नहीं पाए, यह दूसरा प्रश्न है.

लेकिन उससे पहले कविता-पूर्व कवि के अनुभव और कविता के रूप का प्रश्न.

यथार्थ की जटिलता और संश्लिष्टता को समझ मुक्तिबोध फेंटेसी की ओर मुड़ते हैं, स्वप्न और कल्पनाओं का एक वृहद् मकडजाल बुनते हैं. कविता का यह स्वरुप तत्कालीन आधुनिक हिंदी कविता और अब तलक भी अन्यत्र कम दीखता है. कवि को बोध है कि फेंटेसी की अपनी चुनौती है, सीमायें हैं जिन्हें कवि अपने पोएटिक मैनिफेस्टो तीसरा क्षण में बखूबी निर्धारित कर देता है. कवि ठीक ही कहता है कि पहले क्षण में घटित हुए जीवन का उत्कट अनुभव दूसरे क्षण में अपने तंतुओं से अलग हो एक फेंटेसी का रूप ले लेता है. तीसरे यानि अभिव्यक्ति के क्षण में कवि अत्यंत सतर्कता बरतने की चेतावनी देता है. फेंटेसी को अनुभव की व्यक्तिगत पीड़ा से पृथक होने को आवश्यक मानता है, और चूँकि फेंटेसी के मर्म को शब्द-बद्ध करते समय अनेक अनुभव, चित्र और स्वर तैर आते हैं इसलिए फेंटेसी के उद्देश्य और दिशा के निर्वाह के लिए कलाकार को भाव-संपादन करना पड़ता है.  

बतौर विचारक मुक्तिबोध एकदम स्पष्ट हैं. उनकी प्रस्तावना संपुष्ट है कि चूँकि स्वप्न अपने स्वभाव में बिखरा हुआ होता है इसलिए कलाकार को निर्मम हो अपनी रचना से वे सभी दृश्य, स्वर हटाने होंगे जो कविता के ओज और मर्म को धूमिल करते हैं. दुर्भाग्यवश, अपने इस मेनिफेस्टो को मुक्तिबोध खुद अपनी ही प्रतिनिधि कविता में रूपांतरित नहीं कर पाए. इस कविता में कई ऐसे अतिरेकपूर्ण स्थल हैं जो उसकी प्रबलता, प्रवाह और प्रभाव को उथला करते हैं, उसकी धार को कुंठित करते हैं.

इस अतिरेक का केंद्र बिंदु है इसका नायक, और इस उथलेपन की सबसे बड़ी, शायद एकमात्र वजह है मुक्तिबोध का इस नायक के प्रति असंभव झुकाव.

यह नायक एक बुद्धिजीवी कवि है. इसकी दृढ़ मान्यता है कि इसके या इस जैसे गिने चुने मनुष्यों के अलावा पूरी दुनिया व्यभिचारी है. इस नायक में सिर्फ दो कथित कमियां हैं, जो कविता के दो समान्तर पाठ को भी इंगित करती हैं. पहली खामी रचनात्मक है. यह नायक कवि है इसलिए विक्षुब्ध है कि वह अपनी परम अभिव्यक्ति अभी तक हासिल नहीं कर पाया है, उसे खोजने की राह पर चलने से बचता रहा है. दूसरी खामी सामाजिक है. यह नायक जन-क्रांति की कामना करता है इसलिए ग्लानि में डूबा है कि वह इस क्रांति का वाहक नहीं हो पा रहा है.

मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, जिसका पालन मुक्तिबोध करते थे, यह दोनों ही अवगुण हैं, चारित्रिक दोष हैं. क्रांति में सक्रिय सहयोग नहीं दे पाना किसी बुद्धिजीवी का अक्षम्य अपराध है. यानी मार्क्सवादी दृष्टि से यह नायक एक दुर्गुणी इंसान बतौर प्रस्तुत होना चाहिए था. आखिर जब शब्द की जरुरत हो तो मौन गुनाह है, जब सत्कर्म की पुकार हो तो अकर्मण्यता पाप है.

इस दोष से मुक्ति का सिर्फ एक रास्ता है. वह यह कि इस नायक की समूची चेतना और कर्म दरअसल क्रान्ति को समर्पित हैं, लेकिन चूँकि वह खुद के प्रति इस कदर हीनता बोध और ग्लानि में डूबा है कि उसे अपने सर्वोत्तम कर्म भी अपर्याप्त लगते हैं. यह रास्ता लेकिन तभी उपलब्ध होता जब मुक्तिबोध उसका एक तटस्थ चित्रण करते, उसके समूचे गुण-दोष के साथ. लेकिन मुक्तिबोध इस तरह अपने नायक को लिखते हैं कि न सिर्फ हमारा ध्यान इन अवगुणों से हट उसकी संवेदनशीलता और नैतिकता पर जाता है, हम उसके प्रति कारुणिक होने लगते हैं, बल्कि हमें भी उसके साथ उसकी इन कमजोरियों से मोह हो जाता है. इस दृष्टि से उसकी कथित कमजोरियां छद्म प्रतीत होती हैं जिनका मूल उद्देश्य पाठकीय करुणा को उकसाने के लिए है.

वह उपयुक्त शब्द की तलाश में है लेकिन उसके प्रयास अपर्याप्त हैं. यह विशुद्ध लेखकीय संघर्ष है, कला का मूल संघर्ष. तमाम साहित्यिक कृतियों के नायक अपनी अभिव्यक्ति के लिए संधानरत हैं, और वे अपने प्रति निर्मम भी हैं. कला आखिरकार क्रूर अनुशासन में ही संभव होती है. पेसोआ की द बुक ऑफ़ दिस्क्वाईट  का नायक अपने लेखन को अपनी इच्छाशक्ति की विजय नहीं बल्कि उसकी हार बतलाता है. मगध का नायक अपने समूचे लिखे को ध्वस्त कर कहता है — जो लिखा व्यर्थ था, जो न लिखा अनर्थ था. ये किरदार वह सहानुभूति नहीं चाहते जिसका गुहार अँधेरे में का कवि-नायक बारम्बार करता है. 

निर्मल वर्मा ने कहीं लिखा है कि एक अच्छा उपन्यासकार अपने किरदारों को सहानुभूति बराबर मात्रा में बांटता है लेकिन एक महान उपन्यासकार उस सहानुभूति के विरुद्ध संघर्ष करता है. यह बात कविता के लिए भी उतनी ही उपयुक्त है, खासतौर पर वह कविता जो एक कथा की तरह चलती है, अपने भीतर औपन्यासिक आकांक्षा लिए जीती है. कला का सहानुभूति से शायद अनिवार्य संघर्ष है. सहानुभूति मानवता के लिए शायद बड़ा मूल्य हो, किरदारों के प्रति सहानुभूति कलाकृति को हल्का बनाती है. कविता सहानुभूति नहीं, समझ देती है. मनुष्य को वह बोध देती है कि वह अपने जीवन और समय को निर्मम सच्चाई में देख सके. वह हमें सहानुभूति के खतरों से भी बचाती है. किस्लोवस्की के डेकालोग से गुजर या अन्ना केरिनिना को पढ़ नायिका के प्रति सहानुभूति नहीं, बल्कि वह अंतर्दृष्टि मिलती है जिससे हम व्यसन और द्वन्द में फंसे मनुष्य जीवन की जटिलता समझ पाते हैं. इसके लिए आवश्यक है कि रचना के लम्हों में लेखक की अपने अनुभव से पर्याप्त दूरी हो. खुद मुक्तिबोध भी इस अवकाश की आवश्यकता को इंगित करते हैं.

इसके विपरीत अँधेरे में पढ़ते वक्त यह एहसास निरंतर रहता है कि कवि अपने नायक के लिए करुणा और सहानुभूति बटोर रहा है. अगर जीवन में दूसरों की अनुकम्पा या समर्थन के लिए भागना निरा लिजलिजापन है, तो अपने किरदार के प्रति हमदर्दी जोड़ना और जुटाना कलात्मक अभिव्यक्ति का अनिवार्य अवगुण है.  

सहानुभूति के विरुद्ध संघर्ष और भी गहरा होना चाहिए जब कोई रचनाकार अपना कथानायक किसी लेखक या कवि को बनाता है. लेखक के पास वह औजार हैं, सामर्थ्य, शक्ति और स्पेस है जो समाज के अन्य वर्ग, मसलन नेता, अधिकारी या व्यापारी के पास नहीं. अपनी कलम के तनिक भर झुकाव से वह अपने कवि-नायक यानि अपनी बिरादरी को महिमामंडित, बाक़ी अन्य वर्गों को बदगुमान कर सकता है, जैसाकि मुक्तिबोध का नायक ही नहीं कई अन्य लेखक भी करते दिखलाई देते हैं. हिंदी की ढेरों रचनाओं में सृष्टि का नैतिक पताका पुरुष कवि ही होता है, यह भले हो कि उस किरदार का रचयिता लेखक खुद अपने जीवन में उस आचरण को रत्ती भर नहीं निभा रहा हो.

यह न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का हनन है. लेखक प्रतिवादी है, लेकिन वह फैसले की कुर्सी पर बैठा न्यायाधीश भी है. जाहिर है ऐसी अवस्था में अगर लेखक अत्यधिक निर्मम न हो तो वह फैसले के लम्हे में फिसल जायेगा, उसका निर्णय खुद अपने हक़ में ही होगा.

मुक्तिबोध के साथ समस्या और गहरी है. उनका नायक न सिर्फ कवि है बल्कि शायद नामवर सिंह के अपवाद के सिवाय, जो इस नायक को मुक्तिबोध का आरोपित आत्म नहीं मानते, यह भी सर्वमान्य है कि वह उनका ही प्रतिरूप है. उन्होंने लगभग अपने को ही केंद्र में रख यह कविता लिखी है. यह कवि कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनाध्यक्षों, मत्री, उद्योगपति, कवि, नर्तक, विद्वान जन, यानी समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग को दोषी सिद्ध करता है.

अगर कवि अपने अलावा समूचे समाज को व्यभिचारी बताएगा तो न सिर्फ उसकी कविता पर बल्कि बतौर मनुष्य उसकी समझ भी प्रश्नांकित हो जाएगी है. क्या वाकई यथार्थ इतना इकहरा है कि समूचा समाज मार्शल लॉ का प्रेमी है? यहाँ मंत्री, कर्नल, उद्योगपति, विद्वान, नर्तक इत्यादि बतौर जातिवाचक सर्वनाम उपस्थित हैं. क्या यह सभी वर्ग अनिवार्यतः व्यभिचारी है? क्या कवि वाकई अपने स्वप्न में इन सबकी कल्पना सिर्फ इसी रूप में कर पाता है? क्या यह अत्यंत अतिशयोक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति/फेंटेसी नहीं? क्या इस फेंटेसी को तराशने, अतिशयता से बचाने की जिम्मेदारी कवि की नहीं थी? यह कविता इसलिए तीसरे क्षण में ढह जाती है. पहले और दूसरे क्षण को कवि ने सम्पूर्णता से जीया लेकिन तीसरे लम्हे वह फिसल गया.

यह नायक अपनी कमजोरी का उल्लेख करता है, मार्शल लॉ को अपनी ही निष्क्रियता की वजह मानता है. उसे अपने बौद्धिक जुगाली में लिप्त होने का भी एहसास है; लेकिन पूरी कविता को पढ़ इसकी छवि अतिनिर्मल, अतिपावन, अतिसत्यवान नायक की बनती है. क्या इस नायक के जैविकीय आचरण और कविता की काया में झलकते इसके चेहरे में कुछ भेद है? क्या इसके जीवन में कुछ ऐसा है जो यह कविता के आईने में नहीं दिखला रहा, हमसे छुपाये ले जा रहा है? 

इस नायक का रचयिता कवि अपने जीवन में अति-शंकालु है. उसे अपनी रचना की गुणवत्ता के प्रति और अपना लिखा छपवाने के प्रति अनिवार्य संशय रहा है — एक सच्चा संशय जो किसी भी खरे कलाकार का गुण है. लेकिन जीवन में इतना प्रश्नाकुल और संशयी इंसान अपनी कविता में ऐसा नायक रचता है जो दूसरों को ख़ारिज करता, खुद को नैतिकता की अंतिम मिसाल और मशाल सरीखा प्रस्तुत करता है. कई आलोचकों ने इस नायक को संशय में डूबा बताया है. लेकिन नहीं. यह नायक संशयग्रस्त, प्रश्न करता भले दिखाई दे, उन प्रश्नों की परत उघाडिये, वहां ठोस, पूर्व-उपलब्ध उत्तर मिलेंगे. उसके सभी प्रश्न पहले से ही उपलब्ध उत्तरों को इंगित करते हैं जहाँ हर सवाल क्रांति के विराट स्वप्न में घुल जाता है.

दिलचस्प है कि हिंदी कविता का सर्वाधिक चर्चित क्रन्तिगामी नायक, आलोचकों की नजर में एक प्रामाणिक और वैचारिक रूप से विश्वसनीय नायक, एक ऐसे लेखक ने रचा है जो खुद अपने जीवन और कला कर्म को हमेशा कटघरे में रखता है. राजनैतिक विचार की दृष्टि से समाजवाद और क्रांति शायद अंतिम और अमोघ मूल्य होंगे, लेकिन क्या ऐसा कवि के लिए भी होता होगा? क्या एक प्रश्नाकुल कवि खुद इस क्रांति के स्वप्न को भी कटघरे में नहीं लायेगा?

शायद यही मुक्तिबोध का द्वैध है. एक कवि और राजनैतिक प्रवक्ता का अनिवार्य द्वन्द जो कविता की काया में अगर घटित होता तो यह कविता किसी बारूदी सुरंग की माफिक फूटती. लेकिन मुक्तिबोध अपने कवि को प्रवक्ता के समक्ष अर्पित कर देते हैं.

नामवर ने इस नायक की तुलना दोस्तोइवस्की के अंडरग्राउंड नायक से की है. दोनों ही रचना प्रथम पुरुष में कही गयी हैं, दोनों के नायक अपने अँधेरे में कैद हैं. लेकिन एक बड़ा फर्क है. दोस्तोइवस्की अपने नायक को महिमंडित नहीं करते, वे उसके अवगुण समूची शक्ति से उघाड़ते हैं. मुक्तिबोध बहुत हलके से अपने नायक पर चोट करते हैं, वो भी तिरछे कोण से कि नायक के प्रति सिर्फ सहानुभूति ही उमड़ती है, उसकी आभा ही गहरी होती है.

नामवर बतलाते हैं कि यह आत्म-निर्वासित नायक खुद मुक्तिबोध की प्रतिकृति नहीं बल्कि मध्यवर्गीय समाज का प्रतिनिधि मनुष्य है. वे मानते हैं कि इस नायक की आलोचना दरअसल मुक्तिबोध द्वारा मध्यवर्ग की आलोचना है. ऐसा नहीं है. मुक्तिबोध अगर इस नायक की कठोर आलोचना करते तो यह नायक इतनी अधिक करुणा बटोर हिंदी का प्रतिनिधि काव्य-पुरुष नहीं होता, इसके गुण-दोष पर पुनर्विचार हुआ होता. नामवरजी की प्रस्तावना में समस्या एक और है. अगर यह नायक तत्कालीन मध्यवर्गीय समाज का प्रतिनिधि है तो कौन है यह मनुष्य जिसने सभी पर फैसला सुना लेने का अधिकार लिया हुआ है?

मदन सोनी ने इस नायक को हिंदी कविता का काव्यपुरुष कहा है, जिसके साथ परवर्ती कवियों का तादात्म्य बहुत गहरा रहा है. वे एक महत्वपूर्ण बात इंगित करते हैं कि हिंदी कवि बिना प्रश्न किये इस नायक के निष्क्रमण को अपना प्रतिनिधि निष्क्रमण मान लेते हैं और उसकी खोज में निकल लेते हैं.

इस नायक ने परवर्ती लेखकों को निर्णायक रूप से प्रभावित किया है, उन्हें रचा भी है. एक स्वघोषित आदर्शवादी नायक अनेक लेखको के लिए ऐसी शरणगाह रहा है जहाँ वे अपने जीवन और रचना के भेद को सहज छुपा सकते हैं. एक बेदाग़, उजला नायक, समाज द्वारा सताया कवि, जो किसी भी चीज, व्यवस्था पर प्रश्न कर, उसे अवमूल्यित कर सकता है, बस खुद उसका आचरण प्रश्नातीत है. हाय, हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी

उदय प्रकाश की कई कहानियों में हम यह नायक पाते हैं. निरीह कवि पाल गोमरा मसलन जो करुण मौत मारा जाता है. जैसाकि ऊपर कहा कवि नायक के लिए आत्मदया बटोरना कला का हल्का नमूना है.
यह कविता एक कवि द्वारा अपनी अभिव्यक्ति के संधान और उस प्रक्रिया में उठाये गए जोखिम की प्रतिनिधि कविता भी मानी गयी है. कवि अकेला पड़ते जाने के बावजूद ऐसी परम अभिव्यक्ति की खोज में है जो समाज की त्रासदी, विद्रूप और विडम्बना को उसकी संपूर्ण और संश्लिष्ट स्वरुप में थाम सके. काफ्का की बेमिसाल कहानी हंगर आर्टिस्ट भी एक कलाकार के अपने कर्म के प्रति जूनून, उससे उपजे अनिवार्य और अपरिवर्तनीय एकांत और निरंतर घटित होते आत्म-निर्वासन को बताती है. अँधेरे में के नायक को विचार और विचारधारा का सहारा तो है, हंगर आर्टिस्ट के पास उसकी कला के सिवाय और कुछ नहीं. वह भी अंत में मारा जाता है लेकिन काफ्का उसे सहानुभूति के सैलाब में नहीं डुबोते, इस कदर तटस्थ चित्रण करते हैं कि समूची कहानी ठिठुरती रात में नग्न खड़े किसी मनुष्य सी थरथराती है.

कविता में आतंक की उपलब्धि कठिन है. रचनाकार को अपनी अभिव्यक्ति पर कठोर अंकुश देना होता है, क्यूंकि अतिरेकपूर्ण स्वर भय को बहा ले जाता है. अँधेरे में के साथ यही खामी है. कविता आतंकित कर देने माहौल में जन्म लेती है लेकिन अति नाटकीयता के बोझ से यह भय धूमिल होता है पिघल कर बहने लगता है. उसका जोखिम हल्का दिखलाई देता है, पाठक पर उसकी पकड़ कमजोर हो जाती है. काफ्का का नायक खुद पर हंस सकता है, वह अपने को सर्वोपरि किसी नैतिक शिखर पर बैठा नहीं प्रस्तावित करता. खुद को न्यूनतर दिखलाने की वजह से काफ्का का भय कहीं प्रामाणिक और मारक लगता है. उनका जोखिम कहीं प्रामाणिक बनता है.

हंगर आर्टिस्ट के अलावा भी काफ्का के कई नायक निरंतर इस भय में जीते हैं कि पूरी दुनिया किसी षड़यंत्र के तहत उसे अभियोजित करना चाह रही है. वही भय अँधेरे में के नायक को भी है. लेकिन काफ्का निर्ममता से अपने नायक को चित्रित करते हैं, उसे नैतिक तलवार नहीं थमाते. इसके बरक्स अँधेरे में का कवि बड़े ही ऊंचे घरातल पर बैठा है.  

इस कविता का फलक विस्तृत है, विराट है. लेखक की अनुभव सम्पदा विपुल है. लेकिन लेखक अपने भाव सम्पादित नहीं कर पाता, अपने स्वप्न को सर्वोत्तम अभिव्यक्ति नहीं दे पाता. इस दृष्टि से यह कविता अपनी फॉर्म की बंधक है, कवि की फेंटेसी एक अनुशासनहीन अभिव्यक्ति है. इस कविता के ही शब्दों में कहें तो काव्य चमत्कार रंगीन लेकिन कई स्थलों पर ठंडा है. यह ठंडक अति-ऊष्मा पैदा करने के प्रयास से उपजती है. खामी फेंटेसी के स्वरुप में नहीं थी, बल्कि कवि उस स्वरुप के मानदंड समझते हुए भी उसे साध नहीं पाया. शायद वह एक अतिमानव के छलावे द्वारा छला गया.

इसके बावजूद यह कविता अपने उत्कृष्ट लम्हों में बहुत ऊपर उठ जाती है. उस सरफिरे पागल का प्रलाप जिसका गद्यानुवाद कवि करता है, वे हिंदी कविता के बेहतरीन लम्हे हैं. विडम्बना यह कि मुक्तिबोध जिस आचरण को त्याज्य बताते हैं, वे खुद ही उसी राह पर चलते हैं. दुखों के दागों को तमगों सा न सिर्फ पहनते हैं, बल्कि उन तमगों का गुमान भी करते हैं.
जैसाकि उनके तत्कालीन मित्रों के संस्मरण इत्यादि से मालूम होता है बतौर मनुष्य मुक्तिबोध ने निसंदेह ही सतचित वेदना में डूबा जीवन जिया होगा, लेकिन क्या वह अपने जीवन और अपने स्वप्न के मध्य अनिवार्य द्वन्द को अपनी कविता में साध पाए? एक निम्न मध्यवर्गीय जीवन जिसे वह जी रहे थे, एक विराट स्वप्न जिसे वह अपने आल्टर ईगो के जरिये अपनी कविता में हासिल कर लेना चाहते थे. इस कविता में एक अद्भुत पंक्ति है — बहुत दूर मीलों के पार वहां/गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में/किसी एक जेब में. अगर मुक्तिबोध ने यह भांप लिया होता कि समाज में क्रांति भले ही बड़ा लक्ष्य हो कविता की काया में दूर सुदूर किसी छोटी सी जेब में एक गुमनाम पत्र की तरह, अनिवार्य उम्मीद से आश्वस्त करते पत्र की तरह जा गिरना ही बड़ी उपलब्धि है, तो शायद यह कविता कहीं बड़ी होती. अगर मुक्तिबोध ने अपने आल्टर ईगो नायक को मानवीय गुण, दोष से युक्त रखा होता, उसे आगामी पीढ़ियों के लिए बतौर आदर्श प्रस्तुत करने की शायद अनकही चाह न होती तो यह नायक कहीं अधिक प्रामाणिक होता. अगर उनकी कविता बगैर कोई निर्णय सुनाये उनके मनुष्य और उसके आल्टर इगो के मध्य इस संघर्ष की साक्षी बनती तो शायद इस कविता का कद कहीं बड़ा होता. लेकिन यह कविता अपने कवि की महतवाकांक्षा के शिकंजे में कैद हो रह गयी. मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्यतिथि पर मेरे ख्याल से हमें न सिर्फ इस नायक बल्कि पाल गोमरा सरीखे हिंदी के उन तमाम कवि-नायकों पर पुनर्विचार करना चाहिए जो कवि होने के नाम पर अतिरिक्त रियायत लेते रहे हैं. मुक्तिबोध का नायक अपनी कमजोरी, कम ही सही, पहचानता तो है. परवर्ती नायक तो एक नितांत अप्रमाणिक बुलबुले जैसी दुनिया में जी रहे हैं. आत्म-संशय या आत्म-साक्षात्कार की सम्भावना से परे. चूँकि मैं कवि हूँ इसलिए किसी भी दोष से मुक्त हूँ, इस बहुमान्य लेकिन एकदम निराधार प्रस्तावना पर पुनर्विचार का यह समय है. इस प्रस्तावना की वजह से रचना के निरंतर इकहरे होते जाने पर पुनर्विचार का यह समय है. शायद तभी हम अपनी प्रामाणिक राह चुन सकेंगे, जो मुक्तिबोध के दिखाए रास्ते से भिन्न होगी, लेकिन उसके प्रत्येक पड़ाव पर मुक्तिबोध एक अदृश्य पूर्वज की तरह हमारी राह आलोकित करते, हमें आसान अभिव्यक्ति के खतरे से आगाह कराते मौजूद रहेंगे.

 
      

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2 comments

  1. मुक्तिबोध तो क्या,कोई भी अवध्य गाय नहीं है,लेकिन कोई इससे अधिक स्पष्टता से कैसे कह सकता है कि वह जाहिल है ?!

  2. क्‍या कहना चाहते हैं, स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा है।

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