आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में सुधीश पचौरी जी का धारदार व्यंग्य.
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मैं अकादमी के अध्यक्ष जी की प्रतिभा का अब जाकर कायल हुआ हूं- उन्होंने अकादमी के पक्ष में अंगद की तरह पांव जमा दिए हैं। कह दिया है कि अकादमी के नाम पर लेखकों को विरोध की अवसरवादी कबड्डी नहीं खेलने दूंगा। कैसे दिन आ गए कि अकादमी छाप लेखक ही अकादमी का दुश्मन हुआ जा रहा है। उनको इनाम दिए, उनके चमचों को इनाम दिए, इतनी कमेटियों में रखा, अखिल भारतीय बनवाकर अंतरराष्ट्रीय बनवाया, वही आज आंखें दिखा रहे हैं। लेखक ‘एहसान फरामोश‘ प्राणी है। उसके लिए अकादमी प्राप्त करना एक अवसर है, लौटाना उससे भी बड़ा अवसर। पहले अकादमी लो, नाम कमाओ, फिर 3-10 साल बाद उसे लौटाओ और हीरो बन जाओ। हे पाठक! जिसने कल तक अकादमी में हजार पैरवी करके सम्मान लिया, वही वीरता का पुंज बना अकादमी को ललकार रहा है कि ले, मैं तेरा दिया हुआ सम्मान तुझे लौटाता हूं।
इस प्वॉइंट पर अध्यक्ष जी ने अपनी पोजीशन जिस तरह से साफ की है, मैं उसका मुरीद हो गया हूं। उनकी गुगली देखकर ‘वापसवादी लेखक‘ समझ नहीं पा रहे कि इसे कैसे हिट करें? पहले तो हीरोइक्स में आकर ऐलान कर दिया कि अकादमी वापस कर रहे हैं, अब परेशान हैं कि कैसे वापस करें कि झूठे साबित न हों। अकादमी को लात लगाते ही लेखक का करियर बन जाता है। चैनल उनको बुलाने लगते हैं, पैनलिस्ट बनाने लगते हैं। पूछने लगते हैं कि आपने क्यों लौटाया? और लेखक अपनी गरदन अकड़ाकर खराब-सी अंग्रेजी में कहने लगता है कि जनतंत्र पर खतरा है, इसलिए लौटा रहा हूं। जो अंग्रेजी के अखबार इनाम मिलने के वक्त एक लाइन दिए थे, वही लौटाने की खबर को आधा पेज दे रहे हैं। जो हिंदी वालों को कभी पूछते न थे, अब पूछे ही जा रहे हैं। जिसने सबसे पहले लौटाया, वह सबसे बड़ा हीरो, जो उसके बाद में आया वह नंबर दो पर अटका है। जो प्रेरित नहीं हुए, वे हीनताबोध से पीड़ित हैं। ऐसी लपलपाती अवसरवादी घड़ी में अध्यक्ष जी ने लेखकों का खलनायक बनना कबूल किया और अकादमी गेट पर तख्ती यह लिखकर लटका दी कि ‘एक बार दिया गया सामान वापस नहीं लिया जाता।‘ अब लौटाने वाले परमवीर अध्यक्ष को ‘अल-फल‘ बक रहे हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि उनने ठीक ही लिखा है कि यहां वापसी की सुविधा नहीं है। लेकिन इससे भी आगे जो लाख रुपये की बात उनने कही, वह इस प्रकार है कि लेखक अगर वापस कर रहे हैं, तो उस कीर्ति को भी वापस करें, जो अकादमी लेने के बाद उनको मिली है।
यही वह गुगली है, जिसके हम मुरीद हुए। अब लौटाएं लौटाने वाले। अकादमी देते वक्त एक-एक लेखक पर 20 हजार से एक लाख रुपये तक खर्च होता है। अकादमी के बाद उसकी किताब का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद होता है, जिसकी न्यूनतम कीमत प्रतिभाषा एक लाख रुपये बैठेगी। उसके बाद उसको कमेटियों में रखना, भारत भ्रमण, विदेश गमन कराने आदि पर होने वाला खर्च मिलकर प्रति लेखक कम से कम 20-30 से 50 लाख रुपये तक बैठता है। इस सबसे बनने वाली कीर्ति की कीमत अलग है। कोर्स में लगते हैं, रिसर्च की जाती है। सबका हिसाब लगाएं, तो लौटाने वाले रणबांकुरे के घर व बर्तन तक बिक जाएंगे। अध्यक्ष जी ने इतना ही कहा कि लौटाना ही है, तो कीर्ति के दाम समेत लौटाइए। जब से यह कहा है, लौटाने का ऐलान करने वाले सकते में हैं। अकादमी लौटाते हो, तो उससे प्राप्त कीर्ति को भी लौटाओ न।
hmmm…agreed !
पब्लिक असहिष्णु है तो उनके मानस को सुधारने का जिम्मा लेखक वर्ग पर भी है ।
सही है।
Kuchh na smjhe khuda kare koi…