मार्क्सवादी आलोचक अरुण माहेश्वरी ने जनवादी लेखक संघ को लेकर कुछ बहसतलब सवाल उठाये हैं. पढ़िए और विचार कीजिए- मॉडरेटर
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कुमकुम सिंह जी ने एक मैसेज भेजा है -अरुण जी, मैं यह जानना चाहूंगी कि देवीशंकर अवस्थी सम्मान (रेखा अवस्थी, कमलेश अवस्थी) श्रीलाल शुक्ल सम्मान, इफ्को (सीएमडी, यू.एस. अवस्थी) श्रीलाल शुक्ल के परिवार और जनवादी लेखक संघ सहित (एम एम पी सिंह, रेखा अवस्थी) के बीच क्या सम्बन्ध है? पूरी की पूरी सत्ता क्या एक ही परिवार के हाथ में है? और मैं जानती हूँ कि ऐसा कहने पर सारी हिंदी हिन्दू वर्णाश्रम व्यवस्था हम पर टूट पड़ेगी. वैसे भी इस ब्राह्मणवाद ने दशकों से हम पर लांछन ही लगाये हैं. जनवादी लेखक संघ के वे लोग इसका औपचारिक जवाब दें जिन्होंने उदय प्रकाश पर लगातार हमला किया है. क्या वे अपने द्वारा भारतीय सार्वजनिक संस्थानों में नियुक्त कराये गये अपने स्वजातियों और तथाकथित हिंदी वामपंथी लोगों की सूची सार्वजनिक कर सकते हैं? क्या सचमुच वे विचाधारा के प्रति सम्मान रखते हैं?
“यह मैं किसी राजनैतिक या साहित्यिक मसले पर नहीं बल्कि अपने पारिवारिक संकट पर कह रही हूँ जो कि हमेशा इन लोगों के द्वारा वर्षों से पैदा किया गया है. हमने जिंदगी में बहुत परेशानियां उठाईं हैं लेकिन हम अपनी विचारधारा के प्रति हमेशा ईमानदार रहे हैं.”
कुमकुम सिंह जी के ये सवाल हमें जनवादी लेखक संघ की स्थिति पर समग्र ढंग से सोचने के लिये मजबूर कर रहे हैं। ध्यान से देखने पर लगता है कि सचमुच आज जनवादी लेखक संघ की स्थिति चिंताजनक है। हाल में उसका राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, ‘असहिष्णुता’ के प्रसंग में उसमें कुछ सुगबुगाहट दिखाई दी, संयुक्त प्रदर्शनों-सभाओं में उसने शिरकत की, लेकिन फिर भी प्रतीत होता है जैसे यह संगठन किसी गहरी नींद में, हाइबरनेशन की स्थिति में ही हैं। हाल की सारी हलचल नींद में ली जाने वाली करवट जैसी लगती है। इससे उसके जाग्रत होने का संकेत नहीं मिलता। इससे बड़ी सचाई यह है कि यह लेखकों का संगठन है और सामान्य तौर पर लेखकों को अभी उसकी कोई उपयोगिता नहीं नजर आ रही है। साहित्य-विवेक और साहित्य की सामाजिक भूमिका तैयार करने में उसकी जैसे कोई प्रासंगिकता शेष नहीं रह गई है !
सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है ?
पिछले दिनों हमने अशोक सेकसरिया की मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए कोलकाता के भाषा परिषद के साथ उनके विरोध का प्रसंग उठाया था, और उसमें भाषा परिषद की पत्रिका ‘वागर्थ’ का प्रसंग आया। अशोक जी ने उसके संचालन के दृष्टिकोण पर कुछ बुनियादी आपत्तियां की थी। उसी संदर्भ में अनायास ही हमने फेसबुक पर जनवादी लेखक संघ के ‘नया पथ’ और हिंदी के प्रकाशकों के साथ उसके संबंधों की ‘नैतिकता’ और पत्रिका के पीछे के नजरिये को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठा दिये थे। फेसबुक में हमारी टिप्पणी पर कुछ प्रतिक्रियाएं देखने को मिली, संगठन के वर्तमान सचिव ने कहने से ज्यादा छिपाने वाला बयान देकर हमारे सवालों को दरकिनार करने की कोशिश की। मित्र नंद भारद्वाज को हमारे रुख पर सात्विक किस्म की हैरत हुई, और इसीलिये फेसबुक पर उनसे कुछ वाद-विवाद भी चला। जवरीमल पारीख ने भी सचिव के वक्तव्य की आड़ ली। कुल मिला कर, सारे विषय पर मिट्टी डालने की कोशिशों से बात आगे बढ़ नहीं पाई। ‘असहिष्णुता’ के मौजूदा विषय के सामने आने तक के लिये जलेस फिर अपनी नींद में लौट गया। न असहिष्णुता के विषय को उठाने में उसमें किसी प्रकार की पहलकदमी के संकेत मिले थे और न लेखन की दुनिया में ‘संघर्ष और एकता’ की किसी सुचिंतित समझ के तहत साहित्य जगत के द्वंद्वों की समझ विकसित करने में उसमें कहीं कोई रुचि दिखाई दी।
हिंदी के साहित्य जगत का सच क्या है ?
क्या इस बात से कोई इंकार कर सकता है कि एक लंबे काल से इस जगत पर कुछ खास प्रकार के मठाधीशों की भारी जकडबंदी़ रही है जो अकादमिक और सरकारी संस्थाओं की शक्ति से, असंख्य पुरस्कारों और दूसरे प्रकार के लाभों के आदान-प्रदान के जरिये इस दुनिया पर अपना प्रभुत्व बनाये हुए हैं। उदय प्रकाश अक्सर इन मठाधीशों को खास जाति से जुड़ा हुआ भी बताते रहे हैं। भाषा, साहित्य और समाज के संबंधों की बिना कोई परवाह किये ये मठाधीश अपने चुनिंदा लोगों को साहित्य के सिरमौर घोषित करते हैं। और, इसप्रकार साहित्य और समाज के बीच कोई रिश्ता बनाने के बजाय ये इसमें अनुलंघनीय बाधाएं पैदा करने के अपराधी रहे हैं।
इधर के दिनों में कोलकाता की ‘लहक’ पत्रिका के पृष्ठों पर साहित्य जगत में फैले हुए इस भ्रष्टाचार को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है। इसके अलावा, साहित्य के बुनियादी मानदंडों को भी हिंदी साहित्य के अब तक के इतिहास के संदर्भ में नये सिरे से विवादास्पद बनाया गया है। इन कारणों से इस पत्रिका ने थोड़े से दिनों में ही युवा लेखकों के बीच अपना स्थान बनाया है। आज यह हिंदी साहित्य की एक सबसे लोकप्रिय पत्रिका है।
हमारा सवाल यह है कि यह काम क्यों जलेस की तरह के एक व्यवस्था-विरोधी समझे जाने वाले संगठन की ओर से नहीं किया जा सका है ? क्यों आज कोई भी जलेस की पत्रिका से साहित्य जगत की ऐसी तमाम विसंगतियों पर गंभीरता से सवाल उठाये जाने की कल्पना नहीं करता ? ‘नया पथ’ दूसरी उन तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं से किसी मायने में भिन्न नहीं दिखाई देती, जो पत्रिकाएं व्यवस्था के विभिन्न अंगों के सीधे सहयोग के बल पर निकलती है और साहित्य में सिर्फ यथास्थिति के हितों को ही साधती हैं।
हमने ऊपर ‘नया पथ’ के बारे में उठाये गये सवालों पर नंद भारद्वाज की हैरानी को ‘सात्विक किस्म की हैरत’ कहा है। यह सात्विकता क्या है? दरअसल, जब भी संगठन के साथ हमारा व्यवहार ईश्वर और भक्त वाला हो जाता है, तभी विरोध की छोटी सी आवाज पर ही इस प्रकार की ‘सात्विक हैरत’ की स्थिति बनती है। संगठन अच्छे और बुरे सभी प्रकार के उद्देश्यों और लोगों का होता है। संगठन स्वयं में कैसी-कैसी बुराइयों का पुंज होता है, इसे नाजियों, फासिस्टों और हमारे यहां संघियों के संगठनों को देख कर बहुत अच्छी तरह से जाना जा सकता है। संगठन स्वयं में कोई निदान नहीं है। निदान हमारे लक्ष्यों में है। अच्छाई की अंतिम जीत के लिये किसी भी बुराई का दामन थामना बुराई को न्यायोचित बताने के समान है। और बुराई से पैदा होने वाली कोई भी अच्छाई सिर्फ एक सामयिक उप-उत्पाद (By product) हो सकती है, लक्ष्य की पूर्ति नहीं।
इसीलिये संगठन के किसी स्वत:स्फूर्त अच्छेपन या बुनियादी सहीपन पर विश्वास करके और इसके मूल में बैठी हुई बुराइयों की अवहेलना करके हम अपने कामों की दिशा को ही खो देने के लिये अभिशप्त है। वास्तविक अच्छाई आंख मूंद कर अपनी प्रकृति का अनुसरण करके नहीं मिलती बल्कि जब हम अपनी प्रकृति से ही लड़ते हैं, तभी हासिल होती है।
यह एक गंभीर बात है कि जो संगठन अपने सांगठनिक कर्मकांडों के बावजूद अन्यथा ऊंघता सा दिखाई देता है, साहित्य और संस्कृति की दुनिया में वर्षों से चल रहे अरबों रुपये के भ्रष्टाचार की सुध तक लेना जो भूल चुका है, भ्रष्टाचार के लगभग संस्थान बन चुके लेखकों और प्रकाशकों के साथ बड़ी आसानी से निबाह करता दिखाई देता है, उसी के लोग एकाएक उस उदय प्रकाश पर टूट पड़े जिसने लेखक समाज में पनप रहे डर और असंतोष को वाणी देने में हाल ही में एक नेतृत्वकारी काम किया है। उसका अपराध सिर्फ यह है कि उसने प्रधानमंत्री के एक भाषण की नीयत पर शक के साथ ही उसकी प्रशंसा में दो शब्द कह दिये। अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह और ओम थानवी, जो अब तक व्यवस्था के प्रतीक बने हुए थे, उनके साथ मोर्चा बनाने में जिन्हें जरा भी दिक्कत नहीं होती, लेकिन वे ही एक अकेले लेखक को घेर कर खत्म करने के लिये उद्धत दिखाई दें, तो इसे क्या कहेंगे ? क्या जलेस के लोग उदय प्रकाश के लेखकीय अवदान से अपरिचित हैं ? क्या कोई इंकार कर सकता है कि उदय प्रकाश ने भारतीय राजनीति को कभी भी देश की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल संरचनाओं से अलग करके व्याख्यायित करने की कोशिश नहीं की ? वे जलेस के एक सक्रिय सदस्य, दिल्ली जलेस के उपाध्यक्ष और केंद्रीय कमेटी के सदस्य रह चुके हैं। उनका लेखन गवाह है कि सांप्रदायिकता, जातिवाद और भ्रष्टाचार के वे सहजात विरोधी रहे हैं। ‘टेपचू’, ‘और अंत में प्रार्थना’,‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’, ‘मोहन दास’ की तरह की रचनाओं के बाद भी क्या उन्हें अपनी इन निष्ठाओं के लिये सफाई देने की जरूरत है ?
ग्राम्शी ने अपनी प्रिजन नोटबुक में संगठन में अंधश्रद्धा के रोग की चर्चा की है – एक ऐसा रोग जो संगठन के सदस्यों की निष्क्रियता के बावजूद संगठन की सक्रियता की अपेक्षा रखता है। ग्राम्शी की साफ राय थी कि सदस्यों के बीच टकराव के जरिये निर्मित एकीकृत समझ के बिना सामूहिक चेतना, दूसरे शब्दों में जीवंत संगठन का निर्माण नहीं हो सकता। ‘‘जब कोई आर्केस्ट्रा अभ्यास कर रहा होता है तब उसके प्रत्येक वाद्य अपनी-अपनी ध्वनि के साथ एक भयानक शोर पैदा करते हैं। लेकिन फिर भी आरकेस्ट्रा को एक वाद्य के रूप में अपना प्रदर्शन देने के लिए इस प्रकार का अभ्यास जरूरी है।’’ ऐसे में प्रश्नों से परे मान लिये जाने वाले संगठन का भीतरी रूप क्या और कैसा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
कुमकुम सिंह जी ने जो गंभीर सवाल उठाए हैं, उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है.