व्यक्तिगत मतभेदों, वैचारिक विरोधों का असर अच्छी पुस्तकों पर नहीं पड़ना चाहिए, जानकी पुल ने सदा इस मानक का पालन किया है. अनुराधा सरोज की किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ऐसी ही एक किताब है जिसको पढ़ते ही उसके ऊपर कुछ लिखने का मन होने लगता है. मन मेरा भी हुआ लेकिन मैं एक पुरुष हूँ, शायद उस ‘आजादी’ को नहीं समझ पाता. इसलिए मैंने दो लेखिकाओं से अलग-अलग समय पर उसके ऊपर लिखने का आग्रह किया. दोनों नहीं लिख पाई. बहरहाल, जिनसे आग्रह नहीं किया था उन्होंने लिखा. आज युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह की यह छोटी सी आत्मीय समीक्षा. इस किताब पर आगे भी कुछ लेखिकाओं के लेख आएंगे. यह मेरी कोशिश है. यह किताब है ही ऐसी. फिलहाल अणुशक्ति जी की यह टिप्पणी- मॉडरेटर
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किताबों की समीक्षा कैसे करते हैं, ये कला मुझे नहीं आती लेकिन मन था कि ‘आज़ादी मेरा ब्रांड‘ पर कुछ लिखूँ।
पुस्तक मेले में लांच सेरेमनी देखकर आई थी इस किताब की लेकिन तब पता नहीं क्यों खरीदा नहीं। शायद तब इतना प्रॉमिसिंग नहीं लगा था जितना कि कुछ रिव्यु को पढ़ने के बाद लगा।
ईमानदारी से अगर सच क़ुबूल करूँ तो पहले-पहल अनु की किताब एक अकेली महिला यात्री का यात्रा-वृत्तांत नज़र आया था जिसमें मेरी कोई ख़ास रूचि नहीं थी।
वुमन सोलो ट्रेवलर के तौर पर अनु कोई अजायब चीज़ नहीं थी मेरे लिए… मेरी सखी भी एकल महिला यात्री है और मुझे विश्वास था कि कोई और उससे अच्छा नहीं लिख सकता शायद इसलिए भी किताब हाथ में लेने के बाद भी खरीदी नहीं थी। लेकिन भला हो एक दोस्त का जिसने इसे कम से कम एक बार पढ़ने की सलाह दी।
अच्छा लगा जैसी शुरुआत हुई थी… आज़ादी की वो नयी परिभाषा भी अच्छी लगी। या यूँ कहिये कि अच्छा लगा रमोना के बहाने उन मानदंडों का टूटना जिसमें बंधी रहकर एक लड़की अपनी आज़ादी को भी आज़ाद होकर नहीं जी पाती। गन्दी लड़की और अच्छी लड़की की लड़ाई में किसी का खुलकर गन्दी लड़की के समर्थन में आगे आ जाना किसी भी दूसरी क्रान्ति से कम क्रांतिकारी नहीं है।
मुझे रमोना अच्छी लगी – ‘अनुराधा की रमोना।‘ और उस रमोना के साथ अपनी आज़ादी को पहचानने वाली अनु और भी शानदार लगी… उसके हर ख़याल उसकी स्वतंत्रता की गवाही दे रहे थे। अखिल के खयालों से निकलकर राजस्थान घूम आना, अंग्रेजी वाली कूलनेस को पीछे छोड़ आना और वियना की जगह ‘इंसब्रुक‘ जाना। वो परंपरा से चिढ़ती नहीं है लेकिन खुद को इसके हवाले भी नहीं करती है, आज़ादी का इससे सही मतलब और क्या हो सकता है।
अनुराधा को लड़की होना अच्छा लगता है। वो सुमन की समस्याओं में खुद दुखी हो जाती है… उसे हुक्म चलाने वाले मर्द और रसोई में व्यस्त औरतों का कांसेप्ट कम समझ में आता है। वो लड़कियों से खुल कर दोस्ती करती है लेकिन इसी ज़िन्दादिली से लड़कों से बातें भी करती है। उनसे घुलती मिलती है… धर्म पर चर्चा करती है, विक्टर के प्रस्ताव को बिना गाली दिए हुए सहजता से अस्वीकार कर देती है, अक्षय के छिछोरेपन पर चिढ़ती भी है लेकिन पुरुषों से नफरत नहीं करती। वो तो बस एक ऐसे समाज की परिकल्पना करती है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ही हों, बराबर के पलड़े में, बिना एक दूसरे से नफरत किये हुए।
‘आज़ादी मेरा ब्रांड‘ न सिर्फ इसकी लेखिका के जीवंत अनुभवो बल्कि इसके शिल्प की वजह से भी एक बेहतरीन किताब है। इसके हर पन्ने को पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है जैसे शब्द एक सुन्दर सा चित्र गढ़ रहे हों… लेखिका ने संभवतः हर चैप्टर के लिए फील्ड नोट्स इकट्ठा किये हैं। कुछ वैसे ही फील्ड नोट्स जैसे रेणु लिया करते थे और फिर उसको एक खूबसूरत किताब की शक्ल दे दिया करते थे।
अब चूँकि समीक्षा मुझे आती नहीं इसलिए अंतिम पंक्ति क्या हो इसका भी भान नहीं है… इसलिए बस इतना कहूँगी कि इन लव विद ‘आज़ादी मेरा ब्रांड.‘
आ रही हूँ अनु मैं भी अपना बैकपैक लेकर…