मंजरी श्रीवास्तव कम कविताएँ लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं तो बार बार पढने को जी चाहता है. यह एक कविता श्रृंखला है जो मीर तकी मीर को, उनकी पंक्तियों को याद करते हुए लिखी गई है. बहुत प्रासंगिक, तड़प से भरी कविताएँ. पढ़िए आप भी- मॉडरेटर
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सुनो मीर साहब
1
शब्दों की दुनिया में कौन होगा तुमसे बड़ा – ख़ुदाए-सुखन.
मेरी बिसात तो पंख जली
बस उर्दू इन आँखों में पली
तुम्हे तो ग़ालिब ने भी सर आँखों पर बैठाया
श्रद्धा से शेरों में सजाया.
फिर कैसे तुम बिन,
अपनी कविता की कायनात से अलग जीती…मैं पंख जली
न मलिका, न मिश्री की डाली, मैं पतझड़ कम, साँसों में पली
उर्दू की कली.
सुनो मीर साहब,
एक दिल्ली थी, जो लुटती रही
एक अज़ीमाबाद था, जो कराहता रहा…
तुम दिल्ली के हो लिए,
मैं तुम्हारी कायनात लिए अज़ीमाबाद की गलियों में फिरती रही मारी-मारी
मैं पंख जली
उर्दू की कली.
सुनो मीर साहब,
जब तक पंख नहीं निकले, पतझड़ ही देखा
पंख निकले तो नंगी पीठ पर चुभते अंगारे देखे
फिर अनजाने में तुम्हारी हो गई मीर साहब.
कलमे की तरह दिल में सजाई तुम्हारी वाणी
आयत की तरह आत्मा में उतारी कहानी तुम्हारी
मैं तो ठहरी पंख जली
उर्दू की कली.
ये रूठे-टूटे शब्द सही,
ये शब्द तुम्हारे नाम तो हैं.
मेरे दिल का हर कलमा तेरा है
रूह पर लिखी हर आयत तेरी श्रद्धा है.
सुनो मीर साहब,
यह शब्द-सुमन अर्पित तुमको हैं
मैं एक छलावा…………पंख जली
उड़ने को चली
उर्दू की कली.
2
क्या बूदो-बाश पूछो हो पूरब के साकिनों
हमको गरीब जान के हंस-हंस पुकार के
दिल्ली जो एक शहर था, आलम में इन्तिख़ाब
रहते थे मुन्ताखिब ही जहाँ रोज़गार के
जिसको फ़लक ने लूट के बर्बाद कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
– मीर तक़ी मीर
मीर साहब,
तुम्हारी कहानियाँ सुनती हुई बड़ी हुई मैं.
कमख़्वाब के लिबास नहीं थे मेरे पास
शलवार-जम्पर में चाँद-तारे टांकने की हसरत ही रही.
उड़ान भी कहाँ थी मेरे पास
एक छत थी…अपनी होकर भी परायी
यहाँ से आसमान दिखता था
मगर नीला नहीं………नंगा……ठूंठ पेड़ सरीखा.
उड़ने का मन होता था मीर साहब
उड़ नहीं पाती
तो तुम्हारी कहानियों में जीवन की आस पढ़ लेती
अपनी सांस तलाश लेती
अपनों जैसे पराये मिले
तब भी तुम सामने आ गए मीर साहब
और तुम्हारे शब्दों ने
काँटों को फूल
ज़हर को स्वाद दे दिया
आँखों को चमक
बेनूर चेहरे को एहसास दे दिया.
तब उजड़ी दिल्ली में तुम कितना रोये थे मीर साहब
मैं अज़ीमाबाद की गलियों में घूमती
तुम्हारे विलाप को भीतर उतार रही हूँ
मैं प्रेम के रहस्य के पीछे भागती
अपनी भीगी आत्मा में तुम्हारे शब्दों को निचोड़ रही हूँ…
अनजाने-परायों के शहर में
बूदो-बाश पूछने वालों को
मैं तुम्हारे ही शेर का तोहफ़ा दे रही हूँ
और अपने आंसुओं में शब्द बो रही हूँ…
3
‘क्या लिखूं अपने घर का हाल
इस ख़राबी में मैं हुआ पामाल
चारदीवारी सौ जगह से तंग
तर-तनिक हो तो सूखते हैं हम’
– मीर (अपने घर का मर्सिया)
एक उजड़े घर का मातम क्या
शब्द रूठ गए
दिल टूट गया
एक रैन-बसेरा आँखों में
आंसू की झड़ी-सा लाता है
एक चाहत सोने लगती है
एक कीड़ा जिस्म को खाता है.
तन्हाई के भीगे आँगन में
रोने की ख़्वाहिश होती है
बेनूर-सी इन दीवारों से
संवाद की चाहत होती है.
तुम मीर थे घर में डूब गए
मैं मीरा, अब तक जिंदा हूँ.
यह घर भी तुम्हारा और छत भी
मैं साया हूँ, मैं नगमा हूँ.
कोई सांस कभी तुम बोल उठो
मीरा ! मैं अब तुममें जन्मा हूँ.
- मीर साहब, मैं और समय की धारा
विश्वसनीय तौर पर मैं कभी तुमसे स्वयं को जोड़ नहीं सकी, मीर साहब
यदि सच कहूं तो मजबूरीवश ही सही
तुम कहीं न कहीं अपने आक़ाओं की डोर से बंधे थे
तुम इतने बंधे थे कि नवाबों के आदेश पर
उनको प्रसन्न रखने के लिए
शब्दों के आबशार भी बहाते थे
और तुम्हें एक सुरीले डोम पर भी
ग़ज़ल लिखने का आदेश जारी किया जाता था.
समय के बदलते परिवेश में
हमारी शब्दावली और संस्कृति से अब यह
डोम शब्द कब का ख़ारिज हो चुका.
बदल चुकी है एक पूरी दुनिया मीर साहब
आप प्रेम की निगहबानी में भी
कहीं न कहीं एक ब्राह्मण का गर्व लिए आसीन थे.
विश्वसनीय तौर पर
कवि होते हुए भी
आज और कल के परिवेश में एक धारा है
जो मुझे और तुम्हे अलग करती है मीर साहब.
- मीर के लिए
जामिया की गलियों में मिल गए मीर तुम
बटला हाउस की वीरानियों में
सहमे-सहमे से टोपी पहने बच्चों की आँखों में
जहाँ भय की तितलियों के पंख टूटे पड़े थे .
कुरता-पाजामा पहने उन युवाओं में भी
जो घर के दरवाज़े पर खड़े थे -चुपचाप.
जामिया मिल्लिया से ज़ाकिरनगर तक फैली दुर्गन्ध में
जहाँ पुलिस के बूट बज रहे थे
और गिद्ध जैसी आँखें
मासूम युवाओं के जीवन के तार
जामिया से आज़मगढ़ तक जोड़ने की कोशिशों में व्यस्त थीं.
मीर दिख गए तुम
अचानक नंगे पाँव
बदन पर फटी गुदरी डाले
अपने घर के ‘आशोब’ का हाल लिखते-लिखते
सहसा ठहर गए थे तुम.
नए घरों की कुंडियाँ नहीं टूटी थीं .
नए घरों से पानी भी नहीं चूता था.
नए घरों में बारिश का ख़तरा भी नहीं था.
इन घरों में बिजली थी
मज़बूत कुंडे थे
मज़बूत दरवाज़े थे
मग़र सहमे हुए थे घर
ज्यादा उजाड़ थे तुम्हारी उस कविता से
जिसकी बेदर्दी का हाल लिखा था तुमने
सदियों पहले.
तुम सहसा ठहर गये मीर
याद आ गया था तुम्हे वो मुशायरा
जहाँ पहचान नहीं की गयी थी तुम्हारी
ग़रीबी और दरिद्रता के कारण
मुशायरे के नफ़ीस लोगों से बिलकुल अलग
सबसे पीछे बिठाया गया था तुम्हे.
दुःखी थे तुम अपनी पहचान के खोने से
और शायद अपनी व्यथा को व्यक्त भी किया था.
फिर शायद तुम्हें गोद में उठा लिया गया था
याद हैं ना तुम्हें मीर !
सहसा ठहर गए हो तुम
बटला हाउस और जामिया की उन गलियों में
जहाँ पहचान के चूँ-चूँ करने वाले पक्षी
उड़ गए हैं.
बिछा है न समाप्त होने वाला सन्नाटा
तेज़ अंधड़ है आँधियों का
अँधेरे में दिख रहे हैं केवल ख़ूनी आँखों वाले गिद्ध
जिनके होंठों से ख़ून की
गंध आ रही है.
सुनो मीर साहब……मीर जैसे अज़ीम शाइर के साथ इस शिद्द्त से जुड़ पाना…जुड़ कर अपनी कह पाना एक बहुत बड़ी साहित्यिक घटना है!!!👌👌💐💐
मीर को इस शिद्दत से महसूस करना कि ख़ुद ‘मीर-मीरा’ कहना हो जाए तो कुछ वाकई ख़ास है!!😊👍👍
हिम्मत भी और उल्फ़त भी!!💐💐
बधाइयाँ मंजरी श्रीवास्तव!
अच्छी कविता