जाने–माने पत्रकार और लेखक मयंक छाया शिकागो में रहते हैं और मूलतः अंग्रेजी में लिखते हैं। दलाई लामा की आधिकारिक जीवनी उन्होंने ही लिखी है जिसका तर्जुमा चौबीस भाषाओं में हो चुका है। मूलतः अंग्रेजी में लिखने वाले मयंक छाया लेकिन ग़ज़ल हिन्दुस्तानी में कहना पसंद करते हैं। आज पढ़िए उनकी कुछ ग़ज़ल जानकीपुल पर।
— अमृत रंजन
मैं ही तमाशा और मैं ही तमाशाई
जिंदगी, यह कौन सी नौबत आई
शाम को आएँगे वो कह के सुबह गए थे
न वो आये न शाम आई
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जब मर्ज़ी ज़हर पी लेता हूँ
कभी कभी कहर भी पी लेता हूँ
शिव, शिव नाम है मेरा
प्यास में गंगा लहर भी पी लेता हूँ
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गुलों के शहर में है मेरा इत्र का कारोबार
जहाँ खुशबुओं का आलम और रंगों की बौछार
चारसू फैली हो जहाँ नज़ाकत की हुकूमत
जहाँ मखमली बदन पर तारे हो बेशुमार
ओस से भरे जाम और अब्रों के रास्ते
जहाँ रेशम के परचम तले सिर्फ़ बसता हो प्यार
ऐसे शहर में तुम्हारा क्यूँ सूना है गिरेबान
मोती में लाया हूँ तुम ले आओ तार
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जीता कोई नहीं, सिर्फ हारा हूँ मैं
मैं ही दर्द और खुद चारा हूँ मैं
रौशनी पे मेरी तुम न जाना यारों
यकायक जो टूट जाए वो सितारा हूँ मैं
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सामने हो तो खुद को छुपाया न करो
यूं बेइंतहा तुम मुझको सताया न करो
जल जाने दो जब तक के सांस बाकी है
आग को रुक–रुक के बुझाया न करो
विधाता के शान की कुछ तो सोचो
क़िस्मत बन कर लकीरों में समाया न करो
तमस से रौशनी का सफ़र लम्बा ही सही
मज़िलों से कहकशां को हटाया न करो
शहद में कपट से विष घोल घोलकर
तुम निष्कपट लोगों को पिलाया न करो
और नहीं तो इतना रहम कर मेरे मालिक
जाल को रेशम से मिलाया न करो
मैं तो मुरीद हूँ मुरादों में जी लूँगा
मुफलिसों को यूं उम्मीदों में फसाया न करो
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मंज़िल उतनी ही दूर जितनी के ज़ंजीर भारी
फ़राज़ तो कह ही चुके हैं अब है हमारी बारी
जिनके हाथों में हथकड़ी और आँखों में खुमारी
सु–ए–दार भी चलेंगे तो करके वस्ल की तैयारी
पारा पारा पैरहन और रफू रफू वजूद
सर फिर भी ऊँचा जैसे आसमान से यारी
जिस गली से चले थे वो क़ैद की जानिब
वहाँ फ़ैल गयी है आज गुलों की क्यारी
अब तो बस खुश्बू में ही बसता है वो
और फैलाता है फिजाओं में नशातारी
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ग़म की वजह कोई भी हो, चारा होना चाहिए
ग़ुरबत की वजह कोई भी हो सहारा होना चाहिए
डूबना मेरी मर्ज़ी है उभरना मेरी उम्मीद
पानी कितना गहरा हो किनारा होना चाहिए
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सब के पास हुनर
सब के पास खुमार
सब के पास जीने के
बहाने हज़ार
अपना अपना ज़मीर
अपनी अपनी दीवार
इस पार है दुविधा
उस पार है इंतज़ार
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किनारे किनारे निकलते हैं
इशारे इशारे समझते हैं
मोम सा वजूद है उनका
शरारे शरारे पिघलते हैं
***
रौशनी की रफ़्तार से वो चलते हैं
ज़ुल्मत सा तेज़ मैं फैलता हूँ
उजालों की है सल्तनत उनकी
अंधेरों का बोझ मैं झेलता हूँ
***
वक़्त है वो वफादार नहीं है
मुझे तो है पर उसे दरकार नहीं है
रख सकते हो तो समेट कर रखो
खुशबू पर कोई इख़्तियार नहीं है
सितारों में होता है बसर उनका
ज़मीं से उनका सरोकार नहीं है
न मिले किसी को न दिखे किसी को
मौजूद तो है पर दीदार नहीं है
***
कस्तूरी सी तेरी सुगंध
मृगतृष्णा सी मेरी तलाश
ओस से तेरे रस का टपकना
व्यग्र और अधीर मेरी आस
मरुस्थल में बाट जोहता
जहाँ रतुआ धरती और पीला आकाश
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बिखरती खुशबू सा हूँ
फ़ासले से लुप्त होता हूँ
फूल की पत्ती सा हूँ
ओस से ही तृप्त होता हूँ
***
इशरत–ए–ख्वाब है अक्सर टूट जाना
मेरा घर से निकलना और गली में लूट जाना
शीशों के घरों की तो यही क़िस्मत है
दुनिया का झाँक लेना और फिर फूट जाना
कारवां से बिछड़ने का क्यूँ हो अफ़सोस
मेरा तो है अगले सफ़र में जुट जाना
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वो कौन था जो आपमें अंजुमन सा था
शायर तो था फिर भी कितना कमसुखन सा था
तनहाइयों के लपेटे निकल पड़ता था वो
अकेला था फिर भी खुलूस बदन था
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इतना तो करम कर
मोजूदगी का भरम कर
पानी बरसा या न बरसा
प्यास तो कुछ कम कर
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उम्मीद उभरे भी
तो कैसे उभरे
रौशनी का जब
नहीं लगता है फेरा
अलग है किनारे
अलग है नैया
तू अपनी देख लीजो
मैं देख लूँगा मेरा
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तू मत पूछ काहे
मन जो चाहे सो चाहे
फासलों की न फ़िक्र उसे
सीमाओं की दरकार ना है
जो न भाए वो नकारे
जो भी चाहा वो सराहे
मन वो रसायन है
जो न जला है न बुझा है
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जब भी ज़िक्र–ए–कफ़न निकला
मैं शायर था पर कम–सुखन निकला
अकसर घूमता था अकेला वो
वो जब रुका तो एक अंजुमन निकला
bahut achhi gazal share ki hai aap ne