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वैशाली की कन्या और कमल के फूल

वरिष्ठ लेखिका गीताश्री आजकल वैशाली के भग्नावशेषों में बिखरी प्राचीन कथाओं की खोज कर रही हैं। यह उस ख़ज़ाने की पहली कहानी है-

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वैशाली के खंडहरो में जाने कितनी प्रेम कथाएं सांसें लेती हैं। उन कथाओं के नाम कई स्तूप हैं। कुछ तो नष्ट हो गए, कुछ अब भी कथाएं सुनाती हैं। एक स्तूप से जुड़ी है एक रोमांचक प्रेम कथा और मां और हजार बेटों के बीच की रोमांचक दास्तान।

एक ऋषि थे, जो घाटियों और गुफाओं में छुप कर अकेले निवास किया करते थे। जल्दी बाहर नहीं निकलते थे। उनके बाहर आने की तिथि, मुहुर्त सब निश्चित था। वे केवल वसंत ऋतु के दूसरे महीने में शुद्ध जलधार में स्नान करने के लिए गुफा से निकलते थे। एक बार वे उस निर्जन जलधार में स्नान कर रहे थे कि एक मृगी उसी समय पानी पीने आई। ऋषि के प्रताप से वह मृगी उसी समय गर्भवती हो गई। जिससे एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या इतनी अनुपम सुंदरी थी कि उसके जैसी कोई दूसरी कन्या पृथ्वी पर ढूंढे न मिली। दैवीय आभा से युक्त उस कन्या में एक ही ऐब था कि उसके पैर मृग जैसे थे। ऋषि ने मृगी से उस बालिका को ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उस एकांत गुफा में अपूर्व सुंदरी कन्या पलने लगी। ऋषि की तरह वह भी बाहरी दुनिया से एकदम कटी हुई थी। उसकी दुनिया गुफा तक थी। इससे ज्यादा दुनिया उसने देखी न थी। कहीं अन्यत्र उसका आना जाना न हुआ था। धीरे धीरे वह कन्या बड़ी हो गई। एक दिन ऋषि ने उससे पहली बार कहा कि कहीं से थोड़ी –सी अग्नि ले आओ। बाहरी दुनिया से एकदम अनजान, अनभिज्ञ, अग्नि की तलाश में वह कन्या भटकते भटकते दूसरे ऋषि की कुटिया में पहुंच गई। बाहर की दुनिया में पहली बार उसके कदम पड़े थे। अपनी गुफा से निकल कर पहली बार घने जंगल में अपने पैर रखे थे। गुफा से बाहर जंगल,  हवाओं में घुली गंध सबकुछ उसे भा गया था। अचरज से वह जंगल के सौंदर्य को निहारती हुई, अपने में मग्न वह दूसरे ऋषि की कुटी तक पहुंची थी। वहां पहुंचने तक रास्ते में क्या हुआ, कन्या एकदम अनभिज्ञ थी। दूसरा ऋषि चकित रह गया, उसने जो देखा, वह अकल्पनीय था। उसे अपने नेत्रों पर भरोसा न हुआ। जिन रास्तो से गुजर कर कन्या वहां तक पहुंची थी, उन रास्तो पर कमल के फूल खिल उठे थे। ऐसा जादू, चमत्कार अपनी बरसो की साधना के वाबजूद न देखा था।

मासूम कन्या उनसे अग्नि मांग रही थी, अपने पिता के लिए अग्नि लेकर वापस गुफा में लौटना था। इधर ऋषि हैरान थे, वे अग्नि के बदले फूल मांग रहे थे।

ऋषि ने कन्या से एक शर्त्त रख दी और कहा- “मेरी कुटी के चारो ओर प्रदक्षिणा कर, तब मैं तुझको अग्नि दूंगा।“

अबोध कन्या को भला क्या समस्या होती। मृगनयनी ने बिना अचरज किए, सवाल किए, उनकी शर्त्त पूरी कर दी, कुटी के चारो ओर प्रदक्षिणा कर आई, ऋषि से अग्नि लेकर लौट गई। ऋषि की कुटी के चारो तरफ कमल खिल उठे थे।

उसी समय ब्रम्हदत्त नामक राजा जंगल में शिकार करने पहुंचा था। जंगल में शिकार की खोज करता हुआ राजा ने देखा कि कमल के फूल कतार में खिले हुए हैं। राजा को हैरानी हुई। इस तरह कभी भी खिले हुए कमल नहीं देखें उन्होंने। उन्हें उत्सुकता हुई कि इसका भेद जाने। आखिर ऐसे कैसे खिले कमल। मानो किसी के निशान हों। राजा ने कमल के कतारों का पीछा करना शुरु किया। कमल के फूल एक गुफा के द्वार पर जाकर खत्म हो गए थे। द्वार पर आहट सुन कर कन्या बाहर निकली। राजा उसे देखते ही अवाक रह गए। ऐसा अलौकिक सौंदर्य उन्होंने समूची पृथ्वी पर नहीं देखी थी। खुले, घने-केशपाश, उलझे हुए, मृगनयनी, भौंहे कमान-सी तनी हुई, पंखुड़ियो-से नरम, भरे भरे, गुलाबी होंठ, बांहें चंदन की शाखो-सी, बदन पर कंचुकी, कमर में लिपटा छाल-सा कोई वस्त्र। अलग-से पैर, मानो अभी कुंलाचे भर कर लौटी हों।

जैसे शिल्पकार ने अभी अभी तराश कर छेनी रख दी हो। वह राजा को सामने देख कर भयभीत हो गई। राजा मोहित अवस्था में देर तक खड़ा रहा। तभी ऋषि बाहर निकल कर आ गए। राजा को होश आया। उनका लाव लश्कर दूर खड़ा सारा तमाशा देख रहा था। किसी की हिम्मत न पड़ रही थी कि राजा को होश में लाने का यत्न करता। ऋषि को देख कर राजा को होश आया। तब तक राजा कन्या के प्रेम में पड़ चुके थे। प्रेम ने उन्हें साहस दिया और वे ऋषि के आगे झुक गए। उनकी कन्या को रानी बनाने का प्रस्ताव उनके सामने बेधड़क धर दिया। कन्या ने राजा को देखा, पहली बार अपने मन में कुछ खिंचाव-सा महसूस किया। घनी मूंछो वाला, चमकीली पोशाक पहने, हाथ में तीर-धनुष लिए, चेहरे पर अनुराग की लाली। मृगकन्या को लगा, उसे कोई सूत बांध रहा है। गुफा से बाहर ले जाने को खींच रहा है। वह वापस अंधेरी गुफा में जाने को तैयार नहीं थी। हमेशा अपना चेहरा पानी में देखा था, पहली बार किसी और के नेत्रों में झिलमिला उठी थी। नसों में कुछ तड़कने लगा था। पहली बार उसने ऐसा महसूस किया था। उसके अधर कांप उठे थे। कहने न कहने के बीच ऐसी ही कंपकंपी होती है।

ऋषि ने दोनों की मनोदशा को देखा और कन्या को राजा के साथ उसी शिकार रथ पर विदा कर दिया। ऋषि जानते थे कि इस जंगल और गुफा में रहते हुए उनकी पुत्री के लिए इससे बेहतर कोई संबंध द्वार चल कर नहीं आ सकता । कन्या की भलाई समझ कर उन्होंने राजा के हाथों अपनी पुत्री सौंप दी।

महल में पहुंचते ही वहां पूर्व रानियों में खलबली-सी मच गई। ज्योतिषियों ने पहली बार ऐसी अदभुत कन्या देखी थी। राजा ने राजज्योतिषी को बुला कर कन्या का भाग्य जानना चाहा। ज्योतिषि ने बताया कि इस रानी से आपके हजार पुत्र पैदा होंगे। इतना सुनते ही राजा खुश। गलहार निकाल कर तुरत राज ज्योतिषि के हाथों में थमा दिया। यह खबर समूचे महल में, रनिवास में फैल गई। रानियों को घोर ईर्ष्या हुई। वे इसके खिलाफ षडयंत्र करने लगी। नयी रानी के रुप सौंदर्य से पहले से ही उन्हें डाह होती थी। राजा को भी तक वे संतान नहीं दे पाई थीं, सो पहले से दुखी थीं। वे जानती थी कि हजार पुत्र पैदा करने वाली ही महारानी बनेगी।

नयी रानी गर्भवती हुई, उन पर कड़ी निगाह रखी जाने लगी। रानियों ने चारो तरफ से उसे घेर लिया था। नयी रानी के गर्भ से कमल का एक ऐसा फूल पैदा हुआ जिसकी हजार पंखुड़ियां थीं। प्रत्येक पंखुड़ी पर एक नन्हा बालक बैठा हुआ था। रानियों ने ऐसा अचरज कभी न देखा, न सुना। उन्हें अनिष्ट की आशंका हुई। वे राजा को भड़काने लगीं- “यह अनिष्ट घटना है, यह राज्य के लिए उचित नहीं। इसे नष्ट कर देना चाहिए।“ चारो तरफ निंदा होने लगी। राजा निंदा से डर गया और रानियों के बहकावे में आ गया। उसने वह फूल गंगा नदी फेंकने का आदेश दिया। कमल के फूल को संदूक में बंद करके नदी की धार के हवाले कर दिया गया।

उस दिन से महल में वीरानी छा गई। दो अनुरागी मन टूट गए। दोनों के बीच का विश्वास भरभरा कर ढह गया।

“मैं आपकी कन्या का सदा खयाल रखूंगा, मैं तुम्हें पटरानी बना कर रखूंगा…” ये सारे वचन लोप हो गए। मृगकन्या के चेहरे पर हंसी न लौटी और न फिर उसके पैरो से कमल फूल खिले।

इधर संदूक बहते बहते एक दूसरे, पड़ोसी राज्य में पहुंच गया। वहां का राजा शिकार करते हुए नदी किनारे पहुंचा तो उसने देखा , एक पीला-सा संदूक बहता हुआ उसकी ओर चला आ रहा है। राजा ने तपाक से नदी से संदूक को छान कर उठा लिया। उत्सुकता से संदूक खोला तो हैरान रह गया। संदूक में हजार बालक कुनमुना रहे थे। राजा उन्हें अपने महल में ले आए, पुत्रवत  उनका लालन-पालन करने लगे। वे बच्चे बड़े होकर बड़े पराक्रमी निकले। उनकी वीरता के किस्से चारो दिशाओं में गूंजने लगे। अपने बल पर उन्होंने अपने राज्य का विस्तार करना शुरु किया। उन्होंने अपनी सेना इतनी बड़ी कर ली कि वैशाली राज्य को भी जीतने का संकल्प ले लिया। राजा ब्रम्हदत्त तक ये खबर पहुंची कि पड़ोसी राजा चढ़ाई करने आ रहा है और उसके पास बहुत बड़ी सेना है। वीर, बलवानों से लैस है उनकी सेना जो लगातार कई राज्यों को जीत चुकी है। वे जानते थे कि वैशाली की सेना उसके सामने कभी नहीं टिक पाएगी। राजा संभावित पराजय की कल्पना से भयभीत हो उठे थे। राजा चिंतित हो उठे। उन्हें इस हालत में देख कर मृगपाद कन्या यानी नयी रानी सबकुछ समझ गई। उस तक भी वीर सेना की खबरें पहुंची थीं। राजा ब्रम्हदत्त और उनकी रानियां भूल चुकी थीं, लेकिन मृगपाद कन्या समझ गई थी कि पड़ोसी राज्य के वे हजार वीर बालक कौन है।

आत्मविश्वास से भरी हुई रानी ने राजा को कहा- “जवान लड़ाके सीमा पर पहुंचने वाले हैं। परंतु आपके यहां के सभी छोटे-बड़े लोग साहसहीन हो रहे हैं। आप आज्ञा दें तो आपकी ये दासी कुछ कर दिखाए। ये दासी उन वीरों को जीत सकती है।“

राजा को उसकी बात पर विश्वास न हुआ। होता भी कैसे। कहां वे वीर लड़ाके, कहां ये कोमलांगी, सुंदरी। बुझे मन से राजा ने आज्ञा दे दी। रानी सीमा पर पहुंची और नगर की सीमा पर बनी दीवार पर चढ़ कर खड़ी हो गई। वहां पर वह चढ़ाई करने वाले वीरो का रास्ता देखने लगी। वे हजार वीर, अपनी अपनी सेना के साथ आए, नगर की दीवार को घेरने लगे।

मृग-कन्या ने उनको संबोधित किया- “विद्रोही मत बनो मेरे पुत्रों। मैं तुम्हारी माता हूं। तुम मेरे पुत्र हो।“

उन लोगो ने उत्तर दिया- “हम नहीं मानते, इस बात का क्या प्रमाण है ?”

मृग-कन्या ने अपना स्तन दबाया, उसमें से दूध की हजार धाराएं निकलीं और हजार पुत्रों के मुख में समा गईं।

दोनों तरफ की सेनाएं चकित रह गईं। योद्धाओं ने युद्ध के दैरान ऐसा वात्सल्यपूर्ण दृश्य नहीं देखा था, जो उन्हें भावुक कर जाए। सबने हथियार वहीं धर दिए और हजार पुत्रों की माता को उसके खोए हुए पुत्र मिल गए। युद्ध बंद हो गए और वे हजार पुत्र अपने घर वापस लौट आए। दो दुश्मन राज्य एक दूसरे के संबंधी बन गए।

राजा ब्रम्हदत्त को ज्योतिषियों की भविष्यवाणी याद आई, फिर वह गर्भ से निकला कमल का फूल और उसकी हजार पंखुड़ियां याद आईं, जिन पर हजार शिशु चहचहा रहे थे। वे दुष्ट रानियां याद आईं जिनके बहकावे में आकर उसने घोर पाप किया था। राजा पश्चाताप से भर कर मृगकन्या रानी के सामने क्षमाप्रार्थी हो उठे।

मृगकन्या ने बस इतना कहा- “अनुराग की गहरी खाई में भरोसा हो तो छलांग लगाना चाहिए था महाराज। आपके एक अविश्वास और भय ने इतने साल आपको पुत्र सुख से, वैशाली को उत्तराधिकारी से और आपको मुझसे दूर रखा।“

वैशाली के उसी स्थान पर बुद्ध ने टहल टहल कर भूमि में चिन्ह बनाया और उपदेश देते समय लोगो को सूचित किया – “इसी स्थान पर मैं अपनी माता को देख अपने परिवारवालों से जा मिला था। तुमको मालूम होगा कि वे हजार वीर ही इस भद्रकल्प के हजार बुद्ध हैं।“

  ( ह्वेनसांग के भारत-भम्रण के एक प्रसंग पर आधारित कथा)

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32 comments

  1. गीताश्री कमाल की किस्सागो हैं। पढते हुए लगा, जैसे अपने बचपन मे पहुँच गयी हूँ और ईआ के बगल मे लेटकर उनसे कहानी सुनते हुए हुँकारी पार रही

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