सरयू में काँप रही थी अयोध्या की परछाईं
अयोध्या के पास फैज़ से आबाद इस नगर की एक गली में
तब रहती थीं कुछ खुदमुख्तार औरतें
अदब और तहजीब की किसी पुरानी दरी पर बैठीं
स्त्री–पुरूष के आकर्षण के फीके उत्सव में मटमैली होती हुईं
रोज- ब- रोज
उस गली पर और उन जैसी तमाम गलियों पर
जो हर नगर में सितारों की तरह सजती थीं
और चमकती थीं ख्वाबों में कभी
बीसवीं शताब्दी का कुहासा कुछ इस तरह उतरा
कि टूट कर बिखर गये उमराव जान के घुंघरू
बुझ चले कजरी,ठुमरी दादरा के रौशन चराग
जहां से अब रह-रह आती
बेगम अख्तर की उदास कर देने वाली आवाज़
यह वह समय था जब
दिग्विजय के लिए निकले रथ के उड़ते धूल से
ढक गए थे राम
दसो दिशाओं से रह-रह उठता विषम हूह
और बाज़ार के लिए सब कुछ हो गया था कारोबार
बाज़ार के रास्ते में आ रही थी यह गली
दोपहर की चिलचिलाती धूप में
उस दिन कुछ लोग आ खड़े हुए
सरयू में काँप रही थी अयोध्या की परछाईं
हिल रही थीं सारी पुरानी इमारते
बेनूर खिड़कियों पर लटके उदास परदों के पीछे
सिर जोड़े खड़ी थीं स्त्रियां
अवांछित,अपमानित और असहाय
ये स्त्रियां अपनी- अपनी मिथिला में
कभी देखती थीं अपने राम के सपने
किसी विद्यापति ने इनके लिए भी लिखी थीं पदावलियां
जिसे जब-तब ये आज भी गुनगुनाने बैठ जाती हैं
उन्हें खदेड़ने के लिए देखेते-देखेते निकल आए बनैले सींग
छुपे दांत और पुराने नाख़ून
उन पर गिरने लगे अपशब्द के पत्थर
हालांकि उनका होना ही अब एक गाली थी
गुम चोट के तो कितने निशान थे वहां
जयघोष में कौन सुनता यह आर्तनाद
शोर में यह चीख
यह अलग तरह की क्रूरता थी
देह से तो वे कब की बेदखल थीं
उन्हें तो दिशाएं तक न पहचानतीं थीं
रात के परिश्रम से श्रीहीन श्लथ देह की झुकी आत्माएं
रह-रह देखती अयोध्या की ओर
वे तमतमाए चहरे
रात की पीली रौशनी में कितनी चाह से देखते थे उन्हें
इन्ही स्त्रिओं ने न जाने कितनी बार
मुक्त किया था उन्हें उनकी ही अंधी वासना से
अब यह स्त्री-पुरूष का आदिम खेल न रहा
कि स्त्री अपने आकर्षण से संतुलित कर ले पुरूष की शक्ति
बगल में बह रहे सरयू ने देखा
सदिओं बाद फिर एक वनवास
इनके जनक थे
बदकिस्मती से रावण भी थे सबके
पर इनके लिए कोई युद्ध नहीं लड़ा गया
राज–नीति के बाहर अगर कही होते राम तो क्या करते.
(सत्य प्रकाश त्रिपाठी के लिए)
बढ़िया,तहजीब की गली के दर्द का बयां, दिल को छू लेता है, दर्द की रामायण लिख दी हो जैसे श्री अरुण देव को बहुत बधाई, जानकीपुल का आभार…
बहुत सुंदर कविता
सुन्दर कविता है। प्रकाशन के लिये धन्यवाद 😉
बहुत सुन्दर, लाजवाब प्रवाह!!
अत्यनत सुन्दर, अद्भुत, सशक्त और मुकम्मल रचना ! बढ़ाई ! आभार !!
एक अलग ही तरह से देखने का प्रयास और प्रस्तुत है इस रचना में – अद्भुत।
बड़े अर्थ की बड़ी कविता !!!
लक्ष्य-भेदि…सार्थक…सशक्त रचना ।
ateet ke prashn uthati marmik kavita.prabhat ji ki sunder bhoomika.badhai
अरुण जी ,
आपने मेरे सामने मेरे शहर फैज़ाबाद को ला खड़ा किया …
एक फिल्म सी लगा दी , जो कभी बीते समय में देख के भूल चूका था , बड़ा प्यार है अपने शहर से (जन्मभूमि जो है) लेकिन…
“बेनूर खिड़कियों पर लटके उदास परदों के पीछे
सिर जोड़े खड़ी थीं स्त्रियां
अवांछित,अपमानित और असहाय ”
…अब क्या जवाब दूँ इसका
ये स्त्रियां अपनी- अपनी मिथिला में
कभी देखती थीं अपने राम के सपने
किसी विद्यापति ने इनके लिए भी लिखी थीं पदावलियां
जिसे जब-तब ये आज भी गुनगुनाने बैठ जाती हैं
हालांकि उनका होना ही अब एक गाली थी
गुम चोट के तो कितने निशान थे वहां
देह से तो वे कब की बेदखल थीं
रह-रह देखती अयोध्या की ओर
बगल में बह रहे सरयू ने देखा
सदिओं बाद फिर एक वनवास
“कविता अपने में एक रामायण है !!!”
सादर भरत
arun ki yeh kavita hindustan ke us sansrikiti ka marmic akhyan hai jo bura samjhe jane ke wavzood ek mahatpoorna ang tha.baat sirf itni nahi thi ki ki tavaaif bejar ho rehi hai,balki ram jo astha ke pratik hai unhe bhi bazar ne kaise nigal liya.yekavita kai staro per ek saath thakthakati hai ki ayodhya se sirf maryada pursottam nahi gaye balki wo parampara bhi gayi jo kahi na kahi tahjeeb ki roshnai se logo ko zinda rekhti thi.ram bhi rajnitik nahi the aur tavayefe bhi isliye bedkhal hue dono hi ayodhya se.bahut marmic kavita hai aur is arth me visheh bhi ki ayodhya ki rajneet ke bahane isme ek marmic pachh aya hai waha kisi ka dhyan nahi jata.ayodhya per padi gayi anek kavitao me sabse anokhi aur marmic kavita.badhai arun ko aur apko ki aapne ise rekhankit kiya.
अद्भुत कविता है अरुण जी… आद्भुत. (वार्तानिक अशुद्धि नहीं है, यह अद्भुत 'बड़े आ' के साथ है जैसे अंग्रेजी में होता है love with a capital L)
एक ही शहर किसी के लिए माँ भी हो सकता है और किसी और के लिए प्रेमिका.. पर शहर पे किसी की निगाह ऐसे पड़े, और वो भी इतनी पाकीजगी के साथ..
यह पोस्ट पढ़ते हुए कानों में शोमा घोष की ठुमरी बजती रही– मिर्जापुर कईले गुलजार हो कचौड़ी गली सून कईले बलमू..
बस इस पोस्ट में दर्द ज्यादा है.. की गली अपनी मर्जी से कहाँ सूनी हुई…
samar
achchhi aur bahut marmik kavita hai . badhayee!
राज-नीति के बाहर अगर कहीं होते राम तो क्या करते………जबरदस्त ! इतनी अच्छी कविता को उतनी ही अच्छी भूमिका के साथ पढ़वाने के लिए आभार प्रभात जी | रथियों और महारथियों वाले उस दौर में इन गलियों से क्या-कुछ बेदखल कर दिया गया था , की याद दिलाती है यह कविता | सचमुच बाज़ार के रास्ते में आ रही थीं ये गलियाँ | इनके लिए कोई युद्ध नहीं लड़ा गया, लड़ा जाना भी नहीं था | सभी महारथी धनुर्धर बाज़ार के लिए ही तो निकले हुए थे | बाज़ार, जहाँ बकौल केदारनाथ सिंह घोंसले नहीं सिर्फ पिंजड़े मिलते हैं | इसी पिंजड़े में पूरे देश को कैद करना था उन्हें………. | लेकिन बीसवीं शताब्दी का वो कुहासा क्या पूरी तरह छंट गया है ?
बहुत बढ़िया कविता |
Achchi Kavita hai!!
Niranjan Shrotriya
प्रभात भाई, अरुण देव जी की इतनी अच्छी कविता पढ़ाने के लिए आभार। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि अदब और तहजीब की पुरानी इमारतों वाली वह गली राम-राज्य के रास्ते में आ रही थी या बाजार के..? मैं यह भी सोच रहा हूं कि बाजार क्या सिर्फ दक्षिण दिशा में ही है..!
वाह !! राज-नीति के बाहर अगर होते राम तो क्या करते….
२०वीं सदी के माथे पर लिखा गया सबसे कठिन प्रश्न । बहुत खूब । पूरी कविता का दर्द…
वाह !! राज-नीति के बाहर अगर होते राम तो क्या करते….
२०वीं सदी के माथे पर लिखा गया सबसे कठिन प्रश्न । बहुत खूब । पूरी कविता का दर्द…