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ये लोकतंत्र के महामठ की चंद सीढियां हैं

तुषार धवल की कविताओं में वह विराग है जो गहरे राग से पैदा होता है. लगाव का अ-लगाव है, सब कुछ का कुछ भी नहीं होने की तरह. कविता गहरे अर्थों में राजनीतिक है, उसकी विफलता के अर्थों में, समकालीनता के सन्दर्भों में. सैना-बैना में बहुत कुछ कह जाना और कुछ भी नहीं कहना. इस साल के विदा गीत की तरह जिसमें मोह भी है उसकी भग्नाशा भी, उम्मीद है तो निराशा भी- जानकी पुल. 
१.
महानायक 
आचरण की स्मृतियों में हम
कब के ही बीत चुके हैं
ये मूर्तियाँ उनकी नहीं हैं
जिनकी कि हैं
ये प्रतिछायायें हैं संगठन की
जिससे सत्ता के सोते बहते हैं
स्मृतियाँ नहीं हैं इनमें शेष
ये रुक्ष पत्थरों पर उकेरी गईं कल्पनायें हैं
महत्वाकांक्षा की
इनमें मत ढूँढो मुझे
ये लोकतंत्र के महामठ की
चन्द सीढ़ियाँ हैं
जिन पर महत्वाकांक्षा के उफान पर
तुम फूल चढ़ाते हो
इनमें मत ढूँढ़ो मुझे।
२.
मैं होना चाहता हूँ

मैं होना चाहता हूँ
धूसर से सफेद
मेरे मटमैले रंगों पर
जमी कालिख झाड़ दो
मैं कुरेदना चाहता हूँ
अपनी तहों को
मिल सकूँ उस बीज से
जो मैं हूँ
मेरी दौड़ को थाम दो
रोक दो रक्त संचार
थम जायें साँसें
गुजर जाने दो इन बेलगाम जंगली घोड़ों को
उनकी टाप सिर पर पड़ती है
सही गलत
सच झूठ के
फैसलों में
कितने बेमानी हैं सच और झूठ
सही और गलत
जिसका कोई अर्थ नहीं
वही माँगता हूँ
भर दो मुझमें
मायावी !
वही मारीच कौशल
अपने ही आखेट में कर दो मुझे
स्वर्ण मृग
ध्वस्त कर दो मुझे
तोड़ दो
मैं फिर से होना चाहता हूँ
भग्न मूर्तियाँ
मूर्तियाँ भग्न इतिहास के कल्पना की
३.
इस विक्षेप में

काम तज कर बीच ही अधूरा
चल गया शिल्पी
संतति अब सोचती निर्माण करती है
अपना समय अपने इतिहास को
और शिल्पी दूर से कुछ अचम्भित कुछ
प्रत्याशा से
देखते हैं
क्या यही होना था अब
जो रूप है ?
धान के गीले खेतों में लाल पदचिन्ह
कुछ नहीं बदला समय के कपाट पर
और पुतलियाँ आँखों की स्याह इस अकेली नींद में पदभ्रान्त
कितने शिखर हैं परम्परा की लपलपाती
जीभ कितना घेरती है
दुख कोई होगा फटी चप्पलों में छोड़ आया
सुख कोई था जेब में छोड़ आया
अब निरस्त्र निहत्था सामने खड़ा हूँ बैठा
तुम्हारी सीढ़ियों पर
मन नहीं कहता कि गाऊँ
युद्ध कहीं भी लड़ा गया हो
जमीन वही होती है हमेशा
 
      

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