आज मोहन राणा की कविताएँ. विस्थापन की पीड़ा है उनकी कविताओं में और वह अकेलापन जो शायद इंसान की नियति है-
कहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँ
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
दो पैरों बराबर जमीन पर
कहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँ
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
दूरियाँ नहीं बिफरा मन भी नहीं
तुम्हें याद करने का कोई कारण नहीं
भूलने का एक बहाना है खराब मौसम जो
सिरदर्द की तरह
समय को खा जाता है खाये जा रहा है
फिर भी भूखा है जैसे आज भी,
या मैं खुद से पूछ रहा हूँ
समय को कच्चा खाते
मैं भूखा क्यों हूँ सिरदर्द की तरह
सोच सोचकर
लोहे के चने चबा रहा हूँ
अब मैं भूल भी गया
मैंने तुमसे पूछा क्या था
अपने ही सवाल का जवाब देते हुए,
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
एक बात दो तरह से
व्यस्त हैं कठफोड़े की तरह
शब्दों के खिलाड़ी मुखौटे उकेरने
गौरिया कहें
पंछी कहें
कहें मनुया या दर्जिन उसे
उड़ान बांध नहीं सकती चिड़िया को
किसी नाम में
वो बताती नहीं कभी जैसे
बोलती
किसी डाल पर
घनी छायाओं में कहीं
कभी किसी तार पर
कभी बीच उड़ान में
कभी उसके स्वर सुबह की पहचान
दोपहर की स्मृति
और शाम की अनुपस्थिति हैं,
बूझ नहीं पाता इतना समझ कर भी
उनका अकेलापन
मेरा एकांत है
देशाटन पर हैं देशांतर
ये दुनिया कभी कोई मोर्चा
कभी जन्नत की हूर
अलग अलग रंगों के हरावल दस्तों की बिगुल धुन,
लोग पूछते हैं और आजकल क्या कर रहे हैं!
मैं मील के पत्थर उखाड़ने में लगा हूँ
ये रास्ते दिन के अंधेरों में भटकाते हैं,
देशाटन पर हैं देशांतर
उन बादलों से कहें वे ना बरसें
सूख नहीं पाए हैं पिछली सदी के आँसू अभी भी
धारा 144
प्रैस कॉन्फ्रेंस में इतना शोर था
कि सुन नहीं पा रहा था जवाबों के सवाल,
एक बजे रात क्या कर रहे थे
पंडाल में अँधेरा टटोलती पत्रकार बार बार पूछती
हम सो रहे थे ..अपने आक्रोश से घबराए लोग बार बार कह रहे थे
एक बजे क्या रहे थे पत्रकार फिर पूछ रही थी
हम सो रहे थे वे एक साथ बोल पड़ते
गरम उमस में भीतर कोहरा था आँसू गैस का,
क्या यह कोई साजिश थी मुझे नहीं मालूम
पर घटना दौरान रात एक बजे लोग सो रहे थे
फिर भी पत्रकार पूछे जा रही वही सवाल
लोग सोते हुए नींद में क्या कुछ और कर सकते हैं
मैं संभावना पर सोचने लगा.
मैंने कहीं सुना यह, खुद ही गढ़ ली कहानी
स्विस सरकार ने चैक दिल्ली कुरियर से भेजा है
देखे पे विश्वास नहीं सुने पर भ्रम होता है
अगर आप सोए हैं तो उम्मीद रखें
आँसू गैस सुंघवाई ही जाएगी
आप हँस रहे हैं यह पढ़, सही है,
इस दुनिया में अब यही काम सहज लगता है
हंसना
पर मुझे मालूम है,
धारा १४४ उस पर भी लागू होती है,
मैं अकेले ही हँसता हूँ
कुछ लोग पान हमेशा मुँह में क्यों दबाए रखते हैं
हर दृश्य से परे कुछ देखते हर उपस्थिति में अनुपस्थित वे
चबाते कुछ, कुछ कहते अबूझ,
कहीं ऐसा तो नहीं
ताकि मन की बात मन में ही रह जाए
मैं नहीं कह रहा यह कोई साजिश थी, लोगों को रात के तीसरे पहर गैस
के गोलों से जगाना,
और अचानक जब कोई देख नहीं रहा
देख नहीं पाता
पान की पीक जहाँ तहाँ फेंकी जाती है
सीढ़ियों पर, वे हमेशा उपस्थित रहती है उन मन की छुपी बातों का अहसास कराती
हर मौसम में सुर्ख दिखती दाग़ों में
जो मिटते ही नहीं,
दीवारों के रंग उड़ जाते हैं
खिड़कियों के फ्रेम टेढ़े हो जाते हैं
सम्बंधो के बल्ब काले पड़े जाते हैं
पलस्तर टूट जाता आभासी रेत की दीवारों का
बदल जाता है दैनंदिन का गोचर दृश्य
पर वे वहीं रहते हैं
हमारी स्मृति में जीवनपर्यंत
यह ना भूलने का भय,
खुली आंखों के सामने बंद पलकों के भीतर.
मन होता है कि सलाहें दूँ इसे कहूँ उसे कहूँ ब्लाग फेसबुक पर,
मंत्री जी को कह दें चैक पर साइन का मिलान जरूर कर दें
दिल्ली के बाहर के है कहीं बाऊँस ना हो जाय,
आशा कि पता सही ही होगा, बैरंग चिठ्ठियों का ढेर पड़ा है दरवाजे के पास,
जो बकाया रजिस्टर में चढ़ा दीजिये,
समय अपने आप सब हिसाब कर देता है
हम तो केवल अर्थ ही गूँथ सकते हैं.
दरवाज़े के सामने दीवार
जो दिखाई ना दे मैं उसे पहचान लूँ
इसके लिए तैयार रखता हूँ खामोशी को
कि जनमे वह किसी शब्द को
जो हटा दे मेरे दरवाजे के सामने दीवार को वह
एक दुनिया से प्रतिबंधित किये है मुझे
"उड़ान बांध नहीं सकती चिड़िया को" काफ़ी अच्छी पंक्तियाँ हैं| शुक्रिया इनसे अवगत करने के लिए :]
शुक्रिया, बहुत अच्छी कवितायें पढवाने के लिए.
बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि आपका कोई ब्लाग होगा जरुर । तो देखिये सबसे पहले एक फेस बुक पर मोहल्ला लाइव डाटकाम से हुसैन साहब पर लिखा आपका आलेख पढा। वहां लिखा था आपकी प्रसिध्द कहानी का नाम जानकी पुल । गूगल पर जानकी पुुल टाइप कर आपके ब्लाग पर उपस्थित हुआ यहां पर आपकी महरवानी से राणा साहेब की कविताए पढने को मिली। धन्यवाद
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है
sab kavitaaye sundar hain. do paron.. vishesh pasand aai.
जो दिखाई ना दे मैं उसे पहचान लूँ
इसके लिए तैयार रखता हूँ खामोशी को
कि जनमे वह किसी शब्द को
जो हटा दे मेरे दरवाजे के सामने दीवार को वह
एक दुनिया से प्रतिबंधित किये है मुझे
अपने आंतर-बाह्य दोनों को सामान रूप में व्यक्त करती हैं राणा की कवितायेँ !
धन्यवाद 'जानकी पुल'!
समय अपने आप सब हिसाब कर देता है
हम तो केवल अर्थ ही गूँथ सकते हैं.
सुंदर व सार्थक अभिव्यक्ति, बधाई
– मदन गोपाल लढ़ा
जो दिखाई ना दे मैं उसे पहचान लूँ
राणा साब, कविता के जरिए हम सबकी बात कह डालते हैं. यही उनकी यूएसपी है। खासकर कम शब्दों में वे बातों को रखते हैं।