अनामिका और पवन करण की कविताओं पर चली बहस में आज युवा लेखिका विपिन चौधरी की टिप्पणी- जानकी पुल.
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विश्व स्तर पर जिस बीमारी से १०.९ मिलियन महिलाएं जूझ रही हों उसी बीमारी और उस अंग विशेष को लेकर लिखी गयी कविताओं से परिणामस्वरूप सामने आई प्रतिक्रियों से एक नए बहस शुरू होने के क्या परिणाम निकलेंगे अभी यह स्पष्ट नहीं हैं. स्पष्ट है तो सिर्फ यह कि इस बहस में शामिल होते हुए हमें इस सच के भीतर से गुज़रना होगा कि आज हमारे देश में हर २२ माहिलाओं में से एक महिला स्तन कैंसर से पीड़ित हैं और २०१५ में उनकी संख्या दुगनी होने की सम्भावनाये जताई जा रही है. स्तन कैंसर से जूझती महिला किस स्तिथियों से गुज़रती होगी यह हम महिलाएं सहज ही अनुमान लगा सकती है . शुरूआती तौर पर एक गांठ के रूप में उभरती इस बीमारी में दुग्ध आपूर्ति करने वाली नलिकाओं की भीतरी परत में ट्यूमर फ़ैल जाता है. शुरुआती देखरेख होने पर ट्यूमर तो सर्जरी द्वारा निकाल दिया जाता है पर सामाजिक धारणाओं के चलते जिस स्तर पर पीड़ित महिला को दारुण मानसिक उतार -चढाव से गुज़ारना पड़ता है वह बीमारी के समकक्ष विकराल समस्या है.
प्रकृति की असीम सुन्दरता के बाद जो चीज़ सबसे ज्यादा लुभाने वाली मानी गयी वह है स्त्री . इसी स्त्री-शरीर को केंद्र में रख कर संसार भर की स्त्री सम्बन्धी रचनायें अस्तितिव में आई हैं. प्रगतिशील यथार्थवाद के ज़ोर पकड़ने ने बाद और फिर आधुनिक समाज की जीवन-शैली ने खुद स्त्री की चिंतन की दिशा को अलग आयाम दिए. स्त्री अपने अंदरुनी दबावों और उनके बाहरी असर पर सोचने लगी और उसको खुले तौर पर परिभाषित भी करने लगी.विश्व साहित्य में जहाँ पाब्लो नेरुदा ने ‘बॉडी ओफ वोमेन नामक कविता लिखी वही हमारे रीतिकालीन कवियों ने स्त्री को श्रृंगार की पुड़ियाँ बना कर पेश किया. अमेरिका की कवयित्री एनी सेक्सटों ने १९६०-७० में ‘माहवारी‘ और‘ रजोनिवृति‘ पर कविता लिखी. उस वक़्त हमारे देश की महिला रचनाकार अपने आप से और अपने समाज से अलग मुद्दों कर जूझ रही थी.
वर्तमान दौर में महिला सशक्तिकरण के इसी सिलसिले की एक नयी कड़ी के तौर पर समकालीन कविता के शीर्षस्थ मुकाम पर खड़ी कवयित्री अनामिका की नयी ” ब्रेस्ट कैंसर” को लिया जा सकता है. यहाँ हमे यह भी याद रखना चाहिये की स्त्री के वक्ष स्थल की इसी बीमारी के अंतर्गत खुद की जाँच पड़ताल के लिये स्वास्थ्य सम्बन्धी विज्ञापनों में स्त्री देह को सामने लाया जाता है तब इसे बुरा नहीं माना जाता तो फिर ‘ब्रेस्ट कैंसर‘ पर लिखी गयी कविता को लेकर क्यों धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. एक संवेदनशील और वरिष्ठ महिला कवयित्री के तौर में अनामिका खुद अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी से बखूबी परिचित हैं.
उनकी और पवन करण की कविता “स्तन ” को लेकर जो प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हुआ उससे निश्चित ही स्त्री-शरीर की गरिमा के आधारभूत पहलू एक बार फिर से सामने आ सकेंगे . अनामिका की कविता ‘ ब्रेस्ट-कैंसर‘ में एक गंभीर बीमारी से जूझती हुई स्त्री की जिजीविषा ही परिलक्षित होती है उससे जायदा कुछ नहीं. उसी अद्भुत आत्मबल के बल पर खुद भुगत भोगी महिला के रूप में अपनी घातक बीमारी से बातचीत करती है. लेकिन न जाने क्यों इस कविता में कई विद्वान लोगों को अश्लीलता नज़र आयी. हर मनुष्य के पास चीज़ों को देखने-समझने का अपना अलग नजरिया है उसी नज़रिये को लेकर शालिनी माथुर और दुसरे कई रचनाकारों को इस कविता में कई छिद्र दिखाई पड़े, उन्हे अनामिका के कविता में कुछ अनर्थ नज़र आया और न जाने क्यों वे इन कविताओं से साहित्य में कूड़ा फ़ैलाने के संज्ञा दे कर चिंतित हो रहे हैं.
जब कोई स्त्री अपने शरीर को लेकर बेबाक अभिव्यक्ति के साथ सामने आती है तो उसके साथ जूडी दूसरी मानवीय भावनाओं को परे कर सिर्फ स्थूल शरीर पर बात आ टिकती हैं. इन अभिवय्क्तियों में कुछ भावनाएं, संवेदना के स्तर पर इतनी सूक्षम होती है कि हर किसी के पकड़ में नहीं आ सकती उनके हाथ सिर्फ उपरी तौर की चीज़े ही लगती हैं जिन्हें ले कर महज़ हो हल्ला ही मचाया जा सकता है और सदियों से स्त्री के इस वर्जित प्रदेश के बारे में इतनी साफगोई पहले- पहल एक नयी बहस का विषय बनती ही आयी है क्योंकि आज तक एक महिला का शरीर भृत्यभाव और किसी भी सामाजिक ज़ुल्म का शिकार बन, एक जड़ चीज़ का प्रतिनिधित्व ही करता नज़र आता है.
यह इस आधुनिकता का परचम लहराती आधुनिक सदी में ही संभव हो सका है कि महिलाएं अपने जीवन के दुख, दुख और निराशा के चिर परिचित मैदान से बहार आ कर बड़ी सूझ-बूझ से अपने शरीर पर लिखने उसे चित्रित और प्रदर्शित करने जैसे बीहड़ इलाके में कदम रख रही हैं. अपने शरीर और उससे जुडी समस्याओं के हल खोजती स्त्री के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहे है और इसी के परिणाम स्वरुप आज की कवयित्री की लेखनी से “ब्रेस्ट कैंसर” जैसी कविता लिखी जा रही हैं .‘स्तन‘ को लेकर यह जागरूक अभिवयक्ति उस अभिवयक्ति से आगे का कदम है जिससे कृष्णा सोबती ने १९९९ में “मित्रो मरजानी” में पाठकों को परिचय करवाया. आज तक एक महिला अपने शरीर को इतना दबा-छिपा कर रखती थी उसके बारे में बात करना बड़ी बुरी बात माना जाता रहा है और आज की स्त्री इतनी निर्भीक हो चली है कि अपने शरीर के गंभीर रोग से ही वार्तालाप करती है.
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-पफुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,
कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, पफूटे!
अनामिका की इसी उपरोक्त कविता से ही हिंदी साहित्य को कैंसर लगने की चिंता जताई जा रही है.
जिससे यही दिखता है की समाज के देखने, परखने और समझने का नजरिया वही सदियों पुराना है. आज जब एक महिला इस पुरुष सत्तात्मक समाज में बेबाक अभिव्यक्ति का साहस जुटाती हैं तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने जैसी स्तिथि से उसे सामना करना पड़ता है.
जिस तरह लिखने का एक अदब होता है उसी तरह से उसे पढने का भी. जिस सदाशयता से एक कवि, कविता लिखता है उसी सदाशयता का पाठक निर्वाह नहीं कर पाते, उनके मस्तिक्ष पर हमेशा सिंग निकलते दिखते हैं.
शरीर की अपनी गरिमा होती है और उस गरिमा का निर्वाह करते हुए ही अनामिका ने इस कविता को लिखा है. जरूरी नहीं की गंभीर विषय पर आंसू बहाने वाली कविता लिखी जाए. उस बीमारी को हम अपनी आत्मबल से एक छोटी व्याधि माने जिसे हमें खुद के आत्मबल पर ही विजय पानी है. लेकिन इस कविता को पोर्नोग्राफी से जोड़ा जा कर देखा जा रहा है मेरी समझ से परे की बात है यह.
रही बात पवन करण कविता “स्तन” की तो उन पर पुरुष नजरिये को इस कविता में उतार देने की बात कही जा रही है. पुरुष कवि अपने पूरे अंतर्मन के शरीर के इस हिस्से से जुडे आह्लाद को खुल कर सामने रख रहा है पर इस कोशिश में वह लड़खड़ा गया है. जिस गरिमा की जरुरत स्त्री-पुरुष के रिश्ते में जुडे इस निजी बाहव की होनी चाहिये उस में कमी से पूरी कविता के तार ढीले हो गए हैं. उनकी इस कविता को पढने के बाद जरूर यह प्रश्न उठाया जा सकता है और स्त्री की गरिमा को इस हद तक एक पुरुष द्वारा सार्वजानिक और स्थूल वस्तु बना देने पर मामला ठीक नहीं बैठता. हमारे मन के भीतरी घटकों को आपत्ति हो सकती है पर हमें मानना ही होगा यह एक पुरुष का पक्ष है और पूरा सौ प्रतिशत भी. उनकी कविता ” स्तन” यकीनन यौन झुकाव को प्रथम द्रष्टि से परिलक्षित करती है जिस पर आपत्ति की जानी चाहिये और ख़ास तौर पर इन दो आखिरी पंक्तियों से
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के बीच से
इन पंक्तियों में शरीर के अंग विशेष के न रहने पर पहले सी निर्मल और मधुर संवेदनाओं का समाप्त हो जाना निश्चय ही हमारे समाज की भोथरी होती जा रही संवेदना के खात्मे की ओर इशारा कर रहा है जो समूची मानवीयता के लिये घातक सिद्ध होने से हमें ही बचाना होगा.
"पवन करण की कविता की पंक्तियां है- "अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को/ हाथों में थाम कर वह उस से कहता/ ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी/ मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना"
गर्भ धारण करने की मजबूरी का फायदा उठा कर पितृसत्ता जब अपना मौजूदा शक्ल अख्तियार कर रही थी तो स्त्री को सबसे पहले उसने संपत्ति ही घोषित किया था, यानी पुरुष सत्ता की "अमानत"। उसके बाद उसने उस "अमानत" के भीतर भी कई-कई "अमानत" गढ़े। जैसे पवन करण इस कविता में कहते हैं कि "ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी…", जिसे कई दफे सबके बीच भी… कनखियों से वे देख लेते हैं और घर पहुंच कर जांच लेने को कहते हैं।"
सोनू जी, गज़ब है आपका हिसाब-किताब। कैंसर के मरीजों की संख्या विश्व के औसत से नहीं, हर देश की कैंसर रजिस्ट्री और कैंसर अस्पतालों/सरकारी अस्पतालों के आंकड़ों से तय होती है।
वैसे विपिन चौधरी ने तथ्य भी गलत तरीके से प्रस्तुत किए हैं कि "आज हमारे देश में हर २२ माहिलाओं में से एक महिला स्तन कैंसर से पीड़ित हैं"। दरअसल ICMR के मुताबिक हर 22 में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का खतरा है।
" शुरूआती तौर पर एक गांठ के रूप में उभरती इस बीमारी में दुग्ध आपूर्ति करने वाली नलिकाओं की भीतरी परत में ट्यूमर फ़ैल जाता है." इस वाक्य में भी संशोधन की गुंजाइश है। मैं किए देती हूं- स्तन कैंसर दूध की नलियों के अलावा ऊतकों के उन गुच्छों में भी हो सकता है, जो दूध उत्पादन करते हैं। इन्हें लोब्यूल कहा जाता है। शुरुआत में कैंसर फैलता नहीं बल्कि किसी जगह सीमित होता है। इलाज न होने पर समय के साथ वह फैलता है।
और सर्जरी द्वारा ट्यूमर निकाल देना इसका पूरा इलाज नहीं होता। स्तन कैंसर में दवाएं (कीमोथेरेपी) और बिजली से सिकाई (रेडियोथेरेपी) भी आम तौर पर दिए जाते हैं।
अगर हम विषय को बेहतर समझते हैं तो हमारे लेखन में ज्यादा दम आता है, निश्चय ही।
उफ ये विकृतियाँ दिमाग में हैं या देह पर !
अच्छा आलेख..
बहरहाल, अगर पवन करण को स्त्री के स्तन "अमानत" लगे, तो "अपने भीतर स्त्री" को वे किस निगाह से देख रहे थे। क्या यहां अर्थ यह है कि स्त्री एक पुरुष के भीतर है, "अमानत" के तौर पर सुरक्षित है, तो सब कुछ ठीक है? जिन धारणाओं और व्यवस्थाओं ने स्त्री को संपत्ति और दोयम बना दिया, उसकी पुष्टि करके पवन करण और उनके वकील आखिर जिस सत्ता को निबाह रहे हैं, उस पर आश्चर्य इसलिए नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे तो प्राकृतिक रूप से और प्रकृति में वही हैं।
एक सामाजिक प्रश्न- दो आदमियों के बीच जो कुछ घटित होता है, उसका हिसाब कोई और नहीं रख सकता, न उसे रखना चाहिए।
ठीक है, स्त्री के सिर में दर्द होता है। घर में कोई नहीं है। वह खुद उस तकलीफ में भी सड़क पर निकल कर दवा के दुकान में जाती है और दवा ले आती है। शाम को उसका पति आता है, उसे पता चलता है कि पत्नी सड़क पर गई थी। वह कहता है कि दवा दुकान वाला क्या तुम्हारा यार है और पत्नी की हत्या करने को उद्धत होता है। यह दो व्यक्तियों के बीच घटित हो रहा है, इसका हिसाब कोई नहीं रख सकता, न किसी को नहीं रखना चाहिए।
इस देश की सरकार न जाने कहां से टपकी है और वह घरेलू हिंसा, बलात्कार आदि के खिलाफ कानून-पर-कानून बनाए जा रही है। इस मूर्ख सरकार को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती। उसे मंगल ग्रह पर भेज दिया जाना चाहिए।
# खुला हुआ मन अगर खिल्ली उड़ाने का काम आता है तो सोचना चाहिए कि आपके दिमाग का विकास कितना हुआ है। एक सामंती व्यवस्था अपने साथ एक समूचा मनोविज्ञान भी लिए होती है और ऐसे आकलन वहीं से निकलते हैं।
# जहां संवेदनहीनता एक सामाजिक विशेषता हो, वहां मानवीयता को सांस लेने के लिए हाइपर संवेदनशीलता की ही जरूरत है। वही रेड्यूस होकर सहज संवेदनशीलता में कन्वर्ट होगी। इससे व्यवस्था और यथास्थितिवाद का विनाश होगा और यह मानवीयता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य है। इसके बिना कोई भी अभियान पाखंड होगा।
# शालिनी माथुर और दीप्ति गुप्ता को कृष्णा सोबती के लघु उपन्यास "ऐ लड़की" का पाठ महीने में एक बार आमने-सामने बैठ कर करने की सलाह एक सामंती मानसिकता का परिचय देती है और सामने वाले के दोयम होने की घोषणा करता है। खासतौर पर तब, जब किसी सामाजिक वर्ग के अस्तित्व को लेकर अपनी राय जाहिर की गई हो।
उपरोक्त तीनों का समुच्चय आखिरकार किसी व्यक्ति के पोर्नोग्राफिक होने की सूचना देता है या फिर उसकी रचना करता है।
पोर्नोग्राफी केवल स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों का वीभत्स चित्रण नहीं है। पोर्नोग्राफी समाज में विभेद पैदा करने वाली या उसकी व्यवस्था रचने वाली हर उस प्रक्रिया कहना चाहिए जो व्यक्ति को शरीर और संपत्ति रूप में स्थापित करता है, उसे वंचना का शिकार बनाता है, हाशिये के बाहर करने की साजिश के बतौर काम आता है और वंचित तबकों (शूद्रों और स्त्रियों) को आखिरकार सामाजिक सत्ताधारी तबकों (पुरुषों और सवर्णों) के रहमोकरम पर छोड़ देता है।
राजकिशोर जी को शालिनी माथुर की राय गुंडागर्दी लगती है। लेकिन उनकी राय को गुंडागर्दी कहते हुए साथ-साथ वे खुद के बारे में एक तरह से यह घोषणा करते हैं कि वे आखिरकार गुंडा ही हैं… । जो आरोप वे शालिनी माथुर पर लगा रहे हैं, उसके बरक्स वे किसी चीज को सही या गलत कहने के अधिकारी के रूप में खुद को आपराधिक पैमाने पर महंथ और जज घोषित करते हैं।
"स्त्रीवादी" कवयित्री अनामिका की कविता को तो, बाकी दूसरी चीजों को छोड़ भी दें तो, उनकी सिर्फ इन पंक्तियों के लिए खारिज़ किया जाना चाहिए, जो केवल और केवल स्त्री विरोधी है-
"…दूधो नहाएं
और पूतो फलें
मेरी स्मृतियां!"
पुत्री-विरोधी अनामिका…
पवन करण की कविता का बचाव करते हुए आशुतोष कुमार या राजकिशोर ने बहुत चालाकी से कुछ लाइनों को चुरा जाना जरूरी समझा और यही उनकी बेईमानी और अनैतिकता का सबूत है। "शहद के छत्ते" और "दशहरी आमों की जोड़ी" जैसे रूपकों और दूसरी लाइनों को छोड़ दीजिए। पवन करण की कविता की पंक्तियां है- "अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को/ हाथों में थाम कर वह उस से कहता/ ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी/ मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना"
गर्भ धारण करने की मजबूरी का फायदा उठा कर पितृसत्ता जब अपना मौजूदा शक्ल अख्तियार कर रही थी तो स्त्री को सबसे पहले उसने संपत्ति ही घोषित किया था, यानी पुरुष सत्ता की "अमानत"। उसके बाद उसने उस "अमानत" के भीतर भी कई-कई "अमानत" गढ़े। जैसे पवन करण इस कविता में कहते हैं कि "ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी…", जिसे कई दफे सबके बीच भी… कनखियों से वे देख लेते हैं और घर पहुंच कर जांच लेने को कहते हैं। फिर "बचे हुए एक" को देख कर "कसमसा कर रह" जाने वाले पुरुष का हाथ जब एक स्तनविहीन स्त्री की "देह पर घूमते हाथ" कुछ "ढूंढ़ते हुए मन से भी अधिक मायूस हो जाते" हैं, उस वक्त यह कविता क्या कहती है?
क्या यह अनायास है कि आज भी पुरुष की मांग "उन्नत उरोज" वाली स्त्री है और "उन्नत" से कमतर स्तन वाली स्त्री आधुनिक चिकित्साशास्त्र की मदद से अपने स्तनों को पुष्ट करवा कर खुश हो रही है? हालत तो यह है साहब कि कैंसर जैसी असाध्य बीमारी का शिकार होकर भी अगर स्त्री अपना एक स्तन गंवा देती है तो वह पुरुष के हाथों के "मायूस होने" के वजह बन जाती है। यह कुंठा कहां से आई? हिंदी साहित्य में "उन्नत उरोज", "कदली खंभ जैसी जांघें", "धवल गोरा रंग", "पुष्ट नितंब" और "पतली कमर" जैसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसके बिना स्त्री "अधूरी" हो जाती है। "अक्षत-यौवना" या "वर्जिनिटी" भी पुरुष सत्ता के लिए स्त्री के "सुरक्षित" होने के सबूत और "पवित्र अमानत" ही हैं। साइकिल चलाने, रस्सी फांदने, दौड़ने, व्यायाम करने, भारी सामान उठाने या किसी वजह से अपनी "वर्जिनिटी" को "गंवा चुकी" स्त्री की जगह इस समाज में क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। ब्याह की पहली रात "सफेद चादर" बिछा कर सोने करने की परंपरा ऐसी "अमानतों" की परीक्षा की प्रक्रिया है, जिसमें फेल होने के बाद स्त्री चरित्रहीन घोषित कर दी जाती है। हालांकि पुरुष के लिए ऐसी परीक्षा तय नहीं है। और तमाम ऐसे "गुणों" से हीन पुरुष भी पूज्य होगा। (महात्मा तुलसीदास की जय…)
इस बहस के सन्दर्भ में चोकर बाली के इस आलेख को देखा जा सकता है…
http://sandoftheeye.blogspot.in/2012/08/blog-post_22.html
हिंदी सिनेमा के एक समीक्षक ने घोर कमरशियल सिनेमा के एक फूहड़ गीत "बिटटू सबकी लेगा "की अश्लील कहकर आलोचना की . इत्तेफकान उसी समीक्षक ने अनुराग कश्यप की "गैंग ऑफ़ वसिपुर" जिसकी टैग लाइन "तेरी कहकर लूँगा "है को "कल्ट फिल्म ओर पथ ब्रेकिंग फिल
्म" का दर्जा दिया .फर्क सिर्फ अनुराग कश्यप ने पैदा कर दिया .
इस लेख में कृष्णा सोबती जी या मैत्रेयी पुष्पा जी का उद्रहण यहाँ किस सन्दर्भ में दिया जा रहा है .वो समझ नहीं पाया उन्होंने तो दरअसल स्त्री की गरिमा के पक्ष में ही लिखा है . ओर जो पाठक यहाँ असहमतिया रख रहे है वो " स्त्री के पक्ष में ही" उसकी दैहिक गरिमा की खातिर अपनी बात रख रहे है . .ये विम्ब स्त्री के अंग विशेष को सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में दिखा रहे है. वे इन विम्बो से किसी" मानवीय दृष्टि" देने वाली संवेदना के अभाव का इशारा करा रहे है . . असहमतिया" संदर्भित दो कविताओ" के उन विम्बो से है कविता जगत या कवि या स्त्री विमर्श से नहीं .
( स्त्री देह ओर विमर्श पर हिंदी की ही नहीं मराठी ,तमिल ओर दूसरी भाषाओ की कविताओं -कवियत्रियो पर एक बहुत अच्छी किताब का इस मंच से रेफरेंस देना चाहूँगा सुमन राजे जी द्वारा उपलब्ध है नाम है "हिंदी साहित्य का आधा इतिहास " भारतीय ज्ञानपीठ प्रकशन से है )
ओर हाँ निखिल के कमेन्ट से सहमति !
सक्षम कवयित्री के पास स्वच्छ आलोचनादृष्टि है .
' सामाजिक धारणाओं के चलते जिस स्तर पर पीड़ित महिला को दारुण मानसिक उतार -चढाव से गुज़ारना पड़ता है वह जिस तरह लिखने का एक अदब होता है उसी तरह से उसे पढने का भी'.
' जिस सदाशयता से एक कवि, कविता लिखता है उसी सदाशयता का पाठक निर्वाह नहीं कर पाते, उनके मस्तिक्ष पर हमेशा सिंग निकलते दिखते हैं '
इन कवितायों पर अब तक मैंने जो लेख पढ़े हैं ..उनमें सबसे से ज्यादा संतुलित लेख….सधी सरल भाषा में बैगर कोई ग्लैमर पैदा किये अपने बात कहता है…
अच्छा लेख 🙂
''जिस तरह लिखने का एक अदब होता है उसी तरह से उसे पढने का भी. जिस सदाशयता से एक कवि, कविता लिखता है उसी सदाशयता का पाठक निर्वाह नहीं कर पाते, उनके मस्तिक्ष पर हमेशा सिंग निकलते दिखते हैं. ''
बात ठीक है लेकिन इसे उलट कर भी देखें…एक पाठक का भी अपना नज़रिया हो सकता है..वो नज़रिया हमेशा तारीफ का हो ज़रूरी नहीं..बिना पूर्वाग्रहों के भी आलोचना होती है कई बार…उसे सुनने-समझने की सहनशीलता भी होनी चाहिए…इसे सिर्फ इस संदर्भ में जोड़कर न देखा जाए…
आपका लेख भी ज़रूरी है…
Hearty congratulations to you!
विश्व स्तर पर जिस बीमारी से १०.९ मिलियन महिलाएं जूझ रही हों…
…
हमें इस सच के भीतर से गुज़रना होगा कि आज हमारे देश में हर २२ माहिलाओं में से एक महिला स्तन कैंसर से पीड़ित हैं…
2011 की जणगणना के हिसाब से भारत की आबादी 1.21 अरब है यानी कि 1210 मिलियन और सैक्स रेशियो है 940। आपकी बात पर जाएँ तो हमारे देश में 26.64 मिलियन मरीज़ हैं, स्तन के कैंसर के, और पूरी दुनिया में सिर्फ़ 10.9 मिलियन ही।
इस मसले पर साहित्यिक बहस का सिर्फ इतना अर्थ निकल रहा है कि हम अब तक अपनी दकियानूसी से बाहर नहीं निकल पाए हैं.. हमसे बेहतर तो गाँव की महिलाएं हैं उनके लिए यह मसला सिर्फ रोग है… कहीं से शर्म या काम से जुड़ा नहीं है. मैं यह व्यक्तिगत अनुभव से बता रहा हूँ.
बढ़िया संतुलित आलेख ! लेखिका को बधाई !