आज प्रस्तुत हैं निज़ार क़ब्बानी की पाँच कविताएँ, जिनका बहुत अच्छा अनुवाद किया है सिद्धेश्वर सिंह ने- जानकी पुल.
०१–टेलीफोन
टेलीफोन जब भी घनघनाता है मेरे घर में
मैं दौड़ पड़ता हूँ
एक बालक की तरह
अत्यंत उछाह में भरकर।
मैं आलिंगन में भर लेता हूँ स्पंदनहीन यंत्र को
सहलाता हूँ इसके ठंडे तार
और इंतजार करता हूँ तुम्हारी गर्माहट का
तुम्हारी स्पष्ट आवाज के बाहर आने का
इससे मुझे याद आ जाती है टूटते सितारों की
गहनों के खनक की।
मेरा कंठ अवरुद्ध हो जाता है
क्योंकि तुमने मुझे फोन किया है
क्योंकि तुमने मुझे याद किया है
क्योंकि तुमने मुझे बुलाया है
एक अदृश्य संसार से।
०२ – रुदन
जब रोती हो
मुझमें उमड़ आता है असीम प्रेम
मुझे भला लगता है
तुम्हारा उदास मेघाछन्न मुख।
उदासी तरल होने लगती है
जब हम रोते हैं संग–संग
मुझे अच्छे लगते हैं वे बहते हुए आँसू
मुझे भला लगता है
आँसुओं से भीगा तुम्हारा मुखारविंद।
स्त्रियाँ सुन्दर हो जाती हैं
जब उनसे फूटता है रुदन।
०३– पूर्ववत
पहले से मैं बदल गया हूँ बहुत
कभी चाहा था मैंने
कि विलग कर दो सारे वसन
और बन बन जाओ
संगमरमर का एक नग्न वन।
अब चाहता हूँ
तुम वैसी ही रहो
रहस्य के आवरण में गुम।
०४ – नींद
मैं ठिठका हूँ
थका
स्लथ
तुम्हारे वक्षस्थल के तट पर
एक शिशु की तरह।
एक ऐसा शिशु
जो सोया नहीं अब तक
जबसे हुआ है उसका जन्म।
०५– अवसर
खींच लोयहखंजर
जो धँसाहैमेरेहृदयकेपार्श्वमें
मुझे जीनेदो
बाहर निकाललोमेरीत्वचासेअपनीसुवास।
Tags nizar qabbani siddheshwar singh
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आभार प्रभात जी और सभी मित्र!
निज़ार क़ब्बानी की इन कविताओं के अनुवाद को साझा करने और सराहना के लिए।
बस एक सूचना भर है यह कि यदि निज़ार की कविताओं के कुछ और अनुवाद पढ़ने का मन हो तो भासकर समूह की मासिक पत्रिका ' अहा जिन्दगी' के फरवरी २०१२ अंक देखा जा सकता है।
पांचों कविताओं का अनुवाद इतना सशक्त है कि लगता है जैसे मूलतः हिंदी में ही लिखी गई हों. पहली ही कविता 'टेलीफोन' वैसे ही झंकृत करती है जैसे फोन की घंटी. रुदन भी अपने बहाव में उतनी ही तरल है , मन को सिक्त कर देने के लिए जितने कि आँख से निकलने वाली अश्रुधार. कल्पना की जा सकती है कि जब अनुवाद इतना 'सुस्वाद' है तो मूल भाषा में उनका 'आस्वाद ' कैसा होगा. : देवेन्द्र सुरजन , न्यूयार्क
अति सुंदर,कब्बानी साहब, सिद्देश्वर जी और जानकी पुल का आभार।
khubsurat kavita aur anuvad…
मैं ठिठका हूँ
थका
स्लथ
तुम्हारे वक्षस्थल के तट पर
एक शिशु की तरह।
एक ऐसा शिशु
जो सोया नहीं अब तक
जबसे हुआ है उसका जन्म।
badhai! bahut sundar rachnaen .. Nizar ko padhna apneaap mein sukh hai. share karen ke liye dhanywad. Siddheswar ji ko badhai ..
badhai. badhia anuvad hai.
Bahoot subdar Rachna…
सुन्दर प्रस्तुति….
हम तक इन सुन्दर कविताओं को पहुँचाने के लिए सिद्धेश्वर जी का एवं जानकी पुल का आभार!