प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पाखी’ ने लोकप्रिय साहित्य को लेकर एक ऐतिहासिक आयोजन किया है जिसमें लोकप्रिय धारा के प्रसिद्ध लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है. बातचीत विशी सिन्हा ने की है. सच बताऊँ तो हाल के बरसों में ऐसा इंटरव्यू मैंने किसी लेखक का नहीं पढ़ा. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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प्रश्न– आपका बचपन अविभाजित पंजाब में बीता। आप बटाला से थे, पर आरंभिक पढ़ाई लाहौर और फिर (विभाजन के पश्चात) दिल्ली में हुई। साझी संस्कृति और विभाजन का इस पर प्रभाव आपने खुद अनुभव किया होगा?
पाठक जी- विभाजन के वक्त मेरी उम्र सिर्फ साढ़े सात साल थी। साझी संस्कृति और उस पर विभाजन के प्रभाव को समझ पाने की उम्र नहीं थी, इसलिए इस विषय पर कुछ कहना मुहाल है।
प्रश्न-कोर्स के इतर पढ़ने की प्रेरणा किससे/कैसे मिली? साहित्यिक अभिरुचि परिवार में पहले से थी? साहित्य से पहला परिचय कैसे हुआ?
पाठक जी– पढ़ने की प्रेरणा किसी से न मिली, खुद—ब—खुद ही जागी और फिर जो हाथ आया पढ़ा। साहित्य के प्रति परिवार में पहले से कोई अभिरुचि नहीं थी। बटाला के संयुक्त परिवार में तो उपन्यास पढ़ना अक्षम्य अपराध माना जाता था। यहां तक कि उपन्यास पढ़ना और ताश खेलना या सिगरेट पीना समान दर्जे के ऐब माने जाते थे। दिल्ली आने पर भी ये शौक छुपकर ही पूरे करने पड़ते थे। अभिरुचि कैसे विकसित हुई, कील ठोंक कर कहना मुहाल है। शायद इसलिए बनी कि मनोरंजन का कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं था। घर में रेडियो तक नहीं था, टी.वी. का वो जमाना नहीं था, अखबार भी सौ—पचास घरों में से किसी एक में आता था, सिनेमा का टिकट खरीदने के लिए रकम की दरकार होती थी जो कि नहीं हासिल होती थी। ऐसे में मनोरंजन के लिए किताबों का ही आसरा था जो लाइब्रेरी से हासिल होती थीं या लैंडिंग लाइब्रेरी से किराए पर। एक अर्से तक खूब पढ़ा, कुछ न छोड़ा। उर्दू आती थी इसलिए उर्दू के लेखक — दोनों तरफ के — भी खूब पढ़े और उस उम्र में उन्हें हिंदी के लेखकों से बेहतर पाया। पहली साहित्यिक पुस्तक मैंने तब पढ़ी थी जब मैं 13 साल का था। वह पुस्तक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का उपन्यास ‘निरुपमा’ थी जो कि कोर्स में पढ़ाया जाता था और जो संयुक्त परिवार में इसलिए मौजूद था क्योंकि एक बड़ी बहन वो कोर्स कर रही थी। फिर अमृतसर में अपने मामा के घर में उर्दू में प्रेमचंद का ‘गबन’ पड़ा मिला। फिर वो शौक तूल पकड़ता चला गया और फिर हिंदी, उर्दू, बांग्ला के लेखकों का बहुत कुछ पढ़ा।
प्रश्न– आपने डी.ए.वी. कॉलेज, जालंधर से स्नातक की पढ़ाई की, जो उन दिनों स्तरीय शिक्षा का गढ़ हुआ करता था। कुछ किस्से उस वक्त के याद हैं आपको।
प्रश्न– आपने डी.ए.वी. कॉलेज, जालंधर से स्नातक की पढ़ाई की, जो उन दिनों स्तरीय शिक्षा का गढ़ हुआ करता था। कुछ किस्से उस वक्त के याद हैं आपको।
पाठक जी- डी.ए.वी. कॉलेज जालंधर में मैं वर्ष 1958 से 1961 तक था। तब जगजीत सिंह मेरा सहपाठी और हॉस्टल में पड़ोसी था। वह भी बी.एससी. कर रहा था, इसलिए क्या कॉलेज, क्या हॉस्टल, हर घड़ी की मुलाकात थी। खुशमिजाज सरदार था। गाने में तब भी प्रवीण था। हॉस्टल में विद्यार्थियों की बांह पकड़—पकड़ कर सुनाता था तो कोई सुनता नहीं था, संभावित श्रोता उलटे यह कहते मिजाज दिखाते थे कि ‘जगजीत, तूने तो पास होना नहीं, हमें तो पढ़ने दे।’ जब मैं डी.ए.वी. में था तब मुझे नहीं खबर थी कि मोहन राकेश, रवींद्र कालिया और सुदर्शन फाकिर जैसे लोग भी डी.ए.वी. से संबद्ध थे। बाद में, बहुत बाद में पता चला, लेकिन यह तस्दीक फिर भी न हुई कि ये साहेबान डी.ए.वी. में मुझसे पहले थे, उसी दौरान थे या मेरे बाद में थे।
प्रश्न– उन दिनों गंभीर साहित्य जो आपने पढ़ा उनमें किन लेखकों ने आपको प्रभावित किया? क्या अब भी गंभीर साहित्य में रुचि है?
पाठक जी- जैसा कि मैंने पहले बताया है, मेरी पहली पसंद उर्दू के लेखक थे। उन दिनों जिन उर्दू के लेखकों को मैंने खूब पढ़ा, वह थे— कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, अहमद नदीम कासमी, वाजिदा तबस्सुम, इस्मत चुगताई। ये तमाम लेखक नियमित रूप से हिंदी में भी छपते थे, इसलिए सहज ही उपलब्ध थे। बंगाली लेखकों के हिंदी अनुवाद भी तब आम मिलते थे, इसलिए बिमल मित्र, शंकर, बनफूल, ताराशंकर बंदोपाध्याय, शरतचंद्र वगैरह को खूब पढ़ा। अलबत्ता हिंदी के साहित्यिक लेखक कभी मेरी पहली पसंद न बन सके। आजमाया सभी को, लेकिन जो तृप्ति उर्दू या बांग्ला लेखकों को पढ़कर होती थी, उन्हें पढ़कर नहीं होती थी। गंभीर साहित्य में रुचि अभी भी बराबर है, लेकिन अब क्योंकि मैं खुद लेखक हूं, स्थापित लेखक हूं, ऊपर से कारोबारी लेखक हूं, इसलिए ऐसा साहित्य पढ़ने का वक्त नहीं निकाल पाता हूं। अपने किस्म का ही पढ़ने—लिखने के लिए इतना होता है कि तमाम हासिल वक्त उसी में सर्फ हो जाता है। इसी वजह से अब तो खबर भी नहीं लग पाती कि मौजूदा दौर में कौन—सा हिंदी का लेखक तरक्की कर रहा है और पढ़ने लायक है।
प्रश्न- लेखन में पहला प्रयास कब किया? उन दिनों विज्ञान में परास्नातक होने की वजह से आपके पास कॅरियर को लेकर बहुत से अन्य विकल्प भी रहे होंगे, फिर भी लेखन में हाथ आजमाने के पीछे कारण क्या रहा?
पाठक जी- मैंने एम.एससी. तक की शिक्षा ग्रहण की है, लेकिन यह आपकी खामखयाली है कि तब किसी शिक्षित युवक के पास कॅरियर के लिहाज से बहुत से विकल्प हुआ करते थे। नौकरी तब भी शिद्दत से ही हासिल होती थी। मेरा दिल ही जानता है कि इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज की जो फटीचर नौकरी आखिर मुझे हासिल हुई थी, मूल रूप से मुझे उसके लिए भी अयोग्य करार दिया गया था। जिस प्रत्याशी को चुना गया था, उसने ज्ञापन नहीं लिया था इसलिए भर्ती की सारी रूटीन को फिर दोहराने की जगह मुझे, रिजेक्टेड कैंडिडेट को, बुला लिया गया था। उस दुश्वारी की घड़ी में आखिर लिखा—पढ़ा ही काम आया था। इतना पढ़ा था कि ओवरफ्लो की नौबत आ गई थी और दिल खुद ही मचलने लगा था कि मैं भी कलम चलाऊं। कलम चलाई तो प्रभु की कृपा से चल भी गई, लेकिन मैंने उसे कभी साहित्य साधना न माना, जैसे—तैसे लेखन से चार पैसे कमा कर विपन्नता को रफू करने का जरिया माना। मेरी यह नीयत आज तक उजागर है कि पैसा न मिला तो लिखना बेमानी है। इस संदर्भ में मैं अमेरिकी लेखक सैमुअल जॉनसन का जिक्र करना चाहता हूं, जो कहता है No man, but a blockhead ever wrote except for money यानी कोई अहमक ही होगा जो कि उजरत की उम्मीद के बिना लिखता होगा।
प्रश्न–आपको क्यों लगा कि गंभीर साहित्य सृजन के बजाय आपको लोकप्रिय साहित्य सृजन में हाथ आजमाना चाहिए? लोकप्रिय में भी आपने जासूसी ही क्यों चुना?
पाठक जी-गंभीर साहित्य सृजन में पैसा कहां है? हिंदी के किसी एक साहित्यिक लेखक का नाम लीजिए जिस की माली औकात लेखन से बनी हो। किसी एक ऐसे लेखक का नाम लीजिए जो रॉयल्टीज के दम पर परिवार पालने में, रोजी—रोटी चलाने में सक्षम हो। यह कैसी ट्रेजेडी है कि भारत में साहित्य साधना करते लेखक को लेखन के अलावा भी पेट भरने के लिए कुछ करना पड़ता है। इसके विपरीत लोकप्रिय साहित्य की बानगी देखिए कितने ही ऐसे लेखक हैं, और हुए हैं, जो मामूली किस्सागो के अलावा कुछ नहीं थे लेकिन उनकी हैसियत फिल्म स्टार्स जैसी जानी जाती थी। कोई साहित्यिक लेखक, कोई खरा साहित्य साधक, कोई साहित्य की ऊंची नाक कलम से कमाई के मामले में गुलशन नंदा, चेतन भगत, अमीश त्रिपाठी या आपके खादिम के करीब कहीं ठहरता है? आप उसे फुटपाथिया कहें या अधकचरा, पैसा तो लोकप्रिय साहित्य लेखन में ही है। फिर ऐसी प्रशस्त और संपन्न राह चुनकर मैंने क्या गलती की?
Tags पाखी विशी सिन्हा सुरेन्द्र मोहन पाठक
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मै पाठक सर का ईंटरव्यू पढना चाहता था आपने वो चाहत पुरी कर दी बेहतरीन
शुक्रिया
बहुत ही उम्दा गुपत्गू रही, पर लगता है की अधूरी है, है पूरा पढने नहीं मिला
सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी एक बेहतरीन लेखक है इसमें कोई दो मत नहीं है,
साहित्यकार भी है जिन लोगो को न मानना हो ना माने, पर इसमें कोई शक नहीं की वो साहित्यकार है, और अपने तरीके से साहित्य की सेवा कर रहे है, सर को हमारी उम्र लग जाये वो 100 साल क्या उससे भी जयादा जिए और लिखते रहे,
nice
बहुत अच्छा लेख ,पाठक साहब की बेबाकी बहुत कम लेखकों में देखने में मिलती है मैं अब तक इनके 40 novels पढ़ चूका हूँ ,मेरे पसंदीदा लेखक है ।
Hindidharti.com
Mera sawal SMP se abhi bhi wohi hai ki 55 sal ke chamtkari aur kamyab safar kya apney pathkon ko koi Gambhir Sahitya ublabdh nahi karahahiye…?
SMP ke pathak unka gambhir Upanyas bhi hathon hath lengy… Bas Pathak ji ko apna man mazboot karney ki zaroorat hai…Ham bhi garv se kah saktey hain ki hamarey SMP me apar sambhwnaayen hain….!
बिना हिचक कह सकता हूं अच्छा इंटरव्यू….फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है..,.,वहीं से पढ़कर आया था….ये इंटरव्यू कई साल से में करने की सोच रहा था…अब इसकी जरुरत नहीं रह गई है…
Badiya. ….bahut badiya
Gyasu Shaikh said:
इतनी आधिकारिक स्थापनाएं गंभीर साहित्य के
बरअक्स लोकप्रिय साहित्य की जिसे पहली बार पढ़ी और जानी !
भीतरी आधिकारिक जानकारियां !
इतना आत्मविश्वास कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी को
फुल मार्क्स ही देने को मन करे ! पर फिर भी गंभीर साहित्य
की गरिमा यहाँ बिलकुल भी कम नहीं होती। गंभीर साहित्य तो
हमारे समय का, हमारी जद्दोजहद का, हमारी रूहानियत
का शिल्प है, एक ऐतिहासिक सा दस्तावेज़ है जिए जा
रहे एक ख़ास समय का। जहां हमारे समय की पीड़ा है,
मनुष्य और उसकी आत्मा पर पड़ते दबाव है, घुटन है
और है हमारे समय की आवाज़ का जीवंत लेखाजोखा ।
जो साहित्य हमारे साथ चलता है, हमारे सुखों-दुखों को सह्या
बनता है, जीवन को एक खूबसूरत और नवीन आयाम दे
कर निखारता है। जो जीवन को सूत्रबद्धता देता है । जबकि
लोकप्रिय साहित्य बर्गर पित्ज़ा की सी तृप्ति भर ही दे जाए
और हमारे जीवन में कोई ख़ास पैठ न बना पाए । फिर
भी लोकप्रिय साहित्य की इम्पेक्ट को नकारा
भी न जाए।
मानना ही पड़ेगा कि बहुत उम्दा सवाल पूछे गए जिनके
उत्तर भी कितनी ही सोचनीय बातों पर टोर्च लाइट के सामान
रहे, जो गंभीर साहित्य वालों के लिए तो कुछ 'ख़ास' ही
महितिप्रद हो सकते हैं…
behatareen interview ..dhanyavad Prabhat bhai..dekhiyega ..kanhee se Kushwahakant ,Gulshan Nanda ke purane interview bhi mil jaaye ..
जबरदस्त. एक अच्छा, सच्चा साक्षात्कार.
बहुत प्यारा इंटरव्यू लिया विशी भाई ने और कितनी साफगोई से जवाब दिया सुरेन्द्र जी ने, जानकीपुल के प्रति विशेष कृतज्ञता इसे पढवाने के लिए !
वाह…. एसएमपी के लिए दीवानगी और बढ़ गई इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद…. सैल्यूट सर !
Vishi is perfect
बहुत बेबाकी…बहुत ईमानदारी से सुरेन्द्र मोहन पाठक ने वो सब कहने का साहस दिखाया है, जिसे जानने-समझने के बावजूद खुलेआम इस तरह कहने-स्वीकारने की हिम्मत शायद ही किसी लेखक ने की हो…| सबसे अच्छी और खरी बात, जो लिखता है…जिसको पाठक पढता है, वो लेखक माना जाना ही चाहिए…| ये लेखक और लेखन में ऐसा विभाजन आखिर क्यों…?
क्यों विदेशों में इस दो प्रकार के लेखन में फर्क नहीं किया जाता? ये वो सवाल है, जिसपर कभी तो गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए…|
सटीक और सार्थक साक्षात्कार…|
बहुत ही शानदार एवं ज्ञानवर्धक मुलाक़ात ! पाठक जी के बारे में जानने का बढ़िया अवसर दिया इस इंटरव्यू ,उनकी साफगोई एवं स्पष्टवादिता का कायल हो गया ! इस लेख से रूबरू कराने के लिए विशी जी धन्यवाद के पात्र है .
grt…good interview
लेखक जो पाठक के अंतर्मन पे अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल हो। ऐसे ही लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का शानदार इंटरव्यू बेबाकी और ईमानदारी से सच के निकट,आनन्द आया।
और सुनील भी यद् आया जो मुसीबतज़दा युवतियों का मसीहा था। बचा लेता था उन्हें राबिनहुड बनके
भले ही मुझे कोई अच्छा लेखक न कहे, लेकिन मैं ईमानदार लेखक हूं, निष्ठावान लेखक हूं। जिस धंधे ने मेरी औकात बनाई है, उसके साथ भारी कमिटमेंट लिए लेखक हूं। इसलिए मेरे पर जिम्मेदारी आयद होती है कि मैं मेहनत से लिखूं, सटीक लिखूं और उस मेयार पर खरा उतरने वाला लिखूं जो मैंने खुद खड़ा किया है।
बहुत कुछ सोचने पर विवश करता साक्षात्कार
बहुत ही उम्दा गुपत्गू रही, पर लगता है की अधूरी है, है पूरा पढने नहीं मिला
सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी एक बेहतरीन लेखक है इसमें कोई दो मत नहीं है,
साहित्यकार भी है जिन लोगो को न मानना हो ना माने, पर इसमें कोई शक नहीं की वो साहित्यकार है, और अपने तरीके से साहित्य की सेवा कर रहे है, सर को हमारी उम्र लग जाये वो 100 साल क्या उससे भी जयादा जिए और लिखते रहे,