‘हिंदी मीडियम’ फिल्म जब से आई है तब से देख रहा हूँ कि सभी इसके ऊपर लिख रहे हैं. यह एक ऐसी फिल्म साबित हुई है जिसने लाखों लोगों के दिल की बात जैसे कह दी है. आज बिपिन कुमार पाण्डेय का विस्तृत लेख- मॉडरेटर
====================================================
एक हमारे मित्र हैं, उनका बचपन बिहार के किसी छोटे से जिले में बीता है । दादा-दादी, माता-पिता सब हिंदी और भोजपुरी में ही बात करते हैं । खुद हमारे मित्र भी अपने जीवन के 18 वसंत तक बिहार में रहे और हिंदी में ही बोलते रहे । फिर कुछ दिन बाद थोडा पश्चिम की ओर यात्रा करके देश की राजधानी दिल्ली आ गए । दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और फिर महज 4 साल दिल्ली में रहने के बाद ही वे लोगों से कहने लगे “ यु नो माय हिंदी इज नॉट सो गुड एंड आई ऍम नॉट कम्फर्टेबल इन हिंदी” ।
ऐसे ही एक और मित्र हैं जो कुछ समय दिल्ली में रहने के बाद, हिंदी की किताबों को ऐसी नजर से देखते हैं जैसे की पुराने कब्ज से परेशान कोई व्यक्ति पकौड़े देखता है । वे बात-बात में कहते रहते हैं “ यार ये हिंदी मीडियम वाले लेखक केवल बकवास लिखते हैं, सब कॉपी पेस्ट करते हैं, अरे ! इन्हें न तो साइंस पता है ना साहित्य, सब चोरी करते हैं” ये वाले मित्र अक्सर चेतन भगत की किताबों के साथ भी पाए जाते हैं ।
दो वर्ष पहले की बात है, मैं जामिया मिलिया विश्वविद्यालय दिल्ली में पी.एच.डी. के इंटरव्यू के लिए गया था, जैसा की पी.एच.डी. के इंटरव्यू का रिवाज है, मैं अपना शोध सारांश लेकर गया था (शोध पत्र मैं भारतीय मौसम विभाग और राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित सेमीनार में मैंने प्रस्तुत भी किया था) पर इन्टरव्यू पैनल केवल यह देखकर बिगड़ गया कि मेरा शोध पत्र इंग्लिश में नहीं है । मुझे यह समझ नहीं आया था कि आखिर केवल इंग्लिश में होने भर से ही शोध पत्र उम्दा कैसे हो जाएगा ।
ऊपर की सारी घटनाएँ कल एक-एक करके याद आ रही थी । और इनके याद आने का जो सबसे बड़ा कारण था वह यह कि कल मैं फिल्म “हिंदी मीडियम” देख रहा था ।
सिनेमा ने जब से अपनी शुरुआत की है, तबसे यह मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक सारोकारों पर संवाद का भी एक बेहतरीन जरिया रहा है । दुनियां भर में अलग-अलग भाषाओं में , अलग-अलग विषयों पर हर साल हजारो-हजार फिल्मे बनती हैं पर उनमे से कुछ ही ऐसी होती हैं जो दर्शकों पर अपना असर छोड़ पाती हैं ।
यही हाल हमारे देश के सिनेमा उद्योग का भी है । हिंदी सहित तमाम अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हर वर्ष हजार से भी ज्यादा फ़िल्में बनती हैं, इसमें से कुछ आती है और चली जाती हैं पता भी नहीं चलता । कुछ आती है, पैसा कमाती हैं पर हमारे दिलोंदिमाग पर कुछ ख़ास असर नहीं छोड़ पाती हैं । पर कुछ फ़िल्में ऐसी भी होती हैं जो दर्शकों से सीधे जुड़ जाती हैं और एक बार देख लिए जाने के बाद वर्षों तक याद रहती है । महज दो से ढाई घंटों में वे दर्शकों से ऐसा तादात्म्य बिठा लेती हैं कि उन्हें भूलना मुश्किल होता है ।
भूषण कुमार (टी.सीरिज) द्वारा निर्देशित और इरफान खान, सबा करीम. दीपक डोबरियाल द्वारा अभिनीत फिल्म “हिंदी मीडियम” आज के समाज के कुछ मुद्दों को जितने बेहतर तरीके से उठाती है वह निसंदेह काबिलेतारीफ है । दो घंटे से कुछ ऊपर की इस फिल्म की केन्द्रीय विषयवस्तु में हैं भाषाई द्वंद,मास से क्लास में शामिल होने की अंधी होड़ और साथ में सराकरी बनाम प्राइवेट स्कुल की कहानी, कुछ आग्रह, कुछ पूर्वाग्रह और ढेरों ऐसी भ्रांतियों की बात जो कबसे हमारे समाज में पैवस्त हैं हमे पता भी नहीं चलता ।
कहने को तो इस फिल्म में कई पात्र हैं पर कहानी के केंद्र में हैं राज (इरफ़ान खान) और मिट्ठू (सबा करीम), इंटरवल के बाद सत्यप्रकाश (दीपक डोबरियाल) भी इस फिल्म के मुख्य पात्रों में शामिल हो जाते हैं, बाकी के सारे पात्र बस कहानी को गति प्रदान करते दिखते हैं । राज का किरदार एक उच्च मध्यमवर्गीय व्यापारी का किरदार है जिसकी दिल्ली के चांदनी चौक में खुद की दूकान है (जिसे वो बिजनेस भी कहता है), पैसे तो खूब हैं पर वह केवल दिल्ली की भाषा ही बोल पाता है । राज के ठीक विपरीत उसकी पत्नी का किरदार है । मिट्ठू को इंग्लिश से काफी प्रेम हैं और चाहती हैं कि उनकी बच्ची पिया भी बढ़िया इंग्लिश सीख ले ।
फिल्म के शुरू होने के करीब 10 मिनट बाद ही एक संवाद दर्शकों का अपनी तरफ ध्यान खींच लेता है । जब मिट्ठू यह बोलती है कि “ इस देश में अंग्रेजी कोई जबान नहीं है, यह क्लास है, और क्लास में घुसने के लिए एक अच्छे स्कुल में पढ़ने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है “। उस संवाद को सुनकर मैं कई बाते सोचने लगा । दो ही लाइनों में कितनी बड़ी और सही बात कह दी गयी ।
भाषा तो भाषा होती है, पर राजनीति और बाजार की अर्थव्यवस्था इसे भी अपने टूल के रूप में उपयोग करते हैं । तभी तो सदियों से कम से कम दो अलग-अलग भाषाएँ रही ही हैं, एक तो शासक वर्ग की और दूसरी आम जनता की । संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी आदि बदलते समय के साथ शासक वर्ग की भाषाएँ रह चुकी हैं । मजे की बात यह है कि जो भी भाषा शासक वर्ग की होती है, उसे आम जनता कम ही बोलती है, भाषा के विकास से लेकर अबतक यही रहा है । एक तरफ अपनी उसी अलग भाषा के बल पर शासक वर्ग खुद को अलग समझता है, वही आम जनता शासक वर्ग की भाषा सीखने को आतुर दिखती है ताकि उसे भी सत्ता के गलियारों में प्रवेश मिल जाए, यह सत्ता का वही गलियारा है जिसे आधुनिक समय में हाई क्लास की संज्ञा दे दी गयी है । शासक वर्ग की इसी भाषा पर तंज कसते हुए प्रेमचन्द ने एक जगह लिखा है “ अब यह वह समय नहीं रहा जब लोग संस्कृत के श्लोक पढ़कर राजाओं के दरबार में दरबारी हो जाते थे , या फिर अरबी, फ़ारसी में लैला मजनू, और शिरी-फरहाद की कहानियां पढ़कर बादशाहों की चाकरी में लग जाते थे “। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि खुद प्रेमचन्द भी आं जनता की भाषा में ही लिखना पसंद करते थे ।
यह वर्षों से चली आ रही राजनीति का ही कमाल है कि भारत जैसे देश में जहाँ इंग्लिश मुश्किल से 5-10 फीसदी लोग ही बोलते हैं, उनको बड़े सम्मान के नजर से देखा जाता है । यह सत्ता की ही हनक है जो इंग्लिश आते ही व्यक्ति में इतनी छद्म श्रेष्ठता बोध भर देती है कि वह मेरे मित्र की तरह लोग महज कुछ साल बाद ही गर्व से मुस्कुराते हुए यह कहते हैं कि उन्हें हिंदी नहीं आती ।
हालाँकि इन सारी बातों का यहाँ यह मतलब कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि एक भाषा के रूप में हिंदी से ही सब काम चलाया जा सकता है । या फिर हम हिंदी प्रेम में दूसरी भाषाओँ को भूल जाएँ । फिल्म का निर्देशक भी शायद इस बात से अवगत था तभी तो एक जगह एक पात्र संवाद करते हुए कहता है “ जितनी ज्यादा भाषाएँ, उतनी ज्यादा सफलता की गारंटी” । पर साथ में हमे भाषा की राजनीति और किसी भाषा के छद्म श्रेष्ठता बोध पर ध्यान तो देना ही होगा । फिल्म में शायद इसी पहलू को उठाने की कोशिश भी की गयी है ।
फिल्म में कुछ ऐसे भी कुछ दृश्य हैं जो यह बताते हैं कि प्राइवेट स्कूल किस तरह से बच्चों को, अपनी तरफ खीचते हैं । तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं को देखकर एक जगह नायक कह ही उठता है कि “ अरे यार यह स्कूल है या फाइव स्टार होटल “।
मास से क्लास में शामिल होने के लिए नायक और नायिका चांदनी चौक का मकान छोड़कर वसंत विहार में चले जाते हैं । जिन्होंने दिल्ली को देखा और महसूस किया है उन्हें चांदनी चौक और वसंत विहार में अंतर जरुर पता होगा । चांदनी चौक एकदम आम लोगों का इलाका माना जा सकता है, भीड़ भरे चौक, तंग गलियाँ , इसके विपरीत वसंत विहार पॉश कॉलोनी । शांत, चौड़ी सड़के और श्रेष्ठी वर्ग से समीपता का एहसास । अगर आप दिल्ली में हैं तो पुरानी दिल्ली से वसंत विहार तक की बस यात्रा आपको सब समझा देगी । चांदनी चौक के करोड़पति व्यापारी को भी अपनी एक अलग क्लास की जरुरत है, ताकि उसका श्रेष्ठता बोध और बढ़ सके । अगर इस दृश्य का आप समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो ऐसा लगेगा मानो यह आर्थिक पूंजी को सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी में बदलने की एक कोशिश है । संसाधनों का खेल भी शायद ऐसे ही चलता रहता है ।
मास से क्लास में शामिल होने के इसी उपक्रम में नायिका एक उपक्रम करती है, जिसमे वह अपनी बच्ची की बड़े लोगों के बच्चों से दोस्ती के लिए एक बड़ी सी पार्टी रखती है । इसी पार्टी में तथाकथित अंग्रेजियत के अपच के शिकार लोगों का एक पहलू और सामने आता है जब उनमे से कई लोग नायक को हिंदी गाने पर डांस करते देख उसकी हंसी उड़ाते हैं । जैसे हिंदी गाने पर डांस करना मुर्खता ही हो । इस दृश्य को देखने के बाद मेरे आँखों के सामने कई ऐसे दृश्य तैर गए । जैसे कि अगर ट्रेन में कोई हिंदी किताब पढ़ रहा हो तो वह असहज रहता है, जबकि इंग्लिश की किताब पढ़ने वाला आत्मविश्वास से लबरेज । हिंदी, अंग्रेजी के इसी द्वंद पर कुछ समय पहले एक लेखक ने बोला कि मैंने अपनी किताब का शीर्षक ही इसीलिए इंग्लिश में रखा ताकि लोगों को ट्रेन में, बस में पढ़ने में लज्जा ना आये । अगर गौर करने तो पायेंगे कि इन छोटी-छोटी बातों के पीछे कितनी ग्रन्थियां छिपी हुई हैं, इसका हमे सामान्यतया पता भी नहीं चल पाता ।
एक और दृश्य बड़ा मजेदार है और यह हमारी बनावटी शिक्षा व्यवस्था का भी पोल खोलता है । किसी अच्छे अंग्रेजी स्कूल में अपने बच्ची के नामांकन के लिए नायक और नायिका किसी काउंसलर के पास पहुंचे हैं । काउंसलर उन्हें सीखा रही है कि अगर आपसे विद्यालय प्रबन्धन कुछ पूछे तो कैसे जबाब देना है ।
काउंसलर : आप अपने बच्ची को पावर्टी (गरीबी) से कैसे इंट्रोड्यूज करेंगे
नायिका : पावर्टी से इंट्रोड्यूज क्यों करना ? यह तो चारो तरफ बिखरी पड़ी है, भिखारी दिखते हैं,
काउंसलर : नहीं आपको कहना है कि शेयरिंग और केयरिंग द्वारा
जब आप यह संवाद सुन रहे होते हैं तो आपके मन में भी ऐसे ही कई दृश्य घूम जाते है । मसलन घर पर गाय बंधी हुई है पर गाय पर निबन्ध लिखने के लिए शिक्षक किताब या गाईड का सहारा लेने को बोलते हैं । पर्यावरण के बारे में पढ़ना होता है तो आस-पास नजर ना डालकर किताबों में झांकना पड़ता है । बच्चा असली पेड़ देखने की बजाय थर्माकोल पर पेड़ बनाकर खुश हो लेता है ।
तमाम प्रयासों के बाद भी जब बच्ची का नामांकन अच्छे स्कूल में नहीं हो पाता तब नायक इसके लिए तिकड़म का सहारा लेता है । और इसके लिए वह सहारा लेता है शिक्षा के अधिकार कानून का । जो लोग शिक्षा के अधिकार कानून (आर.टी.ई. 2009 ) के बारे में जानते हैं उन्हें पता होगा कि सरकार ने सभी प्राइवेट विद्यालयों के लिए यह प्रावधान किया था कि उस विद्यालय की 25 फीसदी सीटों पर गरीबों के बच्चे पढेंगे और उंनका खर्च सरकार उठाएगी ।
आज इस कानून को बने 8 साल हो गए, गंगा में ना जाने कितना पानी बह चुका है । आज 8 साल बाद पता नहीं कितने प्राइवेट स्कूल इस प्रावधान का पालन ईमानदारी से करते हैं । पर उस समय बड़ा हल्ला हुआ था कि अमीर और गरीब के बच्चे एक साथ कैसे पढ़ सकते हैं । गरीबों के बच्चों के पास तहजीब नहीं होती है, गाली देते हैं, गंदे कपड़े पहनते हैं आदि-आदि.. ।
इस फिल्म में यह बखूबी दिखाया गया है कि किस प्रकार इस कानून के लूपहोल्स का सहारा लेकर, एक करोड़पति अपने बच्चे का नामांकन बी.पी.एल. कोटे से करा देता है । यह दृश्य पूरी व्यवस्था की पोल ही खोल देता है ।
इंटरवल के बाद का दृश्य, कुछ समय के लिए थोडा अलग हो गया है । इसमें विद्यालय कमेटी की जाँच से बचने के लिए नायक अपने परिवार के साथ एक अवैध कॉलोनी में गरीब बनकर पहुँच जाता है । इसी समय दीपक डोबरियाल की इंट्री होती है । यह इंट्री इतनी सहज और सरल है कि पता ही नहीं चलता कि दीपक कोई एक्टिंग कर रहे हैं ।
गरीबी पर बात करते हुए एक संवाद बड़ा ही रोचक बन पड़ा है । “ गरीबी में जीना एक कला है । हम सिखायेंगे । हम खानदानी गरीब हैं । हमारे दादा गरीब, परदादा गरीब, सातो पुस्तें गरीब । ऐसा नहीं कि हम पहले गरीब थे, फिर अमीर हुए, फिर गरीब हो गए । हम शुद्ध और खानदानी गरीब हैं । इतने सहज भाव से दीपक को संवाद बोलते देख, उनके लिए मन में अपने आप एक सम्मान सा आ जाता है । जब राज (इरफ़ान खान ) दीपक डोबरियाल से पूछता है आपका नाम क्या है ? तब दीपक शेक्सपियर की उक्ति सार्थक करते हुए एक लम्बा संवाद बोलता है जिसका लब्बोलुआब यह होता है कि गरीबों का कोई नाम नहीं होता, उन्हें समाज अपने हिसाब से कोई काम चलताऊ सा नाम दे देता है । इस दृश्य के अंत का संवाद और भी प्रभावकारी है , जब दीपक डोबरियाल का पात्र बोलता है “ वैसे पिताजी ने नाम तो सत्यप्रकाश रखा था, पर कभी किसी ने इस नाम से बुलाया नहीं “। यह संवाद हमारे समाज का आईना सरीखा ही है , जिससे पता चलता है कि अगर आप आर्थिक, सामाजिक, रूप से कमजोर हो तो यह समाज आपको इस लायक भी नहीं समझता कि आपको आपके ही नाम से बुलाया जा सके ।
इसके बाद फिल्म अपनी गति से चलती रहती है और जैसा कि आम भारतीय फिल्मों में होता है इसमें भी अंत सुखांत और सन्देश देने वाला ही है । नायक अपने बच्ची का नामांकन सरकारी स्कूल में करवा देता है । फर्जी गरीब बनकर स्कूल में नामांकन करवाने वालों का भांडाफोड़ हो जाता है और इस तथ्य की स्थापना करने की कोशिश की जाती है कि “मौका ही मेरिट है” ।
इस फिल्म का संगीत पक्ष थोड़ा सा कमजोर है, पर गाने कहीं भी आपको बोर नहीं करते । इस फिल्म के लेखक ने भी बहुत शानदार काम किया है । इतने धारदार संवाद है कि फिल्म के निष्प्राण से लगते दृश्यों में भी जान फूंक देते हैं । महज 15 करोंड़ के बजट में यह बनी फिल्म हम सबको देखना ही चाहिए ताकि हम जान सके कि तमाम मसाला फिल्मों की दौड़ में भी ऐसी बेहतरीन फिल्मे बनती ही हैं ।
5 comments
Pingback: here
Pingback: are mushrooms bad for you
Pingback: kaws rocks | crumpets vape | guava gas strain |springfield farms carts | dmt vape uk | curepen legend og | mad river melts | buy dmt vape pen |kaws rocks weed | boutiq vapes |glo extracts | kaws weed | georgia pie strain
Pingback: have a peek at these guys
Pingback: Douceur Beauty