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    पहले दलित क्रिकेटर पी. बालू, जिन्होंने भद्रजनों के बीच साबित की अपनी प्रतिभा

युवा शोधकर्ता सुरेश कुमार ने माधुरी पत्रिका में 1928 में प्रकाशित एक लेख के हवाले से पहले दलित क्रिकेटर पी बालू पर यह लेख लिखा है। आप भी पढ़िए उस महान खिलाड़ी के बारे में जो तब का खिलाड़ी था जब भारतीय क्रिकेट को अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली थी-

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में क्रिकेट सबसे लोकप्रिय खेलों में शुमार किया जाता है। हमारे यहां इस खेल के प्रति दीवानगी युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक में देखी जा सकती है। इस बात से सब भली-भांति परिचित हैं कि इस खेल के जन्मदाता अंग्रेज रहे हैं। इस खेल को भद्रजनों का खेल भी कहा जाता है, जिसे भारत के शासक वर्ग ने अंग्रेजों से सीखा। अंग्रेजों ने गैर-सवर्णों को भी इस खेल से जोड़ा। इसके उदाहरण रहे पलवंकर बालू (19 मार्च,1876 – 4 जुलाई, 1955), जिन्हें पी. बालू के नाम से जाना जाता है। वे ब्रिटिश भारत के प्रसिद्ध क्रिकेटर थे।

     इस महान खिलाड़ी का जन्म सन् 1876 में धरवाड़, कर्नाटक में हुआ था। पी. बालू के पिता जाति से चमार और रत्नागिरी जिले के पालवण गांव के निवासी थे। उनके पिता सेना में नौकरी करते थे। इस महान क्रिकेटर की प्राथमिक शिक्षा सैनिक स्कूलों में हुई थी। शिक्षा प्राप्त करने के बाद पी. बालू को सन् 1894 में सेना में लिपिक की नौकरी मिल गई थी। इसके बाद सन् 1902 में पी. बालू बी. बी. ऐंड सी. आई  रेलवे विभाग में लिपिक के पद पर नियुक्त हो गये थे।

अंग्रेजों को खेलते देख हुई क्रिकेट खेलने की इच्छा

पी. बालू बचपन से ही अंग्रेज अधिकारियों को क्रिकेट खेलते देखने जाया करते थे। कुछ दिन बाद पी. बालू के मन में भी क्रिकेट खेलने की इच्छा हुई। पूना के जिमखाने के अंग्रेज अफसरों ने उन्हें गेंदबाजी करने की इजाजत दे दी। इसके बाद पी. बालू प्रतिदिन क्रिकेट का अभ्यास करने जाने लगे। उनकी गेंदबाजी देखकर अंग्रेज अफसर काफी प्रभावित हुए और उन्हें स्थानीय क्लबों में खेलने के लिए अपनी टीम में शामिल कर लिया था।

विरोध में थे उच्च जातियों के खिलाड़ी

उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाले सेना के हिंदू अफसर उन्हें अपनी टीम में इसलिए शामिल नहीं करते थे, क्योंकि पी. बालू दलित समुदाय से थे। यह नई नहीं पुरानी ही व्याख्या है कि उच्च श्रेणी के हिंदू अपनी उच्च वर्णीय मानसिकता के चलते दलित समुदाय के व्यक्ति के साथ न तो बैठ सकते थे और न तो कोई समाजिक संबंध रखते थे। बीसवीं सदी के प्रथक दशक में हिंदूओं के लिए दलित की योग्यता कोई मायने नहीं रखती थी। उच्च श्रेणी के हिंदू खिलाड़ी नहीं चाहते थे कि पी. बालू हिदुओं की तरफ से क्रिकेट खेलें। उच्च जाति के खिलाड़ियों को लगता था कि पी. बालू के टीम में शामिल होने से उनकी टीम भी अछूत हो जाएगी। हिंदुओं की उच्च श्रेणीवाली मानसिकता बहुजनों की प्रगति में हमेशा रुकावट और बाधा बनती रही है। इस मानसिकता के चलते न जाने कितनी बहुजन प्रतिभाओं को तमाम पदों से वंचित हो जाना पड़ता रहा है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि पी. बालू की प्रगति में उच्च श्रेणी के हिंदू बाधा बन गये थे।

 मेजर ग्रेग नामक अंग्रेज अधिकारी व क्रिकेटर पी. बालू के खेल का बड़ा मुरीद था; उसने हिंदूओं के ‘यंगमेंस क्रिकेट क्लब’ में शामिल करने के लिए पी. बालू की प्रबल पैरवी की थी। इस क्लब में ब्राह्मण जाति के खिलाड़ियों और अफसरों का कब्जा था। इन ब्राह्मण खिलाड़ियों और अफसरों ने पी. बालू का ‘यंगमेंस क्रिकेट क्लब’ में सदस्य बनाए जाने का पुरजोर विरोध किया था। इस क्लब के कुछ खिलाड़ी पी. बालू को शामिल करने के पक्ष में थे लेकिन वे ब्राह्मण खिलाडियों के भय से पी. बालू का समर्थन नहीं कर सकते थे। आखिर, अंग्रेज अफसरों और खिलाडियों के हस्तक्षेप से पी. बालू यंगमेंस क्रिकेट क्लब में शामिल हो गए।

पी. बालू प्रतिभावान खिलाड़ी थे। उनके क्लब में शामिल होते ही इस क्लब का बड़ा नाम हुआ था। यंगमेंस और अंग्रेजों के बीच बेलगांव और सतारा में जो मैच हुए, उनमें पी. बालू द्वारा शानदार गेंदबाजी और बल्लेबाजी के कारण अंग्रेजों के क्लब की हार हुई। पी. बालू के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए उन्हें चांदी का कप भेट किया गया था। इस अवसर पर हिंदुओं की ओर से न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिये पी. बालू की तारीफ करते हुए उन्हें धन्यवाद दिया था।

हरफनमौला के रूप में थी पी.बालू की ब्रिटेन में भी धाक

सन् 1899 में पी. बालू मुंबई आ गए थे। यहां आकर वे हिंदू जिम़खाने और रेलवे क्रिकेट क्लब की और से क्रिकेट मैच खेलने लगे थे। पी. बालू के शामिल होने का बाद हिंदू जिम़खाने की क्रिकेट जगत में धाक जम गई थी। सन् 1906 में हिंदू जिम़खाना और इस्लाम जिम़खाना के बीच मैच हुआ। इस मैच में पी. बालू ने लगातार तीन खिलाडियों का आउट कर हैट्रिक लगाई थी और हिंदू जिम़खाना क्लब को शानदार जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। सन् 1906 में हिंदू ज़िमखाने और शिवाजी क्रिकेट क्लब के बीच मैच हुआ। इस मैच में पी. बालू ने बल्लेबाजी में कमाल दिखाते हुए 112 रन बनाकर अविजित यानी नॉटआउट रहे थे। पी. बालू ने हिंदू जिमखाने क्लब को अनेक बार शानदार जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। हिंदू जिमखाने क्लब में खेलते समय ही पी. बालू की क्रिकेट जगत में धाक जम गई थी। कहते हैं कि उनकी बल्लेबाजी और गेंदबाजी से बड़े से बड़े खिलाड़ी कांप जाते थे।

  सन् 1911 में भारत से एक चुनी हुई क्रिकेट टीम इंग्लैड खेलने गई थी। इंग्लैड के खिलाड़ी पी. बालू की घातक गेंदबाजी देखकर चकित रह गये थे। वहां के क्रिकेट विशेषज्ञों ने पी. बालू को काउंटी क्रिकेट खेलने के लिए एक उम्दा खिलाड़ी के तौर पर देखा था। पी. बालू ने इंग्लैड में विभिन्न प्रारुप के मैच खेलते हुए सौ से अधिक विकेट ली थी। इंग्लैड के अखबारों में पी. बालू के खेल की काफी प्रशंसा की गई थी। वहां के खिलाड़ियों ने भी पी. बालू के क्रिकेट की जमकर तरीफ की थी।

सवाल शेष है

सच बात यह है कि पी. बालू ब्रिटिश भारत के महान क्रिकेटर थे। उनके अंदर छिपे क्रिकेटर को सबसे पहले अंग्रेज अफसरों ने ही पहचाना था। उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाले हिंदू उन्हें क्रिकेटर नहीं, जो उन्हें अछूत मानते थे। बिडंबना देखिए कि ब्रिटिश भारत में दलित समाज से पी. बालू जैसा महान क्रिकेटर पैदा हो सकता है, लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी दलित समाज से कोई क्रिकेट खिलाड़ी उभरकर सामने नहीं आ सका है।

संदर्भ : हिन्दुस्थान के प्रसिद्ध क्रिकेटर, आनंदराव जोशी, माधुरी, फरवरी 1928, वर्ष: 6, खंड: 2, संख्या: 1

[युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं]

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