कवि-आलोचक और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष सुप्रसिद्धअशोक वाजपेयी आज सत्तर साल के हो गए. इस अवसर पर उनसे प्रसिद्ध पत्रकार-संस्कृतिकर्मी अजित राय ने उनसे कुछ खरी-खरी बातें कीं. प्रस्तुत है आपके लिए- जानकी पुल.
16 जनवरी 2011 को आप 70 साल के हो रहे हैं। लगभग 50 साल की रचना यात्रा करने के बाद क्या आप वरिष्ठता के अहसास से भरे हुए हैं?
अशोक वाजपेयी– मुझे तो लग ही नहीं रहा है कि मैं 70 साल का हो गया। सक्रियता, इच्छा, अध्यवसाय और श्रम में कोई कमी नहीं महसूस करता। थका भी नहीं हूं, मुझे वरिष्ठ होने का तो कतई अहसास नहीं होता।
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जीवन भर लोगों को पुरस्कार देते और दिलवाते रहे हैं। अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना सर्वोच्च पुरस्कार ‘भारती भारती’ आपको देने का फैसला किया है। मुख्यमंत्री मायावती ने 106 पुरस्कारों में से केवल 3 पुरस्कारों के निर्णय को स्वीकृति दी है । अब क्या इसका कोई राजनैतिक मतलब भी है?
अशोक वाजपेयी– यह पुरस्कार उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान प्रदान करता है । इसे सरकार के राजनैतिक आग्रहों से जोड़ना ठीक नहीं है । यह संयोग है कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती संस्थान की अध्यक्ष हैं। वैसे भी इतनी बड़ी संख्या में पुरस्कारों के होने से प्रतिष्ठा पर तो असर पड़ता ही है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर कटौती उचित नहीं है। इन दिनों पुरस्कारों की दुर्गति हो चुकी है। मिल जाये तो बदनामी ज्यादा होती है, शोहरत कम। आपके किये-धरे का आकलन कर कोई पुरस्कार देता है तो खुशी तो होती ही है। मैं कहूंगा कि बहुत सारे ऐसे हिन्दी लेखक हैं जिनको पुरस्कार मिलना चाहिये जैसे राजेन्द्र यादव, ज्ञान रंजन, दूधनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, कृष्ण बलदेव वैद, चन्द्रकांत देवताले, रमेश चन्द्र शाह आदि। एक ऐसी भी सूची बनाई जा सकती है कि यह पुरस्कार किनको नहीं मिलना चाहिये।
जिस विचारधारा का आप जीवन भर विरोध करते रहे, विनायक सेन के पक्ष में लिखकर आपने उसी विचारधारा का समर्थन किया है, क्या यह अशोक वाजपेयी का ‘यू टर्न’ है?
अशोक वाजपेयी– विचारधारा के स्तर पर मैं विनायक सेन से असहमत होने का अधिकार सुरक्षित रखता हूं । मैंने उनकी सजा का विरोध किया है। स्वतंत्रता, समानता और न्याय को विन्यस्त करने में बड़ी भूमिका रही है। मैंने हमेशा इस बात का विरोध किया कि इस विचारधारा से जुड़ी सत्ताओं ने लगातार स्वतंत्रता, समानता और न्याय का हनन किया है।
पिछले कुछ वर्षों से खासतौर पर गुजरात की घटनाओं के बाद वामपंथी लेखकों में आपकी स्वीकृति बढ़ी है । मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन सभी जानते हैं कि कई अति वामपंथी लेखक भी आपके साथ जुड़े हैं और पुरस्कृत हुए हैं। तो क्या हिन्दी में वामपंथ कमजोर हुआ है या आपने खुद को बदल लिया है?
अशोक वाजपेयी– यह सही है कि पूरे वामपंथ में तो नहीं लेकिन उस मेरी प्रिय के कुछ हिस्सों में अधिक सहिष्णुता आई है । इधर मैं जो कह रहा हूं उसे ध्यान से सुना गया है । अगर ध्यान दिया जाये तो मैं उतना नहीं बदला हूं जितना नामवर सिंह बदले हैं। उन्हें बदलने का पूरा अधिकार है । त्रयी तो अभी भी अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध हैं । मैं वैचारिक बहुलता का पक्षधर हूं । मेरे यहां वामपंथी लेखकों के लिए पहले भी जगह थी और अब भी है। उनके आने से मेरे परिसर का भूगोल तय नहीं होता ।
आपने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राज्य में साहित्य और संस्कृति पर ध्यान देने के लिए कुछ सलाहें दी हैं। हाल ही में आपने दो मुद्दों पर देशव्यापी विरोध अभियान चलाया। क्या ऐसा ही अभियान हिन्दी प्रदेशों में साहित्य और संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं के पुनर्जीवन के लिए चलायेंगे ।
अशोक वाजपेयी– हिन्दी अंचल के राजनैतिक भूगोल में अब भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए जगह नहीं बची है। अब डॉक्टर राममनोहर लोहिया जैसे नेता भी नहीं रहे । यदि ऐसा कोई अभियान सिर्फ लेखकों द्वारा चलाया गया तो वह आज सफल नहीं होगा । इसमें समाज के सभी वर्गों की भागीदारी जरूरी है। राजस्थान में अकादमियों के पद वर्षों से खाली हैं । मध्यप्रदेश में इन संस्थाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े मीडियाकरों ने कब्जा कर लिया है । छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है । दुख की बात यह है कि यदि मिलजुल कर कोई अभियान चलाया भी जायेगा तो सारा मामला इस पर टिक जायेगा कि किसे क्या पद चाहिये। यह काम हिंदी पत्रिकायें कर सकती थीं लेकिन उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध अभियान चलाने से ही फुर्सत नहीं है।
ऐसी स्थिति में आप अपनी भूमिका को किस रूप में देखते हैं। आपके पास साधन भी है और सत्ता भी , लोग भी हैं और दृष्टि भी
अशोक वाजपेयी– इस काम के लिए जितना समय चाहिये वह मेरे पास अब नहीं बचा है। पहले से ही इतने सारे काम पड़े हैं यदि अवसर मिला और सबने साथ दिया तो मैं ऐसा करने का सोच सकता हूं।
आपने कुछ शास्त्रीय कलाकारों के साथ संसद भवन में जाकर प्रधानमंत्री से भेंट की , क्या कुछ बात बनी?
अशोक वाजपेयी– करीब 3 साल पहले देश के दिग्गज संगीतकारों ने एक समूह बनाया था जिसमें केवल मैं गैर संगीतकार था । उन लोगों ने एक बैठक कर अपनी ओर से मुझे ही बोलने को अधिकृत किया । प्रधानमंत्री ने वायदा किया है कि हमारी समस्याओं पर जो कार्यवाही होगी उसकी सूचना हमें देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि वे मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखेंगे ।
हमने अनुरोध किया है कि सरकार एक संस्कृति चैनल की शुरुआत करे। हमने पूरी प्रॉजेक्ट रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है जिस पर कुल खर्च केवल 50 करोड़ रुपये सालाना आयेगा। हमने यह भी कहा कि इसे दूरदर्शन से न जोड़ा जाये। संस्कृति चैनल का संचालन संस्कृति मंत्रालय करे। हम चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं के साहित्य का विदेशी भाषाओं में अनुवाद कराने का एक संगठित अभियान चले, इसे हमने इंडियन लिटरेचर एब्रोड नाम दिया है ।
आपने अज्ञेय और शमशेर की जन्म–शताब्दियां मनाने का अभियान शुरू किया था, उसका क्या हुआ?
अशोक वाजपेयी– चल रहा है। हमारा उद्देश्य था कि इन दो बड़े कवियों की ओर युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट किया जाये। इस दौरान मुझे यह दुखद अहसास हुआ कि युवा पीढ़ी के लेखकों ने अपने पूर्वजों को ठीक से पढ़ा ही नहीं है। कई युवा कवियों ने इन पर लिखने में असमर्थता जता दी। मुझे लग रहा है कि विस्मृति के गर्त में अकेले जा रहे हैं हम ।
आप जब ललित कला अकादमी के अध्यक्ष बने थे तो राष्ट्रीय सहारा को दिये अपने पहले साक्षात्कार में कई योजनायें शुरू करने की बात की थी, अब आपका केवल एक वर्ष का कार्यकाल बचा है। क्या आपको सफलता मिली?
अशोक वाजपेयी– आधी अधूरी ही सफलता मिल सकी । अकादमी का प्रशासनिक ढांचा काफी ढीला है और कई कानूनी विवाद चलते रहते हैं । हमारी सामान्य परिषद् ही इतनी बड़ी है कि उसकी एक बैठक पर ही कई लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। इसमें जिन बड़े लोगों को मनोनीत किया गया है, उनके पास फुर्सत ही नहीं है। आप देखिये कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी और कई संस्थाओं का बजट ललित कला अकादमी से लगभग दुगना है फिर भी मैं कुछ बातों की चर्चा करना चाहूंगा । हमारे अनेक महत्वपूर्ण कलाकार अकादमी की गतिविधियों में वापिस लौटे हैं, हिन्दी में प्रकाशन बढ़ा है। दुनिया के सबसे बड़े कला उत्सव ‘वेनिस बेनाले’ (जून 2011) में पहली बार भारत एक देश के रूप में हिस्सा ले रहा है। हमारी विश्व कला की त्रै-वार्षिकी इस वर्ष दिल्ली के साथ-साथ देश भर की 50 कला दीर्घाओं में लगाई जा रही है। मुझे इस बात का गहरा अफसोस रहेगा कि सैद्धांतिक सहमति के बावजूद कला आलोचना का कोई राष्ट्रीय पुरस्कार शुरू नहीं हो सका। हमने भारतीय भाषाओं की कला आलोचना का हिन्दी अनुवाद कला भारती नाम से दो खंडों में छापा है। इस वर्ष भारतीय भाषाओं के कला आलोचकों का एक बड़ा सम्मेलन भी करने जा रहे हैं।अकादमी का संविधान संशोधित करने के लिए कृष्ण खन्ना की अध्यक्षता में बनी समिति ने अपना काम शुरू कर दिया है ।
आप ‘रज़ा फाऊंडेशन’ के भी कर्ता-धर्ता हैं । इस मोर्चे पर नई गतिविधियां क्या हैं?
अशोक वाजपेयी– हम अपनी पत्रिका ‘समास’ को फिर से निकालने जा रहे हैं । रज़ा अब स्थायी रूप से भारत वापिस आ गये हैं। अभी फाऊंडेशन के पास 3 करोड़ रुपये हैं, हमारा प्रयत्न है कि उनके जीवित रहते यह राशि 10 करोड़ तक पहुंच जाये। हमने रज़ा के बाद के 4 कलाकारों – भूपेन खक्कर, गुलाम मुहम्मद शेख, मंजीत बावा और अर्पिता सिंह पर बड़ौदा शांति निकेतन दिल्ली और मुंबई में 4 बड़ी संगोष्ठियां आयोजित करने की योजना बनाई है।
इतनी सारी व्यस्तताओं और गतिविधियों के बीच बेचारे कवि अशोक वाजपेयी की आत्मा का क्या होगा। आपको कविता लिखने का समय कैसे मिल पाता है?
अशोक वाजपेयी– जैसे खाने, नहाने और सोने के लिए समय मिल जाता है। 50 वर्ष कविता लिखने के बाद अब धारा तो बदली नहीं जा सकती । विस्मृति के कगार पर खड़े समय में कविता का एक बड़ा काम है – याद कराना। इन दिनों मैं अज्ञेय , मुक्तिबोध और शमशेर की पंक्तियों को लेकर कवितायें लिख रहा हूं। इन कवियों पर मेरी एक पुस्तक भी लगभग तैयार है। एक किताब कबीर और गालिब पर भी पूरी होने वाली है। इसमें मैंने दो लंबे अध्याय लिखे हैं कि यह कवि आज हमसे क्यों बोलते हैं और क्या बोलते हैं। अब समय आ गया है कि मुझे जल्दी से संस्मरण लिखना चाहिये नहीं तो बाद में सब भूल जाऊंगा। मेरे 70वें जन्मदिन पर 7 किताबों का लोकार्पण होने जा रहा है। जिनमें से अधिकतर को वाणी प्रकाशन ने छापा है। पीयूष दईया ने मेरे कभी-कभार स्तंभ को संकलित कर 2 किताबें तैयार की हैं – पहली कुछ खोजते हुये, दूसरी यहां से वहां। तीसरी किताब यतीन्द्र मिश्र ने ‘किस भूगोल में किस सपने में’ नाम से मेरी गद्य रचनाओं को संपादित की है। चौथी नई सदी के लिए चयन सीरीज में मेरे द्वारा चुनी हुई मेरी 50 कविताओं की किताब है। पांचवीं किताब – ‘हमारे और अंधेरे के बीच’ – चार पोलिश कवियों की कविताओं का मेरे द्वारा किया गया अनुवाद है। छठी किताब पेंग्विन ने ‘अब यहां नहीं’ शीर्षक से मेरी प्रेम कविताओं की छापी है। सातवीं किताब का नाम ‘अन्यत्र’ है। जो मेरे द्वारा लिए गए विभिन्न साक्षात्कारों की है।
‘राष्ट्रीय सहारा’ से साभार
बहुत ही उम्दा और वैचारिक बातचीत. अशोकजी की सक्रियता प्रेरणा देती है. इस महत्वपूर्ण साक्षात्कार की प्रस्तुति के लिए आभार एवं बधाई
bahut gyaanwardhak baatchit
ashok ji ko janm din ki haardik shubhkaamnaen.. ek rochak interview jo hamen saahity ki duniya se rubaroo karaata hai …
… ashok ji ko janmdin ki haardik badhaai va shubhakaamanaayen … saarthak post !!
अशोक जी को सत्त्तरवें जन्मदिन की हार्दिक बधाई.उ.प्र. हिन्दी संस्थान के सर्वोच्च पुरस्कार भारत-भारती के लिए भी बधाई. अशोकजी का यह कहना कि यह पुरस्कार संस्थान देता है,इसे सरकारी आग्रहों से नही जोड़ना चाहिए,उचित इसलिए नहीं है कि पुरस्कार समिति की संस्तुतियों को निरस्त करते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने 3 पुरस्कारों को ही देने के निर्देश दिए. स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी दिल्ली अकादमी के पुरुस्कारों को लेकर थी.तब अकेले कृष्ण बल्देव वैद को नकारा गया था,इस बार काशीनाथ सिंह,रवीन्द्र वर्मा सहित बड़ी संख्या में लेखक शामिल हैं जिन्हें सीधे मुख्यमंत्री द्वारा अपमानित किया गया है.
इस साक्षात्कार में सबसे अच्छी बात लगी कि अशोक वाजपेयी ने स्वीकार किया कि ब्यूरोक्रेसी और तामझाम के बीच अकादमी का काम बाधित होता है,हिन्दी पत्रिकाएं आपसी खींच-तान में ही लगे रहते हैं।.ये अलग बात है कि वाजपेयी स्वयं इस क्रिया में शामिल रहे हैं।
सुविख्यात कवी /आलोचक श्री अशोक बाजपाई को उनके सत्तरवें ज़न्मदिन एवं उन 7 महत्वपूर्ण किताबों के लिए भी जो लोकार्पित होने जा रही हैं ! पर हार्दिक बधाई..!प्रभात जी बहुत उपयोगी और रोचक बातचीत …कुछ अनुभव जैसे ''पुरुस्कारों की दुर्गति के' और ' ..कुछ सत्य हिंदी पत्रिकाओं के भी !अच्छे लगे !ललित कला अकादमी के अध्यक्षीय अनुभवों का बेबाक ज़िक्र साथ ही उपलब्धियां भी जैसे ''वेनिस वेकले ''में देश के पहली बार हिस्सेदारी !एवं कला त्रय वार्षिकी की उपलब्धियां !पढकर अच्छा लगा ..रोचक अनुभव एवं जानकारी .
धन्यवाद आपको ..