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आलोक कुमार मिश्रा की कहानी ‘दो चुटकी नमक’

आज युवा लेखक आलोक कुमार मिश्रा की कहानी पढ़िए। महामारी की पृष्ठभूमि में एक मार्मिक कहानी-

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“अरे साब, जरा सुनो तो। दो चुटकी नमक डाल दो इस डिबिया में…खुदा जाने ज़ुबान क्यों उतरी हुई है…खाना बेस्वाद और फीका सा लगे है।”

एक दुबले-पतले, मेहंदी लगी लाल दाढ़ी वाले लगभग सत्तर-बहत्तर वर्षीय मौलाना से दिखते उस आदमी ने बेहद कातर भाव में वहाँ लगे टेंट की ओर देखकर कहा। ये कहते हुए उसकी आँखें सजल हो आईं थीं या लोहे की लगी जाल के इस ओर लगभग आठ-दस फुट दूर अपने टेंट में खड़े विनय को ही ऐसा दिखा था, पता नहीं। उसने दिमाग़ पर थोड़ा जोर दिया तो याद आया कि कल रात जब वह ड्यूटी पूरी कर निकल ही रहा था तब भी यह बूढ़ा नमक माँगने आया था और न मिलने पर निराश होकर चला गया था। आज फिर विनय के बगल में खड़े एक सहकर्मी ने उस बूढ़े को डपतते हुए कहा, ‘अरे तुम्हारे खाला का घर नहीं है कि चीनी, नमक सब जब चाहो तब मिलती रहेगी। नमक आगे से आएगी तो ही देंगे न…वैसे नमक का क्या काम है? खाने में डलती तो है!’

‘वो… बड़ा फीका लगता है खाना, खाया नहीं जाता है साब। रात में भी माँगा था, पर कहा कि सुबह मिल जाएगी। देखो साहब हो तो दो चुटकी इस डिबिया में…’

‘अरे कहा न नहीं है, नमक अलग से आई नहीं है। आएगी तो दे देंगे, चलो जाओ अब…और अब दिखना नहीं बाहर। सब दूर-दूर रहो, जाओ अपने कमरे में।’

बूढ़ा बड़ी मायूसी से हाथ में ली हुई छोटी सी डिबिया का ढक्कन बंद करते हुए मुड़ने लगा। विनय से रहा न गया तो बोल पड़ा, ‘बाबा कौन से कमरे में हो…मुझे नोट करा दो। नमक आते ही फोन करके बुला लूँगा। बार-बार सीढियां नहीं उतरनी पड़ेंगी।’

‘कैसे बतलाओगे साब, मेरे पास मोबाइल नहीं है। चौथे मंजिले पर 403 नंबर कमरे में हूँ। मैं फिर रात को खाने के समय आकर पूछ लूँगा। मिले तो… जरा रख लेना। खुदा बरकत देगा। ज़ुबान उतरी हुई है। कुछ भी खाने में अच्छा न लगे है।’

विनय के इतना कह देने भर से बूढ़े की बुझी आँखों में जैसे उम्मीद की लौ जल गई हो। दो चम्मच नमक के लिए उस आदमी को चार मंजिला उतरकर बार-बार आना पड़ रहा है, ये सोचकर ही बुरा सा लग रहा था विनय को। ‘अगर खाना सेंटर के इसी ब्लाॅक में बनता तो अभी मेस से जाकर नमक माँग लाता। पर वो मेन गेट पार करके किसी दूसरी ओर के ब्लाॅक में है। वहाँ जाना भी सबको अलाउड नहीं है। ये कम्बख़्त सख़्त ड्यूटी…एक बार साइन करके घुस जाओ तो बिना वैलिड एक्ज़िट पास के बाहर आना-जाना सब मुश्किल, ऊपर से इस नाशपिटे कोरोना से बचाव के लिए छुई-मुई की तरह एक-दूसरे से सिमटते-बचते रहो। मास्क, गलब्स, सैनेटाइजर…उफ्फ! ऐसा करूँगा कल घर से ही नमक ले आऊँगा बूढ़े के लिए।’ वह यह सोचते हुए दूसरे कामों में मशगूल हो गया।

    कैंटीन से भेजी जाने वाली खाने-पीने सहित अन्य ज़रूरी वस्तुओं में भी अलग से नमक को शामिल नहीं किया गया था और न ही यहाँ लगे कर्मचारियों में कोई ऐसा था जो खुद प्रयास करके कहीं और से नमक मंगवाए। वरना आसपास की कालोनियों से ही कुछ लोकल बाशिंदे थे इन कर्मचारियों में। विनय तो फिर भी पचीस किलोमीटर दूर से आकर ड्यूटी दे रहा था। न जाने क्यों कोरेंटीन किए गये इन लोगों से अजीब सी नफ़रत तारी थी यहाँ लगभग सबमें ही। वैसे इसमें न जानने वाली बात भी क्या थी? इस नफ़रत को तो इन दिनों हवाएँ भी हवा दे रही थीं।

   देश में कोरोना महामारी ने कुछ रोज पहले ही दस्तक दी थी। मामले बढ़ते ही जा रहे थे। बिना किसी पूर्व सूचना के सरकार ने देशव्यापी लाॅकडाउन यानी तालाबंदी कर दिया था। प्रवासी मजदूरों में घनघोर अफरातफरी का माहौल था। आजीविका की असुरक्षा और इस नई-अंजान बीमारी के ख़ौफ में वे सब अपने गाँव-घर पहुँचने को व्याकुल थे। रेल और बसों के परिचालन को सरकार ने बंद कर दिया तो लोग पैदल या साइकिल से ही लदे-फने अपने बाल-बच्चों के साथ चल दिए थे। ‘जो जहाँ है वहीं रहे’ की सरकारी घोषणा का असर शहर के गरीब प्रवासियों पर बिल्कुल भी नहीं था। उन्हें लगता था कि ‘शहर में रहे तो महामारी से भले बच जाएँ पर भूख से जरूर मर जाएँगे।’ सरकारी आश्वासन व सहूलियतें सब ऊंट के मुँह में जीरा साबित हो रही थीं। इन शहरों को गरीब प्रवासियों ने ही अपने खून-पसीने से सींचकर सजाया-संवारा था, लेकिन आपदा में उन्होंने अपने किवाड़ बंद कर लिए थे इन मजदूरों के लिए। अजीब सी आशंका, भय और घबराहट से भरे सन्नाटे में राजमार्गों पर केवल मजदूरों के पदचाप की ही आवाज़ गुंजायमान थी। भूख-संत्रास और असहायता की खबरों से अख़बार रो रहे थे। अपनों को साथ लिए भूखे-प्यासे बदहाल लोगों के पलायन करने, चलते-चलते बीमार पड़ जाने, हादसे का शिकार हो जाने जैसी खबरें न्यूज़ चैनलों पर हर वक्त फ्लैश हो रही थीं। इस सबमें शासन-प्रशासन की काहिली और असंवेदनशीलता का भान भी बहुतों को हो रहा था। लोगों में गुस्सा और क्षोभ बढ़ता ही जा रहा था। सरकार बहादुर को शिद्दत से एक ऐसे मुद्दे या बलि के बकरे की ज़रूरत थी जिस पर सारा ठीकरा फोड़ वो लोगों के गुस्से को दूसरी ओर मोड़ सकें। धर्म ने आम जनता के दुखों को कभी दूर किया हो या न, उसके त्रास को हरा हो या न पर हमारे देश की सरकारों को समय-समय पर संकट से ज़रूर उभारा है। ऐसे मौकों पर उनके लिए सबसे ज़्यादा जांचा-परखा तरीका तो धर्मों के बीच तनाव को जन्म देना ही रहा है। नफ़रत में सराबोर जनता पर कोई और रंग नहीं चढ़ता, अपने दुखों का भी नहीं।

      फैल रही महामारी को देखते हुए एक जगह इकट्ठे न होने की सरकारी घोषणा की जा चुकी थी। पर एक धार्मिक केंद्र पर जुटी लोगों की भीड़ ने सत्ता को सुनहरा मौका उपलब्ध करा दिया था अपना दामन उजला दिखाने और दूसरे को दागदार बताने का। संयोग या दुर्योग से वह भीड़ थी भी मुसलमानों की। अब सरकार को चाहिए भी क्या था। ‘नोन लगे न फिटकरी’ जैसा उपयुक्त मौका था ये। हमारे देश में मुसलमान सत्ता के लिए तरकस के वो तीर रहे हैं जो गाहे-बगाहे नहीं हर वक्त काम आते हैं। इस बार भी आने ही थे। दिल्ली के निजामुद्दीन में एक मरकज में धार्मिक जलसे के लिए इकट्ठा हुए जमात के लोगों को सरकारी आदेश के उल्लंघन के आरोप में पुलिस ने छापा डालकर घेर लिया। ये लोग लाॅकडाउन लगने से कुछ दिन पहले से ही धार्मिक जलसे के लिए देश के अलग-अलग कोनों से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी यहाँ इकट्ठा हुए थे। वैसे यहाँ से जाने के इच्छुक इनमें से बहुतेरे लोग एकाएक सार्वजनिक परिवहन के साधनों के बंद हो जाने से भी फंस से गये थे। पर ऐसी स्थिति में धार्मिक केंद्रों पर श्रद्धालुओं के ‘फंस’ जाने की स्थिति को अन्य धार्मिक समुदायों के लिए आरक्षित कर दिया गया था। मीडिया ने मुसलमानों के लिए ‘फंस’ जाने के बजाय ‘छुप’ जाने जैसे शब्द का इज़ाद किया था। नये तरीके से धार्मिक होती जा रही बहुसंख्यक जनता के लिए ये शाब्दिक अंतर आत्मा को संतुष्टि, क्षोभ, आनंद, गुस्सा सब एक साथ प्रदान कर रहे थे। इसी समय बहुत से हिंदू श्रद्धालुओं का समूह वैष्णव देवी धाम की यात्रा में और सिख श्रद्धालुओं का जत्था नादेड़ के गुरुद्वारा साहिब में ‘फंसा’ हुआ था। पर चूँकि यहाँ मुसलमान थे सो राष्ट्रीय मुहिम को असफल बनाने की मंशा से ‘छुपे’ हुए माने जा रहे थे। अजीब सा राष्ट्रीय उन्माद फैल गया था जो महामारी की भयावहता के बीच राष्ट्र के ही एक समुदाय के खिलाफ़ नफ़रत करके फल-फूल रहा था। दुनिया तो एक ही वायरस से जूझ रही थी पर हमारा देश एक साथ दो वायरस का सामना कर रहा था। एक, कोरोना महामारी के वायरस का और दूसरा, साम्प्रदायिकता के वायरस का। ये दूसरा वायरस कम खतरनाक नहीं था।

    खैर, इस धार्मिक केंद्र पर इकट्ठा हुए लोगों में से कुछ के कोरोना पाॅजिटिव होने की खबर भी आई। यहाँ से सभी को पकड़-पकड़ कर बनाए गये सरकारी नियंत्रण वाले पृथक वास में डाला जाने लगा। इसे न्यूज़ चैनलों पर यूँ दिखाया गया जैसे कोरोना बीमारी नहीं एक षड्यंत्र हो और उस षड्यंत्र तक पुलिस ने पहुँच कर बड़ी सफलता अर्जित कर ली हो। बनाए गये पृथकवास के अड्डों के लिए प्रचलित शब्द था ‘कोरेंटीन सेंटर’ और यहाँ लाए गये लोगों को ‘कोरेंटीन हुए लोग’ कहा जा रहा था।

    शहर के बाहरी हिस्से में पड़ने वाला ये वही कोरेंटीन सेंटर था जहाँ लगभग आठ सौ से अधिक जमातियों को कोरेंटीन किया गया। सरकार द्वारा बनाये गये ये सैकड़ों फ्लैट पिछले कई सालों से लाख कोशिशों के बावज़ूद बिक नहीं पाए थे। कारण था शहर के बाहर इनकी अवस्थिति और यहाँ बाजार, परिवहन आदि सुविधाओं का अभाव। पर इस समय सैकड़ों फ्लैट से युक्त आवासीय परिसर ही सरकार को जीवन दान देने का आभास करा रहे थे। मानव बस्ती से दूर ये परिसर इस प्रयोजन के लिए बहुत उपयुक्त साबित हो रहा था। विभाग की तरफ से यहीं विनय की ड्यूटी भी लगा दी गई थी। तमाम आशंकाओं के बीच उसे इस बात का संतोष था कि इसी बहाने आपदा काल में वह देश, समाज और मानवता की सेवा का अवसर पा रहा है। जहाँ उसकी पत्नी और माँ विभाग को यह कहकर कोस रहीं थीं कि, ‘कहीं तुम डाॅक्टर या मेडिकल स्टाॅफ हो जो तुम्हें वहाँ लगाया जा रहा है? स्कूल डिपार्टमेंट को तुम्हीं मिले? कोई बहाना नहीं बना सकते क्या? और लोगों को क्यों नहीं बुलाया?’ वहीं विनय को ऐसी कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके लिए लाॅकडाउन के कैद में रहने से मुक्ति मिलने का भी यह एक अवसर था। स्कूल बंद कर दिए गये थे और एक हफ़्ते ही घर में कैद रहकर उसका मन ऊब चुका था।

     विनय का उत्साह तब ठंडा पड़ गया जब पहले दिन ही वह कोरेंटीन सेंटर पहुँचा। अजीब सी अफरातफरी थी। भय, आशंका, असुरक्षा, अफवाह और नफ़रत के घालमेल से निर्मित माहौल बना हुआ था यहाँ। विनय की ड्यूटी यहाँ के एक कंट्रोल रूम में थी, जो टेंट का बना हुआ था। यहाँ उसके टीम को आसपास की दो बिल्डिंग में कोरेंटीन किए गये लोगों को सुविधा पहुँचाने, फोन पर उनकी शिकायत या माँग नोट करने, उसे आगे हेड क्वार्टर तक पहुँचाने, जरूरी सूचना अनाउंस करने और सामान वितरण में लगे लड़कों को निर्देश देने जैसे कार्यों को करने की जिम्मेदारी दी गई थी। इस नियंत्रण कक्ष में तैनात सात लोगों में से चार तो सरकारी विद्यालयों के शिक्षक ही थे। दो शायद एमसीडी के कर्मचारी और एक दिल्ली सिविल डिफेंस की महिला सदस्य थीं। बाकी आसपास और भी बहुत से लोग कार्यरत थे। इस आवासीय परिसर को चार ब्लाॅक में बांटकर ऐसे ही कुल चार टेंट वाले कंट्रोल रूम बनाए गये थे। इनमें तैनात प्रत्येक टीम को एक फोन, एक माइक और एक वायरलेस कनेक्टर ‘वाॅकी-टाॅकी’ दिया गया था जिससे सूचनाओं और निर्देशों का आदान-प्रदान किया जा सके। फोन पर ज़्यादातर क्वारेंटीन किए गये लोग अपनी जरूरतों, स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों या शिकायतों को बताते थे जिसे टीम नोट करती और आगे वाॅकी-टाॅकी के माध्यम से मुख्य नियंत्रण कक्ष में बताकर व्यवस्था कराती थी। यह मुख्य नियंत्रण कक्ष इस आवासीय परिसर के बीच में बने सामुदायिक भवन की आलीशान पक्की बिल्डिंग में था। सोफे, बिस्तर, एसी जैसी सुविधाओं से संपन्न। यहाँ एस डी एम, तहसीलदार जैसे प्रशासनिक अधिकारी जो तैनात थे जो सभी फैसले लेते और आदेश फरमाते थे। सभी यात्रियों के लिए जरूरी सूचनाएँ टेंट से बने नियंत्रण कक्षों से माइक में अनाउंस की जातीं। यहाँ हर कंट्रोल रूम में बारी-बारी से दो टीम इस काम में लगी रहतीं जो 12-12 घंटे काम करके अदल-बदल कर ड्यूटी पर आती रहतीं थीं।

     विनय ने पाया कि पिछले हफ्ते भर से मीडिया में चल रहे प्रोपेगेन्डा का उसके आसपास के लगभग सभी लोगों पर जबरदस्त असर था। उसकी टीम के सदस्यों में ही नहीं बल्कि यहाँ लगे पुलिस कर्मियों, साफ-सफाई वालों, अंदर जरूरी सामान पहुँचाने वाले लड़कों सभी में इन क्वारेंटीन हुए लोगों के प्रति अजीब सी नफ़रत और घृणा झलक रही थी। बस इनकी जाँच के लिए कुछ-कुछ अंतराल पर आ रही मेडिकल टीम के लिए वह ऐसा दावा नहीं कर सकता था, क्योंकि सीधा वास्ता जो इनके काम से नहीं था कंट्रोल रूम का और न ही कोई ज़्यादा बातचीत थी इनसे। वे जाँच के बाद बस कंट्रोल रूम को लिस्ट सौंप जाते कि किन-किन यात्रियों को अस्पताल भेजना है और कितनी एंबुलेंस बुलानी है। कोरेंटीन किए गये लोगों को सेंटर पर कोरोना संभावित या मरीज के बजाय यात्री या पैसेंजर कहा जाता था। यहाँ की यही एक बात विनय को बहुत सकारात्मक लगती थी। बहरहाल, यहाँ सभी कर्मचारी देश में कोरोना का एकमात्र जिम्मेदार इन्हें ही मानते हुए कोसते रहते थे। हालाँकि सैकड़ों कोरोना पॉजीटिव लोग इन लोगों की यूँ धर-पकड़ से पहले ही देश में मिल चुके थे। इस घटना ने भले ही आंकड़ा बढ़ा दिया था पर इन्हें एकमात्र जिम्मेदार तो नहीं ही कहा जा सकता था। लेकिन इस नीर-क्षीर विवेक की उम्मीद करना ही बेमानी लग रहा था इन दिनों। पूरा मीडिया, छुटभैइये नेता सब इसी समझ को लोगों के बीच परोस रहे थे। विनय का शुरुआती तीन-चार दिन तो सचमुच ही इस माहौल में बुरी तरह बीता। घर जाने का समय आते-आते सिर में जोरों का दर्द होने लगता उसके। इस तरह की शब्दावली, भाषा और व्यवहार की आदत उसे नहीं थी जो यहाँ लोगों द्वारा बार-बार दुहराई जा रही थी। वह ऐसे गाँव में जन्मा और बड़ा हुआ था जहाँ हिंदू-मुसलमान आपस में मिलजुलकर रहते थे। उनमें कोई धार्मिक दुराव नहीं था। बाद में उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की डिग्री लेते हुए उसने संविधान, धर्मनिरपेक्षता, नागरिक अधिकार, लोकतंत्र जैसी संकल्पना को केवल पढ़ा ही नहीं था उसने बल्कि आत्मसात करके जी भी रहा था। वह पिछले दस सालों से स्कूल में सामाजिक विज्ञान विषय पढ़ाते हुए विद्यार्थियों को भी इसी तरह से शिक्षित कर रहा था। पर यहाँ उसे ऐसा लगता था की बीसवीं सदी का जर्मन समाज उसके चारों ओर प्रकट हो गया है। उसे जब-तब लगता कि यहाँ नफ़रत से लबरेज़ अधिकांश चेहरों में अनायास ही हिटलर और गोएबल्स का चेहरा उभर आ रहा है।

     उसके ही ब्लाॅक के नियंत्रण कक्ष में तैनात टीम का एक शिक्षक श्रवण इन सारी नफ़रत भरी भड़काऊ बातों की अगुवाई करता। एक ही विभाग का होने के कारण सेमिनार आदि में उससे विनय की मुलाकात होती रहती थी सो वह उसके बारे में पहले से ही कुछ-कुछ जानता था, खासकर उसके साम्प्रदायिक मानस के बारे में। वो भी विनय को जानता था। वह बार-बार आपसी बातचीत में इन यात्रियों को कटुवे, मुल्ले, आतंकी, देशद्रोही और न जाने क्या-क्या कहता। वह सरकार द्वारा इन्हें कोरेन्टीन किए जाने, इलाज देने को गलत मानते हुए जान से मार देने, मस्ज़िद (शायद मरकज़ की जगह वह ये शब्द बोलता था) में ही बंद कर जहरीली गैस छोड़ देने, पुलिस द्वारा इनका इनकाउंटर कर देने, ढंग से ठुकाई करने जैसी अनगिनत इच्छाएं और सुझाव जाहिर करता। जब मेडिकल टीम द्वारा कुछ लोगों को करोना पाॅजिटिव चिन्हित करके अस्पताल भेजे जाने की सूची सौंपी जाती तो वह बहुत खुश होता और कहता कि, ‘अब ये गया हूरों के पास। इन्हें तो एंबुलेंस में ही जहर दे दो और इनके बीच उन लोगों को भी बैठा कर ले जाओ जो इन देशद्रोहियों के लिए अच्छा सोचते हों, जिससे वो भी मरें।’ ऐसा कहकर वह विनय की ओर तिरछी मुस्कान के साथ देखता जैसे उसके लिए ही कह रहा हो। यात्रियों से जुड़े रहने के लिए उपलब्ध कराए गये टेंट के एकमात्र मोबाइल फोन को अटैंड करने के लिए भी वही ज्यादा उत्सुक रहता। फोन पर यात्रियों से सीधे तो वह ये नफ़रत व्यक्त नहीं कर पाता पर उन्हें रूखे तरीके से जवाब देकर, मांगी गई चीज उपलब्ध होने पर भी मना करके और गलत जानकारी देकर अपनी भड़ास निकालता। फोन रखकर फिर समूह में भौकाल जमाता कि ‘देखो कैसे मैंने इन्हें पागल बनाया।’ चूँकि कमोबेश अन्य भी इसी मानसिकता के थे तो वो भी खूब मजे लेते बल्कि अपनी बात भी उसमें जोड़ते।

    विनय की टीम का एक दूसरा सदस्य धर्मपाल जो बातचीत और व्यवहार में बड़ा धीर-गम्भीर था, वह भी इनके प्रति जहर बुझा हुआ था। वो पहले दिन ही विनय से कहने लगा, ‘सर ये सारे जन्म से ही देश को मिटाने और नुकसान पहुंचाने के लिए ट्रेंड किए जाते हैं। इनके मदरसों में इन्हें हम काफ़िर लोगों से दूर रहने और दुश्मनी रखने को कहा जाता है।’ वह अपने ज्ञान को विस्तार देते हुए कहता कि, ‘वह दिन दूर नहीं जब इनकी आबादी हमसे ज्यादा हो जाएगी और ये हमें ही भगा देंगे हमारे देश से। इस रणनीति पर चलकर जहाँ ये अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं वहीं हिन्दुओं में दलितों को तोड़ अपनी ओर मिला रहे हैं। देखा न, अब एससी-एसटी इनका कितना पक्ष लेते हैं। अपना भाई समझ के राम-राम करो तो नमो बुद्धाय कहते हैं। इन सालों को भी बाद में समझ आएगा।’ कुछ देर तक चूँकि विनय इसे ठीक आदमी समझ रहा था तो टोकते हुए बोला, ‘इस मूर्खतापूर्ण घटना को इतना महत्त्व देने की कोई जरूरत नहीं। अब तो इन बेचारों की जान खुद ही अटक रही होगी और पछता रहे होंगे कि क्यों इकट्ठा हुए ऐसे समय में। डर रहे होंगे कि कहीं कोरोना न हो जाए।’ लेकिन धर्मपाल बीच में ही बोल पड़ा, ‘नहीं सर ये तो जानबूझकर इन्होंने कोरोना लिया है खुद में, हिंदुओं में फैलाने और देश बर्बाद करने के लिए। ये मरकज़ में इकट्ठा ही यही सब करने के लिए होते हैं।’ उसे थोड़ा फटकारते हुए अलग हटकर सोचने को प्रेरित करने की गरज से विनय ने कहा, ‘कैसी मूर्खता भरी बातें कर रहे हो…अगर इसके पीछे कुछ कारण होगा भी तो बस धार्मिक अंधता या कट्टर विश्वास का ही होगा और वो हर जगह होती है। देखो हाल ही में पकड़े गये बालात्कारी बाबाओं के आश्रम में हमारे हिंदू घरों के लोग विशेषकर महिलाएं कितनी बड़ी संख्या में जाती थीं और गिरफ्तारी के विरुद्ध लोगों ने कितना दंगा किया था।’ वह कुछ सहमत होते हुए बोला, ‘फिर भी हमारे में सिर्फ कुछ ही बहकने वाले ऐसा करते हैं पर इनमें सारे ही ऐसे होते हैं।’ विनय ने आगे बात करना उचित नहीं समझा। आखिर पत्थर पर सिर क्या ही मारता?

     इसी टीम का एक सबसे जवान लड़का जो वैसे तो बड़ा कामचोर था पर शायद सबसे जरूरी काम करता इनके लिए। वह ढूँढ-ढूँढ कर मोबाइल पर ऐसे वीडियो निकालता जो मुसलमानों से नफ़रत को बढ़ाते थे। ‘मेडिकल स्टाॅफ पर जमात के कोरोना संभावित व्यक्ति ने थूक दिया’, ‘इंदौर में मुसलमानों ने मेडिकल टीम पर हमला किया’, ‘सब्जियों पर पेशाब करके सब्जियां बेचता मिला एक मुसलमान विक्रेता’ जैसी खबरें और वीडियो निकाल-निकाल कर वह दिखाता। सदस्यों को आगे और ऐसी बातचीत के लिए उकसाता। यह सब देखकर बाकी लोग और घृणा प्रदर्शित करते। जमातियों से होते हुए वे कब सभी मुसलमानों तक पहुँच जाते इसका उन्हें कोई भान भी न रहता।

    बाकी बचे दो-तीन सदस्य भी इनकी हाँ में हाँ मिलाते, हंसते, एक से बढ़कर एक क्रूर तरीके से सबक सिखाने का तरीका सुझाते जिसे सुन हिटलर-मुसोलिनी भी अगर होते तो इनसे इर्ष्या करते। कक्षा में नाज़ी जर्मनी का इतिहास पढ़ाते हुए विनय खुद आज तक समझ नहीं पाया था कि कैसे उस समय की अधिकांश जनता ने इतने क्रूर शासन, उसकी नीतियों, प्रोपेगेन्डा और अन्याय को स्वीकार कर लिया था। पर आज वह कुछ-कुछ समझ पा रहा था। उसे समझ में आया था कि शायद सत्ता ने इन बुराइयों को जन्म नहीं दिया था। उसने तो बस उसे पाला-पोसा और बड़ा किया था। फिर कभी सोचता कि शायद जन्म भी दिया था। खैर जब वह इन लोगों की नफ़रत को मीडिया में चल रही खबरों के प्रकाश में देखता तो समझ जाता कि खबरें कैसे सबके सोचने-समझने की दिशा तय करती है। ‘संभवतः फासीवादी-नाज़ीवादी सत्ताओं ने इसी जन संचार प्रणाली पर कब्ज़ा करके सफलता प्राप्त की थी। जड़ भले वे धार्मिक कुंठाएं थीं जो पहले से ही व्यापक जन समुदाय में थीं।’ यह सब सोचते-सोचते विनय किसी न किसी काम में लीन हो जाता।

    ‘कोरोना पॉजिटिव जमाती ने मेडिकल स्टाॅफ और अन्य पर थूक दिया’ वाली खबर यहाँ ऐसे सबके जेहन में थी कि छज्जे/बालकनी पर खड़ा दिखता हर यात्री इन्हें थूकता हुआ लगता। जैसे ही कोई बालकनी में खड़ा होता सारे टेंटों के कर्मचारी सक्रिय हो जाते। माइक पर उन्हें अंदर जाने को कहा जाता और धमकाया जाता। पुलिस वाले तो चिल्लाते हुए कहते कि ‘अरे थूक क्यों रहा है?’ जबकि वास्तव में ऐसा कुछ होता भी नहीं। इतनी बात माइक में कहने के बाद वे माइक बंद कर गालियाँ बकते और भड़ास निकालते। एक महिला पुलिसकर्मी ने तो बदतमीज़ी में पुरुषों के भी कान काट लिये जब विनय के सामने ही उसने कहा, ‘अगर मुझे छूट मिले तो मैं अंदर जाकर इन सारों को गोली मार आऊँ भले खुद मर जाऊंं।’ नफ़रत की ऐसी पराकाष्ठा देख विनय खुद भी डर जाता। वह सोचता कि ‘आख़िर चौबीसों घंटे अकेले कोई कैसे एक छोटे से कमरे में बंद रह सकता है। मन ऊबने पर बालकनी में तो आने ही दिया जाना चाहिए।’ पर ज़्यादा विरोध करने के बजाय वह अंदर ही अंदर कुढ़ता। यहाँ कुएँ में ही भाँग पड़ी थी, आखिर किस-किस से वह उलझता?

   ऐसी बातों पर ब्रेक तभी लगता जब कोई मुस्लिम कर्मचारी कभी-कभी ड्यूटी पर तैनात होता। ऐसा कभी-कभी सिविल डिफेंस या पुलिसबल के कर्मचारियों के बदलते शिफ्ट में ही होता। इसकी जानकारी सीने पर लगे नेम प्लेट से बख़ूबी हो जाती। हालाँकि ये सब थोड़े समय की बात होती। पर उस समय लगता कि क्यों एक विविधतापूर्ण समाज में जीवन का हर क्षेत्र सभी तरह के प्रतिनिधित्व से परिपूर्ण होना चाहिए। इन यात्रियों से सकारात्मक रूप से पेश आने और इसी बहाने इन अति धार्मिक लोगों से संवाद बढ़ाकर अंतर-धार्मिक विश्वास बढ़ाने का जिस ड्यूटी को विनय मौका समझ रहा था वो चौपट हो गया लगता था। बस सिर्फ़ कुछ काॅल अटैंड करके ही वह अपनी सकारात्मकता पेश कर पाता। अंदर सामान देने जाने वालों या पंखे-बिजली का काम देखने जाने वालों मकैनिक और पलम्बर से भी स्टाॅफ के लोग कहते कि ‘ये चलते फिरते बम हैं, बचकर रहना, चिपट जाएंगे।’ विनय बस झुंझलाकर रह जाता। उसके लिए ये कोई अलग दुनिया थी शायद नर्क जैसी कोई दुनिया।

   सबसे बुरा विनय को इस बात का लगता कि ‘ये फेसिलिटेशन टीमें मांगे जाने पर वो सामान देने में भी आनाकानी क्यों करती हैं जो उपलब्ध होती हैं।’ वह इस बात का मुखर विरोध करता। उम्र में बड़े कर्मचारी उल्टा उसे ही डपट लेते कि ‘ज़्यादा राजा हरिश्चंद्र बनने की जरूरत नहीं इन कमीनों से।’ पर विनय को लगता कि ‘आखिर सरकार ने ये सामान इनके लिए ही तो भेजा है। फिर एक-एक सामान को क्यों तरसाया जाता है और क्यों बार-बार दौड़ाया जाता है।’ जितना वश में होता विनय इस तरह की प्रवृत्ति के खिलाफ़ सक्रिय रहता। वह नमक माँगने वाला बूढ़ा भी इसी तरह परेशान किया जा रहा था जो बार-बार चार मंजिला सीढ़ियां चढ़-उतरकर पिछले दो-तीन दिन से आ रहा था। हालाँकि यह मामला अलग इसलिए था कि नमक सचमुच नहीं था। बूढ़े का चेहरा दिमाग में कौंधते ही विनय को अपने गाँव के कई बड़े-बूढ़े मुस्लिम चाचा-बाबा याद हो आते। इकबाल बाबा, हाजी बाबा, मियां बाबा, असलम चाचा और न जाने कौन-कौन… वह कभी भी उन्हें इतनी मजबूर अवस्था में नहीं देख सकता था।

      एक दिन ड्यूटी से घर लौटकर विनय ने बूढ़े की नमक की इच्छा और परेशानी के बारे में परिवार को बताया तो उसकी माँ सुशीला बोली, ‘बेटा कल तुम नमक का पैकेट ले जाकर दे देना। किसी को नाहक परेशान नहीं करना चाहिए। नमक जैसी चीज़ के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। तू तो बता रहा था कि बहुत सारे टीचर ही हैं वहाँ, क्या टीचर भी ऐसे होते हैं?’ विनय की माँ कम पढ़ी-लिखी भी फिर भी इंसानियत के जरूरी फलसफे को समझ रही थी। पर ये बात पढ़े-लिखे और सो काॅल्ड धार्मिक शिक्षक क्यों नहीं समझ पाए आज तक। विनय को अपने पेशे के सहकर्मियों के बारे में सोचकर शर्मिंदगी सी हुई। उसके मन में धर्मों की प्रचलित इन मूर्खताओं पर गुस्सा आया। उसे अपनी नास्तिक समझ पर गर्व हो उठा। लेकिन फिर ख़्याल आया कि उसकी माँ जैसे सरल-सहज धार्मिक लोग भी तो हैं। उसने माँ से वादा करते हुए कहा, ‘मां कल उन्हें मैं ले जाकर नमक दे दूँगा। आप याद करके सुबह दे देना, ले जाऊँगा।’

   रात में सोते वक्त दिन की असहज करने वाली बातें ही विनय के दिमाग में चलती रहतीं। वैसे उसे सेंटर पर प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराई गई सुविधाओं से कोई शिकायत नहीं थी। नाश्ते से लेकर खाने-पीने, साबुन से लेकर मास्क तक इन यात्रियों के लिए भरपूर सप्लाई की गई थी। पर इन कर्मचारियों को असंवेदनशीलता सब पर पानी फेर रही थी। इन्हें संवेदनशील किए जाने की बहुत जरूरत थी, जिस पर सरकार ने कोई कोशिश नहीं की थी। वैसे इनमें अधिकतर शिक्षकीय पेशे से जुड़े थे इसलिए पहले से ही उनके ऐसा होने की उम्मीद की गई होगी। विनय सोचता रहा कि ‘इतनी नफ़रत लेकर वो कक्षा में कैसे न्याय करते होंगे?’ एक बात और उसके जेहन में आती रही कि ‘ये जो जमात के कोरोना संभावित लोगों द्वारा मेडिकल स्टाॅफ, नर्स, पुलिस वालों के साथ सही से पेश न आने की सच्ची-झूठी खबरें आ रही हैं कहीं वो सब ऐसी ही मनोवृत्ति का परिणाम तो नहीं! हो सकता है कुछ लोगों ने ऐसा व्यवहार किया हो, पर क्या उनसे डील करने वाले नफ़रत से भरे ये लोग अपने व्यवहार और टिप्पणियों से ऐसा करने को मजबूर या प्रेरित नहीं करते होंगे? अब मीडिया जब एक पक्ष के दानवीकरण का अभियान ही चला रही हो तो भला उनका पक्ष कौन और कैसे दिखाए? खबरें भी तो इसी प्रचलित मानस की झाँकी हैं।’ सोचते-सोचते विनय को नींद आ ही गई। पर नींद में भी उसे चैन नहीं था। वह हकीकत की उलझन से सपनों के जंजाल में उतर गया। आज…सपने में विनय बच्चों को जर्मनी में ‘नाज़ीवाद और हिटलर का उदय’ पाठ पढ़ा रहा है… ‘सभी यहूदियों के घर चिन्हित कर दिए गये, उन्हें सार्वजनिक स्थानों और सुविधाओं के प्रयोग से वंचित कर दिया गया, स्कूलों से यहूदी अध्यापकों और बच्चों को निकाला जाने लगा, सब जगहें उनके लिए अपमान, हिंसा और दमन से भर गईं’…पढ़ाते-पढ़ाते कक्षा की जगह न जाने कैसे अनदेखा नाज़ी जर्मनी ही आ खड़ा हुआ है। यहूदियों को पकड़-पकड़ कर नाज़ी सैनिक कंसन्ट्रेशन कैंप ले जा रहे हैं…अरे! इन सैनिकों का चेहरा तो वेसा ही है जैसे कोरेंटीन सेंटर के कर्मचारियों का है। ये गाड़ी जिसमें लोग सैनिकों द्वारा ठूँस-ठूँस कर भरे जा रहे हैं, इसका ड्राइवर बिना किसी अपराधबोध के कैसे बैठा हुआ है?… क्यों भाई तुझे कुछ नहीं कहना-सुनना, कोई अफ़सोस नहीं तुझे…पर ये क्या? उसका चेहरा बदलता क्यों जा रहा है? अरे-अरे… ये तो बदलते-बदलते विनय के अपने चेहरे जैसा हो गया है…पृष्ठभूमि में एक शोर गूंज उठा है… फ़्यूहरर की जय हो, फ़यूहरर की जय हो…कान के पर्दे फटने को हो रहे हैं।’ विनय चौंककर उठ गया। वह पसीने से तर-बतर था। पत्नी कोमल भी जग गई। उसे घबराया हुआ देखकर पूछने लगी कि ‘क्या कोई बुरा सपना देखा है?’ विनय कुछ बोल नहीं पाया। सिर सहमति में हिलाते हुए करवट बदलकर लेट गया। नींद गायब हो गई थी। उनींदी रात कुछ ज़्यादा ही लंबी हो गई। पर जगते-सोचते ये भी कट ही गई।

   सुबह होते ही विनय नहा-धोकर अख़बार पढ़ने बैठ गया। आज उसे तसल्ली थी। शिफ्ट बदलकर रात की ड्यूटी जो हो गई थी। अख़बार के अंदरूनी पन्नों में जमातियों के दुर्व्यवहार संबंधी फैली खबरों में अधिकतर के झूठ और अफ़वाह मात्र होने संबंधी एक रिपोर्ट देखकर न जाने क्यों वह अलग सा अनुभव करने लगा। ये खुश होने के बजाय इस बात पर संतुष्ट होने का भाव अधिक था कि अब तक जो उसकी सोच रही थी वो ठीक थी। उसे खुद पर कुछ गर्व सा हुआ कि इतनी विपरीत स्थिति में भी वह अपने सिद्धांतों से डिगा नहीं, न ही नफ़रत का शिकार हुआ। इस ख़बर वाले पेज को विनय ने अलग रख लिया ये सोचते हुए कि ‘दिखाऊँगा उन सभी नफ़रती दिमागों को।’

     रात में ड्यूटी पर विनय समय से पहले ही पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर उसे याद आया कि ‘नमक का पैकेट तो मैं भूल ही आया।’ उसे पछतावा हुआ और खुद पर गुस्सा भी आया। लेकिन कुछ ही देर में वह इस स्थिति से उबर गया जब उसे वहाँ आज प्रशासन के मानवीय और दूरदर्शी रूप का दर्शन हुआ। वह संतोष के गहरे भाव से भर गया कि ‘अभी सब कुछ नहीं बिखरा है।’ वह सोचना लगा कि ‘काश यही तरीका शुरू से ही सभी के लिए अपनाया गया होता और सभी को संवेदनशील बनाने की कोशिश की गई होती। पर कोई बात नहीं, देर आए दुरुस्त आए।’

       दरअसल आज नज़दीकी थाने के एसएचओ साहब अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ सेंटर पर पधारे थे। वैसे उनके आने का मक़सद यात्रियों की तरफ से पहुँची शिकायतें सुलझाना नहीं बल्कि उल्टे अफवाहों और नफ़रतों के घालमेल से पैदा हुई उनके प्रति कर्मचारियों की शिकायतों का निदान करना था। ये यात्री तो एक तरह से कैदी ही बने हुए थे यहाँ, शिकायतें क्या ही पहुँचा पाते। सभी यात्रियों को नीचे बुलाकर, दूर-दूर खड़ा कर एसएचओ साहब उन्हें काफी गरिमामयी तरीके से ज़रूरी बातें समझा रहे थे। भारी संख्या में आया पुलिस महकमा उचित व्यवस्था बना रहा था। एसएचओ साहब फिज़िकल डिस्टेंसिग के फायदे और उसके तरीके बता रहे थे और साथ ही कर्मचारियों की बात मानने की जरूरत क्यों है, बीच-बीच में बड़ी शिद्दत से रेखांकित कर रहे थे। खाली समय में यात्रियों से ईश्वर की आराधना करने, महामारी खत्म होने और देश के लिए दुआ माँगने की अपील भी वह कर रहे थे। उन्होंने पूरे शासन-प्रशासन के उनकी सेवा और सहयोग में होने का आश्वासन भी कई बार दुहराया। अगले हफ़्ते ही शुरू हो रहे माहे रमज़ान की अग्रिम मुबारकबाद भी दी उन्होंने। अपने साथ वे जमात के किसी मौलाना को लेकर आए थे जो काफी समझदारी और प्यार से उन सबको सबसे अच्छे से पेश आने, सहयोग करने, निर्देश मानने को कह रहे थे। इन सब अपेक्षित व्यवहारों को वह धर्म सम्मत बताते हुए अल्लाह को पसंद आने वाला भी कह रहे थे। उनकी बातों का जादुई असर होता दिख रहा था। उन्होंने देश की मिली-जुली संस्कृति और बहुसंख्यकों के सहयोग की खुले दिल से प्रशंसा की जो वहाँ लगे कर्मचारियों को अचंभित भी कर रहा था और खुश भी। मौलाना साहब की बातों से यात्री उत्साह और विश्वास से भरते हुए दिखे। उनमें से कुछ ने अपने साथ कर्मचारियों के रूखे व्यवहार और गलत तरीके से पेश आने की बात बताई। मौलाना साहब ने जहाँ ऐसा न करने की मार्मिक अपील स्टाॅफ से की वहीं एसएचओ साहब ने तो इसके खिलाफ़ चेताया भी।

      विनय को ये सब देखकर बहुत अच्छा लगा था। उसने इसका कुछ असर भी लोगों के चेहरे पर देखा। हालाँकि वह जानता था कि यह सब एक झटके में तो बदल नहीं सकता था। आए हुए मौलाना साहब ने कर्मचारी समूह से कुछ देर बात भी की। उन्होंने बताया कि वे अनाथ बच्चों के लिए एक मदरसा चलाते हैं। बातचीत में कुछ बिमारियों के घरेलू उपाय भी बताते जाते थे।बहुत से कर्मचारी उनसे बातचीत में मुख्यतः जमात संबंधी जानकारी जुटाते। उन्हें मौलाना साहब द्वारा जमात संगठन के उद्देश्य, कार्यप्रणाली और उसमें धर्म सम्मत व्यवहार व सादगी पर जोर दिए जाने संबंधी बातों को जानने पर आश्चर्य होता। उनके अंदर बैठी समझ से ये बताई जा रहीं बातें बहुत अलग थीं। जाते समय मौलाना साहब को विनय ने शुक्रिया कहा और उनके आने को सफल बताया। उसने कहा कि, ‘आपसे संवाद करके सिर्फ़ यात्री ही नहीं हम भी लाभान्वित हुए। ऐसे संवाद समाज में बड़े पैमाने पर हों तो शायद ये नफ़रत का वायरस तो खत्म ही हो जाए। कोरोना को तो वैसे भी खत्म होना ही है।’ मौलाना साहब ने खुशी-खुशी विदा लिया।

      ये सब हो जाने के बाद माइक में सभी यात्रियों को अपने-अपने कमरों से नीचे आकर पैक की हुई थाली ले जाने को कह दिया गया। विनय को अफ़सोस था कि वह नमक लाना भूल गया था। जैसे ही बूढ़े ने आकर उस कैंप की ओर देखा उसके बोलने से पहले ही विनय बोल पड़ा, ‘बाबा नमक लाने के लिए रख लिया था पर आते हुए भूल गया। पर आप चिंता न करें कल आते ही नमक का पैकेट आप को दे दूंगा।’ बूढ़ा निराश होते हुए भी बोला, ‘कोई बात नहीं साब…आपने इतना सोचा यही बहुत है।’ विनय को लगा कि जैसे बूढ़ा नाउम्मीद हो चुका था। यहाँ के लोगों के रूखे व्यवहार में छुपे नफ़रत को ये लोग अब बखूबी समझने लगे थे। एक-दो गर्म खून वाले जवान यात्री कर्मचारियों से उलझ भी चुके थे। पर बड़े-बूढ़े उन्हें समझा-बुझाकर वापस कमरों में जाने को राजी कर लेते। नाश्ते और खाने के समय ही थालियों और पानी की बोतल के लिए सीढ़ियों से उतर बाहर प्रांगण में दो-दो गज की दूरी पर बने गोलों में आकर वे पंक्तिबद्ध खड़े होते। दिन में कभी-कभार ही इनमें से इक्का-दुक्का कोई जरूरी सामान जैसे शैंपू, तेल, दवा आदि लेने आता। शिफ्ट चेंज के समय आज दिन वाले कर्मचारियों में से एक ने विनय को बताया था कि मच्छर मारने वाली दवा न मिलने पर एक मुल्ला भड़क गया था। कहता था कि, ‘तुम सारे चोर हो, होते हुए भी जरूरी सामान नहीं देते। यहाँ इतने मच्छर हैं कि कोरोना से बच भी जाएँगे तो डेंगू-मलेरिया से मर जाएँगे। कल से चार बार माँग चुका हूँ फोन पर। कभी कहते हो भेज रहे हैं, कभी कहते हो अभी मंगा रहे हैं और अब कहते हो कि है नहीं। तुम सबकी कंपलेन्ड करूँगा।’ हालाँकि उस कर्मचारी ने विजयी भाव में ये भी बताया था कि ‘साले को फिर भी नहीं दिया। किलसकर भाग गया।’ सोचते हुए विनय को लगा कि शायद आज के संवाद से कुछ फर्क पड़े। उचित मौका जान उसने अखब़ार की उस रिपोर्ट को भी सहकर्मियों को दिखाया जो उसने उन्हें दिखाने और शर्मिंदा करने के लिए रखा था। आज उसे चेहरे कुछ अलग से दिख रहे थे। जब सारे काम निपट गये तो औरों की तरह विनय भी कुर्सी पर बैठे-बैठे सुस्ताने और झपकने लगा। आज घर के बिस्तर से भी ज़्यादा सुकून उसे इस अवस्था में आ रहा था।

      सुबह घर पहुँचते ही साफ-सुथरा और सेनेटाइज होने के बाद विनय ने जो काम सबसे पहले किया वो था माँ का दिये हुए नमक के पैकेट को अपने बैग में रखने का। वही पैकेट जो शाम को वह टेबल पर ही छोड़ गया था। डर था कि कहीं आज भी वह रात में ड्यूटी पर जाते वक्त इसे रखना भूल न जाए। पैकेट रखने के बाद उसे संतोष हुआ कि, ‘अब वह बूढ़े को नमक दे सकेगा…दो चम्मच ही नहीं बल्कि पूरा एक पैकेट।’ पत्नी ने जब कहा कि ‘नमक तो यहीं भूल गये थे। क्या बूढ़ा आज भी नमक माँग रहा था?’ विनय को लगा कि इन सबके लिए बूढ़ा विस्मय और हंसी की बात बन गई है। उसे बुरा लगा। वह बस इतना ही बोला कि, ‘अब बैग में रख लिया है तो जाते ही रात में दे दूँगा।’

    मन का यही संतोष था या कुछ और रात में उसे अच्छी नींद आई। सुबह समय से ड्यूटी पर पहुँच चुका था विनय। अभी टीम के दूसरे साथी नहीं पहुँचे थे। वह बूढ़े को नमक का पैकेट देने के लिए बहुत उत्साहित था। उसे डर भी था कि ‘कहीं निराश बूढ़ा अब नमक के लिए आए ही न तो वह क्या करेगा? खाने के समय तो बहुत से यात्री नीचे आते हैं कहीं वह उसे देख न पाया तो नमक आज भी देना रह ही जाएगा।’ यह सोचते हुए विनय को याद आया कि बूढ़े ने कमरा नंबर 403 बताया था। झट रिकाॅर्ड रजिस्टर निकालकर उसने बगल के 404 कमरे के यात्री को फोन लगाया और कहा, ‘403 के यात्री से कह दीजिए कि नीचे आकर नमक ले जाएँ।’ वह बूढ़े का इंतजार करने लगा।

      पाँच मिनट भी नहीं बीते थे कि टेंट के सामने की बिल्डिंग से तेज शोर सुनाई दिया। यह विनय की टीम को मिला ब्लाॅक ही था। उसने पास खड़ी सिविल डिफेंस कर्मचारी को पता लगाने को कहा। लोहे की जाल के उस तरफ जाने से सारे कर्मचारी कतराते थे। वैसे बचाव के लिए उधर न जाने का निर्देश भी था इन सबको। सिर्फ़ जरूरत पर ही कुछ लड़के पीपीई किट पहनकर उधर जाते थे। पर बढ़ते शोर से उठी आशंका में वह सिविल डिफेंस कर्मचारी कुछ आगे बढ़ ही गई जानने के लिए। टेंट में रखे सभी सामानों की जिम्मेदारी न होती तो विनय भी सब छोड़ दौड़ जाता। कुछ सेकेंड में ही वह कर्मचारी घबराई हुई दौड़ते हुए आई और बोली, ‘सर एक आदमी सीढ़ियों से नीचे गिर गया है। खून बह रहा है बहुत। वहाँ कई यात्री इकट्ठा हो रहे हैं। जल्दी से अनाउंस करके मेडिकल टीम और पुलिस वालों को बुलाइए।’ विनय ने भी घबराते हुए झट ऐसी ही आपातकालीन घोषणा कर दी। बगल की बिल्डिंग में तैनात मेडिकल टीम झट वहाँ पहुँच गई। एक एंबुलेंस भी सायरन बजाते हुए वहाँ आ पहुँची। दो पीपीई किट पहने युवक उस गिरकर घायल हुए खून से लथपथ यात्री को हाथों में टाँग जाल के इस ओर खड़ी एंबुलेंस तक लेकर आए। उसकी ओर विनय ने उचक कर देखा। उफ्फ! ये वही बूढ़ा था। उसकी मुट्ठी से छूटकर एक छोटी डिबिया लुढ़कते हुए विनय के टेंट के आगे ही रखी काउंटर मेज को पार कर उसके पैरों तक पहुँचकर रुक गई। जैसे उसकी नमक की तालाश पूरी हो गई हो। विनय हतप्रभ और आवाक था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था।

      शायद नमक मिलने की ख़बर पाकर उत्साह से नीचे पहुँचने के लिए उतरते वक्त वह बूढ़ा फिसलकर गिर गया था…’ओह! ये क्या हो गया…कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए।…कहीं मैंने उसे नीचे आने को कहलवाकर कुछ गलत तो नहीं कर दिया…मुझे खाने के वक्त तक का ही इंतजार कर लेना चाहिए था। पर मैं…मैं कहाँ जानता था कि ऐसा कुछ…।’ सोचते हुए विनय की आँखों से अश्रुधारा झर पड़ी। वह खुद से ही जूझ रहा था इस समय। उसकी टीम के दूसरे साथी भी आ चुके थे अब तक। वे उससे ही जानना चाहते थे कि क्या और कैसे हुआ? पर वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। मेडिकल टीम ने एंबुलेंस में ही जाँच करनी शुरू कर दी थी। कुछ मिनट में ही टीम ने घोषणा कर दी कि जान नहीं बची है। यात्रियों की मायूस भीड़ नीचे जमा हो गई थी। आपस में दूरी बरतने का नियम भी टूटने लगा था। हर तरफ से माइक में सबको अपने-अपने कमरे में जाने को कहा जा रहा था। एंबुलेंस भी बूढ़े का बेजान शरीर लेकर कुछ देर में न जाने किस ओर खिसकने लगी थी। अफ़सोस और पीड़ा आँखों में जज़्ब किए यात्रियों व कर्मचारियों की भीड़ छंटने लगी थी। नहीं छंट रहा था तो सिर्फ़ विनय के सीने में उमड़-घुमड़ रहा गुबार। वह गुबार था अफ़सोस का, असहायता का, दर्द का, गुस्से का, अपराधबोध का। पूरी रात पत्थर सा होकर बैठा रह गया था विनय। उसकी नजर सामने मेज पर रखे उसके ही लाए नमक के पैकेट और उस बूढ़े की छोटी डिबिया पर टिकी हुई थी।

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4 comments

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