गुलजार के गीतों पर केंद्रित विनोद खेतान की पुस्तक आई है ‘उम्र से लंबी सड़कों पर’. इस पुस्तक के बहाने गुलजार के गीतों पर प्रियदर्शन का एक सधा हुआ लेख- जानकी पुल.
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क्या फिल्मी गीतों को हम कविता या कला की श्रेणी में रख सकते हैं? प्रचलित तर्क कहता है कि जो गीत व्यावसायिकता के तकाज़ों पर लिखे जाते हों और जिनमें किसी ख़ास ‘सिचुएशन’ का ख़याल रखने की मजबूरी हो, जिनके साथ पहले से तय धुन में बंधे रहने की शर्त जुड़ी हुई हों, उन्हें हम वैसी शुद्ध कलात्मक अभिव्यक्ति का दर्जा नहीं दे सकते जैसी कविता या ऐसी ही किसी दूसरी विधा को देते हैं। लेकिन यह एक अधूरा तर्क है। चाहे जिस दबाव में लिखी जाए, रचना अंततः अपनी स्थितियों से मुक्त हो जाती है- कई बार अपने रचनाकार से भी- वह नए अर्थ, नई संवेदना पैदा करती है और पाठकों के लिए, पीढ़ियों के लिए पुनर्नवा होती रहती है।
जो रचना ऐसी संवेदना न पैदा कर सके, वह चाहे जितने शुद्ध मनोभाव से, चाहे जैसी भी रचनात्मक प्रेरणाओं से लिखी जाए, वह अच्छी कविता नहीं हो सकती। दूसरी ओर, चाहे जैसे व्यावसायिक तकाज़ों और सिचुएशन के दबावों में लिखी जाए, कोई रचना अगर हमारे भीतर कोई गूंज-अनुगूंज पैदा करती है, कोई सूक्ष्म संवेदना जगा पाती है तो उसमें निहित कविता को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। कह सकते हैं कि फिल्मी गीतों को कविता न मानने के अपने पूर्वग्रह की वजह से हमने शैलेंद्र, साहिर, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी और गुलज़ार जैसे गीतकारों का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया और एक लिहाज से उनका और अपना- दोनों का नुकसान किया।
इस लिहाज से देखें तो गुलज़ार के गीतों पर केंद्रित विनोद खेतान की किताब ‘उम्र से लंबी सड़कों पर’ कम से कम एक कवि के मामले में इस नुकसान की काफी कुछ भरपाई करती है। विनोद खेतान ने बड़ी सहजता से इन गीतों में निहित काव्य तत्व की पड़ताल की है और बिल्कुल कविता की तरह उनका मूल्यांकन किया है। अच्छी बात यह है कि इस मूल्यांकन में उन्होंने बहुत छिद्रान्वेषी आलोचक नज़रिया अपनाने की जगह एक रसाग्रही प्रशंसक की दृष्टि अपनाई है और इसलिए इन गीतों की संवेदना को समझना, उन्हें आत्मसात करना और उनमें छुपे नए अर्थों तक पहुंचना उनके लिए सुकर साबित हुआ है। किसी भी बड़े कवि को एक ऐसा आलोचक चाहिए होता है जो उसकी कविता में उतर कर उसका एक सारगर्भित और संशयरहित पाठ तैयार करे और उसके प्रति पाठक को संवेदनशील बनाए। तुलसी के संदर्भ में यह काम रामचंद्र शुक्ल ने किया तो कबीर के संदर्भ में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने। रामविलास शर्मा ने निराला के लिए यह काम किया।
निस्संदेह गुलज़ार तुलसी, कबीर या निराला नहीं हैं और न ही विनोद खेतान रामचंद्र शुक्ल, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी या रामविलास शर्मा हैं। लेकिन कवि और आलोचक के बीच का जो सख्य भाव इस तरह के पाठ को संभव करता है, वह गुलज़ार और विनोद खेतान के रिश्ते में दिखता है।
डॉ विनोद खेतान गुलजार के गीतों के बहुत गहन अध्येता और संकलनकर्ता साबित होते हैं। इस किताब में गुलज़ार के क़रीब 200 गीत संकलित हैं। हर गीत के साथ उसकी फिल्म, फिल्म के साल, गायक और संगीतकार तक के नाम दिए गए हैं। लेकिन यह किताब गुलज़ार के गीतों का सिर्फ संकलन या संपादन नहीं है, यह इन गीतों को जोड़ती हुई एक स्वतंत्र किताब भी है। लेखक ने बड़े जतन से इन गीतों को अलग-अलग खानों में बांटा है और हर खाने को गुलज़ार की फिल्मों की ही तरह एक शब्द का नाम दिया है। बेहद, जय हो, दिल, चांद, ख्वाब, रिश्ते, आंखें, यादें अदा, लिबास, पल, सफ़र, थपकी जैसे अध्यायों के बंटी यह किताब गुलज़ार के गीतों के अलग-अलग रंग पहचानने का भरपूर मौका देती है। हर अध्याय के पहले लेखक की एक लंबी टिप्पणी है जो इन रंगों की चमक और गहराई को बड़े करीने से हमारे सामने रखती है। विनोद खेतान ने पूरे मनोयोग से, एक कविता मर्मज्ञ की तरह, इन गीतों के बारे में लिखा है और अक्सर इन्हें पढ़ते हुए यह खयाल आता है कि वाकई गुलज़ार की कितनी रंगतें खोज लाने में वे कामयाब रहे हैं।
मिसाल के तौर पर, गुलज़ार के गीतों में आते-जाते, रंग बदलते चांद को लेकर वे लिखते हैं कि इन गीतों में ‘चांद कभी संज्ञा है, कभी कारक, कहीं उपमा तो कहीं उपमान, कहीं अलंकार तो कहीं विशेषण, कहीं व्यंजना है, कहीं लक्षणा और अगर चांद सिर्फ चांद है तो वह चांद तो है ही न! भाषा विज्ञान की हदों को तोड़ता है यह चांद और किसी जादू की पुड़िया की तरह उसमें से कुछ भी निकल सकता है- कोई भी रूप, कोई भी अर्थ।‘
और वाकई, गुलज़ार ने चांद को इतने लिबास पहनाएं हैं, इतनी भंगिमाओं और भूमिकाओं में पेश किया है, इतनी धज और इतने अर्थ दिए हैं कि चांद भी मालामाल हो गया है और गुलज़ार की कविताओं का आसमान भी जगमगा उठा है। दरअसल पूरी किताब पढ़ते हुए हम पाते हैं कि गुलज़ार की कविता मूलतः रूपकों से बनी और रूपकों में बसी कविता है। इन गीतों में रिश्तों की उलझनें हैं, ख्वाबों की चमक है, मोहब्बत की मुलायमियत है, कहीं ज़माने की अलमस्ती भी है और लीक तोड़कर आगे जाने का बीहड़ साहस भी। सच तो यह है कि हिंदी फिल्मों की वाचाल दुनिया में खामोशी का मर्म समझने वाले, रोशनी की चमक-दमक के बीच छायाओं का खेल पहचानने वाले और कम बोलकर ज़्यादा कहने का सलीका जानने वाले जो गिने-चुने फनकार हैं, उनके बीच गुलज़ार का अलग मुकाम है। हिंदी फिल्मों की दुनिया अक्सर बड़े सतही ढंग से हुस्न और इश्क की कहानियां कहा करती है, लेकिन नूर की बूंद की तरह सदियों से सभ्यताओं को रोशन करने वाली मोहब्बत की शमा जब गुलज़ार थामते हैं तो परवानों को जलाने का खेल पीछे छूट जाता है और लोगों को समंदर में परछाइयां बनाती, पानियों के छींटे उड़ाती और लहरों पर आती-जाती वह लड़की दिखाई पडती है जो बहुत हसीन नहीं है, लेकिन अपनी मासूम अदाओं में बेहद दिलकश है। गुलज़ार आए तो अपने साथ नई कला लाए और रिश्तों की नई गहराई भी। उनके गानों में चांद तरह-तरह की पोशाकें पहनकर आता है, नैना सपने बंजर कर देते हैं और बताते हैं कि जितना देखोगे उतना दुख पाओगे।
खास बात यह है कि गुलज़ार ने यह कविता फिल्मी माहौल की अलग-अलग चुनौतियों से जूझते हुए, उनका जवाब खोजते हुए अर्जित की है। शायद इसलिए कि वे लीक पर नहीं चले, उन्होंने अपनी अलग लीक बनाई। गोरे रंग पर गुमान करने वाली फिल्मी दुनिया में अपना पहला गीत लाए तो इस अर्ज़ के साथ कि ‘मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे।‘ जब फिल्मी दुनिया ने महीन और मुलायम किस्म की शायरी के लिए उनका लोहा मान लिया तो अचानक ‘सत्या’ और ‘ओंकारा’ जैसी फिल्मों के रूखे और जटिल यथार्थ के बीच एक अलग से मिज़ाज की कविता रच दी। ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है, भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू’ में जितना टपोरीपन है, उससे कहीं ज़्यादा मानीखेज़ खिलंदड़ापन है। इसी तरह ‘ओंकारा’ के‘बीड़ी जलाई ले’ में गुलज़ार बड़ी बारीकी के साथ वह नाजुक संतुलन बनाए रखते हैं जो न हो तो पूरा गीत अश्लील लगने लगे। बहुत खुरदरी और लगभग खुरचती-छीलती स्थितियों में भी एक सार्थक गीत रचना गुलज़ार के ही बूते की बात है। सबसे बड़ी बात है कि ये सारे खेल वे इतनी सादगी और सहजता से करते हैं कि अक्सर उनके गीत ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं। ‘हमको मन की शक्ति देना’ तो कई स्कूलों में प्रार्थना की तरह गाया जाने लगा है। एक कविता की इससे बड़ी सार्थकता क्या हो सकती है कि वह सच्चे अर्थों में प्रार्थना बन जाए?
दूसरी बात यह कि गुलज़ार के इन गीतों में भाषा का जो वैविध्य है, वह सिर्फ हिंदी का नहीं, एक तरह की अखिल भारतीयता का वैविध्य है। गुलज़ार हिंदी-उर्दू के प्रचलित शब्दों के अलावा पंजाबी, कश्मीरी और कई दूसरी भाषाओं से शब्द और शैली लेते हैं और उसे भाषा या कविता में इस ख़ूबसूरती से सजाते हैं कि लगता ही नहीं कि उसकी जगह कोई दूसरा शब्द भी आ सकता था।
विनोद खेतान की किताब निस्संदेह गुलज़ार के इन सभी रूपों से, उनकी कई ख़ासियतों से परिचित कराती है। उनकी बारीक नज़र गुलजार के उन गीतों पर भी है जिनके एक से ज़्यादा रूप प्रचलन में आ चुके हैं। ज़ाहिर है, गुलज़ार ने अलग-अलग समय में उन्हें बदला है, फिर से रचा है।
बहरहाल, गुलज़ार को कवि मान लें तो हिंदी की कविता-पंक्ति में उन्हें कहां रखेंगे? उन्हें पढ़ते हुए विनोद खेतान को टैगोर भी याद आते हैं, ग़ालिब भी, शैलेंद्र-साहिर भी याद आते हैं और विनोद कुमार शुक्ल भी। इसमें संदेह नहीं कि गुलज़ार के गीतों में कई परंपराओं का पानी बोलता है और कई समकालीन मुहावरे भी। यह चीज़ भी उनकी कविता को बड़ा बनाती है। लेकिन क्या हम गुलज़ार को- उनकी शिल्पबहुलता और उनके कथ्य विस्तार के बावजूद- अपने कई समकालीन कवियों के बीच रख सकते हैं? जब हम इन गीतों को शुद्ध कविता की तरह- उनकी धुनों से काट कर- पढ़ने की कोशिश करते हैं तो यह समझ में आता है कि गुलज़ार की जो गहराई कुछ गीतों में अपने जादुई चरम पर दिखती है, वही कई गीतों में सपाट पड़ जाती है। पूछा जा सकता है कि जब ये धुनों में रचे गीत हैं तो इन्हें धुनों से काट कर क्यों पढ़ा जाए? आखिर शिल्प का भी अपना एक स्वायत्त वजूद होता है जो रचना की संप्रेषणीयता के लिए काफी महत्त्वपूर्ण होता है।
बहरहाल, इन सबके बावजूद, गुलज़ार मूलतः और अंततः एक रोमानी शायर ही बने रहते हैं- निस्संदेह एक ऐसे रोमानी शायर जिन्हें पढ़ना हमेशा सुखद लगता है, जिन्हें पढ़ते हुए अपने रिश्तों की दुनिया कुछ और महीन और सुंदर ढंग से हमारे सामने खुलती है। ऐसा अच्छा रोमानी शायर होना भी आसान नहीं है। लेकिन शमशेर के यहां जो रोमानी कविताएं हैं, वे अचानक बहुत बड़ी और बहुपरतीय संप्रेषणों वाली जान पड़ती हैं, केदारनाथ सिंह अपनी ऐंद्रीयता से, विनोद कुमार शुक्ल अपनी सूक्ष्मता से और रघुवीर सहाय अपनी बौद्धिक चौकसी से गुलज़ार से आगे दिखाई पड़ते हैं। बीच में और भी कवियों के नाम लिए जा सकते हैं। सच तो यह है कि गुलजार का रूपकाश्रित काव्य संसार बहुत कुछ अमृता प्रीतम की याद दिलाता है जिनको बहुत बड़ी तादाद में पाठक मिले। सच यह भी है कि गुलज़ार या अमृता प्रीतम के पाठकों या प्रशंसकों की दुनिया हिंदी के श्रेष्ठ कवियों के प्रशंसक-समाज से कई गुना बड़ी है- शायद दोनों की तुलना भी बेमानी है- लेकिन कवि होने की कामना रखने वाले गुलज़ार को रचना के स्तर पर इस तुलना का सामना करना पड़ेगा।
निस्संदेह यहां कुछ उर्दू कवियों से उनकी तुलना की जा सकती है। फ़ैज़ अपनी पृष्ठभूमि और अपने वैचारिक रुझानों के साथ मेल खाती अपनी रोमानी शायरी के साथ बहुत पढ़े और गाए गए। लेकिन फ़ैज़ में न वह गहराई दिखती है न वह विस्तार, जो गुलज़ार की कविता संभव करती है। बहुत दूर तक यही बात बशीर बद्र और फ़राज़ अहमद के लिए भी कही जा सकती है जिनकी बड़ी कोमल अभिव्यक्ति अंततः गुलज़ार के सामने बहुत इकहरी जान पड़ती हैं। जावेद अख़्तर तो इस कतार में आते तक नहीं। कुछ हद तक निदा फ़ाज़ली ऐसे शायर दिखते हैं जिन्होंने ज़िंदगी और ज़माने को लेकर कुछ मानीखेज़ और गंभीर बातें कहने की कोशिश की है और जिन्हें ख़ूब पढ़ा गया है। सच है कि गुलज़ार अपने दौर में काफी बडे दिखाई पड़ते हैं- लेकिन कहीं न कहीं यह बात अनदेखी नहीं रह जाती कि जिस फिल्मी दुनिया ने गुलज़ार को तरह-तरह की सिचुएशन दी और सबके हिसाब से लिखने की चुनौती भी, जिसने उन्हें ऐसी शोहरत दी कि वे जो कुछ भी लिखें, वह हाथोंहाथ लिया जाए, उसी ने उनकी कलम की वह परवाज़ छीन ली जो किसी शून्य में भटकते कवि को, किसी अतृप्त आत्मा को, किसी खोज में लगे संत, फ़कीर या शायर को रचना के ऐसे नए आसमान देती है जिसके आईने में ज़माना अपने-आप को नए सिरे से पहचानता है और फिर उस रंग में ढल जाता है। गुलज़ार ने जो भी मूल्यवान लिखा है, अंततः वह बाज़ार की ही थाती है और इसी बाज़ार में उनकी जय हो गाई जा रही है।
‘उम्र से लंबी सड़कों पर’, का असल मोल यही है कि वह गुलज़ार को इस बाज़ार की गिरफ़्त से बाहर लाती है और पाठकों को याद दिलाती है कि इस फिल्मी शायर को कहीं ज़्यादा संजीदगी और सम्मान के साथ लेने और पढ़ने की ज़रूरत है। विनोद खेतान ही खुशकिस्मत नहीं हैं कि उन्हें गुलज़ार जैसे शायर मिले, गुलज़ार भी खुशक़िस्मत हैं कि उन्हें विनोद खेतान जैसे मुरीद मिले जिन्होंने- फिल्मी गीतों को लेकर बौद्धिक तबके के एक बेमानी पूर्वग्रह को तोड़ते हुए- उनके गीतों को साहित्य की तरह पढ़ने की जायज़ कोशिश की और हिंदी के संसार के सामने सुखन की एक मुकम्मिल दुनिया गुलज़ार कर दी।
उम्र से लंबी सड़कों पर: गुलज़ार; विनोद खेतान; वाणी प्रकाशन, 595 रुपये, पेपरबैक- 250 रुपए
KHUSHAMDID… LAZAWAB- BAHUMULAY AALEKH
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THANKS
KHUSHAMDID… LAZAWAB- BAHUMULAY AALEKH
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''फ़ैज़ अपनी पृष्ठभूमि और अपने वैचारिक रुझानों के साथ मेल खाती अपनी रोमानी शायरी के साथ बहुत पढ़े और गाए गए। लेकिन फ़ैज़ में न वह गहराई दिखती है न वह विस्तार, जो गुलज़ार की कविता संभव करती है। ''
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बेहद उम्दा आलेख – बस इतनी कसर लगी कि हिंदी के मूर्धन्य कवियों से जल्दबाजी में तुलना कर के निकल गए; मेरी राय में वो अपने आप में एक पूरे आलेख का विषय है!
उम्दा लेख …..हम भी खुशकिस्मत है जो कि गुलजार जी को सुन और पढ़ रहे हैं…….
उम्दा लेख …..हम भी खुशकिस्मत है जो कि गुलजार जी को सुन और पढ़ रहे हैं…….